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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व केचिद्रणरसासक्तमनसोऽपि पुरः स्थितम् । कान्तासंगरसं स्वैरं भेजुः समरसा भटाः ॥२१३॥ प्रहारकर्कशो दष्टदशनच्छदनिष्ठुरः । रतारम्भो रणारम्भनिर्विशेषो न्यषेवि तैः ॥२१४॥ रतानुवर्तनै ढपरिरम्भर्मुखार्पणैः । मनांसि कामिनां जहः कामिन्यस्ताः स्मरातुराः ॥२१५॥
गर्द्धवीक्षितैः सान्त समन्मनजल्पितः । अकाण्डरुषितैश्चण्डैर्विवृतैरसमभ्रुभिः ॥२१६॥ तासामकृतकस्नेहगर्भः कृतककैतवैः । रसिकोऽभूद रतारम्भः संभोगान्तेषु कामिनाम् ॥२१७॥ तेषां निधुवनारम्भमतिभू भिगतं तदा । संद्रष्टुमसहन्तीव पर्यवर्तत सा निशा ॥२१८॥ अलं बत चिरं रत्वा दम्पती ताम्यथो युवाम् । लम्बितेन्दुमुखी तस्थौ इतीवापरदिग्वधूः ॥२१॥ विघटय्य रथाङ्गानां मिथुनानि मिथोंऽशुमान् । तापेन तत्कृतेनेव परितोऽभ्युदियाय सः ॥२२०॥ तावदासीद् दिनारम्भो गतं नैशं तमो लयम् । सहस्रांशुर्दिशं प्राची परिरेभे करोस्करैः ॥२२१॥ किरणस्तरुणैरेव तमः शार्वरमुद्धतम् । तरणेः करणीयं तु दिनश्रीपरिरम्भणम् ॥२२२॥
कोककान्तानुरागेण समं पद्माकरे श्रियम् । पुष्णन्नुप्णांशुरुद्यच्छन्न मुष्णात्कौमुदीं श्रियम् ॥२२३॥ सन्मुख हुए अन्य योद्धा लोगोंको सबेरा होते हुए भी वह रात जान नहीं पड़ी थी। भावार्थ - कथाएँ कहते-कहते रात्रि समाप्त हो गयी, सबेरा हो गया फिर भी उन्हें मालूम नहीं हुआ ॥२१२॥ युद्ध और संभोगमें एक-सा आनन्द माननेवाले कितने ही योद्धाओं का चित्त यद्यपि युद्ध-- के रसमें आसक्त हो रहा था तथापि उन्होंने सामने प्राप्त हुए स्त्रीसंभोगके रसका भी इच्छानुसार उपभोग किया था ॥२१३।। उन योद्धाओंने रणके प्रारम्भके समान ही संभोगका प्रारम्भ किया था, क्योंकि जिस प्रकार रणका प्रारम्भ परस्परके प्रहारों ( चोटों ) से कठोर होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी परस्परके प्रहारों अर्थात् कचग्रह, नखक्षत आदिसे कठोर था, और जिस प्रकार रणका प्रारम्भ होंठ चबाये जानेसे निर्दय होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी होंठोंके चुम्बन आदिसे निर्दय था ॥२१४|| कामसे पीड़ित हई कितनी ही स्त्रियाँ पतियोंका गाढ़ आलिंगन कर, चुम्बनके लिए उन्हें अपना मुख देकर और उनके साथ संभोगकर उनका मन हरण कर रही थीं ॥२१५।। आधी नजरसे देखना, भीतर-ही-भीतर हँसते हुए अव्यक्त शब्द कहना, असमयमें रूस जाना, बड़ी तेजीके साथ करवट बदलना, भौंहोंको आड़ी तिरछी चलाना और स्वाभाविक स्नेहसे भरा हुआ झूठा छल-कपट दिखाना आदि स्त्रियोंके अनेक व्यापारोंसे संभोगका एक दौर समाप्त हो जानेपर भी कामी पुरुषोंका पुनः संभोग प्रारम्भ हो रहा था और बड़ा ही रसीला था ॥२१६-२१७॥ उस समय वह रात्रि पोदनपूरके स्त्री-पुरुषोंके उस बढ़े हए संभोगको देख नहीं सकी थी इसलिए ही मानो उलट पड़ी थी अर्थात् समाप्त हो चुकी थी - प्रातःकालके रूपमें बदल गयी थी ॥२१८॥ जिसका चन्द्रमारूपी मुख नीचेकी ओर लटक रहा है ऐसी पश्चिम दिशारूपी स्त्री मानो यही कहती हुई खड़ी थी कि हे स्त्री पुरुषो, रहने दो, बहुत देर तक क्रीड़ा कर चुके, नहीं तो तुम दोनों ही दुःख पाओगे ॥२१९॥ सूर्यने सायंकालके समय चकवा-चकवियोंको परस्पर अलग-अलग किया था इसी सन्तापसे व्याप्त हुआ मानो वह फिरसे उदय होने लगा ॥२२०॥ इतनेमें ही दिनका प्रारम्भ हआ. रात्रिका अन्धकार विलीन हो गया और सूर्यने अपनी किरणोंके समहसे पूर्वदिशाका आलिंगन किया ॥२२१॥ रात्रिका अन्धकार तो सूर्यको लाल किरणोंसे ही नष्ट हो गया था अब तो सूर्यको केवल दिनरूपी लक्ष्मीका आलिंगन करना बाकी रह गया था ॥२२२॥ सूर्य चकवियोंके अनुरागके साथ-ही-साथ कमलोंकी शोभा बढ़ा रहा था और उदय १ गाढं परि ल० । २ अव्यक्तभाषणः। ३ विषमभ्रुभिः । ४ प्रलयं गता। ५ ताम्यता ल०। ६ विघटनकृतेन । ७ व्याप्तः । ८ आलिङ्गनं चकार । ९ आलिङ्गनम् । १०-रुद्गच्छन् ल०, द०।
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