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एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व
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श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥२२॥ पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्स्याद् वधनिषेधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेय धूर्तप्रणेतृकम् ॥२३॥ सावद्यविरतिवृत्तमार्यषट्कर्मलक्षणम् । चातुराश्रम्यवृत्तं तु परोक्तमसदासा ॥२४॥ क्रियागर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः परोदिताः । आधानादिश्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया मताः॥२५॥ मन्त्रास्त एव धाः स्युर्य क्रियासु नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥२६॥ विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवताः शान्तिहेतवः । ऋरास्तु देवता हेया यासां स्याद् वृत्तिरामिषैः ॥२७॥ निर्वाणसाधनं यत् स्यात्तल्लिङ्गं जिनदेशितम् । एणाजिनादिचिहूं तु कुलिङ्गं तद्धि वैकृतम् ॥२८॥ स्यान्निरामिषमोजिस्वं शुद्धिराहारगोचरा । सर्वकषास्तु ते ज्ञेया ये स्युरामिषभोजिनः ॥२६॥ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसङ्गा दयालवः । रताः पशुवधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः ॥३०॥ कामशुद्धिर्मता तेषां विकामा ये जितेन्द्रियाः । संतुष्टाश्च स्वदारेषु शेषाः सर्वे विडम्बकाः ॥३१॥ इति शुद्धं मतं यस्य विचारपरिनिष्टितम् । स एवाप्तस्तदुन्नीतो धर्मः श्रेयो हितार्थिनाम् ॥३२॥
सिवाय सब धर्माभास तथा मार्गाभास हैं ।।२०-२१॥ जिसके बारह अंग हैं, जो निर्दोष है और जिसमें श्रेष्ठ आचरणोंका विधान है ऐसा शास्त्र हो वेद कहलाता है, जो हिंसाका उपदेश देनेवाला वाक्य है वह वेद नहीं है उसे तो यमराजका वाक्य ही समझना चाहिए ॥२२॥ पुराण और धर्मशास्त्र भी वही हो सकता है जो हिंसाका निषेध करनेवाला है। इसके विपरीत जो पुराण अथवा धर्मशास्त्र हिंसाका उपदेश देते हैं उन्हें धूर्तीका बनाया हुआ समझना चाहिए ।।२३।। पापारम्भके कार्योंसे विरक्त होना चारित्र कहलाता है। वह चारित्र आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कर्मरूप है। इसके सिवाय अन्य लोगोंने जो ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमोंका चारित्र निरूपण किया है वह वास्तवमें बुरा है ॥२४॥ कियाएं जो गर्भाधानसे लेकर निर्वाणपर्यन्त पहले कही जा चुकी हैं वे ही समझनी चाहिए, इनके सिवाय गर्भसे मरणपर्यन्त जो कियाएं अन्य लोगोंने कही हैं वे ठोक नहीं मानी जा सकतीं ॥२५॥ जो गर्भाधानादि कियाओंमें उपयुक्त होते हैं वे ही मन्त्र धार्मिक मन्त्र कहलाते हैं किन्तु जो प्राणियोंकी हिंसा करने में प्रयुक्त होते हैं उन्हें यहाँ दुर्मन्त्र अर्थात् खोटे मन्त्र समझना चाहिए ॥२६॥ शान्तिको करनेवाले तीर्थकर आदि ही देवता हैं। इनके सिवाय जिनकी मांससे वृत्ति है वे दुष्ट देवता छोड़ने योग्य हैं ॥२७।। जो साक्षात् मोक्षका कारण है ऐसा जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ निर्ग्रन्थपना ही सच्चा लिङ्ग है । इसके सिवाय मृगचर्म आदिको चिह्न बनाना यह कुलिङ्गियोंका बनाया हुआ कुलिङ्ग है ॥२८॥ मांसरहित भोजन करना आहार-विषयक शुद्धि कहलाती है । जो मांसभोजी हैं उन्हें सर्वघाती समझना चाहिए ॥२९॥ अहिंसा शुद्धि उनके होती है जो परिग्रहरहित हैं और दयालु हैं, परन्तु जो पशुओंकी हिंसा करनेमें तत्पर रहते हैं वे दुष्ट अभिप्रायवाले शुद्ध नहीं हैं ॥३०॥ जो कामरहित जितेन्द्रिय मुनि हैं उन्हींके कामशुद्धि मानी जाती है अथवा जो गृहस्थ अपनी स्त्रियोंमें सन्तोष रखते हैं उनके भी कामशुद्धि मानी जाती है परन्तु इनके सिवाय जो अन्य लोग हैं वे केवल विडम्बना करनेवाले हैं ॥३१॥ इस प्रकार विचार करनेपर जिसका मत शद्ध हो वही आप्त कहला सकता है और उसीके द्वारा कहा हुआ धर्म हित चाहनेवाले लोगोंको कल्याणकारी हो सकता है ॥३२॥ वह भव्य उन उत्तम उपदेशकसे इस प्रकारका उपदेश
१ यमस्य वचनम् । २ धर्मशास्त्रम् । ३ इज्यावार्तादत्तिस्वाध्यायसंयमतपोरूप। ४ ब्रह्मचर्यादिचतराशने भव। ५ निश्चयेन । ६ पुरोदिताः द०, ल०, अ०, ५०, इ० । ७ कृष्णाजिन । ८ तद्विधः क्रतम प० ल द०। ९ सकलविनाशका इत्यर्थः। १० तत्प्रोक्तः ।