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## The Twenty-Eighth Chapter The belly of the ocean, churning like boiling metal in a vajra cauldron, is a spectacle of bubbling water and surging air, rising from the depths through countless subterranean holes. The ocean's interior, though constantly plundered of its many jewels by men, remains perpetually hot, for the loss of wealth kindles a fierce inner fire even in the hearts of the greatest. (201) O Auspicious One, just as you are filled with wonders, so too is this ocean. Just as you possess precious jewels, so too does this ocean. Just as all beings in the world depend on you for their sustenance, so too do they depend on this ocean. Just as you are of a profound nature, so too is this ocean. Just as you possess immense power, so too does this ocean. Just as you are free from laziness, so too is this ocean. This ocean truly emulates you. The only difference is that it is filled with the abundance of water, while you are filled with the abundance of foolish (jaḍ) humans. (202) Thus, when the charioteer described the ocean's magnificent splendor, Emperor Bharat was filled with great joy and soon desired to return to his camp. (203)
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________________ अष्टाविंशतितम पर्व स्रग्धरा वज्रद्रोण्याममुष्य क्वथदिव जारं व्यक्तमुबुबुदाम्बुस्फूर्जत्पातालरन्ध्रोच्छवसदनिलबलाद्विष्वगावर्तमानम् । प्रस्तीर्णानेकरत्नान्यपहरति जनेनूनमुत्तप्तमन्तः प्रायो रायां वियोगो जनयति महतोऽप्युग्रमन्तर्विदाहम् ।२०१॥ प्रहर्षिणी आयुष्मन्निति बहुविस्मयोऽयमब्धिः सदनः सकलजगजनोपजीव्यः । गम्भीरप्रकृतिरनल्पसत्त्वयोगः प्रायस्त्वामनहरते विना जडिम्ना ॥२०२॥ वसन्ततिलका इत्यं नियन्तरि परां श्रियमम्बुराशेरावर्गयत्यनुगतैर्वचनैर्विचित्रैः। प्राप प्रमोदमधिकं नचिराच्च सम्राट सेनानिवेशममियातुमना बभूव ॥२०३॥ बड़वानलोंके द्वारा बार-बार ह्रास होनेपर भी जिनका कभी क्षय नहीं हो पाता है, जो लोगोंको आनन्द देनेवाले हैं, प्रमाण-रहित हैं, अनेक प्रकारके हैं, सर्पोके फणाओंपर आरूढ़ हैं, अत्यन्त पवित्र हैं, और सन्तापको नष्ट करनेवाले हैं ऐसे रत्नों तथा जलके समूहोंकी अपेक्षा इस समुद्रका जबतक संसार है तबतक कभी भी नाश नहीं होता। भावार्थ-यद्यपि इस समुद्रके अनेक रत्न इसके विवरों-बिलोंमें घुसकर नष्ट हो जाते हैं और जलके समूह बड़वानलमें जलकर कम हो जाते हैं तथापि इसके रत्न और जलके समूह कभी भी विनाशको प्राप्त नहीं हो पाते क्योंकि जितने नष्ट होते हैं उससे कहीं अधिक उत्पन्न हो जाते हैं ॥२००॥ बहुत बड़े पातालरूपी छिद्रोंके द्वारा ऊपरकी ओर बढ़ते हुए वायुके जोरसे जो चारों ओर घूम रहा है और जिसमें जलके अनेक बबूले उठ रहे हैं ऐसा यह समुद्रका उदर अर्थात् मध्यभाग वज्रकी कड़ाही में खौलता हुआ-सा जान पड़ता है अथवा लोग इसके जहाँ-तहाँ फैले हुए अनेक रत्न ले जाते हैं इसलिए मानो यह भीतर ही भीतर सन्तप्त हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि धनका वियोग प्रायः करके बड़े-बड़े पुरुषोंके हृदयमें भी भयंकर दाह उत्पन्न कर देता है ॥२०१॥ हे आयुष्मन्, जिस प्रकार आप अनेक आश्चर्योसे भरे हुए हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनेक आश्चर्योंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपके पास अच्छे-अच्छे रत्न हैं उसी प्रकार इस समुद्रके पास भी अच्छे-अच्छे रत्न हैं, जिस प्रकार संसारके समस्त प्राणी आपके उपजीव्य हैं अर्थात् आपकी सहायतासे ही जीवित रहते हैं उसी प्रकार इस समुद्रके भी उपजीव्य हैं अर्थात् समुद्रमें उत्पन्न हुए रत्न मोती तथा जल आदिसे अपनी आजीविका करते हैं, जिस प्रकार आप गम्भीर प्रकृतिवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी गम्भीर (गहरी) प्रकृतिवाला है और जिस प्रकार आप अनल्पसत्त्व योग अर्थात् अनन्त शक्तिको धारण करनेवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनल्पसत्त्व योग अर्थात् बड़े-बड़े जलचर जीवोंसे सहित है अथवा जिस प्रकार आप अनालसत्व योग अर्थात् आलस्यके सम्बन्धसे रहित हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनालसत्व योग अर्थात् नाल (नरा) रहित जीवोंके सम्बन्धसे सहित हैं इस प्रकार यह समुद्र ठीक आपका अनुकरण कर रहा है । यदि अन्तर है तो केवल इतना ही है कि यह जलकी ऋद्धिसे सहित है और आप जल अर्थात् मूर्ख ( जड़ ) मनुष्योंको ऋद्धिसे सहित हैं ॥२०२।। इस प्रकार जब सारथिने समुद्रकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब सम्राट भरत बहुत ही अधिक आनन्दको प्राप्त हुए तथा शीत्र ही अपनी छावनीमें जानेके लिए उद्यत हुए ॥२०३।। १-वय॑मानम् द०, ५०, ल.। २ धनानाम् । ३ अनुकरोति । ४ जडत्वेन । ५ सारथी । ६ आशु .
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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