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The ocean water, churned by wild elephants, resembles a forest with wild elephants roaring loudly. It adorns the shore with the sound of drums and washes the shore clean with its surging waves. (195) The ocean water, filled with the bodies of fish, scattered with broken shells, emitting a harsh sound, and holding the underworld in its depths, appears terrifying. The water, touched by snakes, creates an illusion of waves, making it seem even more formidable. (196) Here, the wind, shaking the forest, brings cool drops of water and carries the fragrance of flowers from the trees. There, the fierce wind, roaring with the sound of waves, blows fiercely, shaking the bodies of large fish. (197) The shores of this ocean are adorned with beautiful waves, adorned with pearls, and overflowing with the wealth of flowers. Deities, accompanied by their beautiful consorts, enjoy the shade of the trees on the shore, longing for the beauty of other heavenly realms. (198) These aquatic creatures, like crocodiles, consider this ocean, filled with infinite wealth, as their father and, like sons, fight amongst themselves, clamoring for a larger share of the wealth, shouting in anger, as if to claim their inheritance. Alas, such wealth is a curse! (199) This ocean, with its endless wealth, is a testament to the fact that there is no escape from the cycle of birth and death, even for those who have attained liberation. (200)
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________________ आदिपुराणम् वन वनगरिदं जलनिधेः समास्फालितं वनं वनगजैरिव स्फुटविमुक्तसाराविणम् । मृदङ्गपरिवादनश्रियमुपादधदिक्तटे तनोति तटमुच्चलस्सपदि दत्तसंमार्जनम् ॥१९५॥ तरत्तिमिकलेवरं स्फुटितशुक्तिशल्का चितं स्फुरत्परुषनिःस्वनं विवृतरन्ध्रपातालकम् । भयानकमितो जलं जलनिधेर्ल सत्पन्नगप्रमुकतनु कृत्तिसंशयितवीचिमालाकुलम् ॥१९६॥ इतो धुतवनोऽनिलः शिशिरशीकरानाकिरमुपैति शनकैस्तद्रुमसुगन्धिपुष्पाहरः । इतश्च परुषोऽनिलः स्फुरति धूतकल्लोलसात् कृतस्वनभयानकस्तिमिकलेवरानाधुनन् ॥१९७॥ शार्दूलविक्रीडितम् अस्योपान्तभुवश्चकासति तरां वेलोच्चलन्मौक्तिकैराकीर्णाः कुसुमोपहारजनितां लक्ष्मी दधाना भृशम् । सेवन्ते सह सुन्दरीभिरमरा याः स्वर्गलोकान्तरं मन्वाना धृतसंमदास्तटवनच्छायातरून्संश्रिताः ॥१८॥ एते ते मकरादयो जलचरा मत्वेव कुक्षिम्भरि वारां राशिमनन्तरायमधिकं पुत्रा इवास्यौरसाः । भागस्य प्रतिलिप्पया नु जनकस्याक्रोशतोप्यग्रतो युध्यन्ते मिलिताः परस्परमहो बद्धधो धिग्धनम्। १९९। लोकानन्दिमिरप्रमा परिगतैरुच्चावचैर्भोगिना मारूडैरधिमस्तक शुचितमैः संतापविच्छेदिमिः। पातालैर्विवृताननैर्मुहरपि प्राप्तव्ययैरक्षयैरासंसारममुख्य नास्ति विगमो रनर्जलौघेरपि ॥२०॥ वाला यह दुष्ट मच्छ भी लड़नेकी इच्छासे उसे जमीनपर-से अपनी ओर खींच रहा है तथापि एक समान बल रखनेवाले इन दोनोंमें परस्पर किसीकी जीत नहीं हो रही है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें जो समान शक्तिवाले हैं उनमें परस्पर जय और पराजयका निर्णय नहीं होता है ।। ।।१९४॥ जंगली हाथियोंके द्वारा अतिशय ताड़न किया हुआ यह समुद्रका जल, जिसमें जंगली हाथी स्पष्ट रूपसे गर्जना कर रहे हैं ऐसे किसी वनके समान तथा भृदंग बजनेकी शोभाको धारण करता हुआ और दिशाओंमें उछलता हुआ किनारेको बहुत शीघ्र शुद्ध कर रहा है ॥१९५॥ जिसमें अनेक मछलियोंके शरीर तैर रहे हैं, जो खुली हुई सीपोंके टुकड़ोंसे व्याप्त है, जिसमें कठोर शब्द हो रहे हैं, जिसने अपने रन्ध्रोंमें पातालको भी धारण कर रखा है, और जो तैरते हुए साँपोंसे छूटी हुई काँचलियोंसे लोगोंको ऐसा सन्देह उत्पन्न करता है मानो लहरोंके समूहसे ही व्याप्त हो ऐसा यह समुद्रका जल इधर बहुत भयानक हो रहा है ।। १९६।। इधर, वनको हिलाता हुआ, शीतल जलकी बूंदोंको बरसाता हुआ और वृक्षोंके सुगन्धित फूलोंकी सुगन्धिका हरण करता हुआ वायु धीरे-धीरे किनारेकी ओर बह रहा है और इधर बड़ेबड़े मच्छोंके शरीरको कपाता हुआ तथा हिलती हुई लहरोंके शब्दोंसे भयंकर यह प्रचण्ड वायु बह रहा है ।। १९७ ।। जो बड़ी-बड़ी लहरोंसे उछलते हुए मोतियोंसें व्याप्त होकर फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई अतिशय शोभाको धारण करती हैं , किनारेके वनके छायादार वृक्षोंके नीचे बैठे हए देव लोग हर्षित होकर अपनी-अपनी देवांगनाओंके साथ जिनकी सेवा करते हैं और इसीलिए जो दूसरे स्वर्गलोककी शोभा बढ़ाती हैं ऐसी ये इस समुद्रके किनारेकी भूमियाँ अत्यन्त सुशोभित हो रही हैं ॥१९८॥ ये मगरमच्छ आदि जलचर जीव, जिसके पास अनन्त धन है ऐसे इस समुद्रको अपने उदरका पालन-पोषण करनेवाला पिता समझकर सगे पुत्रोंके समान उसका धन बाँटकर अपने भाग (हिस्से)को अधिक रूपसे लेनेकी इच्छासे, गर्जनाके शब्दोंके बहाने चिल्लाते हुए पिताके सामने ही इकट्ठे होकर क्रोधित होते हुए परस्परमें लड़ रहे हैं, हाय ! ऐसे धनको धिक्कार हो ॥१९९।। मुँह खोलकर पड़े हुए अनेक पातालों अर्थात् विवरों और १ जलम् । , २ शकल। ३ ललत्यत्रङ्ग-ल०, अ०, द०, इ०, ५०, स०, ब०,। चलत्सर्पम् । ४ निर्मोक । ५ पुष्पाण्याहतुं शील: । ६ तन्वाना प० । ७ स्वोदरपूरकम् । 'उभावात्मभरिः कुक्षिभरि। स्वोदरपूरके ।' इत्यभिधानात् । ८ उरसि भवाः । ९ भागं लब्धुमिच्छया । १० इव । ११ प्रमाणरहितैः । १२ नानाप्रकारः । १३ मस्तके। १४ वियोगः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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