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आदिपुराणम् भिवजेव करैः स्पृष्टा दिशस्तिमिरभेदिभिः । शनैदृश इवालोकमातेनुः शिशिरत्विषा ॥१८१॥ इति प्रदोषसमये जाते प्रस्पष्टतारके । सौधोत्संगभुवो भेजुः पुरन्ध्र यः सह कामिभिः ॥१८२॥ चन्दनद्रवसिक्ताङ्ग यः स्रग्विण्यः सावतंसिकाः । लसदाभरणा रेजुस्तन्व्यः कल्पलता इव ॥१८३॥ इन्सुपादैः समुत्कर्षमगान्मकरकेतनः । तदोदन्वानिवोढेलो मनोवृत्तिषु कामिनाम् ॥१८४॥ रमणा' रमणीयाश्च चन्द्रपादाः सचन्दनाः । मदांश्च मदनारम्भमातन्वन् रमणीजने ॥१८५॥ शशाङ्ककरजैत्रास्वैस्तर्जयन्निखिलं जगत् । नृपवल्लभिकावासान्मनोभूरभ्यषेणयन् ॥१८६॥ नास्वादि मदिरा स्वैरं नाज न करऽपिता। केवलं मदनावेशात्तरुण्यो भेजुरुकताम् ॥१८७॥ उत्संगसंगिनी भर्तुः काचिन्मदविधूर्णिता । कामिनी मोहनास्त्रेण बतानङ्गेन तर्जिता ॥१८८॥ सखीवचनमुल्लङ्घय भङ्क्त्वा मानं निरर्गला । प्रयान्ती रमणावासं काप्यनङ्गेन धीरिता ॥१८९॥ शंफलीवचनैर्दूना काचित् पर्यश्रुलोचना । चक्राढेव भृशं तेपे नायाति प्राणवल्लभे ॥ १९०॥
शून्यगानस्वनैः स्त्रीणामलिज्याकलझंकृतैः । पूर्वरंगमिवानङ्गो रचयामास कामिनाम् ॥११॥ भी कठिन है ॥१८०॥ जिस प्रकार वैद्यके द्वारा तिमिर रोगको नष्ट करनेवाले हाथोंसे स्पर्श की हुई आँखें धीरे-धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगतो हैं उसी प्रकार चन्द्रमाके द्वारा अन्धकारको नष्ट करनेवाली किरणोंसे स्पर्श की हुई दिशाएँ धीरे-धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगी थीं ॥१८१॥ इस प्रकार जिसमें तारागण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ऐसा सायंकालका समय होनेपर सब स्त्रियाँ अपने-अपने पतियोंके साथ महलोंकी छतोंपर जा पहुंचीं ॥१८२॥ जिनके समस्त शरीरपर घिसे हुए चन्दनका लेप लगा हुआ है, जो मालाएँ धारण किये हुई हैं, कानोंमें आभूषण पहने हैं और जिनके समस्त आभरण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी वे स्त्रियाँ कल्पलताओंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥१८३॥ उस समय चन्द्रमाकी किरणोंसे जिस प्रकार समुद्र लहराता हुआ वृद्धिको प्राप्त होने लगता है उसी प्रकार कामी मनुष्योंके मनमें काम उद्वेलित होता हुआ बढ़ रहा था ॥१८४|| सुन्दर पति, चन्द्रमाकी किरणें और चन्दन सहित मद ये सब मिलकर स्त्रियोंमें कामकी उत्पत्ति कर रहे थे ॥१८५॥ चन्द्रमाकी किरणेंरूपी विजयी शस्त्रोंके द्वारा समस्त जगत्को तिरस्कृत करता हुआ कामदेव राजाकी स्त्रियोंके निवासस्थानमें भी सेनासहित जा पहुँचा था ॥१८६॥ तरुण स्त्रियोंने न तो मदिराका स्वाद लिया, न इच्छानुसार उसे सूंघा और न हाथमें ही लिया, केवल कामदेवके आवेशसे ही उत्कण्ठाको प्राप्त हो गयीं, अर्थात् कामसे विह्वल हो उठीं ॥१८७॥ पतिकी गोदमें बैठी हुई और मदसे झूमती हुई कोई स्त्री कामदेवके द्वारा मोहन अस्त्रसे ताड़ित की गयी थी ॥१८८॥ कामदेवसे प्रेरित हुई कोई स्त्री सखीके वचन उल्लंघन कर तथा मान छोड़कर स्वतन्त्र हो अपने पतिके निवासस्थानको जा रही थी ॥१८९॥ कोई स्त्री पतिके न आनेपर वापस लौटी हुई दूतीके वचनोंसे दुःखी होकर आँखोंसे आँसू छोड़ रही थी और चकवीके समान अत्यन्त विह्वल हो रही थी - तड़प रही थी ॥१९०॥ शून्य हृदयसे गाये हुए स्त्रियोंके सुन्दर गीतोंसे तथा भ्रमरपंक्तिके मनोहर झंकारोंसे कामदेव कामी पुरुषोंके लिए पूर्वरंग अर्थात् नाटकके प्रारम्भमें होनेवाला एक अंग विशेष ही मानो बना रहा था। भावार्थ - उस समय स्त्रियाँ पतियोंकी प्राप्तिके लिए बेसुध होकर गा रही थीं और उड़ते हुए भ्रमरोंकी गुंजार फैल रही थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवरूपी नट कामक्रीड़ारूप नाटकके पहले होनेवाले संगीत विशेष ही दिखला रहा हो । नाटकके पहले जो मंगल-संगीत होता है उसे पूर्वरंग कहते हैं ॥१९१॥ १ मालभारिणः । २ प्रियतमाः । ३ मदाश्च ल०। ४ सेनया सहाभ्यगमयन् । ५ उत्कण्ठताम् । ६ प्रतिबन्धरहिता। ७ धैर्य नोता। ८ चित्तसंमोहनहेतुगीतविशेषः। ९ कलध्वनिभेदैः ।