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________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व 'गोत्रस्खलनसंवृद्ध मन्युमन्यामनन्यजः' । नोपैक्षिष्ट प्रियोत्संगमनयन्नवसंगताम् ॥१९२॥ नेन्दुपादेति लेभे नोशी रैन जलाईया । खण्डिता मानिनी काचिदन्तस्तापे बलीयसि ॥१९३॥ काचिदुत्तापिमिर्बाणैस्तापिताऽपि मनोभुवा । नितम्बिनी प्रतीकारं नैच्छद्धैर्यावलम्बिनी ॥१९४॥ अनुरक्ततया दूरं नीतया प्रणयोचिताम् । भूमि यूनाऽन्यया सोढः संदेशः परुषाक्षरः ॥१९५॥ आलि त्वं नालिक' ब्रूहि गतः किन्नु विलक्षताम् । प्रियानामा क्षरैः क्षीणैः मोहान्मय्यवतारितैः ॥ यथा तव हृतं चेतस्तया लज्जाऽप्यहारि किम् । येन निस्वप भूयोऽपि प्रणयोऽस्मामु तन्यते ॥१९७॥ सैवानुवर्तनीयो ते सुभगं मन्यमानिनी । अस्थाने योजिता प्रीतिर्जायतेऽनुशयाय ते ॥१९८॥ इति प्राणप्रियां कांचित् संदिशन्तीं सखीजने । युवा सादरमभ्येत्य नानुनिन्ये न मानिनीम् ॥१९९॥ चन्द्रपादास्तपन्तीव चन्दनं दहतीव माम् । संधुक्ष्यत इवाऽमीभिः कामाग्नियंजनानिलैः ॥२०॥ गोत्रस्खलन अर्थात् भूलसे किसी दूसरी स्त्रीका नाम ले देनेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा है ऐसी किसी अन्य नवीन ब्याही हुई स्त्रीको भी कामदेवने उपेक्षा नहीं की थी किन्तु उसे भी पतिके समीप पहुँचा दिया था। भावार्थ-प्रौढ़ा स्त्रियोंकी अपेक्षा नवोढ़ा स्त्रियों में अधिक मान और लज्जा रहा करती है परन्तु उस चन्द्रोदयके समय वे भी कामसे उन्मत्त हो सब मान और लज्जा भूलकर पतियों के पास जा पहुंची थीं ॥१९२।। जिस किसी स्त्रीका पति वचन देकर भी अन्य स्त्रीके पास चला गया था ऐसी अभिमानिनी खण्डिता स्त्रीके मनका सन्ताप इतना अधिक बढ़ गया था कि उसे न तो चन्द्रमाकी किरणोंसे सन्तोष मिलता था, न उशोर (खस) से और न पंखेसे ही ॥१९३॥ धीरज धारण करनेवाली कोई स्त्री कामदेवके द्वारा अत्यन्त पोड़ा देनेवाले बाणोंसे दुःखी होकर भी उसका प्रतीकार नहीं करना चाहती थी । भावार्थअपने धैर्यगुणसे कामपीड़ाको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९४॥ कोई तरुण पुरुष प्रेमसे भरी हुई अपनी अन्य स्त्रीको प्रेम करने योग्य किसी दूर स्थानमें ले गया था, वहाँ वह उसके कठोर अक्षरोंसे भरे हुए सन्देशको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९५।। कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि हे सखि, सच कह कि क्या वह भ्रमसे मेरे विषयमें कहे हुए और अत्यन्त क्षीण अपनी प्रियाके नामके अक्षरोंसे कुछ चकित हुआ था ? ॥१९६।। कोई स्त्री अपने अपराधी पतिसे कह रही थी कि हे निर्लज्ज, जिसने तेरा चित्त हरण किया है क्या उसने तेरी लज्जा भी छीन ली है ? क्योंकि तू फिर भी मुझपर प्रेम करना चाहता है ॥१९७॥ कोई स्त्री पतिको ताना दे रही थी कि आप अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझते हैं इसलिए जाइए उसी मान करनेवाली स्त्रीकी सेवा कीजिए क्योंकि अयोग्य स्थानमें की गयी प्रीति आपके सन्तापके लिए ही होगी । भावार्थ-मुझसे प्रेम करनेपर आपको सन्ताप होगा इसलिए अपनी उसी प्रेयसीके पास जाइए ॥१९८॥ इस प्रकार सखियोंके लिए सन्देश देती हुई किसी अहंकार करनेवाली प्यारी स्त्रीको उसका तरुण पति आकर बड़े आदरके साथ नहीं मना रहा था क्या ? अर्थात् अवश्य ही मना रहा था ॥१९९॥ कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि ये चन्द्रमाकी किरणें मुझे सन्ताप दे रही हैं, यह चन्दन जला-सा रहा है और यह पंखोंकी हवा मेरी कामाग्निको बढ़ा १ नामस्खलन । २.प्रवृद्धक्रोधाम् । ३ कामः । ४ नववधूमित्यर्थः । ५ लामज्जकैः । 'मूलेऽस्योशीरमस्त्रियाम् । "अभयं नलदं सेव्यममृणालं जलाशयम् । लामज्जकं लघुलयमवदाहेष्टकापथे।" इत्यभिधानात् । ६ व्यजनेन । ७ वियुक्ता। ८ संधानम् ( शय्यागृहम् ) । ९ वाचिकम् । १० भो सखि । ११ अनृतम् । १२ विस्मयान्विताम् । १३ दिव्यैः । १४ निर्लज्ज । १५ अहं सुभगेति मन्यमाना रामा। १६ पश्चात्तापाय । १७ तव । १८ संजल्पन्तीम । वचनं प्रेषयन्तीम् । १९ न्येऽथ ल०, द.। अनुनय नाकरोदिति न । ( अपि तु करोत्येव)।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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