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________________ ४३२ आदिपुराणम् अनालपम्नीमालाप्य लोकमानो विलोकिनीम् । अस्पृशन्ती समास्पृश्य व्यधाद बीडाविलोपनम् ॥७८॥ कृतो भवान्तराबद्ध तत्स्नेह वलशालिना । सुलोचनायाः कौरव्यः कामं कामंन कामुकः ॥७१॥ सुलोचनामनोवृत्ती रागामृतकरोधुरा । क्रमाच्च चाल वेलेव कामनाममहाम्बुधेः ॥८॥ मुकुले वा मुखे चक्रे विकासोऽस्याः क्रमापदम् । आक्रान्तशुर्पकारातिग्रहानक्षरसूचनः ॥८॥ सखीमुखानि संवीक्ष्य जापित्वा दिशामसौ । स्वैरं हसितुमाख्ध गृहीतमदनग्रहा ॥२॥ 1°सितासितासितालोलकटाक्षेक्षणतोमरैः । जयं तदा जितानङ्गं कृत्वानङ्गप्रतिष्कशम् ॥८॥ ससाध्वसा सलजा सा विव्याध विविधैर्मनाक । अनालोकनवेलायामति सन्दित्सयेव तम् ॥८४॥ न भुजङ्गेन संदष्टा नापि संसेवितासवा । न श्रमण समाक्रान्ता तथापि 'स्विद्यति स्म सा ॥८५॥ स्खलन्ति स्म 'कलालापाश्चकम्पे हृदयं भृशम् । चलान्यालोकितान्यासन्नवशे वात्मनश्च"सा ॥८६॥ प्रक्षालितेव लजाऽगात् सुदत्याः स्वेदवारिभिः । वागिन्धनैर्व्यदीपिष्ट विचित्रश्चित्तजोऽनलः ॥१०॥ तावत्नपा भयं तावत्तावत्कृत्यविचारणा । ताव देव धृतिर्यावज्जम्भते न स्मरन्धरः ॥८॥ उससे वार्तालाप करता था, अपनी ओर देखनेपर उसे देखता था, और स्पर्श न करनेपर उसका स्पर्श करता था। इस प्रकार यह सब करते हुए जयकुमारने सुलोचनाकी लज्जा दूर की थी ॥७७-७८।। पूर्व पर्यायमें बंधे हुए स्नेहरूपी बलसे शोभमान कामदेवने इच्छानुसार जयकुमारको सुलोचनाका सेवक बना लिया था ॥७६।। रागरूपी चन्द्रमाके सम्बन्धसे बढ़ी हुई, कामदेव नामक महासागरकी वेलाके समान सुलोचनाके मनकी वृत्ति क्रम-क्रमसे चंचल हो रही थी ।।८०॥ सब शरीरमें घुसे हुए कामदेवरूपी पिशाचके द्वारा बिना कुछ बोले ही जिसकी सूचना हो रही है ऐसे विकासने सुलोचनाके मुखरूपी मुकुलपर धीरे-धीरे अपना स्थान जमा लिया था ॥१॥ कामरूपी पिशाचको ग्रहण करनेवाली सुलोचना सखियोंके मुख देखकर दिशाओंसे बातचीत कर अर्थात् निरर्थक वचन बोलकर इच्छानुसार हँसने लगी ।।८२।। उस समय भय और लज्जा सहित सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले जयकुमारको न देखने योग्य समयमें मानो ठगनेको इच्छासे ही कामदेवको अपना सहायक बनाकर सफेद काले इन दोनों रंगोंसे मिले हुए चंचल कटाक्षोंसे भरी हुई दृष्टिरूपी अनेक तोमर नामके हथियारोंसे धीरे-धीरे मार रही थी ॥३॥ जव जयकुमार उसकी ओर नहीं देखता था उस समय भी वह सफेद, काले और चंचल कटाक्षोंसे भरी दृष्टिसे उसे देखती रहती थी और उससे ऐसा मालूम होता था मानो यह उसे ठगना ही चाहती है ॥८४॥ उस समय उसे न तो सर्पने काटा था, न उसने मद्य ही पिया था, और न परिश्रमसे ही वह आक्रान्त थी तथापि वह पसीनेसे तर हो रही थी ॥८५।। उसके मधुर भाषण स्खलित हो रहे थे, हृदय अत्यन्त कँप रहा था, दृष्टि चंचल हो रही थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने वशमें ही न हो ॥८६॥ सुन्दर दाँतोंवाली सुलोचनाकी लज्जा इस प्रकार नष्ट हो गयी थी मानो उसके पसीनारूपी जलसे धुल ही गयी हो और कामदेवरूपी विचित्र अग्नि वचनरूपी ईधनसे ही मानो खूब प्रज्वलित हो रही थी ।।८७।। जबतक कामदेवरूपी ज्वर नहीं बढ़ता है तबतक ही लज्जा रहती है, तबतक ही भय रहता है, तबतक ही करने योग्य कार्यका विचार रहता है और तबतक ही धैर्य रहता है ॥८८॥ १ सामर्थ्य । २ अत्यर्थम् । ३ इच्छुः । ४ अनुरागचन्द्रेणोत्कटा । ५ स्थानम् । ६ प्राप्तकामग्रहमक्षरेण विना सूचकः । ७ सहचरी। ८ निरर्थकादिदोषदुष्टमुक्त्वा । ९ उपक्रान्तवती । १० श्वेतकृष्णसंबद्ध । ११ सहायम् । १२ वञ्चनेच्छया । १३ स्वेदवती बभूव । १४ मनोज्ञवचनानि । १५ स्वस्य पराधोनेव अथवा आत्मनः वशे अधीने न वा नासीदिति । १६ चित्तजानल: अ०, ५०, इ०, स०, ल० ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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