SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
466 Adipurana, like the moon with its rays, was there with Prabhavati. The association of the virtuous is by chance. ||222|| Seeing the virtuous Aryika, Priyadatta bowed and asked, "Where is the Amitamati, the head of the Sangha?" Prabhavati replied, "She has gone to heaven." ||223|| Hearing this, Prabhavati was filled with sorrow and said, "She was like our eyes." Priyadatta asked, "How did you become so attached to her?" Prabhavati replied, "Do you not remember the pair of pigeons in your house? I was the pigeon named Ratishena." Hearing this, Priyadatta was astonished and said, "Where is that Ratishena now?" Prabhavati replied, "He is also a Vidhyadhara king, Hiranyavarma, and he is here in this city of Pundarikinya, destroying the enemies of karma." ||224-225|| Priyadatta went and bowed to the great Muni Hiranyavarma. Then, at Prabhavati's request, she told the story of her husband. ||226-227|| A Vidhyadhara named Ratishena came here from Gandhara city on Mount Vijaya with his wife Gandhari. ||228|| Gandhari pretended to be bitten by a snake and stayed there. Kubera-kanta and the Vidhyadhara used many medicines, but Gandhari, with her magical powers, said, "I am not yet cured."
Page Text
________________ ४६६ आदिपुराणम् सप्रमा चन्द्रलेखेव सह तत्र प्रभावती । गुणवत्वा समागस्त संगतिः स्याद्यदृच्छया ॥२२२॥ गुणवत्यार्यिकां दृष्ट्वा नत्वोक्ता प्रियदत्तया। कुतोऽसौ गणिनीत्याख्यत् स्वर्गतेति प्रभावती ॥२२३॥ तच्छुत्वा नेत्रभूता नौ सैवेति शुचमागता । कुतः प्रीतिस्तयेत्युक्ता साऽब्रवीत् प्रियदत्तया ॥२२४॥ न स्मरिष्यसि किं पारावतद्वन्द्वं भवद्गृहे ।''तत्राहं रतिषेणेति तच्छुत्वा विस्मिताऽवदत् ॥२२५॥ क्वासौ रतिवरोऽद्यति सोऽपि विद्याधराधिपः । हिरण्यवर्मा कर्मारिय॑तिरत्रेति साब्रवीत् ॥२२६॥ प्रियदत्ताऽपि तं गत्वा वन्दित्वैत्य महामुनिम् । प्रभावती परिप्रश्नात् पत्युरन्याह वृत्तकम् ॥२२७॥ विजया गिोरस्य गान्धारनगरादिह । विहाँ रतिषेणोऽमा गान्धार्या प्रिययाऽगम ॥२२८॥ गान्धारी सर्पदष्टाऽहमिति तत्र मृषा स्थिता । मन्त्रौषधीः प्रयोज्यास्याः श्रष्टी विद्याधरश्व सः ॥२२॥ करते थे, जिस प्रकार सूर्यका नित्य उदय होता है उसी प्रकार मुनिराजके भी ज्ञान आदिका नित्य उदय होता रहता था, जिस प्रकार सूर्य बुध अर्थात् बुधग्रहका स्वामी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी बुध-अर्थात् विद्वानोंके स्वामी थे, जिस प्रकार सूर्य विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थोंको जाननेवाले थे, जिस प्रकार सूर्य विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान रहता है अथवा विरोचन नामको धारण करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान थे अथवा रुचिरहित उदासीन थे और जिस प्रकार सूर्य पुण्डरीकिणी अर्थात् कमलिनीको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार मुनिराज भी पुण्डरीकिणी अर्थात् विदेह क्षेत्रकी एक विशेष नगरीको आनन्दित करते थे इस प्रकार सूर्यकी समानता रखनेवाले मुनिराज हिरण्यवर्मा किसी समय पुण्डरीकिणी नगरीमें पधारे ॥२२०-२२१॥ प्रभासहित चन्द्रमाकी कलाके समान आर्यिकाप्रभावती भी वहाँ आयी और गुणवती-गणिनीके साथ मिलकर रहने लगी सो ठीक ही है क्योंकि समागम अपनी इच्छानुसार ही होता है ॥२२२॥ गुणवती गणिनीको देखकर प्रियदत्ताने नमस्कार कर पूछा कि संघाधिकारिणी अमितमति कहाँ हैं ? तब उसने कहा कि 'वह तो स्वर्ग चली गयी है' यह सुनकर प्रभावती कुछ शोक करने लगी और कहने लगी कि 'हम दोनोंकी आँखें वहीं थी,' तब प्रियदत्ताने पूछा कि उनके साथ तुम्हारा प्रेम कैसे हुआ ? उत्तरमें प्रभावती कहने लगी कि आपको क्या स्मरण नहीं है आपके घरमें जो कबूतर-कबूतरीका जोड़ा रहता था उनमें-से मैं रतिषणा नामकी कबूतरी हूँ, यह सुनकर प्रियदत्ता आश्चर्यसे चकित होकर कहने लगी कि 'वह रतिवर कबूतर आज कहाँ है तब प्रभावतीने कहा कि वह भी विद्याधरोंका राजा हिरण्यवर्मा हुआ है और कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेवाला वह आज इसी पुण्डरीकिणी नगरीमें विराजमान है। प्रियदत्ताने भी जाकर महामुनि-हिरण्यवर्माकी वन्दना की और फिर प्रभावतीके पूछनेपर अपने पतिका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगी ।।२२३-२२७॥ एक रतिषेण नामका विद्याधर अपनी स्त्री गान्धारीके साथ-साथ इसी विजया पर्वतके गान्धार नगरसे विहार करनेके लिए यहाँ आया था ॥२२८।। मुझे सर्पने काट खाया है इस प्रकार झूठ-झूठ बहाना कर गान्धारी यहाँ पड़ रही, सेठ कुबेरकान्त और विद्याधरने बहुत-सी औषधियोंका प्रयोग किया परन्तु गान्धारीने मायाचारीसे कह दिया कि 'अभी मुझे १ पुण्डरीकिण्याम् । २ समागतवती संगतवती वा। ३ गुणवत्यादिका ट० । गुणवती शशिप्रभावत्यायिकाः । ४ क्वास्ते । ५ यशस्वती। ६ अनन्तमतिसहिताऽमितमत्यायिका। ७ गुणवती जगाद। ८ नाकं प्राप्तेति । ९ नेत्रसदृशी। १० प्रियदत्ता। ११ पारावतद्वन्द्वे । १२ कर्मारघाति ल०, प० । १३ अस्मिन् पुरे तिष्ठतीति। १४ प्रभावती । १५ हिरण्यवर्ममुनिम् । १६ पुनरागत्य । १७ पुण्डरीकिण्याम् । १८ कुबेरकान्तः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy