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The Adi Purana On the Trikūṭa mountain, in the Malaya range, and at the Pandya gateway, the Kinnara women sang the praises of the emperor with deep voices. ||26|| In the forests at the foot of the Malaya mountains and in the Sahya range, the women of the forest sang the emperor's victory. ||27|| The wind blew softly, carrying the fragrance of sandalwood gardens, and it carried away the droplets of water from the waterfalls of the Malaya mountains. ||28|| Though the wind was free to roam in all directions, it still honored the emperor's hospitality, as if it were a dutiful servant, and it relieved his fatigue. ||29|| The Kerala women, young and beautiful, wandered through the groves of tamala trees, their breath fragrant with the scent of cardamom and cloves, their breasts adorned with thick sandalwood paste, their hips swaying gracefully, their smiles like blooming flowers of love, their voices sweet as the cuckoo's song, their movements graceful as the swaying of vines, their feet dancing lightly, their bodies adorned with pearls, their voices singing intoxicating songs that charmed the bees. ||30-34|| Thus, the emperor Bharata, having conquered the south with his victorious army, bowed to the rulers of the Chola, Kerala, and Pandya kingdoms. ||35||
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________________ आदिपुराणम् त्रिकूट मलयोत्सङ्गे गिरौ पाण्डवकवाटके | जगुरस्य यशो मन्द्रमूर्च्छनाः किन्नराङ्गनाः ॥ २६ ॥ मलयोपान्तकान्तारे सह्याचलवनेषु च । यशो वनेचरस्त्रीभिरुज्जगेऽस्य जयार्जितम् ॥ २७॥ चन्दनोद्यानमाधूय मन्दं गन्धवहो ववौ । मलयाचलकुजेभ्यो हरनिर्झरशीकरान् ॥ २८ ॥ विविसारी दाक्षिण्यं समुज्झन्नपि सोऽनिलः । संभावयन्निवातिथ्यैर्विभोः श्रममपाहरत् ॥ २९ ॥ एलालवङ्गसंवास सुरभित्रसित मुखैः । स्तनैरापाण्डुभिः सान्द्रचन्दनद्रवचर्चितैः ॥३०॥ सलीलमृदुभियतैिर्नितम्ब भरमन्थरैः । स्मितैरनङ्गपुष्पास्त्रस्तत्रको भेदविभ्रमैः ॥ ३१॥ कोकिलालापमधुरैर्ज्वलितै ( जल्पितै ) रनतिस्फुटैः । मृदुबाहुलतान्दोल सुभगैश्च विचेष्टितैः ॥ ३२ ॥ लास्यैः स्खलत्पदन्यासैर्मुक्ताप्रायैविभूषणैः । मदमञ्जुभिरुद्गीतैर्जितालिकुलशिञ्जितैः" ॥३३॥ तमाल नवीथीषु संवरन्त्यो यदृच्छया । मनोऽस्य जहरा रूढयौवनाः केरलस्त्रियः ॥ ३४ ॥ प्रसाध्य दक्षिणामाशां विभुस्त्रैराज्यपालकान् । समं प्रणमयामास विजित्य जयसाधनैः ॥ ३५ ॥ कण्ठसे महाराज भरतका यश गा रही थीं ||२५|| त्रिकूट पर्वतपर, मलयगिरिके मध्यभागपर और पाण्ड्य कवाटक नामके पर्वतपर किन्नर जातिकी देवियाँ गम्भीर स्वरसे चक्रवर्तीका यश गा रही थीं ||२६|| इसी प्रकार मलय गिरिके समीपवर्ती वनमें और सह्य पर्वत के ari भीलोंकी स्त्रियाँ विजयसे उत्पन्न हुआ महाराजका यश जोर-जोरसे गा रही थीं ||२७|| उस समय मलय गिरिके लतागृहोंसे झरनोंके जलके छोटे-छोटे कण हरण करता हुआ तथा चन्दनके बगीचेको हिलाता हुआ वायु धीरे-धीरे बह रहा था ||२८|| वह वायु दक्षिण दिशाको छोड़कर चारों ओर बह रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो अतिथि सत्कार के द्वारा भावार्थ — इस श्लोक में भरतका सन्मान करता हुआ ही उनका परिश्रम दूर कर रहा था । दाक्षिण्य शब्द के श्लेष तथा अपि शब्दके सन्निधानसे नीचे लिखा हुआ विरोध प्रकट होता है— 'वह वायु यद्यपि दाक्षिण्य ( स्वामी के इच्छानुसार प्रवृत्ति करना ) भावको छोड़कर स्वछन्दता पूर्व चारों ओर घूम रहा था तथापि उसने एक आज्ञाकारी सेवककी तरह भरतका अतिथिसत्कार कर उनका सब परिश्रम दूर कर दिया था, जो स्वामीके विरुद्ध आचरण करता है वह उसकी सेवा क्यों करेगा ? यह विरोध परन्तु दाक्षिण्य शब्दका दक्षिण दिशा अर्थ लेनेसे वह विरोध दूर हो जाता है ( 'दक्षिणो दक्षिणोद्भूतसरलच्छन्दवतिषु' इति मेदिनी, दक्षिणस्य भावो दाक्षिण्यम्, पक्षे दक्षिणैव दाक्षिण्यम् ) ||२९|| तमाल वृक्षोंके वनकी गलियोंमें इच्छानुसार इधर-उधर घूमती हुई केरल देशकी तरुण स्त्रियाँ इलायची, लौंग आदि सुगन्धित वस्तुओं के सम्बन्धसे जिनके निःश्वास सुगन्धित हो रहे हैं ऐसे मुखोंसे, जो घिसे हुए चन्दन के गाढ़ लेपसे सुशोभित हो रहे हैं ऐसे स्तनोंसे नितम्बोंके भारसे मन्थर लीलासहित सुकोमल गमनसे, जो कामदेव के पुष्परूपी शस्त्रोंके गुच्छोंके खिलने के समान सुशोभित हो रहे हैं ऐसे मन्द हास्यसे, कोयलकी कूकके समान मनोहर तथा अव्यक्त वाणीसे, सुकोमल बाहुरूपी लताओंके इधर-उधर फिरानेसे सुन्दर चेष्टाओंसे, जिसमें स्खलित होते हुए पैर पड़ रहे हैं ऐसे नृत्योंसे, अधिकतर मोतियोंके बने हुए आभूषणोंसे, भ्रमरसमूहकी गुंजारको जीतनेवाले मद मनोहर उत्कृष्ट गीतोंसे चक्रवर्ती भरतका मन हरण कर रही थीं ॥। ३० - ३४|| इस प्रकार महाराज भरतने अपनी विजयी सेनाके द्वारा दक्षिण दिशाको वश कर चोल, केरल और पाण्ड्य ८४ १ त्रिकूटे म० द० ल० अ०, प०, स० । त्रिकूटगिरिमलयाचलसानी । २ व्रनचर-ल० । ३ विसरणशीलः । ४ दक्षिणदिग्भागः । आनुकूल्येन च । ५ अतिथौ साधुभिः उपचारैरित्यर्थः । ६ उच्छ्वासैः । ७ गमनैः । ८ मन्दैः । ९ जल्पितैः वचनैः । १० सिञ्जनैः अ०, प०, ब०, स० । ११ त्रिराज्येषु जातान् । चोरकेरलपाण्डघान् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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