SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
The thirty-first day, he stayed there, having drunk the water of the confluence of the three rivers. In the palm groves, he heard the rustling sound of dry leaves, caused by the wind. He saw betel nut trees, intertwined with betel vines, as if they were one entity. The king was delighted to see the betel nut trees, which were supported by the betel vines, and which seemed to be entwined with them like a couple. He saw birds, making continuous sounds in the forests, as if they were sages engaged in their studies. The people ate the jackfruit, which were soft inside and had thorns on the outer skin, as if they were ambrosia. They drank coconut juice, ate jackfruit, and had pepper as a condiment. This was their daily routine in the forest. The king saw birds, making sounds as they ate the sweet pepper, and tears flowing from their eyes. He saw young monkeys, shaking their heads, after eating the sharp pepper pods, as if they were afraid. Seeing the trees, laden with fruits, and beneficial to people, the people were convinced of the existence of Kalpavriksha trees. The forest trees, entwined with creeper-like women, and bearing many fruits, seemed to be offering gifts to the people, as if they were their relatives. The Singhalese women, intoxicated with coconut juice, and with their eyes slightly rolling, praised his glory in a low voice.
Page Text
________________ त्रिंशत्तमं पव स्फुरस्परुषसंपातपानाधूननोस्थितः । तालीवनेषु तत्सन्यः शुश्रुवे मर्मरध्वनिः ॥१५॥ । समं ताम्बूलवल्लीभिरपश्यत् क्रमुकान् विभुः । एककार्यत्वमस्माकमितीव मिलितान्मिथः ॥१६॥ नृपस्ताम्बूलवल्लीनामुपध्नान् क्रमुकदुमान् । निध्यायन् वेष्टि तांस्ताभिर्मुमुदे दम्पतीयितान् ॥१७॥ स्वाध्यायमिव कुर्वाणान् वनेष्वविरतस्वनान् । वीन्मुनीनिव सोऽपश्यद् यत्रास्त मितवासिनः ॥१८॥ पनसानि मृदून्यन्तः कण्टीनि बहिस्त्वचि । सुरसान्यमृतानीव जनाः प्रादन् यथेप्सितम् ॥१९॥ नालिकररसः पानं पनसान्यशनं परम् । मरीचान्युपदंशश्च वन्यावृत्तिरहो सुखम् ॥२०॥ सरसानि मरीचानि किमप्यास्वाद्य विकिरान् । रुवतः" प्रभुरद्राक्षीद् गलदश्रुविलोचनान् ॥२१॥ विदश्य मञ्जरीस्तीक्ष्णा मरीचानां सशङ्कितम् । शिरो विधुन्वतोऽपश्यत् प्रभुस्तरुणमर्कटान् ॥ २२ ॥ * वनस्पतीन् फलानम्रान् वीक्ष्य लोकोपकारिणः । जाताः कल्पमास्तित्वे निरारेकास्तदा जनाः ॥२३॥ लतायुवतिसंसक्ताः प्रसवाड्या वन डुमाः । करदा इव तस्यासन् प्रीणयन्तः फलैर्जनान् ॥२४॥ नालिकरासमत्ताः' किंचिदाघुर्णितेक्षणाः । यशोऽस्य जगुरामन्द्रकुहरं सिंहलाङ्गनाः ॥२५॥ से निकला हुआ रस खूब पिया था ॥१४॥ वहाँ भरतकी सेनाके लोगोंने ताड़ वृक्षोंके वनोंमें वायुके हिलनेसे उठी हुई बहुत कठोर सूखे पत्तोंकी मर्मर-ध्वनि सुनी थी ॥१५॥ वहाँ सम्राट भरतने हम लोगोंका एक ही समान कार्य होगा यही समझकर जो पानकी बेलोंके साथ-साथ परस्परमें मिल रहे थे ऐसे सुपारीके वृक्ष देखे ॥१६।। जो पानोंकी लताओंके आश्रय थे तथा जो उनके साथ लिपटकर स्त्री-पुरुषके समान जान पड़ते थे ऐसे सुपारीके वृक्षोंको बड़े गौरके साथ देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ॥१७।। उन वनोंमें सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले जो पक्षी निरन्तर शब्द कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले तथा स्वाध्याय करते हुए मुनि ही हों उन्हें भरतने देखा था ।।१८।। जो भीतर कोमल हैं तथा बाहरी त्वचापर काँटोंसे यक्त हैं ऐसे अमतके समान मीठे कटहलके फल सेनाके लोगोंने अपनी इच्छानुसार खाये थे ॥१९॥ वहाँ पीनेके लिए नारियलका रस, खानेके लिए कटहलके फल और व्यंजनके लिए मिरचे मिलती थीं, इस प्रकार सैनिकोंके लिए वन में होनेवाली भोजनकी व्यवस्था भी सूखकर मालम होती थी ।।२०। जो सरस अर्थात् गीली मिरचे खाकर कुछ-कुछ शब्द कर रहे हैं और जिनकी आँखोंसे आँस गिर रहे हैं ऐसे पक्षियोंको भी भरतने देखा था ॥२२॥ जो तरुण वानर बहुत तेज मिरचोंके गच्छोंको निः रूपसे खाकर बादमें चरपरी लगनेसे सिर हिला रहे थे उन्हें भी महाराजने देखा ॥२२॥ उस समय वहाँ फलोंसे झुके हुए तथा लोगोंका उपकार करनेवाले वृक्षोंको देखकर लोग कल्पवक्षोंके अस्तित्वमें शंकारहित हो गये थे ॥२३।। जो लतारूप स्त्रियोंसे लिपटे हए हैं और अनेक फलोंसे युक्त हैं ऐसे वनके वृक्ष अपने फलोंसे सेनाके लोगोंको सन्तुष्ट करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतके लिए कर हो दे रहे हों ॥२४॥ जो नारियलकी मदिरा पीकर उन्मत्त हो रही हैं और इसीलिए जिनके नेत्र कुछ-कुछ घूम रहे हैं ऐसी सिंहल द्वीपकी स्त्रियाँ वहाँ गद्गद १ तालवनेषु । २ शुष्कपर्णध्वनिः । 'अय मर्मरः, स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्' इत्यभिधानात् । ३ पर्णक्रमुकमेलनादेककायत्वमिति । ४ आश्रयभूतान् । 'स्थादुपघ्नोऽन्तिकाश्रये' इत्यमरः । ५ विध्याय वे-ल०। ६ -स्वनम् ल० । ७ विहगान् । ८ यत्र रविरस्तं गतस्त्र वासिनः । ९ भक्षयन्ति स्म । भक्षितवन्तः इत्यर्थः । १० वनवासः । - ११ रवं कुर्वतः । १२ भक्षयित्वा । १३ निस्सन्देहाः । १४ करं सिद्धायं ददतीति करदाः, कुटुम्बिजना इवेत्यर्थः। 'आलस्योपहतः पादः पादः पाषण्डमाथितः । राजानं सेवते पादः पादः कृषिमुपागतः ॥' १५ प्रचलायित । १६ गम्भीरगहरं यथा भवति तथा । गद्गदसहितकम्पनं कुहरशब्देनोच्यते ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy