SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
367 The forty-fourth chapter Those archers, who had quivers strapped to both their sides, were strong and had conquered fatigue. They were adorned like birds in the sky. (116) The arrows were like good ministers because they were straight, far-sighted, quick to accomplish tasks, and followed the path of the scriptures. (120) Those arrows, which drank blood and flesh, carried feathers, traveled far, and had sharp points, fell upon their targets like birds. (121) Just as purity, inspired by virtuous Dharma and residing in the heart, leads men to liberation, so too, the arrows, inspired by virtuous Dharma (the bow with its string) and piercing the heart, were leading the valiant men to the other world. (122) Just as a courtesan, who has gained a place in the heart and possesses love or passion, closes the eyes of men with a mere touch, so too, the arrows, which have entered the heart and carry blood, close the eyes of men with a mere touch - they kill them. (123) When there was a heavy downpour of rain from the clouds above and darkness enveloped the earth, the vulture, having abandoned its nest, was subdued by the power of the arrows, just like a woman is subdued by a lover. (124)
Page Text
________________ ३६७ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व उभयोः 'पार्श्वयोर्बध्वा बाणधी कृतबलानाः । धन्विनः खेचराकारा रेजुराजौ जितश्रमाः ॥११६॥ ऋजुत्वाद दरदर्शित्वात् सद्यः कार्यप्रसाधनात् । शास्त्रमार्गानुसारित्वात् शराः सुसचिवैः समाः॥१२०॥ क्रव्यास्रपायिनःः पत्रवाहिनो दूरपातिनः । लक्ष्येषड्डीय तीक्ष्णास्याः खगाः पेतुः खगोपमाः ॥१२॥ धर्मेण गुणयुक्तेन प्रेरिता हृदयं गता । शूरान् शुद्धिरिवानषीद" गतिं पत्रिपरम्परा' ॥१२२॥ पुंसां संस्पर्शमात्रेण हृद्गता रक्तवाहिनी । क्षिप्रं न्यमीलयनेने वेश्येव विशिखावली ॥१२३॥ त्यक्त्वेशं खेचरातातिवृष्टौ' गृधृतमस्ततौ । परोऽन्विष्य शराबल्या जारयेव वशीकृतः ॥५२४॥ करते हुए पीछेसे भीतर घुस जाते थे ॥११८॥ जो दोनों बगलोंमें तरकस वाँधकर उछल-कूद कर रहे हैं तथा जिन्होंने परिश्रमको जीत लिया है ऐसे धनुषधारी लोग उस युद्ध में पक्षियोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥११९॥ और बाण अच्छे मन्त्रियोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे मन्त्री ऋजु अर्थात् सरल ( मायाचाररहित ) होते हैं उसी प्रकार बाण भी सरल अर्थात् सीधे थे, जिस प्रकार अच्छे मन्त्री दूरदर्शी होते हैं अर्थात् दूरतककी बातको सोचते हैं उसी प्रकार बाण भी दूरदर्शी थे अर्थात् दूर तक जाकर लक्ष्यभेदन करते थे, जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शीघ्र ही कार्य सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार बाण भी शीघ्र करनेवाले थे अर्थात् जल्दीसे शत्रुको मारनेवाले थे और जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शास्त्रमार्ग अर्थात् नीतिशास्त्रके अनुसार चलते हैं उसी प्रकार बाण भी शास्त्रमार्ग अर्थात् धनुषशास्त्रके अनुसार चलते थे । १।१२०॥ मांस और खूनको पीनेवाले, पंख धारण करनेवाले, दूर तक जाकर पड़नेवाले और पैने मुखवाले वे बाण पक्षियोंके समान उड़कर अपने निशानोंपर जाकर पड़ते थे। भावार्थ-वे बाण पक्षियोंके समान मालूम होते थे, क्योंकि जिस प्रकार पक्षी मांस और खून पीते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंका मांस और खून पीते थे, जिस प्रकार पक्षियोंके पंख लगे होते हैं उसी प्रकार बाणोंके भी पंख लगे थे, जिस प्रकार पक्षी दूर जाकर पड़ते हैं उसी प्रकार बाण भी दूर जाकर पड़ते थे और जिस प्रकार पक्षियोंका मुख तीक्ष्ण होता है उसी प्रकार बाणोंका मुख ( अग्रभाग ) भी तीक्ष्ण था। इस प्रकार पक्षियोंकी समानता धारण करनेवाले बाण उड़-उड़कर अपने निशानोंपर पड़ रहे थे ॥१२१॥ जिस प्रकार गुणयुक्त धर्मके द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें प्राप्त हुई विशुद्धि पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करा देती है उसी प्रकार गुणयुक्त ( डोरी सहित ) धर्म ( धनुष ) के द्वारा प्रेरणा की हई और हृदयमें चुभी हुई बाणोंकी पंक्ति शूरवीर पुरुषोंको परलोक पहुँचा रही थी ॥१२२॥ जिस प्रकार हृदयमें प्राप्त हुई और रक्तव अर्थात् अनुराग धारण करनेवाली अथवा रागी पुरुषोंको वश करनेवाली वेश्या स्पर्शमात्रसे ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती है उसी प्रकार हृदयमें लगी हुई और रक्तवाहिनी अर्थात् रुधिरको बहानेवाली बाणोंकी पंक्ति स्पर्शमात्रसे शीघ्र ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती थी - उन्हें मार डालती थी ॥१२३॥ जिस प्रकार बहुत वर्षा होने और अन्धकारका समूह छा जानेपर १ निजशरीरपाययोः । २ इषुधी द्वौ। ३ पक्षे सदृशाः । ४ युद्धे । ५ चापशास्त्रोक्तक्रमेण । प्रयोक्तृमार्गशरणत्वात् । ६ बाणाः । ७ मन्त्रिभिः । ८ क्रव्यासक्पायिनः ट० । आममांसरक्तभोजिनः । ९ पत्रवहन्ति गच्छन्तीति पत्रवाहिनः । १० बाणाः । 'शरार्कविहगाः खगाः'। ११ पक्षिसदृशाः । १२ धनुषा । १३ ज्यासहितेन । अतिशययुक्तेन च । १४ विशुद्धिपरिणाम इव । १५ आनयति स्म। १६ शरसन्तति । १७ रक्तं प्रापयन्ती । आत्मन्यनुरवतं प्रापयन्ती च । १८ इतोऽग्रे पुनः 'आरा' नगरात् समायातटिप्पणपुस्तकात टिप्पणसमुद्धारः क्रियते । १९ उपरिस्थितखेचररुधिरवर्षे । -२० दाक्षाय्यतमसमहे । 'आतापिचिल्लो दाक्षाय्यगृद्धी' इत्यभिधानात् । *भावे क्तः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy