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आदिपुराणम्
प्रातस्तरामथानीय वत्सपीतावशिष्टकम् । पयो दोग्धि यथा गोपो नवनीतादिलिप्सया ॥१७५॥ तथा भूपोऽप्यतन्द्रालुभक्तग्रामेषु कारयेत् । कृषि कर्मान्तिकैर्बीजप्रदानाद्यैरुपक्रमैः ॥१७६॥ देशेऽपि कारयेत् कृत्स्ने कृषि सम्यक्कृषीबलैः । धान्यानां संग्रहार्थं च न्याय्यमंशं ततो हरेत् ॥१७७॥ सत्येवं पुष्टतन्त्रः स्याद् भाण्डागारदिसंपदा । पुष्टो देशश्च तस्यैवं स्याद धान्यैराशितम्भवैः ॥१७८॥ स्वदेशे वाक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः ॥१७९॥ विक्रियां न भजन्त्येते प्रभुणा कृतसक्रियाः । प्रभोरलब्धसमाना विक्रियन्ते हि तेऽन्वहम् ॥१८०॥ ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः । तेऽपि कर्षकसामान्यं कर्तव्याः करदा नृपैः ॥१८॥ तान्प्राहरक्षरम्लेच्छाः येऽमी वेदोपजीविनः । अधर्माक्षरसंपाठोंकव्यामोहकारिणः ॥१८२॥ यतोऽक्षरकृतं गर्वमविद्यामलतस्तके । वहन्त्यतोऽक्षरम्लेच्छाः पापंसूत्रोपजीविनः ॥१८३॥ म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च । बलात्परस्वहरणं निर्द्ध तत्वमिति स्मृतम् ॥१४॥ सोऽस्त्यमीषां च "यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः । तादृशं बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपतः ॥१८५॥ "प्रजासामान्यतै वैषां मतावास्यान्निकृष्टता। ततो न मान्यताऽस्त्येषां द्विजा मान्याः स्युराहताः॥१८६॥
प्रहरमात्र शेष रहनेपर उठकर जहाँ बहुत-सा घास और पानी होता है ऐसे किसी योग्य स्थानमें गायोंको बड़े प्रयत्नसे चराता है तथा बड़े सबेरे ही वापिस लाकर बछड़ेके पीनेसे बाकी बचे हुए दूधको मक्खन आदि प्राप्त करनेकी इच्छासे दुह लेता है उसी प्रकार राजाको भी आलस्यरहित होकर अपने आधीन ग्रामोंमें बीज देना आदि साधनों-द्वारा किसानोंसे खेती कराना चाहिए ॥१७४-१७६॥ राजाको चाहिए कि वह अपने समस्त देशमें किसानों द्वारा भली भाँति खेती करावे और धान्यका संग्रह करनेके लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश लेवे ॥१७७॥ ऐसा होनेसे उसके भांडार आदिमें बहुत सी सम्पत्ति इकट्ठी हो जावेगी और उससे उसका बल बढ़ जावेगा तथा सन्तुष्ट करनेवाले उन धान्योंसे उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जावेगा ॥१७८॥ अपने आश्रित स्थानोंमें प्रजाको दुःख देनेवाले जो अक्षरम्लेच्छ अर्थात् वेदसे आजीविका करनेवाले हों उन्हें कुलशुद्धि प्रदान करना आदि उपायोंसे अपने आधीन करना चाहिए ॥१७९॥ अपने राजासे सत्कार पाकर वे अक्षरम्लेच्छ फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओंसे उन्हें सन्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ उपद्रव करते ही रहेंगे ॥१८०॥ और जो कितने ही अक्षरम्लेच्छ अपने ही देशमें संचार करते हों उनसे भी राजाओं को सामान्य किसानोंकी तरह कर अवश्य लेना चाहिए ॥१८१॥ जो वेद पढ़कर अपनी आजीविका करते हैं और अधर्म करनेवाले अक्षरोंके पाठसे लोगोंको ठगा करते हैं उन्हें अक्षरम्लेच्छ कहते हैं ॥१८२॥ चूँकि वे अज्ञानके बलसे अक्षरों-द्वारा उत्पन्न हुए अहंकारको धारण करते हैं इसलिए पापसूत्रोंसे आजीविका करनेवाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं ॥१८३॥ हिंसा और मांस खाने में प्रेम करना, बलपूर्वक दूसरेका धन हरण करना और धूर्तता करना ( स्वेच्छाचार करना ) यही म्लेच्छोंका आचार माना गया है ॥१८४॥ चूँकि यह सब आचरण इनमें हैं और जातिके अभिमानसे ये नीच द्विज हिंसा आदिको प्ररूपित करनेवाले वेद शास्त्रके अर्थको बहुत कुछ मानते हैं इसलिए इन्हें सामान्य प्रजाके समान ही मानना चाहिए अथवा उससे भी कुछ निकृष्ट मानना चाहिए। इन सब कारणोंसे इनकी कुछ भी मान्यता नहीं रह जाती
१ आरम्भग्रामेष्वित्यर्थः । २ कृषीबलभृत्यैः । ३ कृषीबलेभ्यः । ४ स्वीकुर्यात् । ५ तृप्तिकरैः । ६ प्रदेशे अ०, सं०,ल०म० । ७ कृषीबलसामान्यं यथा भवति तथा । ८ अज्ञानबलात् । ९ कुत्सितास्ते । १० यत् कारणात् । ११ हिंसनादिप्रकारम् । १२ गर्वतः । १३ प्रजासामान्यत्वमेव । १४ प्रजाभ्यः ।