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## Adipurana 12 **156** Seeing the fallen Vidyadharas outside the battlefield, scattered by the sharp stones of the Tiryanch, the foolish people said, "Look, the Vidyadharas have gone to heaven with their bodies." **157** The jewels falling from the shattered crowns of the Vidyadharas, wounded by arrows, seemed as if they were being offered to Jayakumar by the gods, who are captivated by virtues. **158** Seeing the women, accompanied by the fallen, dead Vidyadharas, offering them water-like tears, Jayakumar was filled with compassion. **159** "Yama is impartial," they say, but if that were true, why would he be the king of the dead only in the army of Chakra's son, Arkkirti? Why would he favor his army? **160** By killing the unjust, Jayakumar, in his victory, became like the divine fire of Dharma, even though Yama is known for his sharpness. **161** At that moment, the horses of Chakra's son, Arkkirti, came forward, roaring with their neighing, encouraging their own army. **162** The warriors of Yama, like the vanguard of his army, came forward, brandishing their sharp spears, rotating them repeatedly. **163** Jayakumar, the victor, mounted his horse, Jayaturangam, and, filled with anger, ordered his cavalry to fight with their spears. **164** The sea of soldiers, with its surging waves of horses, was like a thunderous roar, with the sound of drums and other instruments.
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________________ आदिपुराणम् १२ तिर्यग्गोफणपाषाणैर' दृष्ट्वाज्यजिरा बहिः । पातितान् खचरानृचुः सतन्न् स्वर्गतान् जडाः ॥ १५७ ॥ शरसंरुग्ण विद्यान्मुकुटेभ्योऽगलन् सुरैः । मणयो गुणगृह्यैर्वा जयस्योपायनीकृताः ॥ १५८ ॥ पतन्मृतखगान्वीत प्रियाभिः स्वाश्रुवारिणा । 'वारिदानमिवाचर्य कृपामासादितो जयः ॥ १५६ ॥ अन्तकः समवर्तीति" तद्वाव न चेत्तथा । कथं चक्रिसुतस्यैव बले प्रेताधिपो " भवेत् ॥ १६० ॥ वधं विधाय न्यायेन जयेनान्यायवर्तिनाम् । यमस्तीक्ष्णोऽप्यभूद्धर्मस्तत्र दिव्यानलोपमः ॥ १६१ ॥ "तावद्वेषित निर्घोषैमीपयन्तो द्विषो हयाः । बलमाश्वासयन्तः स्वं स्वीचक्रुश्चाक्रिसूनवः ॥ १६२ ॥ प्रासान्प्रस्फुरतस्तीक्ष्णानभीक्ष्णं वाहवाहिनः | आवर्तयन्तः संप्रापन् यमस्येवाग्रगा भटाः ॥ १६३॥ जयोऽपि स्वयमारुह्य जय जयतुरङ्गमम् । क्रुद्धः प्रासान् समुद्धृत्य योद्मश्वीयमादिकान् ॥ १६४ ॥ ॥ अभूत् प्रहतगम्भीरभम्भा" दिध्वनिभीषणः । बलार्णवश्चलत्स्थूलकल्लोल इव वाजिभिः ॥ १६५ ॥ १५ ५६ १७ ४०२ ॥१५६॥ तिरछे जानेवाले गोष्फण रूप पत्थरोंके द्वारा युद्ध के आँगन से बाहर गिराये हुए विद्याधको न देखकर मूर्ख लोग कहने लगे थे कि देखो विद्याधर शरीर सहित ही स्वर्ग चले गये हैं। ॥ १५७ ॥ बाणोंकी चोटसे छिन्न-भिन्न हुए विद्याधरोंके मुकुटोंसे जो मणि गिर रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणोंसे वश होनेवाले देवोंने जयकुमारको भेंट ही किये हों ।। १५८ ।। गिर - गिरकर मरे हुए विद्याधरोंके साथ आयी हुई स्त्रियाँ अपने अश्रुरूपी जलसे जो उन्हें जलांजलि -सी दे रही थीं उसे देखकर जयकुमारको दया आ गयी थी || १५९ || यमराज समवर्ती है अर्थात् सबको समान दृष्टिसे देखता है यह केवल कहावत ही है यदि ऐसा न होता तो वह केवल चक्रके पुत्र अर्ककीर्तिकी सेनामें ही क्यों प्रेतोंका राजा होता ? अर्थात् उसीकी सेनाको क्यों मा ? || १६० ॥ जयकुमारके द्वारा अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले लोगोंको वध कराकर वह तीक्ष्ण यमराज भी उस युद्धमें दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था । भावार्थ- पूर्वकालमें साक्षी आदिके न मिलनेपर अपराधीकी परीक्षा करनेके लिए उसे अग्निमें प्रविष्ट कराया जाता था, अथवा जलते हुए अंगार उसके हाथपर रखाये जाते थे । अपराधी मनुष्य उस अग्नि जल जाते थे परन्तु अपराधरहित मनुष्य सीता आदिके समान नहीं जलते थे । उसी आगको दिव्य अग्नि कहते हैं सो जिस प्रकार दिव्य अग्नि दुष्ट होनेपर भी अपराधीको ही जलाती है अपराधरहितको नहीं जलाती उसी प्रकार यमराजने दुष्ट होकर भी अन्यायी मनुष्यों का ही वध कराया न कि न्यायी मनुष्योंका भो, इसलिए वह यमराज दुष्ट होनेपर भी मानो उस समय दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था ।। १६१ ॥ इतनेमें ही हिनहिनाहटके शब्दोंसे शत्रुओंको डराते हुए और अपनी सेनाको धीरज बँधाते हुए चक्रवर्तीके पुत्र - अर्क कीर्तिके घोड़े सामने आये ॥ १६२ ॥ यमराजके अग्रगामी योद्धाओंके समान देदीप्यमान और पैने भालोंको बार-बार घुमाते हुए घुड़सवार भी सामने आये ॥ १६३ ॥ विजय करनेवाले जयकुमारने भी क्रोधित हो, जयतुरंगम नामके घोड़ेपर सवार होकर अपनी घुड़सवार सेनाको भाला लेकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी || १६४ || घोड़ोंके द्वारा जिसमें चंचल और बड़ी-बड़ी लहरें -सी उठ रही हैं ऐसा वह सेनारूपी समुद्र बजते हुए गम्भीर नगाड़े आदिके शब्दों १ शस्त्रविशेषः । २ रणाङ्गणात् । ३ पतितान् ल०, स० अ० म० । ४ स्वर्गं गतान् । ५ भुग्न । ६ गलन्ति स्म । ७ गतप्राणविद्याधरानुगत । ८ जलाञ्जलिम् । ९ विधाय । १० बालवृद्धादिपु हननक्रियायां समानेन वर्तमानः ॥ ११ यमः । १२ अन्तकः । १३ जये । १४ शपथाग्निसमः । १५ अश्वनिनाद | १६ चक्रिसूनोः संबन्धिनः । १७ अश्वारोहाः । १८ भम्भेत्यनुकरणम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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