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380 A man may or may not become wealthy by collecting taxes from the earth to the sea, but the one who receives the hand of this Sulochana will have Lakshmi in his hands. ||295|| The essence of saltiness is in the ocean for men, and the essence of beauty is in this Sulochana for women. This is why all the rivers have reached the ocean, and all the kings have come to her. ||296|| Her beauty increases even when it is consumed by the eyes of all, but how can the ocean possess it, since Lakshmi has abandoned it? ||297|| The ocean boasts of its wealth in vain, for it is only adorned by the kings Akampan and Rani Suprabha, who possess this jewel-like daughter. ||298|| 1. Lakshmi's. 2. Sulochana's. 3. In men. 4. Full. 5. Because of which. 6. That ocean. 7. This Sulochana. 8. Of whom. 9. Akampan and Suprabha. 10. Wealth.
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________________ ३८० आदिपुराणम करग्रहण लक्ष्मीवान् स्यान्न वा वारिधेर्भुवः । अस्याः करग्रहो यस्य तस्य लक्ष्मीः करे स्थिता ॥२९५॥ लावण्यमम्बुधौ पुंसु स्त्रीवस्यामेव संभृतम् । यत्प्राप्ताः सरितः सर्वास्तमेतां सर्वपार्थिवाः ॥२९६॥ समस्तनेत्रसंपीतमप्यस्या वर्धतेतराम् । लावण्यमम्बुधिस्त्यक्तः श्रिया वहतु तत्कथम् ॥२९॥ रत्नाकरत्वदुर्गर्वमम्बुधिः श्रयते वृथा। कन्यारत्नमिदं यत्र तयोरेतद विराजते ॥२९८॥ प्रसिद्ध लक्ष्मी सबके द्वारा उपभोग करने योग्य है और रति शरीररहित कामदेवके द्वारा भोगी जाती है परन्तु यह सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय अर्थात् विजय अथवा जयकुमारको प्राप्त होगी। भावार्थ – संसारमें दो ही प्रसिद्ध स्त्रियाँ हैं एक लक्ष्मी और दूसरी रति । इनमें-से लक्ष्मी तो सर्वपुरुषोंके द्वारा उपभोग योग्य होनेके कारण पश्चलीके समान निन्द्य है और रति शरीररहित पिशाच ( पक्षमें कामदेव ) के द्वारा उपभोग योग्य होनेसे दूषित है परन्तु यह सुलोचना अपनी शोभासे कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय-जीत ( पक्षमें जयकुमार ) को प्राप्त होगी अर्थात यह सुलोचना लक्ष्मी और रतिसे भी श्रेष्ठ है ॥ २९४ ॥ समद्रपर्यन्त इस पथिवीका करग्रह अर्थात् टैक्स वसूल करनेसे कोई पुरुष लक्ष्मीवान् हो अथवा नहीं भी हो परन्तु जिसके इस सुलोचनाका करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण होगा लक्ष्मी उसके हाथमें ही स्थित समझनी चाहिए ॥ २९५ ॥ पुरुषोंमें लावण्य ( खारापन ) समुद्र में है और स्त्रियोंमें लावण्य ( सौन्दर्य ) इसी सुलोचनामें भरा हुआ है यही कारण है कि सब नदियाँ समुद्रके पास पहुँची हैं और सब राजा लोग इसके समीप आ पहुंचे हैं । भावार्थ-लावण्य शब्दके दो अर्थ हैं - एक खारापन और दूसरा सौन्दर्य । यहाँ कविने दोनोंमें शाब्दिक अभेद मानकर निरूपण किया है । श्लोकका भाव यह है - लावण्य पुरुषोंमें भी होता है और स्त्रियों में भी परन्तु उसके स्थान दोनोंमें नियत हैं। पुरुषका लावण्य समुद्रमें नियत है और स्त्रीका लावण्य सुलोचनामें । पुरुषके लावण्यके प्रति स्त्रियोंका आकर्षण रहता है और स्त्रियोंके लावण्यके प्रति पुरुषका आकर्षण रहता है । यही कारण है कि नदीरूपी स्त्रियाँ आकर्षित होकर समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग ( पुरुष ) सुलोचनाके प्रति आकर्षित होकर उसके समीप आ पहुँचे हैं ॥ २६६ ॥ इसका लावण्य सबके नेत्रोंके द्वारा पिया जानेपर भी बढ़ता ही जाता है परन्तु समुद्रको तो लक्ष्मीने छोड़ दिया है इसलिए वह उसे कैसे धारण कर सकता है ? भावार्थ - ऊपरके श्लोकमें लावण्यके दो स्थान बतलाये थे - एक समुद्र और दूसरा सुलोचना । परन्तु यहाँ लावण्य शब्दका केवल सौन्दर्य अर्थ हृदयमें रखकर कवि समुद्र में उसका अभाव बतला रहे हैं। यहाँ कवि लावण्य उस पदार्थको कह रहे हैं जिसकी निरन्तर वृद्धि ही होती रहे और जिसे देखकर दर्शक उसे कभी छोड़ना न चाहे । कविका मनोगत लावण्य सलोचनामें ही था क्योंकि उसे देखकर नेत्र कभी उसे छोड़ना नहीं चाहते थे और निरन्तर उसकी वृद्धि होती रहती थी। समुद्र में लावण्यका होना कविको इष्ट नहीं है क्योंकि उसे लक्ष्मीने छोड़ दिया है यदि उसमें वास्तवमें लावण्य होता तो उसे लक्ष्मी क्यों छोड़ती? ( लक्ष्मी-द्वारा समुद्र का छोड़ा जाना कविसम्प्रदायमें प्रसिद्ध है । ) ॥२९७॥ समुद्र अपने रत्नाकरपनेका खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न है उन्हीं राजा अकम्पन और रानी सुप्रभाके यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है ॥२९८॥ १ लक्ष्म्याः । २ सुलोचनायाः । ३ पुरुषेषु । ४ परिपूर्णम् । ५ यत् कारणात् । ६ तं समुद्रम् । एताम् सुलोचनाम् । ७ लावण्यम् । ८ ययोः । ९ अकम्पनसुप्रभयोः । १० रत्नाकरत्वम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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