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आदिपुराणम् मोगोपभोगयोग्योरुसर्ववस्तुसमाचितम् । यथास्थानगताशेषरत्नकाञ्चननिर्मितम् ॥२१॥ मुदा निष्पादयामास स्वयंवरमहागृहम् । न साधयन्ति केऽभीष्टं पुंसां शुभविपाकतः ॥२३॥ तं निरीक्ष्य क्षितेमर्त्ता लक्ष्मीलीलागृहायितम् । नासीत् स्वाङ्गे स संतोषात् सन्मित्रात् किन्न जायते ॥ अथ प्रादुरभूत् काल: सुरमिर्मत्तमन्मथः । मुदं मदं च संचिन्वन् कामिषु भ्रमरेषु च ॥२१५॥ ववौ मन्दं गजोधृष्टचन्दनद्रवसारभृत् । एलालवङ्गसंसर्गपङ्गलो मलयानिलः ॥२१६॥ मलयानिल माश्लेष्टुं संबन्धिनमुपागतम् । लताद्रुमाः सुशाखानां प्रसारणमिवादधुः ॥२१७।। यमसंबन्धिदिक्त्यागं रविभीत इवाकरोत् । मदेन कोकिलाः काले कूजन्ति स्म निरंकुशम् ॥२१॥
पुष्पमार्तवमाता नः शाखा न स्पृशतेति तान् । अलीन् वासं निषिध्यन्तश्चम्पकाश्चलपल्लवैः ॥२१९॥ वसन्तश्रीवियोगो वा सशोकोऽशोकभूरुहः । सपुष्पपल्लवो नाम साधं तत्संगमाद् व्यधात् ॥२२०॥
मूलस्कन्धानमध्येषु चूतायैरिव मत्सरात् । सुरभीणि प्रसूनानि सुरभिश्च तदा दधे ॥२२१॥ था, जिसका धरातल बड़े-बड़े नीलमणियोंसे जड़ा हुआ होनेके कारण जगमगा रहा था, जो नेत्र जातिके वस्त्रोंसे बने हुए बड़े-बड़े चन्दोवोंसे सुशोभित था, भोग उपभोगके योग्य समस्त बड़ी-बड़ी वस्तुओंसे भरा हुआ था और योग्य स्थानपर लगाये हुए सब प्रकारके रत्नों तथा सुवर्णसे बना हुआ था। इस प्रकारका स्वयंवरका यह महाभवन उस देवने बड़ी प्रसन्नतासे बनाया था सो ठीक ही है क्योंकि पूण्योदयसे पुरुषोंके अभीष्ट अर्थको कौन-कौन सिद्ध नहीं करते हैं अर्थात् सभी करते हैं ॥२०८-२१३।। लक्ष्मीके लीलागृहके समान उस स्वयंवर भवनको देखकर राजा अकम्पन सन्तोषसे अपने शरीरमें नहीं समा रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम मित्रोंसे क्या नहीं होता है ?. अर्थात् सभी कुछ होता है ।।२१४॥
अथानन्तर-कामको उन्मत्त करनेवाले तथा कामी लोगों और भ्रमरोंसे क्रमशः आनन्द और मदको बढ़ानेवाले वसन्तऋतुका प्रारम्भ हुआ ॥२१५॥ हाथियोंके द्वारा घिसे हुए चन्दनवृक्षोंके निष्यन्दरूपी सारको धारण करनेवाला तथा इलायची और लवंगके संसर्गसे कुछ-कुछ पीला हुआ मलयपर्वतका वायु धीरे-धीरे बहने लगा ॥२१६॥ उस समय लताओं और वृक्षोंकी जो शाखाएँ फैल रही थीं उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो समीप आये हुए अपने सम्बन्धी मलयानिलका आलिंगन करनेके लिए ही भुजारूप शाखाएँ फैला रहे हों ।।२१७॥ उस समय सूर्यने मानो डरकर ही यम सम्बन्धी-दक्षिण दिशाका त्याग कर दिया था अर्थात् उत्तरायण हो गया था और कोयलें मदसे निरंकुश होकर मधुर शब्द कर रही थीं ॥२१८॥ 'ये हमारी शाखाएँ आर्तव अर्थात् वसन्त ऋतुमें उत्पन्न होनेवाले अथवा रजस्वला अवस्थामें प्रकट होनेवाले पुष्पको प्राप्त हो रही हैं-धारण कर रही हैं इसलिए इन्हें मत छुओ' यही कहते हुए मानो चम्पाके वृक्ष अपने हिलते हए पल्लवोंके द्वारा भ्रमरोंको वहाँपर निवास करनेका निषेध कर रहे थे ॥२१६।। जो वसन्त ऋतुरूपी लक्ष्मीके वियोगमें सशोक था अर्थात् शोक धारण कर रहा था ऐसा अशोकका वृक्ष उस वसन्त ऋतुके सम्बन्धसे फूल और पल्लवोंसे सहित हो अपना अशोक नाम सार्थक कर रहा था ॥२२०।। उस समय चमेलीने आम आदि वृक्षोंके साथ ईर्ष्या
१ संभृतम् । २ प्रदेशमनतिक्रम्य । ३ शुभकर्मोदयात् । ४ हर्षेण निजशरीरे न ममावित्यर्थः । नामात् ल०, म०, अ०, स०, ५०, इ०। ५ वसन्तः । 'वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिीष्म उष्मकः ।' इत्यभिधानात् । ६ पदवैकल्यवान् । ७ आलिङ्गनाय । ८ करप्रसारणमिव । ९ क्रिरे । १० ऋतुं पुष्पोत्पत्तिनिमित्तभूतकालविशेष रजोत्पत्तिनिमितं कालविशेषं च । ११ अस्माकम् । १२ वियोगे ल०। १३ सल्लकोतरुः । “गन्धिनी गजभक्ष्या तु सुवहा सुरभी रसा । महेरुणा कुन्दुरुको सल्लकी ह्लादिनीति च" इत्यभिधानात् ।