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73 The thirty-first chapter: The paraphernalia of the camp, including the horses, were brought down. The horses, with their nostrils flaring, were sniffing the ground, their bodies swaying. ||112|| They were rolling on the ground, covered with the pollen of lotuses, near the lakes. The horses were slowly shaking their bodies, wanting to get rid of the dust. ||113|| The pollen of lotuses, carried by the wind, was floating in the air, creating a beautiful canopy, as if it were a specially made tent for the horses. ||114|| The horses, seeing the earth covered in dust, were disgusted and quickly entered the lakes. ||115|| The horses, having entered the water filled with lotus pollen, had their body paint washed away, but they regained their color from the pollen of the lotuses. ||116|| The horses, having bathed in the lakes and quenched their thirst, were standing in the large tents, their eyes half-closed. ||117|| The elephants of King Bharat, with their tall bodies, were housed in the groves of coconut and palm trees, which were very suitable for them. ||118|| The forest floor, uneven due to the fallen coconuts, was made suitable for the elephants by removing the coconuts from one side. ||119|| The elephants, who were very thirsty and were showing their fatigue by spraying water from their trunks, were taken to the lakes by their mahouts to drink water. ||120|| The mahouts took the elephants, who were showing fatigue from their slow walk, to the lakes to bathe. ||121||
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________________ ७३ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व अवतारितपर्याण'मुखभाण्डाद्युपस्कराः । स्फुरन्प्रामुग्रश्वाः मां जधुर्विविवृन्सवः ॥११२॥ सान्दपारज कीर्णाः सरसामन्तिकस्थले । मन्दं दुधुवुरङगानि वाहाः कृतविवर्तनाः ॥११३॥ विवभावस्वरे कजरजःपुलोऽनिलोद्धतः । अयत्न रचितोऽश्वानामिवोच्चैः पटमण्डपः ॥११॥ रजस्वला महीं स्पृदा जुगुप्सव इवोत्थिताः । द्रुतं विविशुरम्नांसि सरसीनां महाहयाः ॥११५॥ बारिवारिजकिंजल्कनतान्यश्वा विगाहिताः । धौतमप्यङ्गरागं स्वं भेजुरम्भोजरेणुभिः ॥११६॥ वरोवगाह निधूतश्रमाः पीताम्भसो हयाः । आमीलितासमध्यूषुर्विततान् पटमण्डपान् ॥११॥ नालिकरदनप्यासीदुचितो''वर्मशालिनः । निवेशो हास्तिकस्यास्य विभोतालीवनेषु च ॥११८॥ प्रपतन्नालिकेरौघस्थपुटा वनभूमयः । हस्तिनां स्थानतामीयुस्तैरेव प्रान्तसारितैः ॥११६॥ द्विपानुदन्यतरतीय वमथुव्यञ्जितश्रमान् । निन्युजलोपयोगाय सरांस्यभिनिषादिनः ॥१२॥ नीचैतिन मुध्यक्तमार्गसंजनितश्रमान् । गजानाधोरणा निन्युः सरसीरवगाहने ॥१२१॥ अंकुरोंसे सुन्दर, चक्रवर्तीके घोड़ोंकी घुड़सालें थीं ॥१११॥ जिनपर-से पलान और लगाम आदि सामग्री उतार ली गयी है ऐसे घोड़े जमीनपर लोटनेकी इच्छा करते हुए, हिलते हुए नथनोंसे युक्त मुखोंसे जमीनको सूंघ रहे थे ॥११२॥ कमलोंकी सान्द्र परागसे भरे हुए, तालाबके समीपवर्ती प्रदेशपर लोटकर वे घोडे धलि झाडनेके लिए धीरे-धीरे अपने शरीर हिला रहे थे ॥११३।। जो कमलोंको परागका समूह वायुसे उड़कर आकाशमें छा गया था वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो घोड़ोंके लिए बहुत ऊँचा कपड़ेका मण्डप ही बनाया गया हो ॥११४।। बड़े-बड़े घोड़े पृथिवीको रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) देखकर ग्लानि करते हुए-से उठे और शीघ्र ही सरोवरोंके जलमें घुस गये ॥११५॥ कमलकी केशरसे भरे हुए जल में प्रविष्ट हुए घोड़ोंका अंगराग ( शोभाके लिए शरीरपर लगाया हुआ एक प्रकारका लेप ) यद्यपि धुल गया था तथापि उन्होंने कमलोंके परागसे अपने उस अंगरागको पुनः प्राप्त कर लिया था। भावार्थ-कमलोंकी केशरसे भरे हुए पानीमें स्नान करनेसे उनके शरीरपर जो कमलोंकी केशरके छोटे-छोटे कण लग गये थे उनसे अंगरागकी कमी नहीं मालूम होती थी ॥११६।। सरोवरोंमें घुसकर स्नान करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है और जिन्होंने इच्छानुसार जल पी लिया है ऐसे घोड़े कपड़ेके बड़े-बड़े मण्डपोंमें कुछ-कुछ नेत्र बन्द किये हए खड़े थे ॥११७।। ऊँचे-ऊँचे शरीरोंसे सुशोभित होनेवाले, महाराज भरतके हाथियोंके डेरे नारियल और ताड़ वृक्षके वनोंमें बनाये गये थे जो कि सर्वथा उचित थे ॥११८॥ जो वनकी भूमि ऊपरसे पड़ते हुए नारियलोंके समूहसे ऊँची-नीची हो रही थी वही नारियलोंके एक ओर हटा देनेसे हाथियोंके योग्य स्थान बन गयी थी॥११९।। जिन्हें बहुत प्यास लगी है तथा जो वमथु अर्थात् सूंडसे निकाले हुए जलके छींटोंसे अपना परिश्रम प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग पानी पिलानेके लिए तालाबोंपर ले गये थे॥१२०।। जो धीरे-धीरे चलनेसे मार्गमें उत्पन्न हुए परिश्रमको प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत १ पल्ययनखलीनादिपरिकराः । २ आघ्रापयन्ति स्म ३ विवर्तयितुमिच्छवः । ४-कीर्ण ल०। ५ कम्पन्ति स्म । ६ -निलोद्धृतः ल० । ७ अयं नु ल०। ८ कुसुमरजोवतीम्, ऋतुमतीमिति ध्वनिः । ९ दृष्ट्वा ल०, द०। १० जलानीत्यर्थः । ११ प्रमाणम् । 'वष्म देहप्रमाणयोः' इत्यभिधानात् । १२ गजैरेव । १३ स्वकरीत्याकारेण पर्यन्तप्रसारितैः । १४ तृषितान् । 'उदन्या तु पिपासा तृट' इत्यभिधानात् । १५ करशीकरप्रकटित । 'वमथुः करशीकरः' इत्यभिधानात् । १६ हस्त्यारोहाः । 'हस्त्यारोहा निषादिनः' इत्यमरः । १७ मन्दगमनेन । म्खलद्गमनेन वा । अगमनेनेत्यर्थः । 'अल्पे नीचैमहत्युच्चैः' । १८ अवगाहनार्थम् । १०
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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