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The thirty-ninth chapter has passed, and those who were confused are now filled with fear, thinking, "He has departed!" Those who were enemies, upon hearing, "He has arrived," bowed down in submission. ||12|| Just as a tree standing against the powerful current of a great river is uprooted, so too, any king who stood against this powerful Chakravarti, who did not bow down in humility, was destroyed, his lineage eradicated. ||13|| Bharata, whose only delight was in his own prowess, who could not even tolerate his own reflection in a mirror, how could he tolerate his enemies? ||14|| Some of his enemies, upon hearing the sound of his army, fled far away, adopting the ways of the deer. ||15|| And some, great and powerful kings, driven by fear, abandoned their kingdoms, leaving behind their umbrellas, whisks, and other royal insignia, just as snakes, shedding their skin, abandon their coiled bodies. ||16|| Just as wicked people are lifted up by the power of mantras and thrown into pits, so too, Bharata, by the power of his mantras (his counsel with his ministers), uprooted many wicked, pleasure-seeking kings and cast them into fortresses, replacing them with noble kings. ||17||
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________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व निष्क्रान्त इति संभ्रान्तैरायात इति भीवशैः । प्राप्त इत्यनस्यैश्च प्रणेमे सोऽरिभूमिपैः ॥१२॥ महापगारयस्येव तरुरस्य बलीयसः । यो यः प्रतीपमभवत् स स निर्मूलतां ययौ ॥१३॥ "प्रतीपवृत्तिमादर्श छायात्मानं च नास्मनः । विक्रमैकरसश्चक्री सोऽसोढ किमुत द्विषम् ॥१४॥ चमरवश्रवादेव कैश्चिदस्य विरोधिभिः। चमूरुवृत्तमारब्धमतिदरं पलायितैः ॥१५॥ "महाभोगैर्नृपैः कैश्चिद् भयादुत्सृष्टमण्डलैः । भुजङ्गैरिव निर्मो कस्तत्यजेऽपि परिच्छदः ॥१६॥ प्रदुष्टान् भोगिनः काशित् प्रभुरुद्धृत्य मन्त्रतः । वल्मीकेष्विव दुर्गेषु कुल्यानन्यानतिष्टिपत् ॥१७॥ पहले ही चलनेके लिए तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको चलनेके लिए तत्पर सुनकर स्वयं चलनेके लिए तत्पर हो जाते थे अर्थात् स्थान छोड़कर भागनेकी तैयारी करने लगते थे अथवा भरतकी ही शरणमें आनेके लिए उद्यत हो जाते थे, जिस प्रकार महाराजके नगरसे बाहर निकलते ही सेनापति उनसे पहले बाहर निकल आते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको नगरसे बाहर निकला हुआ सुनकर स्वयं अपने नगरसे बाहर निकल आते थे अर्थात् नगर छोड़कर बाहर जानेके लिए तैयार हो जाते थे अथवा भरतसे मिलनेके लिए अपने नगरोंसे बाहर निकल आते थे और जिस प्रकार महाराजके प्रस्थान करते ही सेनापति उनसे पहले प्रस्थान कर देते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजका प्रस्थान सुनकर उनसे पहले ही प्रस्थान कर देते थे अर्थात् अन्यत्र भाग जाते थे अथवा चक्रवर्तीसे मिलनेके लिए आगे बढ़ आते थे ॥११॥ चक्रवर्ती भरत नगरसे बाहर निकला यह सुनकर जो व्याकुल हो जाते थे, चक्रवर्ती आया यह सुनकर जो भयभीत हो जाते थे और वह समीप आया यह सुनकर जो अस्थिरचित्त हो जाते थे ऐसे शत्रु राजा लोग उन्हें जगह-जगह प्रणाम करते ॥१२॥ जिस प्रकार किसी महानदीके बलवान् वेगके विरुद्ध खड़ा हुआ वृक्ष निर्मूल हो जाता है-जड़सहित उखड़ जाता है उसी प्रकार जो राजा उस बलवान् चक्रवर्तीके विरुद्ध खड़ा होता था-उसके सामने विनयभाव धारण नहीं करता था वह निर्मूल हो जाता था-वंशसहित नष्ट हो जाता था ॥१३॥ एक पराक्रम ही जिसे प्रिय है ऐसा वह भरत जब कि दर्पणमें उलटे पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बको भी सहन नहीं करता था तब शत्रुओंको किस प्रकार सहन करता ? ॥१४॥ कितने ही विरोधी राजाओंने तो उनकी सेनाका शब्द सुनते ही बहुत दूर भागकर हरिणकी वृत्ति प्रारम्भ की थी ॥१५॥ और कितने ही वैभवशाली बड़े-बड़े राजाओंने भयसे अपने-अपने देश छोड़कर छत्र चमर आदि राज्य-चिह्नोंको उस प्रकार छोड़ दिया था जिस प्रकार कि बड़ेबड़े फणाओंको धारण करनेवाले सर्प अपने वलयाकार आसनको छोड़कर काँचली छोड़ देते हैं ॥१६॥ जिस प्रकार दुष्ट सोको मन्त्रके जोरसे उठाकर वामीमें डाल देते हैं उसी प्रकार भरतने अन्य कितने ही भोगी-विलासी दुष्ट राजाओंको मन्त्र (मन्त्रियोंके साथ की हुई सलाह) के जोरसे उखाड़कर किलोंमें डाल दिया था, उनके स्थानपर अन्य कुलीन राजाओंको बैठाया १ समीपं प्राप्तः । २ अवस्थामतिक्रान्तैः । त्यक्तपूर्वस्वभावैस्त्यिर्थः । ३ महानदीवेगस्य। ४ प्रतिकूलम् । ५ प्रतिकूलवृत्तिम् । ६ छायास्वरूपम् । 'आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म च' इत्यमरः । ७ सहति स्म । ८ सेनाध्वनिसमाकर्णनात् । ९ कम्भोजादिदेशजऋणविशेषवर्तनम् । 'कदली कन्दली चीनश्चमूरुप्रियकावपि । समरुश्चेति हरिणा अमी अजिनयोनयः ।' इत्यभिधानात् । १० पलायिभिः ल०, प०, द०,। ११ पक्षे महाकायैः । 'भोगः सुखे स्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्तभूभागैः । पक्षे त्यक्तवलयः । १३ परिच्छदोऽपि छत्रचामरादिपरिकरोऽपि परित्यक्ततः । १४ पक्षे सर्पान् । १५ मन्त्रशक्तिः । १६ सत्कुलजाम् । १७ स्थापयति स्म ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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