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________________ ४२ आदिपुराणम् अनाशितंभयं' पीत्वा सुस्वादुसरितां जलम् । गतागतानि कुर्वन्तं संतोषादिव वीचिभिः ॥१४॥ नदीवधूभिरासेव्यं कृतरत्नपरिग्रहम् । महाभोगिभिराराध्यं चातुरन्तमिव प्रभुम् ॥८५॥ यादोदोर्घातनिर्धात दंरोच्चलितशीकरैः । सपताकमिवाशेषशेषार्णवविनिर्जयात् ॥८६॥ कुलाचल पृथुस्तम्भजम्बू द्वीपमहौकसः । विनीलरत्ननिर्माणमकं सालमिवोच्छुितम् ॥८७॥ अनादिमस्तपर्यन्तमखिलार्थावगाहनम् । गभीरशब्दसंदर्भ श्रुतस्कन्धमिवापरम् ॥८॥ नित्यप्रवृत्तशब्दत्वाद् द्रव्यार्थिकनयाश्रितम् । वीचीनां क्षणभङगित्वात् पर्यायनयगोचरम् ॥८६॥ नित्यानुबद्धतृष्णत्वात् शश्वज्जलपरिग्रहात्। गुरूणां च तिरस्कारात किंराजानमिवान्वहम् ॥१०॥ मूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिए प्रारम्भ-कालमें विरोध मालम होता है परन्तु बादमें उसका परिहार हो जाता है। परिहार इस प्रकार समझना चाहिए कि वह मद्यके संगमसे रहित होकर मधु अर्थात् पुष्परसकी विक्रिया धारण कर रहा था अथवा मनोहर जलपक्षियोंकी क्रियाएँ धारण कर रहा था और कामज्वरसे रहित होकर भी उद्रिक्त-कन्दर्प था अर्थात जलके अहंकारसे सहित था। वह समुद्र किनारेपर आती-जाती हुई लहरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो जिससे कभी तप्ति न हो ऐसा नदियोंका मीठा जल पीकर लहरों-द्वारा सन्तोषसे गमनागमन ही कर रहा हो। अथवा वह समुद्र चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अनेक स्त्रियोंके द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी नदीरूपी अनेक स्त्रियोंके द्वारा सेवित था, जिस प्रकार चक्रवर्तीके पास अनेक रत्नोंका परिग्रह रहता है उसी प्रकार उस समुद्रके पास भी अनेक रत्नोंका परिग्रह था, जिस प्रकार चक्रवर्ती महाभोगी अर्थात् बड़े-बड़े राजाओंके द्वारा आराधन करने योग्य होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी महाभोगी अर्थात् बड़े-बड़े सोके द्वारा आराधन करने योग्य था और जिस प्रकार चक्रवर्ती चारों ओर प्रसिद्ध रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी चारों ओर प्रसिद्ध था-व्याप्त था। जल-जन्तुओंके आघातसे उड़ी हुई और बहुत दूर तक ऊँची उछटी हुई जलकी बूंदोंसे वह समुद्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाकीके समस्त समुद्रोंको जीतनेसे अपनी विजय-पताका ही फहरा रहा हो। उस समुद्रका नीले रंगका पानी वायुके वेगसे ऊपरको उठ रहा था जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कुलाचलरूपी बड़े-बड़े खम्भोंपर बने हुए जम्बूद्वीपरूपी विशाल घरका नील रत्नोंसे बना हुआ एक ऊँचा कोट ही हो । अथवा वह समुद्र दूसरे श्रुतस्कन्धके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध आदि-अन्त-रहित है उसी प्रकार वह समुद्र भी आदि-अन्त-रहित था, जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध समस्त पदार्थों का अवगाहन-निरूपण करनेवाला है उसी प्रकार वह समुद्र भी समस्त पदार्थोंका अवगाहन-प्रवेशन-धारण करनेवाला है, और जिस प्रकार श्रुतस्कन्धमें गम्भीर शब्दोंकी रचना है उसी प्रकार उस समद्रमें भी गम्भीर शब्द होते रहते थे-अथवा वह समुद्र द्रव्याथिक नयका आश्रय लेता हुआ-सा जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार द्रव्याथिक नयसे प्रत्येक पदार्थमें नित्य शब्दकी प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार उस समद्र में भी नित्य शब्दकी प्रवृत्ति हो रही थी अर्थात् निरन्तर गम्भीर शब्द होता रहता था। अथवा उसकी लहरें क्षणभंगुर थीं इसलिए वह पर्यायार्थिकके गोचर भी मालूम होता था क्योंकि पर्यायार्थिक नय पदार्थोंको क्षणभंगुर अर्थात् अनित्य बतलाता है। अथवा वह समुद्र किसी दुष्ट राजाके समान मालूम होता था क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट राजा सदा तृष्णासे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सदा तृष्णासे सहित रहता था अर्थात् प्रतिक्षण अनेक नदियोंका जल ग्रहण करते रहने१ अतृप्तिकरम् । २ महासः । ३ सार्वत्रिक प्रसिद्धमित्यर्थः । चातुरङ्ग-स०, इ०, अ०, प० । ४ नि तैल० । ५ महागृहस्य । ६ जडस्वीकारात् । ७ गुरुद्रव्याणामधःकरणात् । ८ कुत्सितराजानम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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