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The thirtieth chapter: The emperor Bharat, eager to conquer the western region, set out with his army, conquering the southern and western regions (the southwest). [1] His army was led by a group of horses, followed by chariots, with elephants in the middle and infantry spread throughout. [2] The army of Bharat, consisting of elephants, horses, chariots, and infantry, marched alongside the armies of the gods and the vidyadharas. Thus, his army expanded in all directions with its six limbs. [3] The movement of the army caused the ocean to churn and wave, as if it were telling the servants, "Everyone should follow the great men." [4] The kings, overwhelmed by the army's force, were humbled, the rivers were filled with mud, and the great mountains, like the earth, were leveled. [5] All the achievements of this emperor, which were delightful to enjoy, satisfying, and desirable to those who wished to enjoy them, bore fruit with his great efforts. [6] The strength and army of Bharat, impenetrable, firmly united, and the cause of the enemy's destruction, were influencing the enemy kings. [7] The warriors of Bharat were like his arrows, for just as warriors were equipped with fruit, i.e., desired benefits, so too were arrows equipped with fruit, i.e., iron tips. Just as warriors were sharp, i.e., brilliant, so too were arrows sharp, i.e.,
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________________ त्रिंशत्तमं पर्व 'अथापरान्तं निर्जेतुमुद्यतः प्रभुरुद्ययौ । दक्षिणापादिग्भागं वशीकुर्वन् स्वसाधनः ॥१॥ पुरः प्रयातमश्वीयैरन्वक प्रचलितं रथैः । मध्ये हस्तिवटा प्रायात् सर्वत्रैवात्र पत्तयः ॥२॥ "सदेवबलमित्यस्य चतुरङ्ग विभोर्चलम् । विद्याभृतां बलैः साई पड्भिरङ्गैविपप्रथें ॥३॥ प्रचलदलसंक्षोभादुच्चचाल किलार्णवः । महतामनुवृत्तिं नु श्रावयन्ननुर्जाविनाम् ॥४॥ बलैः प्रसह्य निभुक्ताः प्रह्वन्ति स्म महीभुजः । सरितः कर्दमन्ति स्म स्थलन्ति स्म महायः॥५॥, सुरसाः कृतनिर्वाणाः स्पृहणीया बुभुश्चभिः । महद्भिः सममुद्योगैः फलन्ति स्मास्प सिद्धयः ॥६॥ अभेद्या दृढसंवाना' विपक्षजय हेतवः । शक्तयोऽस्य स्फुरन्ति स्म सेनाश्च विजिगीषुषु ॥७॥ फलेन' योजितास्तीक्ष्णाः सपना दूरगामिनः । नाराचैः सम मेतस्य योधा जग्मुर्जयाङ्गताम् ॥८॥ अथानन्तर-पश्चिम दिशाको जीतनेके लिए उद्यत हुए चक्रवर्ती भरत अपनी सेनाके द्वारा दक्षिण और पश्चिम दिशाके मध्यभाग ( नैऋत्य दिशा ) को जीतते हुए निकले ॥१॥ उनकी सेनामें घोड़ोंके समूह सबसे आगे जा रहे थे, रथ सबसे पीछे चल रहे थे, हाथियोंका समूह बीचमें जा रहा था और प्यादे सभी जगह चल रहे थे ॥२॥ हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे इस प्रकार चार तरहकी भरतकी सेना देव और विद्याधरोंकी सेनाके साथ-साथ चल रही थी। इस प्रकार वह सेना अपने छह अंगोंके द्वारा चारों ओर विस्तार पा रही थी ।।३।। उस चलती हुई सेनाके क्षोभसे समुद्र भी क्षुभित हो उठा था - लहराने लगा था और ऐसा जान पड़ता था मानो 'सबको महापुरुषोंका अनुकरण करना चाहिए' यही बात सेवक लोगोंको सुना रहा हो ॥४।। सेनाके द्वारा जबरदस्ती आक्रमण किये हुए राजा लोग नम्र हो गये थे, नदियोंमें कीचड़ रह गया था और बड़े-बड़े पहाड़ समान – जमीनके सदृश-हो गये थे ।।५।। जिनका उपभोग अत्यन्त मनोरम है, जो सन्तोष उत्पन्न करनेवाली हैं, और जो उपभोगकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंके द्वारा चाहने योग्य हैं ऐसी इस चक्रवर्तीकी समस्त सिद्धियाँ इसके बड़े भारी उद्योगोंके साथ-ही-साथ फल जाती थीं अर्थात् सिद्ध हो जाती थीं - ॥६॥ जिन्हें कोई भेद नहीं सकता है, जिनका संगठन अत्यन्त मजबूत है और जो शत्रुओंके क्षयका कारण हैं ऐसी भरतकी शक्ति तथा सेना दोनों ही शत्रु राजाओंपर अपना प्रभाव डाल रहे थे ।।७।। भरतके योद्धा उनके बाणोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार योद्धा फल अर्थात् इच्छानुसार लाभसे युक्त किये जाते थे उसी प्रकार बाण भी फल अर्थात् लोहेकी नोकसे युक्त किये जाते थे, जिस प्रकार योद्धा तीक्ष्ण अर्थात् तेजस्वी थे उसी प्रकार बाण भी तीक्ष्ण अर्थात् १ 'रूप्याद्रिनाथनतमौलिविराजिरत्नसंदोहनिर्गलितदीप्तिमयाङ्घ्रिपद्मम् । देवं नमामि सततं जगदेकनाथं भक्त्या प्रणष्टदुरितं जगदेकनाथम् ।। 'त' पुस्तकेऽधिकोऽयं श्लोकः । २ अपरदिगवधिम् । ३ अभ्युदयवान् । ४ नैर्ऋत्यदिग्भागम् । ५ पश्चात् । ६ अगच्छत् । ७ सदेवं ल०। ८ प्रकाशते स्म । ९ भटानाम् । १० बलात्कारेण । ११ निर्जिताः । १२ प्रणता इव आचरन्ति स्म। १३ महीभुजः वृक्षा वा। १४ कर्दमा इवाचरिताः । १५ सिद्धिपक्षे रागसहिताः । फलपक्षे रससहिताः । 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः । १६ कृतसुखाः । १७ भोक्तुमिच्छुभिः । आश्रितजनैरित्यर्थः । १८ उत्साहैः। १९ फलानीवाचरन्ति स्म । २० कार्यसिद्धयः । २१ दृढ- . संबन्धाः । २२ -क्षय-ल० । २३ प्रभुमन्त्रोत्साहरूपाः । २४ तीरिफलेन अभीष्टफलेन च। २५ पत्रसहिताः सहायाश्च । २६ बाणः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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