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## Adipurana **45.** In the battles of water, sight, and arms, whoever emerges victorious shall be the self-chosen husband of Jayashri, the goddess of victory. **46.** Thus, with the deep sound of the drums, bringing joy to all, the ministers gathered the chief warriors of both armies. **47.** The kings who were on Bharat's side were seated on one side, and those who were on Bahubali's side were seated on the other. **48.** In the midst of all these kings, Bharat and Bahubali stood resplendent, as if the mountains of Nishadha and Nila had come together by some chance. **49.** Bahubali, with his body adorned with the beauty of sapphire, and his hair as black as night, appeared like a tall Jambū tree, buzzing with bees. **50.** Similarly, the king of kings, Bharat, with his body towering with a crown, and his complexion like molten gold, appeared like Mount Sumeru, adorned with a peak. **51.** With unwavering, tranquil gaze, and great patience, Bahubali quickly won the battle of sight. **52.** The kings, seeing the surging tide of Bahubali's army, restrained their own forces, and with great respect, acknowledged Bahubali's victory in the battle of sight. **53.** Then, filled with pride, like intoxicated elephants, the two brothers entered the lake for the water battle, and with their long arms, they splashed water at each other. **54.** The bright spray of water, flung by Bahubali at Bharat's chest, appeared like a stream flowing through the heart of Mount Sumeru. **55.** The powerful stream of water, released by Bharat, passed far beyond Bahubali's face, falling down at a distance.
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________________ आदिपुराणम् जलदृष्टिनियुद्धेषु योऽनयोजयमाप्स्यति । स जयश्रीविलासिन्याः पतिरस्तु स्वयंवृतः ॥ ४५ ॥ इत्युद्धोप्य कृतानन्दमानन्दिन्या गभीरया | भेर्या चमूप्रधानानां न्यधुरेकत्र संनिधिम् ॥४६॥ नृपा भरतगृह्या ये तानेकत्र न्यवेशयन् । ये बाहुबलिगृह्याश्च पार्थिवांस्तानतोऽन्यतः ॥४७॥ मध्ये महीभृतां तेषां रेजतुस्तौ नृपौ स्थित। । गतौ निषधनीलादी कुतश्चिदिव संनिधिम् ॥४८॥ "तयोर्भुजबली रंजे गडग्रासच्छविः । जम्बूदुम इवोत्तुङ्गः सभृङ्गोऽसित मूर्द्धजः ॥ ४९॥ रराज राजराजोऽपि तिरीटोदग्रविग्रहः । सचूलिक इवाङ्गीन्द्रः तप्तचामीकरच्छविः ॥ १०॥ दधीरतरां दृष्टि निर्निमेषामनुद्भटाम् । दृष्टियुद्धे जयं प्राप प्रसभं भुजविक्रमी ॥ ५१ ॥ विनिवार्य कृतक्षोभमनिवार्य बलार्णवम् । मर्यादया यवीयांसं जयेनायोजयन्नृपाः ॥५२॥ सरसीजलमा गाढ" जलयुद्धे मदोद्धृतौ । दिग्गजाविव तौ दीर्घव्यत्यु' 'क्षीमासतुर्भुजैः ॥ ५३ ॥ अधिवक्षस्तरं जिष्णो रेजुरच्छा जलच्छटाः । शैलभत्तुरिवोत्सङ्गसंगिन्यः स्रुतयोऽम्भसाम् ॥५४॥ जलौघो भरतेशेन मुक्तो दीर्बलशालिनः । प्राशोरप्राप्य दूरेण मुखमारात् समापतत् ॥२५॥ 13 २०४ किया ||४४ || इन दोनोंके बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुमें जो विजय प्राप्त करेगा ant विजय लक्ष्मीका स्वयं स्वीकार किया हुआ पति हो, इस प्रकार सबको आनन्द देनेवाली गम्भीर भेरियोंके द्वारा जिसमें सबको हर्ष हो इस रीति से घोषणा कर मन्त्री लोगोंने सेनाके मुख्य-मुख्य पुरुषोंको एक जगह इकट्ठा किया ।। ४५-४६ ।। जो भरतके पक्षवाले राजा थे उन्हें एक ओर बैठाया और जो बाहुबली के पक्षके थे उन्हें दूसरी ओर बैठाया || ४७|| उन सब राजाओंके बीच में बैठे हुए भरत और बाहुबली ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किसी कारण से निषध और नीलपर्वत ही पास-पास आ गये हों ॥ ४८ ॥ उन दोनोंमें नीलमणिके समान सुन्दर छविको धारण करता हुआ और काले-काले केशोंसे सुशोभित कुमार बाहुबली ऐसा जान पड़ता था मानो भ्रमरोंसे सहित ऊँचा जम्बूवृक्ष ही हो ॥ ४९ ॥ | इसी प्रकार मुकुटसे जिसका शरीर ऊँचा हो रहा है और जो तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिको धारण करनेवाला है ऐसा राज राजेश्वर भरत भी इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो चूलिकासहित गिरिराज सुमेरु ही हो ॥५०॥ अत्यन्त धीर तथा पलकों के संचारसे रहित शान्त दृष्टिको धारण करते हुए कुमार बाहुबलीने दृष्टियुद्ध में बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर ली ॥ ५१ ॥ हर्षसे क्षोभ मचाते हुए बाहुबली दुर्निवार सेनारूपी समुद्रको रोककर राजाओंने बड़ी मर्यादाके साथ कुमार बाहुबलीको विजयसे युक्त किया अर्थात् दृष्टियुद्ध में उनकी विजय स्वीकार की ॥ ५२ ॥ तदनन्तर मदोन्मत्त दिग्गजोंके समान अभिमानसे उद्धत हुए वे दोनों भाई जलयुद्ध करनेके लिए सरोवर के जल में प्रविष्ट हुए और अपनो लम्बी-लम्बी भुजाओंसे एक दूसरेपर पानी उछालने लगे ।। ५३ ।। चक्रवर्ती भरतके वक्षःस्थलपर बाहुबलीके द्वारा छोड़ी हुई जलकी उज्ज्वल छटाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो सुमेरुपर्वतके मध्यभागमें जलका प्रवाह ही पड़ रहा हो । ॥ ५४ ॥ भरतेश्वरके द्वारा छोड़ा हुआ जलका प्रवाह अत्यन्त ऊँवे बाहुबलीके मुखको दूर छोड़कर दूरसे ही नीचे जा पड़ा | भवार्थ - भरतेश्वरने भी बाहुबलीके ऊपर पानी फेंका था परन्तु बाहुबलीके ऊँचे होनेके कारण वह पानी उनके मुख तक नहीं पहुँच सका, दूरसे ही नीचे जा पड़ा। भरतका शरीर पाँच सौ धनुष ऊँचा था और बाहुबलीका पाँच सौ पच्चीस - १ जलयुद्धदृष्टियुद्धबाहुयुद्धेषु । 'नियुद्धं बाहुयुद्धे' इत्यभिधानात् । २ चक्रुः । ३ कारणात् । ४ सम्मेलनमित्यर्थः । ५ तयोर्मध्ये | ६ नीलकेशः । ७ शान्ताम् । ८ शीघ्रम् । ९ अनुजम् । 'जघन्यजे स्युः कनिष्ठयवीयोऽवरजानुजाः ' इत्यभिधानात् । १० प्रविष्टौ । ११ परस्परं जलसेचनं चक्रतुः । १२ प्रवाहाः । १३ उन्नतस्य ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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