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## Adipuranam **Verse 184:** This water of the ocean, flowing like serpents, is seen within, with millions of shining gems. It appears like a great blue mansion, adorned with countless lamps, dispelling the darkness. **Verse 185:** The intoxicated peacocks dance, while the wind blows, creating a sound like the *puṣkara* (a musical instrument). The celestial maidens, adorned with garlands, play merrily on the edge of the island, accompanied by the sound of the ocean. **Verse 186:** The dark blue ocean, roaring loudly, adorned with sparkling gems on the raised hoods of serpents, embraces the clouds. It is clear that the ocean, like the clouds, cannot leave its place during the rainy season. **Verse 187:** Behold, on the shore of the ocean, these rows of forests, their heat calmed, their waters spread out, adorned with flowers, and washed by the splashing drops of waves, like blue garments scattered with flowers. **Verse 188:** The deer, nourished by the sweet lotus, roam for a long time around the lakes, enjoying the peaceful and naturally pleasant abode on the shore. **Verse 189:** Seeing the forest fire, the deer, terrified, run swiftly along the shore, their golden bodies shining with fear. **Verse 183:** These serpents, with their jeweled hoods raised high, looking towards the sky, seem as if the great ocean is holding a cluster of lamps in its vast, wave-like hands.
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________________ आदिपुराणम् भुजङ्गप्रयातैरिदं वारिराशेर्जलं लक्ष्यतेऽन्तःस्फुरद्रत्नकोटि । महानीलवेश्मेव दीपैरनेकैवलगिश्वलद्भिस्ततध्वान्तनुद्भिः ॥१८४॥ मत्तमयूरवृत्तम् वातावाता "पुकरवाद्यब्वनिमुच्चैस्तन्वानेधो मन्द्रगनीरं कृतलास्याः । द्वीपोपान्त सन्ततमस्पिन सुरकन्या रंरम्यन्त मतमयरैः सममेताः ॥१८५॥ नीलं श्यामाः कृतरवमुच्चैर्धतनादा विद्युद्वन्तः स्फुरितभुजङ्गोत्कणरत्नम् । आश्लिष्यन्ती जलदसमूहा जलमस्य व्यक्ति नोपवजितुमलं ते घनकाले ॥१८६॥ पश्याम्भोधेरनुतटमेनां वनराजी राजीवास्य प्रशमिततापां विततापाम् ।। वेलोत्सर्पजलकणिकाभिः'' परिधौता नीलां शाटीमिव सुमनोभिः प्रविकीर्णाम् ॥१८७॥ तोटकवृत्तम् परितः सरसीः सरसैः कमलैः सुहिताः सुचिरं विचरन्ति मृगाः । "उपतीरममुष्य निसर्गसुखां वसतिं' 'निरुपद्रुतिमेत्य वने ॥१८८॥ अनुतीरवनं मृगयूथमिदं कनकस्थलमुज्ज्वलितं रुचिभिः । परिवीक्ष्य दवानलशङ्कि भृशं परिधावति धावति तीरभुवः ॥१८९॥. रत्नसहित फणाके अग्रभागसे अपने मस्तकको ऊँचा उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए ये सर्प ऐसे जान पड़ते हैं मानो इस महासमुद्रने अपने तरंगोंरूपी बड़े-बड़े हाथोंसे दीपकोंके समूह ही धारण कर रखे हों ॥१८३।। जिसके भीतर करोड़ों रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा यह महासमद्रका जल सोके इधर-उधर जानेसे ऐसा दिखाई देता है मानो फैले हए अन्धकारको नष्ट करते हुए, जलते हुए और चलते हुए अनेक दीपकोंसे सहित महानील मणियोंका बना हुआ घर हो हो ।।१८४॥ जिस समय यह समुद्र वायुके आघातसे पुष्कर ( एक प्रकारका बाजा )के समान गम्भीर और ऊँचे शब्द करता है उस समय इस द्वीपके किनारेपर इन उन्मत्त मयूरोंके साथ साथ नृत्य करती हुई ये देवकन्याएँ निरन्तर क्रीड़ा किया करती हैं ।। १८५ ॥ वर्षाऋतुमें बादलोंके समूह और इस समुद्रका जल दोनों एक समान रहते हैं क्योंकि वर्षाऋतुमें बादलोंके समूह काले रहते हैं और समुद्रका जल भी काला रहता है, बादलोंके समूह जोरसे गरजते हुए आनन्दित होते हैं और समुद्रका जल भी जोरसे शब्द करता हुआ आनन्दित होता है - लहराता रहता है, बादलोंके समूहमें बिजली चमकती है और समुद्रके जलमें भी सर्पोके ऊँचे उठे हुए फणाओंपर रत्न चमकते रहते हैं, इस प्रकार बादलोंके समूह अपने समान इस समुद्रके जलका आलिंगन करते हुए वर्षाऋतुमें किसी दूसरी जगह नहीं जा सकते यह स्पष्ट है ।। १८६ ।। कमलके समान सुन्दर मुखको धारण करनेवाले हे देव, समुद्र के किनारे-किनारेकी इन वनपंक्तियोंको देखिए जिनमें कि सूर्यका सन्ताप बिलकुल ही शान्त हो गया है, जहाँ-तहाँ विस्तृत जल भरा हुआ है, जो फूलोंसे व्याप्त हो रही हैं और जो बेड़ी-बड़ी लहरोंके उछलते हुए जलकी बूंदोंसे धोई हुई नीले रंगको साड़ियोंके समान जान पड़ती हैं ।।१८७॥ इस समुद्रके किनारेके वनमें उपद्रवरहित तथा स्वभावसे ही सुख देनेवाले स्थानपर आकर सरस कलमी धानोंको खाते हुए ये हरिण बहुत काल तक इन तालाबोंके चारों ओर घूमा करते हैं ॥१८८। इस किनारेके वनमें कान्ति १ व्याप्तान्धकारनाशकैः । २ जलमिति वाद्य अथवा चर्मानद्धवाद्यभेदः । ३ सममेतैः ल०, द० । ४ धृतमोदा ल। ५ तडिद्वन्तः । ६ व्यक्तं ल०। ७ गन्तुम् । ८ मेघसम्हाः । ९ कमलास्य । १० विस्तृतजलाम् । ११ जललवैः । 'कणिका कथ्यतेऽत्यन्ता सूक्ष्मवस्त्वग्निमन्थयो:' ।। १२ वस्त्रम् । १३ सरसीनां समन्ततः । १४ पोषिताः । १५ तटे। १६निरुपद्रवाम । १७ तटवने । १८ परिमण्डले (वेलायाम्)
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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