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278 Adipurana - At that time, he is born from the womb of supreme knowledge, through the birth of संस्कार. He is called a द्विज, adorned with vows and conduct. ||13|| The mark of his vow is the सूत्र, preceded by a mantra. It is made of material, conceived of as distinct from the essence, and is the chief instrument of the knowledge of the omniscient. ||94|| His sacred thread (यज्ञोपवीत) is made of three materials. His सूत्र, however, is based on the essence, and is made of three qualities. ||95|| When he has received the संस्कार, he attains the supreme Brahman. Then, the leaders of the गणs welcome him with words of blessing. ||96|| They give him the remaining Jain flowers and rice grains, which are appropriate. This is a form of stabilization and a great encouragement to Dharma. ||97|| He is born from the divine womb of knowledge, without a womb. Having attained this supreme birth, he becomes a member of the same caste. ||98|| Then, having attained the same caste, he becomes a good householder. As a householder, he follows the six duties of the Aryas. ||99|| He performs all the pure conduct prescribed in the household life, without laziness. ||100|| He has received a noble birth from the Jinas, and has been taught by the गणendras. This best द्विज possesses the supreme brilliance of Brahman. ||101|| At that time, the righteous people praise him, saying, "You are like the supreme brilliance of Brahman, who has descended to the earth." ||102|| He is wise, and performs sacrifices, being worshipped by the sacrificers. He teaches and learns the Vedas and their branches. ||103||
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________________ २७८ आदिपुराणम् - तदैष परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति व्रतैः शीलैश्च भूषितः ॥१३॥ व्रतचिह्नं भवेदस्थ सूत्रं' मन्त्रपुरःसरम् । सर्वज्ञाज्ञाप्रधानस्य द्रव्यमावविकल्पितम् ॥९॥ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमौपासिकं तु स्याद् भावारूढ स्त्रिभिर्गुणैः ॥१५॥ यदैव लब्धसंस्कारः परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ॥१६॥ लम्भयन्त्युचितां शेषां जैनी पुष्पैरथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ॥९७॥ अयोनिसंभवं दिव्यज्ञानगर्भसमुद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सजातिभाग्भवेत् ॥९८॥ ततोऽधिगतसजातिः सद्गृहिस्वमसौ भजेत् । गृहमेधीभवन्नार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ॥९९॥ यदुक्तं गृहचर्यायामनुष्टानं विशुद्धिमत् । तदाप्तविहितं कृत्स्नमतन्द्रालुः समाचरेत् ॥१०॥ जिनेन्द्रालब्धसजन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ॥१०॥ तमेनं धर्मसाद्भुतं श्लाघन्ते धार्मिका जनाः । परं तेज "इव ब्राह्ममवतीणं महीतलम् ॥१०॥ स यजन्याजयन् धीमान् यजमानरुपासितः। अध्यापयन्नधीयानो "वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥ को प्राप्त करता है उस समय वह उत्कष्ट ज्ञानरूपी गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उत्पन्न होता है और व्रत तथा शीलसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है ॥९२-९३॥ सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाला वह द्विज जो मन्त्रपूर्वक सूत्र धारण करता है वही उसके व्रतोंका चिह्न है, वह सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ।।९४॥ तीन लरका जो यज्ञोपवीत है वह उसका द्रव्यसूत्र है और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी गुणोंसे बना हुआ जो श्रावकका सूत्र है वह उसका भावसूत्र है ।।९५॥ जिस समय वह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्रह्मको प्राप्त होता है उस समय आचार्य लोग आशीर्वादरूप वचनोंसे उसकी प्रशंसा कर उसे पुष्प अथवा अक्षतोंसे जिनेन्द्र भगवान्की आशिषिका ग्रहण कराते हैं अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजासे बचे हुए पुष्प अथवा अक्षत उसके शिर आदि अंगोंपर रखवाते हैं क्योंकि यह एक प्रकारका स्थिरीकरण है और धर्ममें अत्यन्त उत्साह बढ़ानेवाला है ॥९६-९७॥ इस प्रकार जब यह भव्य जीव बिना योनिके प्राप्त हुए दिव्यज्ञानरूपी गर्भसे उत्पन्न होनेवाले उत्कष्ट जन्मको प्राप्त होता है तब वह सज्जातिको धारण करनेवाला समझा जाता है ॥९८॥ यह सज्जाति मामकी पहली किया है। तदनन्तर जिसे सज्जाति किया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व कियाको प्राप्त होता है इस प्रकार जो सद्गृहस्थ होता हुआ आर्य पुरुषोंके करने योग्य छह कर्मोका पालन करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान्के द्वारा कहे हुए उन उन समस्त आचरणोंका जो आलस्य-रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज - आत्मतेजको धारण करता है ॥९९-१०१।। उस समय धर्मस्वरूप हुए उस भव्यकी अन्य धर्मात्मा लोग यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू पृथिवीतलपर अवतीर्ण हुआ उत्कृष्ट ब्रह्मतेजके समान है ॥१०२॥ पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोंसे भी कराता १ यज्ञसूत्रम् । २ उपासकाचारसंबन्धि । ३ मनसा विकल्पितः। ४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः। उपलब्धिउपयोगसंस्कारैर्वा । ५ परमज्ञानम्, परमतपो वा । ६ आचार्याः । ७ प्रापयन्ति । ८ प्रवर्तनम् । ९ समाचरन् द०, अ०, ल०, ५०, इ०, स०। १० वृत्ताध्ययनसंपत्तिम् । 'स्याद् ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययनद्धिः' इत्यभिधानात् । ११ ज्ञानसंबन्ध्युत्कृष्टतेज इव । १२ यजनं कुर्वन् । १३ यजनं कारयन् । १४ पूजाकारकैः । १५ आराधितः । १६ अध्ययनं कारयन् । १७ आगम - आगमाङ्ग।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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