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52 The Adi Purana says: Water is the wealth of this ocean, rivers that carry rasa (water, essence, or love) are its wives, aquatic creatures are its sons, and sand is its jewels. Thus, this ocean, though possessing little wealth, still bears the grand name of Mahasagara. This is indeed a wonder! (174) The serpents, whose bodies are stained with the smoke of their breaths, whose hoods are adorned with shining jewels, who move in circles, and who suddenly become angry, all display the splendor of the Alaat Chakra in this ocean. (175) This ocean, whose waters are touched by the cool feet of the moon, suddenly leaps towards the sky, as if in anger, with a deep roar, using the waves as a ruse to avenge itself. For, great men cannot tolerate humiliation. (176) There are countless beautiful islands in this ocean, like fortresses in the middle of the sea, where the celestial beings, accompanied by their beloved consorts, play and enjoy themselves. (177) Many waves reside in this ocean, all pushing against each other. (173)
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________________ ५२ आदिपुराणम् आपो धनं धृतरसाः सरितोऽस्य दाराः पुत्रीयिता जलचराः सिकताश्च रनम् । इत्थं विभूति लवदुर्ललितो विचित्रं धत्ते महोदधिरिति प्रथि मानमेषः ॥ १७४॥ निःश्वासधूममलिनाः फणमण्डलान्तः सुव्य करत्नरुचयः परितो भ्रमन्तः । व्यायच्छमानतनवो रुषित रकस्मादब्रोल्मुकश्रियममी दधते फणीन्द्राः ॥१७५॥ पादैरयं जलनिधिः शिशिरैरपीन्दोरास्पृश्यमानसलिलः सहसा ख मुद्यन् । रोषादिवोच्चलति मुक्तगभीरभाषो वेलाच्छलेन"न महान् सहतेऽभिभूतिम् ॥१७६॥ नाकौकसां धृतरसं"सहकामिनीभिराक्रीडनानि "सुमनोहरकाननानि । द्वीपस्थलानि रुचिराणि सहस्रशोऽस्मिन् सन्त्यन्तरीपमिव दुर्गनिवेशनानि ॥१७७॥ अनेक लहरें ये सब चारों ओरसे एक दूसरेको धक्का देते हुए एक ही साथ इस समुद्र में निवास कर रहे हैं ॥१७३॥ हे प्रभो, इस समुद्रके जल ही धन हैं, रस अर्थात् जल अथवा शृंगार या स्नेहको धारण करनेवाली नदियाँ ही इसकी स्त्रियां हैं, मगरमच्छ आदि जलचर जीव ही इसके पुत्र हैं और बालू ही इसके रत्न हैं इस प्रकार यह थोड़ी-सी विभूतिको धारण करता है तथापि महोदधि इस भारी प्रसिद्धिको धारण करता है यह आश्चर्यको बात है। भावार्थ - इस श्लोकमें कविने समुद्रकी दरिद्र अवस्थाका चित्रण कर उसके महोदधि नामपर आश्चर्य प्रकट किया है। दरिद्र अवस्थाका चित्रण इस प्रकार है। हे प्रभो, इस समुद्रके पास आजीविकाके योग्य कुछ भी धन नहीं है । केवल जल ही इसका धन है अर्थात् दूसरोको पानी पिला पिलाकर ही अपना निर्वाह करता है. इसकी नदीरूप स्त्रियोंका भी बुरा हाल है वे वेचारी रस-जल धारण करके अर्थात् दूसरेका पानी भर-भरकर ही अपनी आजीविका चलाती हैं। पुत्र हैं परन्तु वे सब जलचर अर्थात् ( जडचर ) मूर्ख मनुष्योंके नौकर हैं अथवा मूर्ख होनेसे नौकर हैं अथवा पानीमें रहकर शेवाल बीनना आदि तुच्छ कार्य करते हैं, इसके सिवाय कुलपरम्परासे आयो हुई सोना-चाँदी रत्न आदिकी सम्पत्ति भी इसके पास कुछ नहीं है - बाल ही इसके रत्न हैं, यद्यपि इसमें अनेक रत्न पैदा होते हैं परन्तु वे इसके निजके नहीं हैं उन्हें दूसरे लोग ले जाते हैं इसलिए दूसरेके ही समझना चाहिए इस प्रकार यह बिलकुल ही दरिद्र है फिर भी महोदधि ( महा +उ+दधिक ) अर्थात् लक्ष्मीका बड़ा भारी निवासस्थान इस नामको धारण करता है यह आश्चर्यकी बात है । आश्चर्यका परिहार ऊपर लिखा जा चुका है ॥१७४।। जो निःश्वासके साथ निकलते हुए धूमसे मलिन हो रहे हैं, जिनके फणाओंके मध्यभागमें रत्नोंकी कान्ति स्पष्ट रूपसे प्रकट हो रही है, जो चारों ओर गोलाकार घूम रहे हैं, जिनके शरीर बहुत लम्बे हैं. और जो अकस्मात ही क्रोध करने लगते हैं ऐसे ये सर्प इस समद्र में अलातचक्रकी शोभा धारण कर रहे हैं ॥१७५॥ इस समुद्र का जल चन्द्रमाके शीतल पादों अर्थात् पैरोंसे (किरणोंसे) स्पर्श किया जा रहा है, इसलिए ही मानो यह क्रोधसे गम्भीर शब्द करता हुआ ज्वारकी लहरोंके छलसे बदला चुकानेके लिए अकस्मात् आकाशकी ओर उछलकर दौड़ रहा है सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष तिरस्कार नहीं सह सकते ॥१७६॥ इस समुद्र के जलके १ पुत्रा इव आचरिताः । २ विभूतरैश्वर्यस्य लवो लेशस्तेन दुर्ललितो दुर्गवः । लवशब्दोऽत्र विचित्रकारणम् । ३ प्रसिद्धताम् । ४ फणमण्डलमध्ये। ५ सुप्रकट । ६ दीर्घ भवच्छरीराः। ७ रोषैः। ८ अलातशोभाम् । ९ किरणः चरणरिति ध्वनिः । १०-दिवोच्छ्वलति ल०। ११ जलविकारव्याजेन । 'अब्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । १२ पराभवम् । १३ क्रियाविशेषणम् । मतिरसं द० । प्रतरसां ल० । १४ आसमन्तात् क्रीडनानि येषु तानि । १५ समनोहर इत्यपि क्वचित् पाठः । १६ अन्तीपमिव । 'द्वीपोऽस्त्रियामन्तरोपं यदन्तर्वारिणस्तटम् ।' इत्यभिधानात् । १७ महाद्वीपमध्यवर्तीनि गिरिदुर्गादिनिवेशनानि च सन्तीत्यर्थः । * 'दधि क्षीरोत्तरावस्थाभाषे श्रीवाससर्जयोः' इति मेदिनी। विभतेरैश्वर्यस्य लबो लट दीर्घभवच्छर मारण्याजेन । अव्यम्समन्तात का इव आचरिताः । २ फणमण्डलमध्ये । पाच्छवलति ल० । ११ जलतरसां ल० । १४यामन्तरीप
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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