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118 Hearing the commotion outside, the kings asked, "What is this?" and, enraged, they raised their hands towards their swords. ||66|| Then, at the command of the Chakravarti, the gods bound to the Gan, enraged, drove away the Naga-mukhas with their roars in an instant. ||67|| The mighty Kuru king, Jayakumar, also, seated on his divine chariot, roared like a lion and conquered the Naga-mukhas with divine weapons. ||68|| At that time, in the battlefield, showering arrows incessantly, he, adorned with armor, shone like a rain cloud. ||69|| The blazing arrows released by Jayakumar shone in the battlefield, as if they were lamps lit to see the hidden Naga-mukhas. ||70|| Then, having conquered the Naga-mukhas and the Megha-mukhas, he, having attained the name Megheshvara, returned from the battle. ||71|| At that time, Jayakumar, roaring like thunder before a downpour, conquered the Megha-mukhas with his fierce roar and became known as Megheshvara. ||72|| The gods, whose ears were deafened by the sound of the drums that resounded repeatedly, were pleased with his valor and celebrated his victory. ||73|| Then, seeing his valor, the Chakravarti praised him repeatedly and, honoring him, appointed him to the position of the chief warrior. ||74|| As if by magic, when the trouble caused by the Naga-mukhas ceased, the army of Bharata regained its strength, that is, they began to experience happiness after the trouble was averted. ||75|| When the army of Naga-mukhas fled, both the Mlechchha kings, Chilata and Avarta, became weak and, terrified, approached the feet of the Chakravarti and bowed down. ||76|| They atoned for their offenses by giving Bharata much wealth and wealth in the form of fame and, saying, "O God, be pleased," they accepted their servitude. ||77||
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________________ ११८ आदिपुराणम् बहिः कलकलं श्रुत्वा किमतदिति पार्थिवाः । करं व्यापारयामासुः क्रुन्द्राः कौक्षेयकं प्रति ॥६६॥ ततश्चक्रधरादिष्टा गणबद्धामरास्तदा । नागानुत्सारयामासु रारुष्टा हुंकृतैः क्षणात् ॥६॥ बलवान् कुरुराजोऽपि मुक्तसिंहप्रगर्जितः । दिव्यास्त्रैरजयन्नागान् रथं दिव्यमधिष्टितः ॥६॥ तदा रणाङ्गणे वर्षन् शरधारामनारतम् । स रेजे धृतसन्नाहः प्रावृपेण्य इवाम्बुदः ॥६९।। तन्मुक्ता दिशिखा दीपा रेजिरे समराजिरें । द्रष्टुं तिरोहितानागान् दीपिका इव बोधिताः ॥७॥ ततो निववृत जित्वा नागान् मंघमुखानसौ । कुमारो रणसंरम्भात् प्राप्तमेघस्वरश्रुतिः ॥७१॥ कुरुराजस्तदा स्फूर्जत्पर्जन्य' स्तनितोजितैः । गर्जितैर्निर्जयन् मंघमुखान् ख्यातस्तदाज्ञया ॥७२॥ तोषितैरवदानेन घोषितोऽस्य जयोऽमरैः । दन्ध्वनदुन्दुभिध्वानबधिरीकृतदिङमुखैः ॥७३॥ ततो दृष्टापदानोऽयं तुष्टुवे चक्रिणा मुहुः । नियोजितश्च सत्कृत्य वीरो वीराग्रणीपदं ॥७॥ इन्द्रजाल इवामुष्मिन् व्यतिक्रान्तेऽहिविप्लवे । प्रत्यापत्तिमगाद् भूयो बलमाविर्भवजयम् ॥७॥ विध्वस्ते पन्नगानीक विबलो म्लेच्छनायकी । चक्रिणश्चरणावेत्य भयभ्रान्तो प्रणेमतुः ॥७६॥ धनं यशोधनं चास्मै कृतागः परिशोधनम् । दत्वा प्रसीद देवेति तो भृत्यत्वमुपेयतुः ॥७७॥ बाहर कोलाहल सुनकर 'यह क्या है' इस प्रकार कहते हुए राजाओंने क्रोधित होकर अपना हाथ तलवारकी ओर बढ़ाया ॥ ६६ ॥ तदनन्तर उस समय जिन्हें चक्रवर्तीने आदेश दिया है ऐसे गणबद्ध जातिके देवोंने क्रुद्ध होकर अपने हुंकार शब्दोंके द्वारा क्षण-भरमें नागमुख देवोंको हटा दिया ॥ ६७ ॥ अतिशय बलवान् कुरुवंशी राजा जयकुमारने भी दिव्य रथपर बैठकर सिंह-गर्जना करते हुए, दिव्य शस्त्रोंके द्वारा उन नागमुख देवोंको जीता ॥ ६८ ॥ उस समय युद्धके आँगनमें निरन्तर बाणोंकी वर्षा करता हुआ और शरीरपर कवच धारण किये हुए वह जयकुमार वर्षाऋतुके बादलके समान सुशोभित हो रहा था ।। ६९ ॥ जयकुमारके द्वारा छोड़े हुए वे देदीप्यमान बाण युद्धके आँगनमें ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो छिपे हुए नागमुखोंको देखनेके लिए जलाये हुए दीपक ही हों ॥७०॥ तदनन्तर वह जयकुमार नागमुख और मेघमुख देवोंको जीतकर तथा मेघेश्वर नाम पाकर उस युद्धसे वापस लौटा ॥ ७१ ।। उस समय वह जयकुमार बिजली गिरानेके पहले भयंकर शब्द करते हुए बादलोंकी गर्जनाके समान अपनी तेज गर्जनाके द्वारा मेघमुख देवोंको जीतता हुआ मेघेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ था ॥७२॥ बार-बार बजते हुए दुन्दुभियोंके शब्दोंसे जिन्होंने समस्त दिशाएँ बहिरी कर दी हैं ऐसे देवोंने इस जयकुमारके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर इसका जयजयकार किया था ।। ७३ ॥ तदनन्तर जिसका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे इस जयकुमारकी चक्रवर्तीने भी बार-बार प्रशंसा की और उस वीरका सत्कार कर उन्होंने उसे मुख्य शूरवीरके पदपर नियुक्त किया । ७४ । इन्द्रजालके समान वह नागमुख देवोंका उपद्रव शान्त हो जानेपर जिसकी जीत प्रकट हो रही है ऐसी वह भरतकी सेना पुनः स्वस्थताको प्राप्त हो गयी अर्थात् उपद्रव टल जानेपर सुखका अनुभव करने लगी ।। ७५ ॥ नागमुख देवोंकी सेनाके भाग जानेपर वे दोनों ही चिलात और आवर्त नामके म्लेच्छ राजा निर्बल हो गये और भयसे घबड़ाकर चक्रवर्तीके चरणोंके समीप आकर प्रणाम करने लगे ॥ ७६ ।। उन्होंने अपराध क्षमा कराकर भरतके लिए बहुत-सा धन तथा यशरूपी धन दिया और 'हे देव, प्रसन्न होइए' इस प्रकार कहकर उनकी दासता स्वीकार १खड्गम् । २ आज्ञापिताः । ३ पलायितान् चक्रुः । ४ क्रुद्धाः । ५ जयकुमारः । ६ धृतकवचः । ७ प्रावृषि भवः । ८ समरांगणे । ९ न्यवृतत् । १० प्राप्तमेघस्वरसंज्ञः । ११ मेघः । १२ पराक्रमेण । १३ दृष्टावदातोऽयं स०, ल०, द० । दृष्टावदानोऽयं द०, प० । दृष्टसामर्थ्य: । १४ स्तूयते स्म । १५ पूर्वस्थितिम् । स्वरूपात् प्रच्युतस्य पुनः स्वरूपे अवस्थानम्, आश्वासमित्यर्थः । १६ कृतदोषस्य परिशोधनं यस्मात् तत् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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