________________ है कि जैनदर्शन को अनेकान्तदर्शन भी कहा जाता है। उस के मत में वस्तु मात्र ही अनेकान्त (भिन्न-भिन्न पर्याय वाली) है और इसी रूप में उस का आभास होता है। , सामान्य रूप से कर्म दो भागों में विभक्त है-शुभकर्म और अशुभकर्म। शुभकर्म प्राणियों की अनुकूलता (सुख) में कारण होता है और अशुभकर्म जीवों की प्रतिकूलता (दुःख) में हेतु होता है। शास्त्रीय परिभाषा में ये दोनों पुण्यकर्म और पापकर्म के नाम से विख्यात हैं / पुण्य के फल को सुखविपाक और पाप के फल को दुःखविपाक कहा जाता है। सुखविपाक और दुःखविपाक के स्वरूप का प्रतिपादक शास्त्र विपाकश्रुत कहलाता है। जैनागमों की संख्या-वर्तमान में पूर्वापरविरोध से रहित अथच स्वत:प्रमाणभूत जैनागम 32 माने जाते हैं। उन में 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और एक आवश्यक सूत्र हैं। ये कुल 32 होते हैं। उन में 11 अङ्गसूत्र निम्नलिखित हैं १-आचाराङ्ग, २-सूत्रकृताङ्ग, ३-स्थानाङ्ग, ४-समवायाङ्ग, ५-भगवती, ६ज्ञाताधर्मकथा,७-उपासकदशा,८-अन्तकृद्दशा,९-अनुत्तरोपपातिकदशा, १०-प्रश्नव्याकरण, १११-विपाकश्रुत। - १-औपपातिक, २-राजप्रश्नीय, ३-जीवाभिगम, ४-प्रज्ञापना, ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति। ६-सूर्यप्रज्ञप्ति, ७-चद्रप्रज्ञप्ति, २८-निरियावलिका, ९-कल्पावतंसिका, १०-पुष्पिका, ११पुष्पचूलिका, १२-वृष्णिदशा, ये बारह उपाङ्ग कहलाते हैं। चार मूलसूत्र-१-नन्दी, २-अनुयोगद्वार, ३-दशवैकालिक, ४-उत्तराध्ययन। चार छेद सूत्र-१-बृहत्कल्प, २-व्यवहार, ३-निशीथ और ४-दशाश्रुतस्कन्ध। इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद सूत्रों के संकलन से यह संख्या 31 होती है, उस में आवश्यकसूत्र के संयोग से कुल आगम 32 हो जाते हैं। ये 32 सूत्र अर्थरूप से तीर्थंकरप्रणीत हैं तथा सूत्ररूप से इन का निर्माण गणधरों ने किया है और वर्तमान में उपलब्ध आगम आर्य सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं, ऐसी जैन मान्यता है / अङ्गसूत्रों में श्रीविपाकश्रुत का अन्तिम स्थान है, यह बात ऊपर के वर्णन से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। अब रह गई यह बात कि विपाकश्रुत में क्या वर्णन है, इस का उत्तर निम्नोक्त है- . . . विपाकश्रुत यह अन्वर्थ संज्ञा है। अर्थात् विपाकश्रुत यह नाम अर्थ की अनुकूलता से रखा गया है। इस का अर्थ है-वह शास्त्र जिस में विपाक-कर्मफल का वर्णन हो। कर्मफल का 1. यद्यपि अङ्गसूत्र बारह हैं इसीलिए इस का नाम द्वादशानी है, तथापि बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है, इसलिए अङ्गों की संख्या ग्यारह उल्लेख की गई है। . 2. इस का दूसरा नाम कल्पिका भी है। ,प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [69