________________ नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ (अ०५ / 15) अर्थात् ईश्वर किसी का न तो पाप लेता है तथा न किसी का पुण्य ही लेता है। अज्ञान से आवृत होने के कारण जीव स्वयं मोह में फंस जाते हैं। सारांश यह है कि कर्मफलप्रदाता ईश्वर नहीं है, इस तथ्य के पोषक अनेकों प्रवचन शास्त्र में उपलब्ध होते हैं, और पूर्वोक्त युक्तियों के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों युक्तियां पाई जाती हैं, जिनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो सकता है कि ईश्वर कर्म का फल नहीं देता, परन्तु विस्तारभय से अधिक कुछ नहीं लिखा जाता। अधिक के जिज्ञासुओं को जैनकर्मग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षित है। कर्मवादप्रधान जैनदर्शन सुख-दुःख में मात्र कर्म को ही कारण नहीं मानता, किन्तु साथ में पुरुषार्थ को भी वही स्थान देता है जो उसने कर्म को दिया है। कर्म और पुरुषार्थ को समकक्षा में रखने वाले अनेक वाक्य उपलब्ध होते हैं। जैसे कि यथा टेकेन चक्रेण, न रथस्य गतिर्भवेत्। एवं पुरुषकारेण विना, दैवं न सिध्यति॥१॥ अर्थात्-कर्म और पुरुषार्थ जीवनरथ के दो चक्र हैं / रथ की गति और स्थिति दो चक्रों के औचित्य पर निर्भर है। दो में से एक के द्वारा अर्थ की सिद्धि या अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैनदर्शन मात्र कर्मवादी या पुरुषार्थवादी ही है-यह कथन भी यथार्थ नहीं है। प्रत्युत जैनदर्शन कर्मवादी भी है और पुरुषार्थवादी भी। अर्थात् वह दोनों को सापेक्ष स्वीकार करता जैनदर्शन के कथनानुसार ये दोनों ही अपने-अपने स्थान में असाधारण हैं / यही कारण 1. समन्तभद्राचार्यकृत देवागमस्तोत्र में कर्मपुरुषार्थ. पर सुन्दर ऊहापोह किया गया है। जैसे कि दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद, दैवं पौरुषतः कथम्? दैवतश्चेद् विनिर्मोक्षः, पौरुषं निष्फलं भवेत् // 48 // पौरुषार्थादेव सिद्धिश्चेत्, पौरुषं दैवतः कथम् ? पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्, सर्वप्राणिषु पौरुषम् // 89 // भावार्थ-यदि दैव-कर्म से ही प्रयोजन सम्पन्न होता है तो पुरुषार्थ के बिना दैव की निष्पत्ति हुई कैसे? और यदि केवल दैव से ही जीव मुक्त हो जाएं तो संयमशील व्यक्ति का पुरुषार्थ निष्फल हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि यदि पौरुष से ही कार्यसिद्धि अभिमत है तो दैव के बिना पौरुष कैसे हुआ? और मात्र पौरुष से ही यदि सफलता है तो पुरुषार्थी प्राणियों का पुरुषार्थ निष्फल क्यों जाता है ? आचार्यश्री ने इन पद्यों में कर्म और पुरुषार्थ दोनों को ही सम्मिलित रूप से कार्यसाधक बताते हुए बड़ी सुन्दरता से अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। 68] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन