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८० धर्मध्यानके उपयोगमे चलना । ८१ शरीर पर ममत्व न रखें ।
श्रीमद राजचन्द्र
८२ आत्मदशा नित्य अचल है, इसमे संशय न करे ।
८३ किसीकी गुप्त बात किसीसे न करे ।
८४ किसी पर जन्म पर्यंन्त द्वेषबुद्धि न रखे ।
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८५ यदि किसीको कुछ द्वेपवश कहा गया हो, तो अति पश्चाताप करे, और क्षमा माँगें । फिर कभी वैसा न करें ।
८६ कोई तुझसे द्वेषबुद्धि करे, परंतु तू वैसा नही करना !
८७ जैसे भी हो, ध्यान शीघ्र करें।
८८ यदि किसीने कृतघ्नता की हो तो उसे भी समदृष्टि से देखें ।
८९ दूसरेको उपदेश देनेका लक्ष्य है, इसकी अपेक्षा निजधर्ममे अधिक लक्ष्य देना ।
९०. कथकी अपेक्षा मथनपर अधिक ध्यान देना ।
९१ वीरके मार्गमै सशय न करें ।
९२ ऐसा न हो तो केवलीगम्य है, ऐसा चिंतन करें, जिससे श्रद्धा बदलेगी नही ।
९३ बाह्य करनीकी अपेक्षा अभ्यतर करनी पर अधिक ध्यान देना ।
९४ 'मै कहाँसे आया ?" 'मै कहाँ जाऊँगा ?" 'मुझे क्या बंधन है ?" 'क्या करनेसे बधन चला जाये ?' 'कैसे छूटना हो ?' ये वाक्य स्मृतिमे रखें |
९५. स्त्रियोके रूप पर ध्यान रखते हैं, इसकी अपेक्षा आत्मस्वरूप पर ध्यान दें तो हित होगा ।
९६ ध्यानदशा पर ध्यान रखते है, इसकी अपेक्षा आत्मस्वरूप पर सहजतासे होगा और समस्त आत्माओको एक दृष्टिसे देखेंगे । आपके लिये यह इच्छा अन्तरसे अमर हो जायेगी । यह अनुभवसिद्ध वचन है !
ध्यान देंगे तो उपशम भाव एकचित्तसे अनुभव होगा तो
९७ किसीके अवगुण की ओर ध्यान न देना । परन्तु अपने अवगुण हो तो उन पर अधिक दृष्टि
रखकर गुणस्थ हो जाना ।
९८ बद्ध आत्माको जैसे बाँधा उससे विपरीत वर्तन करनेसे वह छूट जायेगा ।
९९ स्वस्थानक पर पहुँचनेका उपयोग रखें ।
१०० महावीर द्वारा उपदिष्ट वारह भावनाएँ भावे ।
१०१. महावीरके उपदेशवचनोका मनन करें ।
१०२ महावीर प्रभु जिस मार्गसे तरे और उन्होने जैसा तप किया वैसा तप निर्मोहतासे करना ।
१०३. परभावसे विरक्त हो ।
१०४ जैसे भी हो, आत्माका आराधन त्वरासे करें ।
१०५ सम, दम, खमका अनुभव करे ।
१०६ स्वराज पदवी स्वतप आत्माका लक्ष रखे ( दें ) |
१०७ रहन-सहन पर ध्यान देना ।
१०८. स्वद्रव्य और अन्य द्रव्यको भिन्न-भिन्न देखे |
१०९ स्वद्रव्यके रक्षक शीघ्र हो । ११० स्वद्रव्यके व्यापक शीघ्र हो । १११. स्वद्रव्यके धारक शीघ्र हो । ११२. स्वद्रव्यके रमक शोघ्र हो ।