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गाथा ३
करते हैं और 'समय' शब्द का अर्थ भी अमृतचन्द्र के समान छहद्रव्य न करके मात्र आत्मा ही करते हैं।
इसप्रकार उनके अनुसार अभेदरत्नत्रयपरिणत अर्थात् निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मा ही एकत्वनिश्चयगत आत्मा है और वही लोक में सर्व सुन्दर है, वही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है।
निष्कर्ष के रूप में वे स्पष्ट लिखते हैं -
"ततः स्थितं स्वसमय एव आत्मनः स्वरूपमिति -अत: यह निश्चित हुआ कि स्वसमय ही आत्मा का स्वरूप है ।" _ 'बंधकथा' का अर्थ कर्मजनित गुणस्थान आदि पर्याय करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा के साथ बंध की कथा अर्थात् गुणस्थानादि की चर्चा विसंवादिनी है, असत्य है । ध्यान रहे आचार्य जयसेन विसंवादिनी का अर्थ स्पष्टरूप से असत्य करते हैं।
इसप्रकार उनके अनुसार गुणस्थानादिपर्यायों की चर्चा अथवा इन पर्यायों की ओर से आत्मा की चर्चा असत्यार्थ है।
उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण का तात्पर्य यह है कि एकत्वनिश्चयगत आत्मा की कथा ही वास्तविक है, करने योग्य है, विसंवाद मिटानेवाली है और काम-भोग-बंध की चर्चा करना ठीक नहीं है, विसंवाद करनेवाली है; जिसे इस जीव ने अनन्तबार सुनी है, समझी है; पर एकत्वनिश्चयगत आत्मा की कथा न सुनी है न समझी है और न उसका परिचय ही प्राप्त किया है।
इसी भाव को आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं अगली गाथा में व्यक्त कर रहे हैं। ___ आचार्यदेव जिस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की चर्चा समयसार में करनेवाले हैं, उसके औचित्य पर प्रकाश तो आगामी गाथा में डाला जायेगा; यहाँ तो मात्र इतना ही बताना है कि बंधकथा में उलझने से कोई लाभ नहीं है।