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( मालिनी )
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन
कलश २३
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥ २३ ॥ ( हरिगीत )
निजतत्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का । हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ॥ जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयं को तव शीघ्र ही । तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ॥ २३ ॥
अरे भाई ! किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी निजात्मतत्त्व का कौतूहली होकर इन शरीरादि मूर्त द्रव्यों का एक मुहूर्त को पड़ोसी बनकर आत्मा का अनुभव कर; जिससे तू अपने आत्मा के विलास को सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर, इन शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यों के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा ।
आचार्यदेव करुणा से अत्यन्त विगलित हो मर्मस्पर्शी कोमल शब्दों में समझा रहे हैं कि अरे भाई ! मरणतुल्य कष्ट हो तो भी एकबार पर से भिन्न अपने आत्मा को समझने का उग्र पुरुषार्थ करो । आत्मा के समझने में न तो कोई कष्ट ही होनेवाला है और न मृत्यु होने की बात ही है; तथापि आचार्यदेव ऐसा कहकर आत्मज्ञान की महिमा बता रहे हैं, उपयोगिता बता रहे हैं; यह कह रहे हैं कि मृत्यु की कीमत पर भी यदि आत्मज्ञान प्राप्त होता हो तो भी करना; क्योंकि उसके बिना दुख दूर होनेवाला नहीं है और आत्मज्ञान होने पर कोई कष्ट रहनेवाला नहीं है । अत: जैसे भी बने आत्मा का अनुभव करने का उग्र पुरुषार्थ करना चाहिए ।
जगत के पदार्थों को जानने का कौतूहल तो लोक में सर्वत्र पाया जाता है, पर उनके जानने से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता,