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समयसार गाथा ३४-३५
आत्मख्याति टीका में ३४वीं गाथा की जितनी लम्बी उत्थानिका लिखी गई है, उतनी लम्बी उत्थानिका शायद ही किसी अन्य गाथा की लिखी गई होगी। वह उत्थानिका इसप्रकार है :
इसप्रकार यह अज्ञानीजीव अनादिकालीन मोह की संतान से निरूपित आत्मा और शरीर के एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था; अब वह तत्त्वज्ञानरूप ज्योति के प्रगट उदय होने से नेत्र के विकार की भाँति पटलरूप आवरणकर्मों के भलीभाँति उघड़ जाने से प्रतिबुद्ध हो गया और अपने आपको स्वयं से ही साक्षात् दृष्टा जानकर, श्रद्धानकर, उसी का आचरण करने का इच्छुक होता हुआ पूछता है कि इस आत्मा को अन्य द्रव्यों का प्रत्याख्यान क्या है?"
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इसी प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ये (३४वीं और ३५वीं) गाथायें लिखते हैं ।
उक्त उत्थानिका में कहा गया है कि अनादि से तो यह आत्मा शरीर और आत्मा को एक ही मान रहा था, आत्मा और देह के अत्यन्त दृढ़ एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अज्ञानी था; पर अब इसने तत्त्वज्ञान की ज्योति के प्रभाव से आवरण हट जाने से अपने ज्ञातादृष्टा स्वभाव को जान लिया, पहिचान लिया है; अतः अब उसे आचरण में भी उतारना चाहता है । इसलिए अब यह अन्य द्रव्यों के त्याग का स्वरूप जानना चाहता है, विधि जानना चाहता है; इसकारण अत्यन्त विनयपूर्वक पूछता है कि हे प्रभो ! प्रत्याख्यान का वास्तविक स्वरूप क्या है, प्रत्याख्यान की वास्तविक विधि क्या है ?
यहाँ नेत्र का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की गई है कि जिसप्रकार विकृत आँखों से रंग सही दिखाई नहीं देते; पर नेत्रविकार दूर हो जाने