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समयसार अनुशीलन
इसीप्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनय से बंधा ही नहीं है, अत: मुक्त कहना भी ठीक नहीं है। अत: बन्ध भी व्यवहार से व मोक्ष भी व्यवहार से ही है। शुद्धनिश्चयनय से न बन्ध है, न मोक्ष है। अशुद्धनिश्चयनय से बंध है, इसलिए बन्ध के नाश का यत्न भी अवश्य करना चाहिए। इसलिये पर्याय में बन्ध व बन्ध के नाश का उपाय तथा मोक्ष व मोक्षमार्ग - ये सब व्यवहारनय से हैं, परन्तु त्रिकाली द्रव्यस्वभाव में ये नहीं हैं। इसप्रकार अपेक्षा से यथार्थ समझना चाहिए। ___ इस कथन से ऐसा नहीं समझना कि व्यवहार की सत्ता है, इसलिये वह निश्चय का कारण भी है अर्थात् ऐसा नहीं मान लेना कि बन्धमार्ग की पर्याय मोक्षमार्ग को प्रगट करती है । यहाँ यह सिद्ध नहीं करना है कि 'व्यवहार निश्चय का कारण है ' बल्कि यहाँ तो यह सिद्ध किया है कि 'व्यवहार है अर्थात् पर्याय है'। जिसतरह बन्ध की पर्याय है; उसीतरह मोक्ष व मोक्षमार्ग की पर्याय भी है। ___ यहाँ कहते हैं कि पहले जो व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा है, उसका अर्थ यह है कि पर्याय, संसार या मोक्ष - द्रव्य स्वभाव में नहीं है। द्रव्य की अपेक्षा से व्यवहारनय को असत्य कहा है। इसकारण से वह सर्वथा है ही नहीं, ऐसा महीं समझना । वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से तो वह व्यवहारनय है, इसकारण यह कथंचित् सत्यार्थ है। संसार है, उदयभाव है; इसप्रकार जो भाव २९ बोल द्वारा कहे हैं, वे सभी पर्याय की अपेक्षा हैं । एक समय के सम्बन्धवाली पर्याय अस्तिरूप से है, परन्तु आनन्दकन्द नित्यानन्द ध्रुव प्रभु जो अनादि-अनन्त चैतन्यप्रवाहरूप है; उसकी दृष्टि में भेद प्रतिभासित नहीं होते, इसकारण वे भेद द्रव्य में नहीं हैं - इसप्रकार कथंचित् निषेध किये गये हैं। यदि उन पर्याय के भेदरूप भावों को द्रव्य के कहना चाहें तो व्यवहारनय से कह सकते हैं; पर निश्चय से वे द्रव्य में नहीं हैं । ऐसा निश्चय-व्यवहार का कथन यथार्थ समझना चाहिए।