Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 458
________________ समयसार अनुशीलन 452 भाव जीव नहीं हैं । इसी बात को आचार्य जयसेन ने उत्थानिका में स्पष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को सोदाहरण इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ "निश्चयनय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो भाव जिससे किया जाता है, वह वही होता है। इस नियम के अनुसार जिसप्रकार सोने का पत्र (वर्क) सोने से निर्मित होने से सोना ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों के किये जाने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। नामकर्म की प्रकृतियों की पुद्गलमयता तो आगम में प्रसिद्ध ही है और अनुमान से भी जानी जा सकती है। क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले शरीरादि मूर्तिकभाव कर्मप्रकृतियों के कार्य हैं; इसलिए कर्म प्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं। - ऐसा अनुमान किया जा सकता है। जिसप्रकार यहाँ जीवस्थानों को पौद्गलिक सिद्ध किया है, उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गल से अभिन्न हैं । अत: मात्र जीवस्थानों को ही पुद्गल कहे जाने पर भी इन सभी को पुद्गलमय कहा गया समझ लेना चाहिए। अत: यह निश्चय सिद्धान्त है, अटल सिद्धान्त है कि वर्णादिक जीव नहीं हैं।" ध्यान रहे २९ भावों में से यहाँ वे ही भाव लिए हैं, जो नामकर्म के उदय से होते हैं; क्योंकि मोहकर्म के उदय से होनेवाले भावों को ६८वीं गाथा में लेंगे। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो बात टीका में स्पष्ट की है, उसी को वे इसी टीका में समागत दो कलशों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -

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