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न पावें । परिचित लोग भी तभी जान सकें कि जब उन्हें बताया जाय कि अमुक व्यक्ति का अभिनय अमुक व्यक्ति कर रहा था । नाटकीय रूप में यहाँ घटाया
इसी बात को अलंकारिक भाषा में
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गया है । जीवाजीवाधिकार के आरंभ में जीव और अजीव ने एक होकर प्रवेश किया था, एकत्व का स्वांग रचा था, वेश बनाया था; किन्तु जब वे भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष द्वारा पहिचान लिए गये तो दोनों अलगअलग होकर भाग गये, रंगमंच पर से चले गये ।
इसप्रकार यह जीवाजीवाधिकार समाप्त होता है । इसके समापन पर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने एक छन्द लिखा है, जो इसप्रकार है ( सवैया तेईसा )
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जीव- अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ न आतम पावैं । सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं ॥ श्रीगुरू के उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं । ते जगमाहिं महन्त कहाय बसैं शिव जाय सुखी नित थावैं ॥ जीव और अजीव को अनादिकाल से ही एक क्षेत्रावगाहरूप से हुए देखकर अज्ञानी जीव अपने आत्मा को पहिचान नहीं पाते हैं । किन्तु वे ही अज्ञानी जीव जब श्रीगुरू का उपदेश श्रवण कर, अच्छे दिन आ जाने पर अर्थात् काललब्धि आ जाने पर अपने अज्ञान को मिटाकर भेदविज्ञान होने पर अपने आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं तो ज्ञानी हो जातें हैं । ऐसे ही जीव जगत में महान कहलाते हैं और यथासमय मोक्ष को प्राप्त कर सदा के लिए सुखी हो जाते हैं ।
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इसप्रकार हम देखते हैं कि इस जीवाजीवाधिकार में पर से एकत्व और ममत्व का निषेध कर अपने त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व स्थापित करने की प्रेरणा दी गई है; क्योंकि निज भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व का नाम ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है ।