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कलश पद्यानुवाद शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो।
वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर। आतम में आतम को निश्चल थापित करके।
सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो।।१३।। खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है।
ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल। जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो॥१४॥
(हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ॥१५।। मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से। यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से। परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा।।१६।। आतमा है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में॥१७॥ आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से । किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से।। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से ।।१८।। मेचक अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या।