Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 495
________________ समयसार कलश पद्यानुवाद रंगभूमि एवं जीव-अजीव अधिकार (दोहा) निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप। सकलज्ञेय ज्ञायक नमौं, समयसार सद्रूप ॥१॥ (सोरठा) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा। अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ।।२। (रोला) यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ। फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से। परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी। समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ॥३॥ उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक । स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय। स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ।।४।। ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों। उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में। पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को। जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में॥५।। (हरिगीत) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से। वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से। नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये। इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए।।६।।

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