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कलश पद्यानुवाद सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से। अद्भुत् अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से॥२५।। गंभीर सागर के समान महान मानस मंग हैं। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं। सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग है॥२६॥ इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से॥ परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन। परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ॥२७॥ इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से। निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने। यदिभावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो। भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्बोध हो॥२८॥ परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती।। व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमाअतिशीघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ॥२९॥ सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ॥ यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ॥३०॥ बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता। तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया। प्रकटित हुआ परमार्थअर दृगज्ञानवृत परिणत हुआ। तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा॥३१॥ सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा।