Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन (भाग-1) (गाथा 1 से 68 तक) लेखन एवं गाथा व कलशों का पद्यानुवाद डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम.ए., पीएच.डी. श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-4, बापूनगर, जयपुर-302015 प्रकाशक: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-4, बापूनगर, जयपुर-302015 फोन : 0141-2707458, 2705581 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दो संस्करण (26 मई 1993 से 24 अप्रैल 1994 ) संयुक्त संस्करण के रूप में (15 अगस्त 1994) द्वितीय संस्करण ( 1 जनवरी, 2003) द्वितीय संयुक्त संस्करण के रूप में : (26 जनवरी 2003) गुजराती प्रथम संस्करण (28 अप्रैल 1998) मराठी प्रथम संस्करण मूल्य : पच्चीस रुपये : मुद्रक : प्रिन्ट 'ओ' लैण्ड, बाईस गोदाम, जयपुर . : 0: 10 हजार 300 5 हजार 200 1 हजार 100 1 हजार (5 मई, 2000) वीतराग - विज्ञान के हिन्दी - मराठी सम्पादकीयों के रूप में : 8 हजार योग : 3 हजार 3 हजार 31 हजार 600 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण ) डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल कृत 'समयसार अनुशीलन' भाग - 1 ( गाथा 1 से 68 तक) का यह द्वितीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। यह तो आप सबको विदित ही है कि 'समयसार ' जैसे दुरूह विषय को सरल व सरस भाषा में 'समयसार अनुशीलन' के नाम से पाँच भागों में जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय तत्त्ववेत्ता : डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल को जाता है। उनके द्वारा जैसे-जैसे यह कृति तैयार होती गई वीतराग-विज्ञान हिन्दी व मराठी में तो सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित हुई ही प्रत्येक भाग के पूर्वार्द्ध व उत्तरार्द्ध भी पाँच-पाँच हजार की संख्या में प्रकाशित किये गये । बाद में उन्हें सम्पूर्ण रूप से पाँच भागों में भी पाँच-पाँच हजार की संख्या में प्रकाशित किया गया। प्रातःस्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द के पंचपरमागमों में 'समयसार' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इस ग्रंथ के पठन-पाठन ने अनेक पामर जीवों का कल्याण किया है । कविवर बनारसीदास, श्रीमद्राजचन्द्र तथा पूज्य कानजीस्वामी जैसे अनेक महापुरुष हैं, जिनकी जीवनधारा परिवर्तित करने में इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस शताब्दी में आध्यात्मिकसत्पुरुष पूज्य श्रीकानजीस्वामी की प्रेरणा से 'समयसार' का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। मुमुक्षु समाज में तो इस ग्रंथ का नियमित पठन-पाठन होता ही है, गैर मुमुक्षुओं में भी यह ऐनकेन-प्रकारेण चर्चित रहा है। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र, आचार्य जयसेन जैसे पूर्ववर्ती दिग्गज आचार्यों ने तो इसकी टीकायें की ही हैं, वर्तमान में क्षु. गणेशप्रसादजी वर्णी, क्षु. मनोहरलालजी वर्णी आदि ने भी इसकी टीकायें लिखी हैं। पूज्य कानजी स्वामी के भी प्रवचनरत्नाकर 11 भागों में उपलब्ध हैं, जो समयसार के मर्म को खोलने में पूर्णत: समर्थ है; पर वे प्रवचनों के संकलन हैं। प्रवचनों के संकलन और व्यवस्थित लेखन में जो अन्तर होता है, वह इनमें भी विद्यमान है। इसप्रकार समयसार पठन-पाठन की वस्तु तो बन गया है, पर आधे-अधूरे अध्ययन और विविध प्रकार की महत्त्वाकांक्षाओं ने आज कुछ ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं कि अब उसके सर्वांग अनुशीलन की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। आज पूज्य स्वामीजी हमारे बीच में नहीं हैं और उन्हीं के प्रतिपादन को आधार बनाकर अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न की जा रही हैं। अतः वातावरण की शुद्धि के लिए आज समयसार के सम्यक् अनुशीलन की महती आवश्यकता है। यह काम डॉ. भारिल्ल जैसे (iii) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनीषी विद्वान के ही वश की बात थी; क्योंकि पहले जब भी किसी विषय को लेकर सामाजिक वातावरण दूषित हुआ; तब डॉ. भारिल्ल ने उन विषयों पर जो सर्वांग अनशीलन प्रस्तुत किया; उससे व्यवस्थित वस्तुस्वरूप तो सामने आया ही, सामाजिक वातावरण भी लगभग शान्त हो गया। क्रमबद्धपर्याय, परमभावप्रकाशक नयचक्र एवं निमित्तोपादान जैसी कृतियाँ इसका सशक्त प्रमाण हैं। आज ये विषय विवाद की वस्तु नहीं रहे; अतः अब तो विरोध केवल विरोध के लिए होता है और उसमें व्यक्तिगत बातें ही अधिक होती हैं, तात्त्विक बातें न के बराबर समझिये । पूज्य गुरुदेवश्री का तो अनन्त उपकार हम सब पर है ही; क्योंकि उन्होंने न केवल हमको विस्तार से सबकुछ समझाया है, अपितु जिनवाणी का मर्म समझने की दृष्टि भी दी है। डॉ. भारिल्लजी की सूक्ष्म पकड़ की तो स्वामीजी भी प्रशंसा किया करते थे, पर उन्हें इसके लेखन में अथक श्रम करते मैंने अपनी आँखों से देखा है, क्योंकि इसे लिखे जाने का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूँ। उन्होंने जिसप्रकार प्रत्येक गाथा के मर्म को सहज बोधगम्य बनाया है, सप्रमाण प्रस्तुत किया है, सयुक्ति और सोदाहरण समझाया है; वह अपने आप में अपूर्व है । मुझे पूरा-पूरा विश्वास है कि इससे अध्यात्मप्रेमी समाज को बहुत लाभ होगा, मेरे विश्वास को उन पत्रों से बल मिला है। जो समय-समय पर हमें प्राप्त होते रहे हैं। 'समयसार अनुशीलन' के विषय में अधिक क्या कहूँ, जब आप इनका स्वाध्याय करेंगे तो इसके महत्त्व को स्वमेव जान जायेंगे। मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि इन भागों के माध्यम से आप समयसार का हार्द समझकर निश्चय ही अपने जीवन की दिशा बदल देंगे। हमारा प्रयास है कि समयसार अनुशीलन के इन पाँच भागों को शीघ्र ही सम्पूर्ण रूप से एक ग्रंथरूप शास्त्राकार में प्रकाशित किया जाये। इस दिशा में हम प्रयत्नशील हैं, आशा है शीघ्र ही आप के हाथों में सम्पूर्ण ग्रन्थ पहुँचेगा। जिन महानुभावों ने हमें अपने अमूल्य सुझाव भेजें हैं, उन्हें दृष्टिगत रखते हुए हम प्रथम भाग में काफी कुछ परिमार्जन किया गया है और लगभग 40 पृष्ठों का समावेश किया गया है, आशा है पाठक लाभान्वित होंगे। प्रस्तुत प्रकाशन को आकर्षक कलेवर में मुद्रित कराकर उसे आप तक पहुँचाने का श्रेय प्रकाशन विभाग के प्रभारी अखिल बंसल को जाता है। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। जिन महानुभावों ने प्रकाशन की कीमत कम करने में आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, उनकी सूची पृथक से प्रकाशित की गई है। सभी सहयोगियों का हम हृदय से आभार मानते हैं। आप सभी समयसार के मर्म को समझकर अपना आत्मकल्याण करें - इसी भावना के साथ - - नेमीचन्द पाटनी 1 जनवरी, 2003 महामंत्री (iv) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करनेवाले दातारों की सूची 01. श्री शान्तिलालजी टोंग्या, बेगू 1100.00 02. श्री चाँदमलजी नावड़िया, चित्तौड़गढ़ 1100.00 03. श्री विमलकुमारजी बाकलीवाल, बेगूं 1100.00 04. श्री विमलचन्दजी टोंग्या, बेगू 1100.00 05. श्री कस्तूरचन्दजी जैन, वेगूं 1100.00 06. श्री रतनलाल ललितकुमारजी पाटोदी, इन्दौर 502.00 07. प्राचार्य डॉ. लालबहादुरजी जैन, इन्दौर 501.00 08. श्रीमती इन्द्रा ललितकुमारजी जैन, इन्दौर 501.00 09. श्री सुरेशचन्दजी बड़जात्या, इन्दौर 501.00 10. श्रीमती श्रीकान्ताबाई ध.प. श्री पूनमचन्दजी छाबड़ा, इन्दौर 501.00 11. श्री सूरजमलजी नावड़िया, प्रतापगढ़ 501.00 12. श्री राजेन्द्रकुमारजी विनायका, इन्दौर 501.00 13. श्री अजितकुमार अंजु बाकलीवाल, इन्दौर 501.00 14. श्रीमती कंचनबाई शान्तिलालजी अजमेरा, इन्दौर 501.00 15. श्री जम्बूकुमारजी सोनी, इन्दौर 501.00 16. श्रीमती पूनम निलेशजी दोशी, इन्दौर 17. श्रीमती हंसा जैन, इन्दौर 501.00 18. श्रीमती स्नेहलता चन्द्रप्रकाशजी सोनी, इन्दौर 501.00 19. श्री भागचन्दजी लुहाड़िया, इन्दौर 20. श्री राजेन्द्रकुमारजी जैन, इन्दौर 21: श्रीमती कान्ताबेन पंचौली, इन्दौर 22. श्रीमती मीना विनायका, इन्दौर 501.00 501.00 501.00 501.00 501.00 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. आर. के. जैन, इन्दौर 501.00 24. श्री सी.पी. जैन, इन्दौर 501.00 25. श्री सुभाषजी गंगवाल, इन्दौर 501.00 26. श्री दिलसुख वसन्तकुमारजी जैन, इन्दौर 500.00 27. स्व. श्री राजमलजी जैन की स्मृति में, इन्दौर 500.00 28. श्री विमलचन्द पारसकुमारजी पहाड़िया, इन्दौर 500.00 29. श्रीमती कुसुम ध.प. विमलकुमारजी जैन 'नीरू केमिकल्स, दिल्ली' 500.00 30. श्री बाबूलाल तोतारामजी जैन, भुसावल 251.00 31. श्री शान्तिनाथजी सोनाज, अकलूज 251.00 32. श्रीमती भंवरीदेवी घीसालालजी छाबड़ा, सीकरवाले 251.00 33. श्रीमती शान्तीदेवी धनकुमारजी जैन, जयपुर 251.00 34. श्रीमती रश्मिदेवी वीरेशजी कासलीवाल, सूरत 35. स्व. श्री ऋषभकुमार पुत्रश्री सुरेशकुमारजी जैन, पिड़ावा 251.00 36. ब्र. कुसुम जैन, बाहुबली कुम्भोज 250.00 37. स्व. धापूदेवी ध.प. स्व. ताराचन्दजी गंगवाल की पुण्य स्मृति में, जयपुर 151.00 38. चौधरी फूलचन्दजी जैन चै. ट्रस्ट, मुम्बई 111.00 39. स्व. श्रीमती शान्तीदेवी ध.प. माणकचन्दजी पाटनी, गोहाटी 101.00 40. श्रीमती पानादेवी मोहनलालजी सेठी, गोहाटी 101.00 41. श्रीमती गुलाबीदेवी लक्ष्मीनारायणजी रारा, शिवसागर 101.00 42. श्रीमती सोहनदेवी स्व. तनसुखलालजी पाटनी, जयपुर 101.00 251.00 कुल राशि : 20443.00 (vi) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुक्रमणिका 23. कलश 9 158 24. कलश 10 161 25. गाथा 14 163 26. कलश 11 182 27. कलश 12 183 01. मंगलाचरण 02. पृष्ठभूमि 03. कलश 1 04. कलश 2 05. कलश 3 06. गाथा 1 07. गाथा 2 08. गाथा 3 09. गाथा 4 10. गाथा 5 28. कलश 13 186 29. गाथा 15 189 30. कलश 14 201 31. कलश 15 205 32. गाथा 16 210 11. गाथा 6 33. कलश 16-19 218 12. गाथा 7 34. गाथा 17-18 225 13. गाथा 8 35. कलश 20 232 236 14. गाथा 9-10 15. गाथा 11 105 36. गाथा 19 37. कलश 21 38. गाथा 20 से 22 241 16. गाथा 12 117 246 17. कलश 4 129 251 39. कलश 22 40. गाथा 23 से 25 18. कलश 5 133 253 19. कलश 6 135 41. कलश 23 259 20. कलश 7 138 42. गाथा 26 265 21. गाथा 13 141 43. कलश 24 266 22. कलश 8 152 44. गाथा27 270 (vii) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. गाथा 28-29 66. गाथा 47-48 392 46. गाथा 30 67. गाथा 49 397 272 | 276 276-277 282 47. कलश 25-26 68. कलश 35 421 48. गाथा 31 69. कलश 36 422 49. गाथा 32-33 294 70. गाथा 50-55 423 50. कलश 27 306 71. कलश 37 429 51. कलश 28 307 72. गाथा 56-57 431 52. गाथा 34-35 309 73. गाथा 58-60 437 318 74. गाथा 61-64 446 53. कलश 29 54. गाथा 36 320 75. गाथा 65-66 451 55. कलश 30 325 76. कलश 38-39 453 455 56. गाथा 37 328 77. गाथा 67 57. कलश 31 333 78. कलश 40 456 58. गाथा 38 335 79. गाथा 68 464 59. कलश 32 348 80. कलश 41 60. कलश 33 360 81. कलश 42 61. गाथा 39-43 367 82. कलश 43 468 470 474 475 478 62. गाथा 44 374 83. कलश 44 63. कलश 34 381 84. कलश 45 64. गाथा 45 386 85. गाथा पद्यानुवाद 484 65. गाथा 46 388 86. कलश पद्यानुवाद 489 000 (viii) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन मंगलाचरण ( अडिल्ल छन्द ) समयसार का एकमात्र प्रतिपाद्य जो । आत्मख्याति का एकमात्र आराध्य जो ॥ अज अनादि अनिधन अविचल सद्भाव जो । त्रैकालिक ध्रुव सुखमय ज्ञायकभाव जो ॥ परमशुद्धनिश्चयनय का है ज्ञेय जो। सत्श्रद्धा का एकमात्र श्रद्धेय जो ॥ परमध्यान का ध्येय उसे ही ध्याउँ मैं । उसे प्राप्त कर उसमें ही रम जाउँ मैं ॥ समयसार अरु आत्मख्याति के भाव को । जो कुछ जैसा समझा है मैंने प्रभो ॥ उसी भाव को सहज सरल शैली विर्षे । विविध पक्ष से जन-जन के हित रख रहा ॥ इसमें भी है एक स्वार्थ मेरा प्रभो । नित प्रति ही चित रहा करे इसमें विभो ॥ मेरे मन का हो ऐसा ही परिणमन । मन का ही अनुकरण करें हित-मित वयन । अपनापन हो निज आतम में नित्य ही । अपना जानें निज आतम को नित्य ही ॥ रहे निरन्तर निज आतम में ही रमन । रहूँ निरन्तर निज आतम में ही मगन ॥ अन्य न कोई हो विकल्प हे आत्मन् । निज आतम का ज्ञान ध्यान चिन्तन मनन ॥ गहराई से होय निरन्तर अध्ययन । निश-दिन ही बस रहे निरन्तर एक धुन ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठभूमि भगवान आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज समयसार जिनागम का अजोड़ रत्न है, सम्पूर्ण जिनागम का सिरमौर है। आचार्य अमृतचन्द्र इसे जगत का अद्वितीय अक्षय चक्षु कहते हैं और कहते हैं कि जगत में इससे महान और कुछ भी नहीं है। इदमेकं जगच्चक्षुरक्षय'' 'न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति'- आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त सूक्तियाँ समयसार की महिमा बताने के लिए पर्याप्त हैं। __समयसार का समापन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं लिखते हैं कि जो आत्मा इस समयसार नामक शास्त्र को पढ़कर, इसमें प्रतिपादित आत्मवस्तु को अर्थ व तत्त्व से जानकर उस आत्मवस्तु में स्थित होता है, अपने को स्थापित करता है; वह आत्मा उत्तम सुख को । प्राप्त करता है अर्थात् अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करता है । यह ग्रन्थाधिराज अत्यन्त क्रान्तिकारी महाशास्त्र है। इसने लाखों लोगों के जीवन को अध्यात्ममय बनाया है, मत-परिवर्तन के लिए बाध्य किया है। कविवर पण्डित बनारसीदासजी, श्रीमद् रायचन्द्रजी एवं आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी को इसने ही आन्दोलित किया था। उक्त महापुरुषों के जीवन को आमूलचूल परिवर्तित करने वाला यही ग्रन्थराज है । इसके सन्दर्भ में श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि यह समयसार शास्त्र आगमों का भी आगम है, लाखों शास्त्रों का सार इसमें है। यह जैनशासन का स्तम्भ है, साधकों की कामधेनु है, कल्पवृक्ष है। इसकी हर गाथा छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव में से निकली हुई है । १. आत्मख्याति, कलश २४५ २. आत्मख्याति, कलश २४४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठभूमि इस ग्रन्थाधिराज का मूल प्रतिपाद्य नवतत्त्वों के निरूपण के माध्यम से नवतत्त्वों में छुपी हुई परमशुद्धनिश्चयनय की विषयभूत वह आत्मज्योति है, जिसके आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है । 3 समयसार के इस अनुशीलन में समयसार की मूल गाथाओं के साथ-साथ आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका को मुख्य आधार बनाया जायगा । आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका, पाण्डे राजमलजी की कलश टीका, पण्डित बनारसीदासजी के नाटक समयसार एवं पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा की भाषा वचनिका का भी आवश्यकतानुसार यथास्थान उपयोग किया जायेगा । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनों से भी लाभ उठाया जायेगा। इनके अतिरिक्त तत्संबंधित अन्य उपलब्ध साहित्य का उपयोग भी निःसंकोच किया जायेगा । इस अनुशीलन का एकमात्र उद्देश्य समयसार की मूल विषयवस्तु को अत्यन्त सरल भाषा व सुबोध शैली में जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करना है । साथ में अपने उपयोग का सदुपयोग करना भी एक प्रयोजन है । मैं नहीं चाहता कि जीवन की इस सान्ध्य बेला में उपयोग यहाँवहाँ भटकता रहे । उसे त्रिकाली ध्रुव आत्मा का एक ऐसा सम्बल मिले कि उसे अन्यत्र भटकने का अवसर ही न रहे। बस, निरन्तर एक ही धुन रहे; वह भी भगवान आत्मा के चिन्तन, मनन, अध्ययन, पठनपाठन, लेखन और अनुभवन की ही; क्योंकि मेरी दृढ़ आस्था है कि एकमात्र यही मार्ग है, सुखी होने का यही एकमात्र उपाय है । समयसार जैनियों की गीता है। इसमें ही उस मूल वस्तु का विवेचन है, जो आत्मसाधकों का एकमात्र आधार है । समयसार के मूल प्रतिपाद्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन का जन-जन तक पहुँचना आवश्यक ही नहीं. अनिवार्य है। यही विचार कर यह उपक्रम किया जा रहा है। इसके मूल में अन्य कोई. लौकिक कामना नहीं है। समयसार की आत्मख्याति टीका का मंगलाचरण इसप्रकार है : ( अनुष्टुभ् ) नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे॥१॥ ( दोहा ) निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप। सकलज्ञेय-ज्ञायक नौं, समयसार सद्रूप॥१॥ स्वानुभूति से प्रकाशित, चैतन्यस्वभावी, सर्वपदार्थों को जाननेवाले सत्तास्वरूप समयसार को नमस्कार हो । मंगलाचरण के इस छन्द का भावानुवाद कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - ( दोहा ) शोभित निज अनुभूति जुत चिदानंद भगवान। सार पदारथ आतमा, सकल पदारथ जान ।। सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाला और समस्त पदार्थों में सारभूत चिदानन्द भगवान आत्मा आत्मानुभूति से सम्पन्न होता हुआ शोभायमान हो रहा है। ___ मंगलाचरण के उक्त छन्द में शुद्धात्मा को नमस्कार किया गया है। यहाँ समयसार का अर्थ शुद्धात्मा ही लिया गया है । समय शब्द का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं ही गाथा २ व ३ की टीका में विस्तार से स्पष्ट करेंगे। अत: उसके सन्दर्भ में विशेष चर्चा करना वहाँ ही ठीक रहेगा। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश १ यहाँ तो समय शब्द का सामान्य अर्थ आत्मा ही लेना है और सार शब्द का अर्थ है द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित। इसप्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित आत्मा ही शुद्धात्मा है, समयसार है । उस शुद्धात्मा को जानना, पहिचानना, उसमें जमना-रमना, उसमें उपयोग का झुकना, नमना ही वास्तविक नमस्कार है । ___ यहाँ जिस समयसार अर्थात् शुद्धात्मा को नमस्कार किया गया है, उसे चार विशेषणों से समझाया गया है : (१) भावाय (२) चित्स्वभावाय (३) सर्वभावान्तरच्छिदे एवं (४) स्वानुभूत्या चकासते । नम: के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होने से समयसार को समयसाराय, भाव को भावाय एवं चित्स्वभाव को चित्स्वभावाय के रूप में रखा गया है। मूल शब्द भाव, चित्स्वभाव और समयसार ही हैं। इसीप्रकार स्वानुभूत्या चकासते एवं सर्वभावान्तरच्छिदे के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। यहाँ उक्त चार विशेषणों से समयसार के द्रव्य, गुण और पर्याय स्वभाव को समझाया गया है । भाव कहकर द्रव्य, चित्स्वभाव कहकर गुण और सर्वभावान्तरच्छिदे तथा स्वानुभूत्या चकासते कहकर पर्याय स्वभाव को स्पष्ट किया गया है; क्योंकि मोह के नाश का उपाय द्रव्यगुण-पर्याय से निज भगवान आत्मा को जानना ही है । __ प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में कहा गया है कि जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह अपने आत्मा को भी उसीप्रकार जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन समयसार अर्थात् भगवान आत्मा भावस्वरूप है, सत्तारूप है, अस्तित्वरूप है, सत् है; और सत् द्रव्य का लक्षण है। जैसाकि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है - "सद् द्रव्यलक्षणम्' = द्रव्य का लक्षण सत् है ।" इसप्रकार 'भाव' विशेषण के माध्यम से सर्वप्रथम भगवान आत्मा के द्रव्यस्वभाव को बताया गया है, उसके अस्तित्व की स्थापना की है; क्योंकि जगत में जिसका अस्तित्व ही न हो, उसका गुणानुवाद बंध्यासुतविवाहवर्णन के समान ही काल्पनिक सिद्ध होगा । ___छह द्रव्यों के समूह का नाम ही लोक है। इस लोक में छह द्रव्यों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। यदि भगवान आत्मा का द्रव्यत्व ही सिद्ध न हो तो उसका अस्तित्व ही सिद्ध न होगा और अस्तित्व सिद्ध हुए बिना उसकी चर्चा ही सम्भव नहीं है। अत: उसकी चर्चा आरम्भ करने के पहले उसके अस्तित्व को सिद्ध करना आवश्यक ही है। यही कारण है कि मंगलाचरण में सर्वप्रथम भगवान आत्मा के अस्तित्व की स्थापना की गई है। इसके माध्यम से आत्मा का अस्तित्व ही न माननेवाले नास्तिकों के मत का निराकरण भी सहजभाव से हो गया है। 'वह सत्तास्वरूप भगवान आत्मा चैतन्यभावी है' - ऐसा कहकर भगवान आत्मा के स्वभाव को स्पष्ट किया गया है। वह भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन आदि अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड है - यह कहने से भगवान आत्मा को सर्वथा निर्गुण माननेवालों का तो निराकरण हो ही गया, साथ में उस भगवान आत्मा की पहिचान का चिन्ह भी स्पष्ट हो गया। उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गई कि भगवान आत्मा जानने-देखने के स्वभाव वाला है। जानना-देखना उसका सहज स्वभाव है, असाधारण भाव है; जो आत्माओं में ही पाया जाता है, १. आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५ सूत्र २९ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश १ जीवद्रव्य में ही पाया जाता है, पुद्गलादि अजीव द्रव्यों में नहीं। इसीकारण यह चित्स्वभाव, भगवान आत्मा का लक्षण है, पहिचान का चिन्ह है। इसके माध्यम से भगवान आत्मा को अजीवादि परद्रव्यों में भिन्न जाना जा सकता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान-दर्शन उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा गया है। जानना-देखना जीव का स्वभाव है। जानने-देखने को ही चेतना कहते हैं; इसीकारण यहाँ चित्स्वभाव शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जानना-देखना जीव का स्वभाव तो है; पर वह किसको जानता-देखता है अथवा किसको जानना-देखना उसका स्वभाव है? इसी के उत्तर में कहा गया है कि भगवान आत्मा सब पदार्थों को जानने-देखने के स्वभाव वाला है ; वह सर्वज्ञस्वभावी है। आत्मख्याति के परिशिष्ट में जिन ४७ शक्तियों का निरूपण है, उसमें सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्व शक्तियों का भी निरूपण है। यद्यपि यह पर्याय की बात लगती है; क्योंकि जानने-देखने की क्रिया तो पर्याय में ही होती है, तथापि यह पर्यायस्वभाव की बात है, प्रगट पर्याय की बात नहीं; सर्वज्ञता की बात नहीं, सर्वज्ञस्वभाव की बात है । यहाँ जिस समयसाररूप भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है, वह सर्वज्ञपर्याय सहित भगवान आत्मा की बात नहीं है, अपितु सर्वज्ञस्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की बात है। यहाँ सर्वज्ञस्वभाव की बात करके सर्वज्ञाभाववादियों का निराकरण भी कर दिया गया है। ___ यहाँ एक प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि ऐसा भगवान आत्मा जाना जा सकता है या नहीं? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तो जाना ही जाता १. आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २ सूत्र ८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन . 8 है, यहाँ उनके जानने की बात नहीं है। यहाँ तो यह बात है कि हम उसे जान सकते हैं या नहीं? यदि हम उसे जान सकते हैं तो किसप्रकार? इसके उत्तर में कहा गया है कि 'स्वानुभूत्या चकासते' । तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा स्वानुभूति के द्वारा जाना जाता है। इस कथन से उन लोगों का निराकरण हो गया, जो ऐसा मानते हैं कि भगवान आत्मा जाना ही नहीं जा सकता है। उन लोगों का भी निराकरण हो गया, जो स्वानुभूति के अतिरिक्त अन्य उपायों से भगवान आत्मा को जानना मानते हैं या जानना चाहते हैं । तात्पर्य यह कि भगवान आत्मा व्रत-उपवासादि क्रियाकाण्ड से पकड़ने में आने वाला नहीं है, कोरी बातों से भी कार्य होनेवाला नहीं है। देव-शास्त्र-गुरु भी हमें आत्मा की बात बता तो सकते हैं, पर वे आत्मा का अनुभव नहीं करा सकते, आत्मा का दर्शन नहीं करा सकते। आत्मा का दर्शन तो स्वानुभूति के माध्यम से स्वयं ही करना होगा। भगवान आत्मा स्वानुभवगम्य है । तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है, अनुमानगम्य भी नहीं है। आगे यथास्थान इसे और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया जायेगा; अत: यहाँ अधिक विस्तार से चर्चा करना अभीष्ट नहीं है, पर यहाँ इतना निश्चित है कि यह अतीन्द्रिय महापदार्थ, अतीन्द्रिय निर्विकल्प अनुभवज्ञान का ही विषय है । इसप्रकार यहाँ यह कहा गया है कि मैं उस समयसाररूप शुद्धात्मा को नमस्कार करता हूँ, जो सत्तास्वरूप है, चैतन्यस्वभावी है, सर्वदर्शी एवं सर्वज्ञत्वादि शक्तियों से सम्पन्न है और स्वानुभूति द्वारा प्रकाशित होता है। वस्तुतः नमने योग्य, ज्ञान का ज्ञेय बनाने योग्य, ध्यान का ध्येय बनाने योग्य तो एकमात्र दृष्टि का विषय त्रिकाली ध्रुव निज भगवान Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश १ 1 आत्मा ही है; क्योंकि उसके आश्रय से मुक्तिमार्ग प्रगट होता है । यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस ग्रन्थाधिराज की टीका आरम्भ करने के पूर्व मंगलाचरण के रूप में उसे ही स्मरण करते हैं, करते हैं । नमन 9 यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि मंगलाचरण में तो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है । यहाँ इष्टदेव को नमस्कार न करके समयसार को नमस्कार क्यों किया गया है ? समयसाररूप निज भगवान आत्मा ही हम सभी को परम इष्ट है; क्योंकि उसी की आराधना से हम सबका कल्याण होनेवाला है । वह भगवान आत्मा ही स्वयं देवाधिदेव है; क्योंकि जितने आत्मा आजतक अरहंत और सिद्धरूप देव बने हैं, वे इस समयसाररूप भगवान आत्मा की आराधना करके ही बने हैं | यदि पर्याय की दृष्टि से विचार करें तो सर्वज्ञपर्याय से संयुक्त अरहंत और सिद्ध भगवान ही समयसार हैं । तथा समयसार नामक ग्रन्थ शास्त्र तो है ही और उसके कर्त्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव हैं। इसप्रकार समयसार शब्द से सच्चे देव शास्त्र - गुरु का भी स्मरण हो गया । - समयसार ग्रन्थ की टीका के आरम्भ में समयसार शब्द के माध्यम से त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्मरण करना आचार्य अमृतचन्द्र की अपनी विशेषता है। इसप्रकार का प्रयोग अष्टसहस्त्री के मंगलाचरण में भी हुआ है, जहाँ श्रीवर्द्धमान और समन्तभद्र शब्दों का प्रयोग व्यक्तियों के नाम के अर्थ में भी हुआ है और चौबीसों तीर्थंकरों के विशेषणों के रूप में भी हुआ है। 'केवलज्ञानरूपी श्री से वर्द्धमान (श्रीवर्द्धमान) और चारों ओर से भद्र (समन्तभद्र) चौबीसों ही तीर्थंकरों को नमस्कार करके १. श्रीवर्द्धमानमभिवन्द्यसमन्तभद्र I Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 10 इत्यादि कथन द्वारा आचार्य विद्यानंदी चौबीसों तीर्थंकरों, अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर और आप्तमीमांसा के कर्ता आचार्य समन्तभद्र को एक ही छन्द में स्मरण करते हैं; क्योंकि उनकी अष्टसहस्री कृति का आधार समन्तभद्र की आप्तमीमांसा ही है। उसीप्रकार त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के प्रतिपादक आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की टीका आरम्भ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसार ग्रंथाधिराज, उसके प्रतिपाद्य भगवान आत्मा एवं उसके कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द के रूप में देव-शास्त्र-गुरु को 'समयसार' शब्द से एक साथ ही स्मरण करें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? इसप्रकार देवाधिदेव के रूप में समयसाररूप भगवान आत्मा एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्मरण कर आचार्य अमृतचन्द्रदेव अब अनेकान्तमयी जिनवाणी नित्य प्रकाशित रहे, भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग दिखाती रहे - ऐसी मंगल कामना करते हुए दूसरा कलश लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्॥२॥ ( सोरठा ) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा। अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ॥२॥ परपदार्थों, उनके गुण-पर्यायरूप भावों एवं परपदार्थों के निमित्त से होनेवाले अपने विकारों से कथंचित् भिन्न एकाकार अनन्तधर्मात्मक निज आत्मतत्त्व को देखनेवाली, जाननेवाली, प्रकाशित करनेवाली, अनेकान्तमयी मूर्ति सदा ही प्रकाशित रहे, जयवंत वर्ते। इस छन्द के भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश २ 44 'यहाँ सरस्वती की मूर्ति को आशीर्वचन रूप से नमस्कार किया है। लौकिक में जो सरस्वती की मूर्ति प्रसिद्ध है, वह यथार्थ नहीं है; इसलिए यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है । सम्यग्ज्ञान ही सरस्वती की सत्यार्थ मूर्ति है । उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है, जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं । वह अनन्तधर्म सहित आत्मतत्त्व को प्रत्यक्ष देखता है, इसलिए वह सरस्वती की मूर्ति है और उसी के अनुसार जो श्रुतज्ञान है, वह आत्मतत्त्व को परोक्ष देखता है, इसलिए वह भी सरस्वती की मूर्ति है और द्रव्यश्रुत वचनरूप है वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनों द्वारा अनेक धर्मवाले आत्मा को बतलाती है । इसप्रकार समस्त पदार्थों के तत्त्व को बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकान्तमयी सरस्वती की मूर्ति है । इसीलिए सरस्वती के वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुत से नाम कहे जाते हैं । यह सरस्वती की मूर्ति अनन्त धर्मों को 'स्यात् ' पद से एक धर्मी अविरोध रूप से साधती है, इसलिए सत्यार्थ है। कितने ही अन्यवादी जन सरस्वती की मूर्ति को अन्यथा स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थ को सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा को अनन्त धर्मवाला कहा है; सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन-कौन से हैं? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि वस्तु में अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, इत्यादि धर्म तो गुण हैं और उन गुणों का तीनों काल में समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं । I और वस्तु में एकत्व - अनेकत्व, नित्यत्व - अनित्यत्व, भेदत्वअभेदत्व, शुद्धत्व - अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं । वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनंत धर्म भी हैं, जो कि वचन के विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है, इसलिए उसमें भी अपने अनन्त धर्म हैं । - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन आत्मा के अनन्तधर्मों में चेतनत्व असाधारण धर्म है, वह अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है । सजातीय जीव द्रव्य अनंत हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है, तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूप से भिन्न-भिन्न कहा है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशभेद होने से वह किसी का किसी में नहीं मिलता । वह चेतनत्व अपने अनन्तधर्मों में व्यापक है, इसलिए उसे आत्मा का तत्त्व कहा है। उसे यह सरस्वती की मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियों का कल्याण होता है, इसलिए 'सदा प्रकाशरूप रहो' इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा है । " पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के उक्त कथन से पाण्डे राजमलजी के कथन की तुलना करते हुए श्री कानजीस्वामी कहते हैं " पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा 'सरस्वती' शब्द में श्रुतज्ञान, केवलज्ञान और वाणी - इन तीनों को गर्भित कर लेते हैं, जबकि कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी अकेली वाणी को ही लेते हैं । 12 - यही तो वीतराग का अनेकान्त मार्ग है, जिस अपेक्षा कथन करना हो, वही लागू पड़ जाती है । १. प्रवचनरत्नाकर, भाग १ पृष्ठ १८ २. वही, भाग १ पृष्ठ १९ 'पश्यन्ती' शब्द का अर्थ कलशटीकाकार ने अनुभवशील लिया है तथा अनुभवशील का भाव यह बताया है कि वाणी सर्वज्ञानुसारिणी है अर्थात् उसका स्वभाव सर्वज्ञ के ज्ञानानुसार परिणमित होने का है । पण्डित जयचन्दजी ने पश्यन्ती का अर्थ ऐसा किया है कि भावश्रुतज्ञान आत्मा को परोक्ष देखता है, केवलज्ञान आत्मा को प्रत्यक्ष देखता है और दिव्यध्वनि आत्मा को दिखाती है। यहाँ कोई वितर्क करे कि वाणी तो अचेतन है, उसे नमस्कार क्यों किया? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 कलश २ इसका उत्तर कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी ने ऐसा दिया है कि वाणी सर्वज्ञानुसारिणी है। इसके सिवाय जीवादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान कराने में वाणी निमित्त है । इसलिए वाणी के भी पूज्यपना है।" ___ अनेकान्तमयी जिनवाणी को स्मरण करने वाले उक्त छन्द का भावानुवाद कलश टीका के भाव को ध्यान में रखते हुए कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - ( सवैया तेईसा ) जोग धरै रहै जोग सौं भिन्न, अनंत गुनातम केवलज्ञानी। तासु हृदै-द्रह सौं निकसी, सरितासम है श्रुत-सिंधु समानी। याते अनंत नयातम लच्छन, सत्य स्वरूप सिधंत बखानी। बुद्ध लखै न लखै दुरबुद्ध, सदा जगमाँहि जगै जिनवानी॥ अनन्त गुणों के धारक केवलज्ञानी अरहंत भगवान यद्यपि सयोगजिन नामक तेरहवें गुणस्थान में होने से सयोगी हैं, योग सहित हैं; तथापि वे योगों से भिन्न ही हैं। उन अरहंत भगवान के हृदयरूपी सरोवर से नदी के समान निकलकर जिनवाणी गंगा द्वादशांग रूप श्रुतसिन्धु में समा गई है। सिद्धान्त शास्त्रों में, इस जिनवाणी गंगा को अनन्त नयात्मक और वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रतिपादन करने वाली कहा है । यद्यपि यह जिनवाणी गंगा जगत में सदा ही जयवंत वर्तती है ; तथापि इसे ज्ञानीजन ही देखते हैं, अज्ञानीजन नहीं देखते। सर्व परवस्तुओं से भिन्न, नैमित्तिक परभावों से भिन्न व अपने ही स्वरूप में तन्मय आत्मा प्रत्यगात्मा कहलाता है। यहाँ अनेकान्तमयी सरस्वती को उक्त प्रत्यगात्मा की प्रतिपादक कहा गया है और उसके नित्य प्रकाशित रहने की कामना की गई है । तात्पर्य यह है कि प्रत्यगात्मारूप निज भगवान आत्मा की चर्चा-वार्ता, उसके स्वरूप का प्रतिपादन निरन्तर १. प्रवचनरत्नाकर, भाग १ पृष्ठ १९-२० २. समयसार, सप्तदशांगी टीका, पृष्ठ ३-४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन होते रहना चाहिए; क्योंकि इस प्रत्यगात्मा के स्वरूप की देशना ही आत्मार्थी जीवों को मुक्तिमार्ग में लगाने में निमित्त होती है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि का होना भी अनिवार्य है । उस देशनालब्धि का साधन सदा उपलब्ध रहे यही भावना व्यक्त हुई है इस आशीर्वादरूप जिनवाणी की वंदना में । - वैसे तो विद्यमान बीस तीर्थंकरों के माध्यम से अढाई द्वीप में निरन्तर ही इसप्रकार की देशना उपलब्ध रहती है, अतः अनेकान्तमयी मूर्ति नित्य प्रकाशित ही है; तथापि हम तुम जैसे भव्यजीवों को भी प्रत्यगात्मा का उपदेश निरन्तर प्राप्त रहे, वह प्रत्यगात्मा हमारे ज्ञान का ज्ञेय निरन्तर बना रहे यही मंगल आशीर्वाद दिया है आचार्यदेव ने हम सबको । - शुद्धात्मा की प्रतिपादक जिनवाणी-गंगा का प्रवाह इस लोक में अविरल प्रवाहित होता रहे इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने आत्मख्याति टीका लिखने का उपक्रम किया है, जिनवाणी-गंगा के अविरल प्रवाह में अपना योगदान दिया है । हम सभी का भी पावन कर्तव्य है कि आत्मकल्याण के प्रयास के साथ-साथ जिनवाणी-गंगा के प्रवाह में यथाशक्ति तन-मन-धन से योगदान करते रहें । - - 14 वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की शुद्धात्मा की प्रतिपादक वीतरागवाणी हम सभी को निरन्तर प्राप्त रहे इस मंगल कामना के बाद अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस आत्मख्याति टीका के प्रणयन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए कहते हैं ( मालिनी ) परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा - - दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते - भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥ ३ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 कलश ३ ( रोला ) यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ । फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से । परमविशुद्धी को पावे वह परिणति मेरी । समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ॥ ३ ॥ यद्यपि मैं तो शुद्ध चिन्मात्रमूर्ति भगवान आत्मा हूँ; तथापि परपरिणति का मूल कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके उदय का निमित्त पाकर मेरी परिणति वर्तमान में मैली हो रही है, कल्माषित हो रही है। समयसार की इस आत्मख्याति नामक व्याख्या से, टीका से मेरी वह परिणति परमविशुद्धि को प्राप्त हो। यही मेरी मंगल भावना है। आचार्यदेव की परिणति तीन कषाय का अभाव होने से विशुद्ध तो है ही, पर अभी ऐसी परमविशुद्धि नहीं है कि जिसके फल में केवलज्ञान की प्राप्ति हो; अभी संज्वलन कषाय सम्बन्धी मलिनता विद्यमान है। यही कारण है कि वे विशुद्धि की नहीं, परमविशुद्धि की कामना करते हैं। अन्य किसी भी प्रकार की लौकिक कामना आचार्यदेव के हृदय में नहीं है, जिसकी प्रेरणा से वे यह टीका लिखने को उद्यत हुए हों। उनकी तो एकमात्र यही कामना है कि जब उनका उपयोग शुभभाव में रहे, तब वे एकमात्र समयसार की विषयवस्तु का ही चिन्तन-मनन करते रहें। इस छन्द में प्रकारान्तर से आचार्यदेव ने समयसार की व्याख्या लिखने का संकल्प भी व्यक्त किया है, प्रतिज्ञा भी की है और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मेरा अपनापन तो अन्तर में विराजमान शुद्धतत्त्व में ही है। इसीलिए वे जोर देकर कहते हैं कि मैं तो शुद्धचैतन्यमात्रमूर्ति हूँ, मुझमें तो कुछ विकृति है ही नहीं। हाँ, पर्याय में पर्यायगत योग्यता के कारण एवं मोहोदय के निमित्त से कुछ मलिनता है; वह भी इस समयसार की व्याख्या से समाप्त हो जावे; क्योंकि व्याख्या के काल में मेरा जोर तो त्रिकाली स्वभाव पर ही रहना है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 समयसार अनुशीलन आचार्यदेव के हृदय में कोई पापभावरूप मलिनता तो है नहीं; यही टीका लिखने, उपदेश देने आदि शुभभावरूप मलिनता ही है और वे उसका ही नाश चाहते हैं । तथा वे अच्छी तरह जानते हैं कि टीका करने के भाव से, टीका करने के भावरूप मलिनता समाप्त नहीं होगी । पर वे यह भी जानते हैं कि अन्तर में तीन कषाय के अभावरूप निर्मलता है, मिथ्यात्व के अभाव से पर में से अपनापन टूट गया है और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में ही अपनापन आ गया है; उसके बल से, आत्मा की रुचि की तीव्रता से निश्चित ही इस विकल्प का भी नाश होगा और शुद्धोपयोग में उपयोग चला जायगा । 2 दूसरे कलश में उन्होंने यह भावना व्यक्त की थी कि जिनवाणी का प्रवाह निरन्तर चलता रहे, जिनवाणी नित्य ही प्रकाशित रहे । यह भावना तो उत्तम है, पर शुद्धोपयोग रूप तो नहीं है। बस आचार्यदेव को तो यही मलिनता भासित होती है और मानो उसके नाश के लिए शुद्धात्मा के जोरवाले शास्त्र की टीका लिखने का भाव उन्हें आया है । प्रकारान्तर से आचार्यदेव यह भी बताना चाहते हैं कि समयसार का पढ़ना-पढ़ाना, लिखना-लिखाना, उसकी टीका करना, गहराई से अध्ययन करना, मनन करना; उसकी विषयवस्तु का परिचय प्राप्त करना, घोलन करना परमविशुद्धि का कारण है । आचार्य अमृतचन्द्र इस कलश के माध्यम से स्वयं की वर्तमान पर्याय की स्थिति का ज्ञान भी कराना चाहते हैं और जिनवाणी के अध्ययन-मनन करने की, स्वाध्याय करने की प्रेरणा भी देना चाहते हैं । अतः मानों वे कह रहे हैं कि हे भव्यजीवों ! तुम इसका अध्ययन करो, मनन करो, पठन-पाठन करो, इसकी विषयवस्तु को जन-जन तक पहुँचाओ; ; तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । कविवर बनारसीदासजी इस कलश भावानुवाद इसप्रकार करते Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 कलश ३ ( छप्पय ) हौं निहचै तिहुंकाल, सुद्ध चेतनमय मूरति । पर परनति संजोग भई जड़ता विसफूरति ॥ मोहकर्म पर हेतु पाइ, चेतन पर रच्चइ । ज्यौं धतूर- रस पान करत, नर बहुविध नच्चइ ॥ अब समयसार वरनन करत, परम सुद्धता होहु मुझ । अनयास बनारसिदास कहि, मिटहु सहज भ्रम की अरुझ ॥ यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से तो मैं सदा (तीनों काल) शुद्ध चैतन्यमूर्ति ही हूँ; तथापि संयोगजन्य परपरिणति के कारण जड़ता स्फुरायमान हुई है । जिसप्रकार धतूरे का रस पीकर मनुष्य नाचने लगते हैं; उसीप्रकार मोहकर्म के उदयानुसार यह चेतन पर में रचतापचता है। अब इस समयसार के वर्णन से मुझे परमविशुद्धता प्राप्त हो और भ्रम से उत्पन्न उलझन समाप्त हो जावे । आचार्य श्री अमृतचन्द्र के साथ-साथ बनारसीदासजी भी उक्त छन्द में यही भावना व्यक्त कर रहे हैं । धर्मपिता सर्वज्ञ परमात्मा के विरह में एक जिनवाणी माता ही शरण है। उसकी उपेक्षा हमें अनाथ बना देगी। आज तो उसकी उपासना ही मानों जिनभक्ति, गुरुभक्ति और श्रुतभक्ति है। उपादान के रूप में निजात्मा और निमित्त के रूप में जिनवाणी ही आज हमारा सर्वस्व है । निश्चय से जो कुछ भी हमारे पास है, उसे निजात्मा में और व्यवहार से जो कुछ भी बुद्धि, बल, समय और धन आदि हमारे पास हैं, उन्हें जिनवाणी माता की उपासना, अध्ययन, मनन, चिन्तन, संरक्षण, प्रकाशन, प्रचार व प्रसार में ही लगा देने में इस मानवजीवन एवं जैनकुल में उत्पन्न होने की सार्थकता है । परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ १८४ — Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १ आत्मख्याति के मंगलाचरण के बाद अब आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की मूल गाथाएँ आरम्भ होती हैं । सर्वप्रथम मंगलाचरण की गाथा है। उसकी उत्थानिका लिखते हुए आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि 'अथ सूत्रावतारः अब सूत्र का अवतार होता है ।' आचार्य अमृतचन्द्र के हृदय में समयसार की कितनी महिमा है यह बात उनके इस कथन में झलकती है । - लोक में 'अवतार' शब्द बहुत महिमावंत शब्द है । यह शब्द लोककल्याण के लिए भगवान के अवतरण के अर्थ में प्रयुक्त होता है । यहाँ समयसार की मूल गाथाओं के लिए उक्त शब्द का प्रयोग करके आचार्य अमृतचन्द्र उन गाथाओं के लोककल्याणकारी स्वरूप को स्पष्ट करना चाहते हैं । तात्पर्य यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द की इन गाथाओं में लोक के परमकल्याण की बात ही आने वाली है । समयसार के मंगलाचरण की मूल गाथा इसप्रकार है वंदित्तु सव्वसिद्धे ध्रुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं ॥ १ ॥ ( हरिगीत ) - ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्वपर हित । यह समयप्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित ॥ १ ॥ मैं ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त हुए सभी सिद्धों को नमस्कार कर श्रुतकेवलियों द्वारा कहे गये इस समयसार नामक प्राभृत को कहूँगा । इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों को नमस्कार करके श्रुतकेवलियों द्वारा कथित समयसार नामक ग्रंथाधिराज बनाने की प्रतिज्ञा करते हैं । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 गाथा १ इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्रदेव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - __ "यह पंचमगति (सिद्धदशा) स्वभाव के आलम्बन से उत्पन्न हुई होने से ध्रुव है, अनादिकालीन परिभ्रमण का अभाव हो जाने से अचल है और उपमा देने योग्य जगत के सम्पूर्ण पदार्थों से विलक्षण होने एवं अद्भुत महिमा की धारक होने से अनुपम है। ___ धर्म, अर्थ और काम – इस त्रिवर्ग से भिन्न होने के कारण अपवर्ग है नाम जिसका, ऐसी पंचमगति को प्राप्त सर्वसिद्धों को; जो मेरे आत्मा ‘की साध्यदशा के स्थान पर हैं अर्थात् जैसा मुझे बनना है, जो मेरा आदर्श है, उसके स्थान पर हैं; उन सर्वसिद्धों को भावस्तुति और द्रव्यस्तुति के माध्यम से अपने और पर के आत्मा में स्थापित करके; सर्वपदार्थों को साक्षात् जाननेवाले केवलियों द्वारा प्रणीत, अनादिनिधन श्रुत द्वारा प्रकाशित, स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवलियों द्वारा कथित होने से प्रमाणता को प्राप्त; सर्वपदार्थों या शुद्धात्मा का प्रकाशक एवं अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव है जो– ऐसे इस समयसार नामक ग्रन्थ का अपने और पराये अनादिकालीन मोह के नाश के लिए भाववचन और द्रव्यवचन के माध्यम से परिभाषण आरम्भ किया जाता है।" चारों ही गतियाँ परपदार्थों के अवलम्बन से उत्पन्न होती हैं, इसकारण अध्रुव हैं, विनाशीक हैं; पर पंचमगति सिद्धदशा स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होती है; अत: ध्रुव है, अविनाशी है, सदा एकसी रहनेवाली है। ___ यद्यपि परिवर्तन तो सिद्धदशा में भी होता है, पर वह परिवर्तन सदा एक-सा ही होता है, सुखरूप ही होता है; इसकारण इसे ध्रुव कहा है। सदा एकरूप ही रहनेवाले ध्रुव स्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होने के कारण सिद्धदशा सदा एक-से आनन्दरूप ही रहती है, शान्तिरूप ही रहती है। पर अनेक रूप धारण करनेवाले परपदार्थों के आश्रय से Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 20 उत्पन्न होने के कारण चारों गतियों रूप संसार दशा सांसारिक दुःखसुखरूप होती रहती है, बदलती रहती है। सांसारिक सुख भी दुखरूप ही है, तथा दु:खों का रूप भी बदलता रहता है। इसकारण संसार दशा अध्रुव है, चारों गतियाँ अध्रुव हैं। ध्रुवस्वभाव अलग है और ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से उत्पन्न होनेवाली ध्रुवपर्याय अलग है । ध्रुवस्वभाव तो सदा एकरूप ही रहता है, परन्तु ध्रुवस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली ध्रुवपर्याय सदा एकरूप नहीं रहती, किन्तु एक-सी रहती है। स्वभाव की ध्रुवता एकरूप रहना है और पर्याय की ध्रुवता एक-सी रहना है। यहाँ पर्याय की ध्रुवता की बात है। त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा को अनुभूतिपूर्वक जानना, निज जानना और उसमें ही अपनापन स्थापित होना, उसका ही ध्यान करना, उसमें ही लीन हो जाना ही ध्रुवस्वभाव का अवलम्बन है, आश्रय है । इसप्रकार के अवलम्बन से ही ध्रुवपर्याय प्रगट होती है, सिद्धदशा प्रगट होती है । ___ अनादिकाल से इस आत्मा ने निज भगवान आत्मा को तो कभी जाना ही नहीं; मात्र परपदार्थों, उनके भावों और उनके निमित्त से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाली विकारी पर्यायों को ही जाना-माना है, उनमें ही अपनापन स्थापित किया है और उनका ही ध्यान किया है, तथा यह आत्मा उनमें ही रचा-पचा रहा है । बस यही पर का आलम्बन है, पर का आश्रय है और इससे ही अनन्त दु:ख है। पंचमगति में पर का अवलम्बन छूट गया है, एकमात्र त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का अवलम्बन रह गया है। यही कारण है कि सिद्धदशा सुखमयदशा है, शान्तिमयदशा है, ध्रुवदशा है। ___ अनादिकाल से यह भगवान आत्मा चार गति और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। परभावों के निमित्त से होनेवाले इस परिभ्रमण के रुक जाने से पंचमगति अचलता को प्राप्त हो गई है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 चारों ही गतियाँ दुखमय हैं और यह पंचमगति सुखमय है । जगत में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है कि जिससे इसकी उपमा दी जा सके; क्योंकि जगत में जितने भी पदार्थ उपमा देने योग्य हैं, यह पंचमगति उन सबसे विलक्षण है, अद्भुत महिमावाली है; इसीकारण इसे अनुपम कहा गया है । ध्रुव विशेषण से विनाशीकपने का, अचल विशेषण से परिभ्रमण का एवं अनुपम विशेषण से चारों गतियों में पाई जानी वाली कथंचित् समानता का निषेध व्यवच्छेद इस पंचमगति में हो गया । गाथा १ आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अचल के स्थान पर पाठान्तर के रूप में अमल पद भी दिया है और अचल पद के साथसाथ अमल पद की भी व्याख्या दी है, जो इसप्रकार है "" - भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म रूपी मल से रहित एवं शुद्धस्वभाव सहित होने से पंचमगति अमल है ।" धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों में से धर्म, अर्थ और काम इनको त्रिवर्ग कहते हैं । इन तीनों से भिन्न होने से, विलक्षण होने से मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं। इस अविनाशी, अविचल, अमल, अनुपम और अपवर्ग गति को प्राप्त सभी सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार कर आचार्य कुन्दकुन्ददेव इस समयप्राभृत शास्त्र को रचने की प्रतिज्ञा करते हैं । - सर्वसिद्धों को नमस्कार करने के हेतु को स्पष्ट करते हुए टीकाकार अमृतचन्द्र कहते हैं कि ' वे सिद्ध भगवान सिद्धत्व के कारण साध्य जो आत्मा, उसके प्रतिच्छन्द के स्थान पर हैं ।' इसी को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं कि 'जिनके स्वरूप का संसारी भव्यजीव चिन्तवन करके, उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर, उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति को प्राप्त करते हैं ।' Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 22 प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में कहा गया है कि 'जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से एवं पर्यायरूप से जानते हैं; वे अपने आत्मा को जानते हैं और उससे उनका मोह नाश को प्राप्त होता है।' यहाँ भी यही बात कही जा रही है कि 'सिद्धों के स्वरूप का चिन्तवन कर, उन्हीं के समान अपने रूप को ध्याकर, संसारी जन उन्हीं के समान हो जाते हैं।' जो सिद्धपद हमारे लिए साध्य है, वह सिद्धपद जिन्होंने प्राप्त कर लिया है; वे सिद्ध भगवान हमारे आदर्श हैं, क्योंकि हमें उन जैसा ही बनना है। ___ यहाँ उन्हीं सिद्ध भगवान को द्रव्य व भाव स्तुति के माध्यम से स्वयं के व पाठकों के आत्मा में स्थापित करके इस समयसार ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। द्रव्यस्तुति और भावस्तुति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "मन, वाणी, देह तथा शुभाशुभ वृत्ति से मैं भिन्न हूँ; इसप्रकार शुद्धात्मा की ओर उन्मुख होकर तथा रागवृत्ति से हटकर अंतरंग में स्थिर होना सो भावस्तुति है। शेष शुभभावरूप स्तुति करना सो द्रव्यस्तुति है। _ 'मैं पूर्ण ज्ञानघन एवं स्वभाव से निर्मल हूँ' – ऐसे भावसहित रागादि को विस्मरण करके रागरहित भगवान आत्मा को अपने लक्ष में लेकर अंतरंग में स्थिर होना सो अंतरंग एकाग्रता अर्थात् भाववंदना है। शुभलक्षी भक्तिभाव द्रव्यस्तुति अर्थात् द्रव्यवंदना है?" आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में 'वंदित्तु' पद की व्याख्या इसप्रकार की है - १. समयसार प्रवचन : प्रथम भाग, पृष्ठ २९ २. वही, पृष्ठ ३३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 गाथा १ "निश्चयनय से अपने में ही आराध्य-आराधक भाव होने से निर्विकल्पसमाधि है लक्षण जिसका - ऐसे भावनमस्कार द्वारा एवं व्यवहार से वचनात्मक द्रव्यनमस्कार के द्वारा वंदना करके ... ।' आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र एवं जंयसेन सभी छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में झूलने वाले भावलिंगी सन्त थे। छठवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। इसकारण वे हर अन्तर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान में जाते ही थे। यही उनके द्वारा किया गया भावनमस्कार है, भावस्तुति है और इस गाथा में जो शब्दों में नमस्कार किया गया है; वही द्रव्यनमस्कार है, द्रव्यस्तुति है। उक्त भावस्तुति और द्रव्यस्तुति के माध्यम से ही आचार्यदेव अपने और पाठकों के आत्मा में सिद्धों की स्थापना करना चाहते हैं । वे इस ग्रन्थाधिराज का प्रणयन सिद्धों की साक्षीपूर्वक करना चाहते हैं और पाठकों से भी अपेक्षा रखते हैं कि वे भी अपने हृदय में सिद्धों की स्थापना करके इस ग्रंथाधिराज का स्वाध्याय करें। जगत में भी जब कोई महान काम किया जाता है तो लोकमान्य पुरुषों को साक्षी बनाकर ही किया जाता है। शादी जैसे कार्य को भी लोग देव-शास्त्र-गुरु की परोक्ष साक्षी और पंचों की प्रत्यक्ष साक्षी पूर्वक करते हैं। यही कारण है कि आत्महितकारी इस महान ग्रन्थाधिराज के प्रणयन में आचार्यदेव सर्वसिद्धों को साक्षी बनाना चाहते हैं। ___ 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' की सूक्ति के अनुसार सभी आत्मा सिद्ध समान तो हैं ही और प्रत्येक आत्मार्थी का अन्तिम साध्य भी सिद्ध दशा ही है। यही कारण है कि इस परम मंगलमय प्रसंग पर वे अपने और पाठकों के आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना करके इस महान कार्य का आरम्भ करते हैं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन श्रुतकेवली' शब्द की व्युत्पत्ति आचार्य जयसेन इसप्रकार करते हैं " 24 44 श्रुते परमागमे केवलिभिः सर्वज्ञैर्भणितं श्रुतकेवलिभणितं अथवा श्रुतकेवलिभणितं गणधरदेवकथितमिति । " श्रुते माने परमागम में जो केवलियों - सर्वज्ञों ने कहा है, उसे ही श्रुतके वलिभणित कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार तो 'सुदकेवली भणिदं ' पद का अर्थ 'सर्वज्ञदेव द्वारा परमागम में कहा गया ' यह ही होता है । दूसरे सभी गणधर द्वादशांग के पाठी होते हैं, अतः श्रुतकेवली होते हैं । वस्तुतः गणधरदेव ही तो द्वादशांग रूप सर्वश्रुत की रचना करते हैं । इसकारण दूसरे अर्थ में आचार्य जयसेन द्वारा 'गणधरदेव द्वारा कथित' अर्थ लिया गया है । तात्पर्य यह है कि यह परमागम शास्त्र सर्वज्ञों और गणधरों की वाणी के अनुसार ही लिखा गया है। आचार्य अमृतचन्द्र इसे और भी अधिक विस्तार देते हैं। वे कहते हैं "सर्वपदार्थों को साक्षात् जाननेवाले केवलियों द्वारा प्रणीत, अनादिनिधन श्रुत द्वारा प्रकाशित, स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवलियों द्वारा कथित, सर्वपदार्थों और शुद्धात्मा का प्रकाशक, अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव यह समयसार नामक ग्रन्थ मेरे द्वारा आरम्भ किया जाता है ।" - श्रुतकेवली शब्द में जयसेन ने अकेले गणधरदेव ही लिए हैं, जबकि अमृतचन्द्र ने सभी श्रुतकेवली ले लिए हैं; अतः उसमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक की सम्पूर्ण परम्परा आ जाती है । उक्त सम्पूर्ण कथन ग्रन्थ की प्रामाणिकता को स्पष्ट करने के लिए ही किया गया है। आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपनी ओर से कुछ भी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 गाथा १ कहने वाला नहीं हूँ। इस समयसार में मैं जो कुछ भी कहूँगा, वह सब वस्तुस्वरूप के अनुरूप तो होगा ही, सर्वज्ञ परमात्मा की दिव्यध्वनि के अनुसार भी होगा, गणधरदेव रचित द्वादशांग के अनुसार भी होगा, शुद्धात्मा और सम्पूर्ण पदार्थों के सही स्वरूप को प्रकाशित करने वाला ही होगा । ___ यह काम मैं स्व-पर के कल्याण के लिए ही कर रहा हूँ। वह स्वपर का कल्याण भी कोई लौकिक प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला नहीं है अर्थात् अनादिकालीन मोह के नाश के लिए ही यह उपक्रम है । __यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि शिष्यों के तो अनादिकालीन दर्शनमोह और चारित्रमोह का होना सम्भव हो सकता है; पर आचार्यदेव तो मोहरहित ही हैं, वे तो वीतरागी भावलिंगी संत हैं; उनके मोह का होना कैसे सम्भव है ? जिसके नाश के लिए वे यह उपक्रम कर रहे हैं। भाई, आचार्यदेव भी अभी पूरी तरह निर्मोही कहाँ हुए हैं ? हो गये होते तो वे वीतरागी-सर्वज्ञ हो गये होते; उनके भी संज्वलन सम्बन्धी चारित्रमोह विद्यमान है । अत: यहाँ जिसके जितना और जिसप्रकार का मोह है, उसे ही लेना चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीवों के दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों प्रकार के मोह के नाश की बात लेनी चाहिए एवं चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टियों के मात्र चारित्रमोह के नाश की बात लेनी चाहिए; इसीप्रकार पंचमगुणस्थान वालों के शेष दो कषायरूप चारित्रमोह के नाश की बात लेनी चाहिए और मुनिराजों के मात्र संज्वलन कषाय के नाश की बात लेनी चाहिए। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण के तीसरे छन्द में इस ग्रन्थ की टीका करने से अपने चित्त की परमविशुद्धि की कामना ही की है। वही बात वे यहाँ टीका में आचार्य कुन्दकुन्द की ओर से कह रहे हैं। __ भाई, देखो तो आचार्यदेव कह रहे हैं कि यह शास्त्र अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव है, भगवान की दिव्यध्वनि का अंश है। यह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन कोई साधारण पुस्तक नहीं है, यह तो केवली भगवान की वाणी का अवयव है, अंश है । अत: इसे केवली भगवान की वाणी के समान आदर देकर ही पढ़ना चाहिए । जब ऐसा करोगे, तभी इसके स्वाध्याय से पूरा लाभ प्राप्त होगा । 26 अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि भाववचन और द्रव्यवचन से इसका परिभाषण आरम्भ किया जाता है । भाववचन और द्रव्यवचन को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं" आचार्यदेव कहते हैं कि मेरी ज्ञानपर्याय भाववचन है और विकल्पपूर्वक जो वाणी निकलती है, वह द्रव्यवचन है। ज्ञानपर्याय में प्रतिसमय वृद्धि होती है और शब्द की रचना शब्द के कारण होती है । यहाँ दोनों का निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध बताया है ।" " - 'वोच्छामि' शब्द का अर्थ हिन्दी वचनिकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी गाथा के भावार्थ में इसप्रकार करते हैं - "गाथा सूत्र में आचार्यदेव ने 'वक्ष्यामि' कहा है । उसका अर्थ टीकाकार ने 'वच परिभाषणे' धातु से परिभाषण किया है । उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि चौदह पूर्वों में से ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व में बारह वस्तु अधिकार हैं; उनमें भी एक-एक के बीस-बीस प्राभृत अधिकार हैं । उनमें से दसवें वस्तु में समय नामक जो प्राभृत है, उसके मूल सूत्रों के शब्दों का ज्ञान पहले बड़े आचार्यों को था और उसके अर्थ का ज्ञान आचार्यों की परिपाटी के अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव को भी था । उन्होंने समयप्राभृत का परिभाषण किया परिभाषा बनाये सूत्र 1 सूत्र की दस जातियाँ कही गई हैं, उनमें से एक परिभाषा जाति भी है । जो अधिकार को अर्थ के द्वारा यथास्थान सूचित करे, वह परिभाषा १. आत्मधर्म (हिन्दी), अक्टूबर १९७६, पृष्ठ १८ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 गाथा १ कहलाती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव समयसार का परिभाषण करते हैं अर्थात् वे समयप्राभृत के अर्थ को ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषा सूत्र रचते हैं।" इसप्रकार यह स्पष्ट है कि यह समयसार नामक ग्रन्थाधिराज तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में समागत, गौतमादि गणधरों द्वारा रचित एवं भद्रबाहुपर्यन्त सभी श्रुतकेवलियों द्वारा कथित द्वादशांग के बारहवें अंग के ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के समय नामक प्राभृत के अनुसार लिखा गया है। ___ इस ग्रन्थाधिराज समयसार का मूल प्रतिपाद्य भगवान आत्मा का शुद्ध स्वरूप है; अत: वह अभिधेय हुआ। इस ग्रन्थ में जिन पदों का, शब्दों का प्रयोग किया गया है, वे सभी पद शुद्धात्मा के प्रतिपादक हैं। अत: उन पदों और शुद्धात्मा में वाचक-वाच्य संबंध है, प्रतिपादकप्रतिपाद्य संबंध है और शुद्धात्मा की प्राप्ति ही मूल प्रयोजन है। इसप्रकार इस ग्रन्थ के अभिधेय, संबंध और प्रयोजन तो स्पष्ट ही इसप्रकार इस पहली गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ध्रुव, अचल, अमल और अनुपम गति को प्राप्त सर्वसिद्धों की वंदना कर केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित समयसार नामक ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं। यद्यपि विवेक का स्थान सर्वोपरि है, किन्तु वह विनय और मर्यादा को भंग करनेवाला नहीं होना चाहिए। विवेक के नाम पर कुछ भी कर डालना तो महापाप है; क्योंकि निरंकुश विवेक पूर्वजों से प्राप्त श्रुतपरम्परा के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। - आप कुछ भी कहो, पृष्ठ २५) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २ प्रथम गाथा में समयप्राभृत कहने की प्रतिज्ञा की गई है, समयसार लिखने की प्रतिज्ञा की गई है । अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समय क्या है ? इसलिए अब आचार्यदेव सर्वप्रथम समय का स्वरूप ही स्पष्ट करते हैं । जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण । पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥ २ ॥ ( हरिगीत ) सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय । जो कर्म पुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ॥ २ ॥ जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थित है; उसे स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित है; उसे परसमय जानो। स्वभाव में स्थित जीव स्वसमय है और परभाव में स्थित जीव परसमय है । स्वसमय और परसमय दोनों अवस्थाओं में व्यापक प्रत्यगात्मा समय है । मूल गाथा में तो स्वसमय और परसमय को ही परिभाषित किया गया है, पर आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन पहले समय का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, उसके बाद स्वसमय और परसमय को समझाते हैं । 'समय' शब्द का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - 44 " समय शब्द 'सम' उपसर्गपूर्वक 'अय' धातु से बना है । 'अय' का अर्थ गमन भी होता है और ज्ञान भी होता है । 'सम्' का अर्थ 'एकसाथ' होता है । इसप्रकार जिस वस्तु में एक ही काल में जानना और परिणमन करना ये दोनों क्रियायें पाई जावें, वह ही समय है । - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 गाथा २ चूंकि जीव प्रतिसमय जानता भी है और परिणमन भी करता है; अत: जीव नामक पदार्थ ही समय है । वह समय नामक जीव पदार्थ परिणमनशील होने से उत्पाद-व्ययध्रौव्य की एकतारूप अनुभूति लक्षणवाली सत्ता से युक्त है; चैतन्यस्वभावी होने से नित्य उद्योतरूप निर्मल दर्शन-ज्ञान ज्योतिस्वरूप है; अनन्तधर्मों के अधिष्ठातारूप एकधर्मी होने से जिसका द्रव्यत्व प्रगट है; क्रम और अक्रम से प्रवत्त होनेवाले विचित्र स्वभाव को धारण करनेवाला होने से जो गुण- पर्याय वाला है । स्व-पर के प्रकाशन में समर्थ होने से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली एकरूपता प्राप्त की है जिसने; अन्यद्रव्यों के जो विशेष गुण हैं, ऐसे अवगाहनहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व और रूपित्व के अभाव से एवं असाधारण चैतन्यरूप के सद्भाव से आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल इन पांचों द्रव्यों से जो अत्यन्त भिन्न है; वह जीव नामक पदार्थ अनन्त अन्यद्रव्यों से अत्यन्त एक क्षेत्रावगाहरूप से संबंधित होने पर भी अपने स्वरूप से न छूटने के कारण टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है । ऐसा जीव नामक पदार्थ ही समय है । जब यह समय (जीव ) सब पदार्थों को प्रकाशन करने में समर्थ केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली भेदविज्ञानज्योति के उदय होने से सभी परद्रव्यों से अपनापन तोड़कर, अपने दर्शन - ज्ञान स्वभाव में है नियतवृत्ति जिसकी, ऐसे आत्मतत्त्व में एकाकार होकर प्रवृत्ति करता है; तब दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्वरूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ स्वसमय कहलाता है । - जब यह समय (जीव ) अनादि अविद्यारूपी केले के मूल की गांठ के समान परिपुष्ट मोह के उदयानुसार प्रवृत्ति की अधीनता से दर्शनज्ञान स्वभाव में नियतवृत्ति रूप आत्मतत्त्व से अपनापन तोड़कर परद्रव्य Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 30 के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपद् ही पर में एकाकार होकर जानता और परिणमता हुआ परसमय कहलाता है। इसप्रकार इस समय (जीव) की स्वसमय और परसमय - यह द्विविधता (दो पना) प्रगट होती है।" यहाँ समय का स्वरूप सात विशेषणों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। वह समय नामक जीव पदार्थ - (१) उत्पाद-व्यय-ध्रुव युक्त सत्ता सहित है। (२) ज्ञान-दर्शनस्वरूप चैतन्यस्वभावी है। (३) अनन्तधर्मात्मक एक अखण्ड द्रव्य है। (४) अक्रमवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों से युक्त है। (५) स्व-परप्रकाशक सामर्थ्य से युक्त होने से अनेकाकार होने पर भी एकरूप है। (६) अपने असाधारण चैतन्यस्वभाव के सद्भाव एवं परद्रव्यों के विशेष गुणों के अभाव के कारण परद्रव्यों से भिन्न है। (७) परद्रव्यों से एक क्षेत्रावगाहरूप से अत्यन्त मिला हुआ होने पर भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होने के कारण टंकोत्कीर्ण चित्स्वभावी है। यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ परद्रव्यों और उनके गुण-पर्यायों से अत्यन्त भिन्न, ज्ञान-दर्शनस्वभावी, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य से सहित, गुण-पर्यायवान, स्व-परप्रकाशक, अनन्तधर्मात्मक, टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावी जीवद्रव्य है। ___ यहाँ प्रमाण के विषयभूत जीवद्रव्य को लिया गया है ; द्रव्यार्थिकनय के विषय या दृष्टि के विषयरूप जीवतत्त्व को नहीं। उसकी चर्चा तो छठवीं-सातवीं एवं चौदहवीं-पन्द्रहवीं गाथा में आयेगी। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 यहाँ तो पर से भिन्न और अपने गुण- पर्यायों से अभिन्न जीवतत्त्व की बात चल रही है, क्योंकि यह जीव की द्विविधता की बात है । जिस जीव में द्विविधता आती है, वह जीव तो गुण-पर्यायवाला जीव ही हो सकता है; परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत जीव तो एकरूप ही होता है, उसमें तो द्विविधता ( दो पना) संभव ही नहीं है । गाथा २ यहाँ जो जीवद्रव्य के विशेषण दिये गये हैं. उनसे जैनदर्शन में मान्य जीव का स्वरूप स्पष्ट होता है और अन्य कथित मान्यताओं का निराकरण भी होता है। 9 आत्मा 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य सहित है' इस विशेषण से आत्मा की सत्ता न मानने वाले नास्तिकों, आत्मा को सर्वथा अपरिणामी माननेवाले सांख्यों, सत्ता को सर्वथा नित्य माननेवाले नैयायिक और वैशेषिकों तथा सर्वथा क्षणिक माननेवाले बौद्धों का निराकरण हो गया। - - 'आत्मा स्व - परप्रकाशक है' इस विशेषण से ज्ञान अपने को ही जानता है, पर को नहीं; इसप्रकार एकाकार को ही माननेवालों का तथा ज्ञान पर को ही जानता है, अपने को नहीं; इसप्रकार अनेकाकार को ही माननेवालों का निराकरण हो गया । इस 'यह भगवान आत्मा धर्मादि अन्य द्रव्यों से भिन्न है ' विशेषण से एक ब्रह्मवस्तु को ही माननेवालों का निराकरण हो गया। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा उक्त कथन के सार को इसी गाथा के भावार्थ में इसप्रकार लिखते हैं : - "जीव नामक वस्तु को पदार्थ कहा है । 'जीव' इसप्रकार अक्षरों का समूह 'पद' है और उस पद से जो द्रव्य-पर्यायरूप अनेकान्तस्वरूपता निश्चित की जाये, वह पदार्थ है । यह जीव पदार्थ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनन्तधर्मस्वरूप द्रव्य है, द्रव्य होने से वस्तु Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन है, गुण-पर्यायवान है, उसका स्व-परप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है और वह जीवपदार्थ आकाशादि से भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है तथा अन्य द्रव्यों के साथ एकक्षेत्र में रहने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है। जब वह अपने स्वभाव में स्थित हो, तब स्वसमय है और जब परस्वभाव राग-द्वेष-मोहरूप होकर रहे, तब परसमय है। इसप्रकार जीव के द्विविधता आती है।" यहाँ एक प्रश्न संभव है कि मूल गाथा में तो स्वसमय और परसमय की ही चर्चा की है, उन्हें ही परिभाषित किया है। समय की तो बात ही नहीं की; पर टीका में मुख्यरूप से समय की बात की जा रही है। इसका क्या कारण है? आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रमाण के विषयभूत समय नामक जीवद्रव्य का कथन पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में विस्तार से कर चुके हैं; अत: यहाँ उसका विवेचन उन्हें अभीष्ट नहीं है । इस ग्रन्थराज में तो वे द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत आत्मद्रव्य का स्वरूप बताना चाहते हैं । यही कारण है कि उन्होंने ग्रन्थ का नाम समयसार रखा है। समय माने पर से पृथक् गुण-पर्यायवाला जीवद्रव्य, प्रमाण का विषयरूप जीव-द्रव्य; और समयसार का अर्थ होता है पर और पर्याय से पृथक् त्रिकाली ध्रुव आत्मवस्तु । समय के साथ सार लग जाने से पर्याय का निषेध हो जाता है। अब रही यह बात कि जब आचार्य कुन्दकुन्द ने समय का स्वरूप स्पष्ट नहीं किया तो उसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र समय के स्वरूप को इतने विस्तार से क्यों स्पष्ट कर रहे हैं। ___अरे भाई! विस्तार से कहाँ, संक्षेप में ही तो समझाया है। पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार के विस्तृत विवेचन को मात्र छह-सात पंक्तियों में समेट कर ही तो बात की है। आचार्य अमृतचन्द समय Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 गाथा २ अर्थात् आत्मा का स्वरूप स्पष्ट कर देना चाहते हैं, स्मरण करा देना चाहते हैं; जिससे पाठकों को समय के सन्दर्भ में समयसार समझाया जा सके। स्वसमय और परसमय - ये दो भेद समय के हैं, समयसार के नहीं। तात्पर्य यह है कि गुण-पर्यायवान जीवद्रव्य ही स्वसमय और परसमय में विभक्त होता है, विभाजित होता है; समयसाररूप शुद्धात्मा तो अविभक्त है, उसके तो कोई भेद होते ही नहीं हैं । स्वसमय और परसमय के भेद पर्याय की ओर से किये गए भेद ही हैं; अत: ये भेद पर्याय सहित आत्मा के ही हो सकते हैं। उनकी परिभाषाओं से ही यह बात स्पष्ट होती है कि जब यह समय नामक जीव पदार्थ दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होता है, तब स्वसमय कहलाता है और जब पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होता है, तब परसमय कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जब यह गुण-पर्यायवान जीवद्रव्य अपने त्रिकाली ध्रुव निजभगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करता है, उसे ही अपना जानता-मानता है, उसमें ही जमता-रमता है, तब स्वसमय कहलाता है; और जब पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से प्राप्त संयोगों में, संयोगीभावों में अपनापन स्थापित करता है, उन्हें ही अपना जानता-मानता है, उनमें ही जमता-रमता है, तब परसमय कहलाता है। प्रवचनसार में स्वसमय-परसमय की परिभाषा इसप्रकार दी गई "जो पज्जएसु णिरदा जीवा परसमग त्ति णिदिट्ठा । आदसहावम्हि ठिदा से सगसमया मुणेदव्वा ॥ जो जीव पर्यायों में लीन हैं, उन्हें परसमय कहा गया है और जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं, उन्हें स्वसमय जानना चाहिए।" १. आचार्य कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, गाथा ९४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार अनुशीलन समयसार की दूसरी गाथा में दर्शन. ज्ञान और चारित्र में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है और प्रवचनसार में आत्मस्वभाव में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है। इसीप्रकार समयसार में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित जीव को परसमय कहा गया है और प्रवचनसार में पर्यायों में निरत आत्मा को परसमय कहा गया है । 34 1 उक्त दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं हैं, मात्र अपेक्षा भेद है आत्मस्वभाव में स्थित होने का नाम ही दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होना है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण की पर्यायें जब आत्मस्वभाव के सन्मुख होकर परिणमित होती हैं, तब सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट होते हैं; उसी को आत्मस्वभाव में स्थित होना कहते हैं और उसी को दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होना कहते हैं । समयसार की आत्मख्याति टीका में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने का अर्थ मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकत्व स्थापित कर परिणमन करना किया है और प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में पर्यायों में निरत का अर्थ करते हुए मनुष्यादि असमानजाति द्रव्यपर्यायों में एकत्वरूप से परिणमन करने पर विशेष बल दिया है । तात्पर्य यह है कि परसमय की व्याख्या में आत्मख्याति में मोहराग-द्वेषरूप आत्मा के विकारी परिणामों के साथ एकत्वबुद्धि पर बल दिया है, तो तत्त्वप्रदीपिका टीका में मनुष्यादि असमानजाति द्रव्यपर्यायों के साथ एकत्वबुद्धि पर बल दिया है । आत्मख्याति में उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय के विषय को लिया है, तो तत्त्वप्रदीपिका में अनुपचरित- असद्भूतव्यवहारनय के विषय को लिया है । रागादि के साथ एकता की बात उपचरितसद्भूतव्यवहारनय कहता है और मनुष्य देहादि के साथ एकता की बात अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय कहता है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 निश्चयरत्नत्रय से रहित जीव तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं; पर निश्चयरत्नत्रय से परिणत जीवों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है और वे तीनों भेद चारित्र की पूर्णता अपूर्णता के आधार पर घटित होते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन तो अपूर्ण होता ही नहीं। चौथे : गुणस्थान में ही क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है; सम्यग्ज्ञान भी सम्यक् - मिथ्या की अपेक्षा सम्यक् ही होता है, पूर्ण सम्यक् ही होता है; भले केवलज्ञान नहीं है, पर सम्यक्पने में कोई अन्तर नहीं होता, कोई अपूर्णता नहीं होती । अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में चारित्र का अंश चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट हो जाता है और पूर्णता वीतराग होने पर ही होती है तथा सातवें गुणस्थान के योग्य शुद्धोपयोग की अपेक्षा सातवें गुणस्थान में निश्चयचारित्र होता है । इसप्रकार निश्चयरत्नत्रय परिणत जीवों को निम्नांकित तीन भागों में रखा जाता है - गाथा २ (१) निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट हो जाने से चतुर्थगुणस्थानवाले जीव निश्चयरत्नत्रय से परिणत हैं। इस अपेक्षा तो चतुर्थगुणस्थान से लेकर सिद्ध तक सभी जीव स्वसमय ही हैं । (२) आत्मध्यान में स्थित जीवों को ही निश्चयरत्नत्रयपरिणत कहें तो सातवें गुणस्थान से ऊपर वाले जीव ही स्वसमय कहलायेंगे । (३) यदि पूर्ण वीतरागियों को ही निश्चयरत्नत्रयपरिणत कहें तो बारहवें गुणस्थान से आगे वाले ही स्वसमय कहलायेंगे । यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यादृष्टि परसमय और सम्यग्दृष्टि से सिद्ध तक स्वसमय यह अपेक्षा तो ठीक; पर जब मिथ्यादृष्टि को परसमय और वीतरागियों को स्वसमय कहेंगे तो फिर छद्मस्थ सम्यग्दृष्टियों (चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक) को क्या कहेंगे स्वसमय या परसमय ? - - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन इस प्रश्न के उत्तर के लिए पंचास्तिकाय की १६५वीं गाथा द्रष्टव्य जो इसप्रकार है है, 36 " अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो । हवदित्ति दुक्खमोखं परसमयरदो हवदि जीवो ॥ 'शुद्धसम्प्रयोग से दुःखों से मोक्ष होता है' - अज्ञान के कारण यदि ज्ञानी भी ऐसा माने तो वह परसमयरत जीव है । " इसी गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यह सूक्ष्मपरसमय के स्वरूप का कथन है । वे आगे लिखते हैं कि यहाँ सिद्धि के साधनभूत अरहंतादि भगवन्तों के प्रति भक्तिभाव से अनुरंजित चित्तवृत्ति ही शुद्धसम्प्रयोग है। जब अज्ञानलव के आवेश से यदि ज्ञानवान भी 'उस शुद्धसम्प्रयोग से मोक्ष होता है' ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें (शुद्धसम्प्रयोग में) प्रवर्ते तो तबतक वह भी रागलव के सद्भाव के कारण परसमयरत कहलाता है; तो फिर निरंकुश रागरूपक्लेश से कलंकित अतरंगवृत्तिवाले इतर जन परसमयरत क्यों नहीं कहलायेंगे ? - उक्त गाथा और उसकी टीका दोनों ही गंभीर मंथन की अपेक्षा रखती हैं। सबसे मुख्य बात तो यह है कि 'ज्ञानी भी अज्ञान से' यह गाथा का वाक्य एवं 'अज्ञानलव के आवेश से यदि ज्ञानवान भी ' यह टीका का वाक्य ये दोनों ही वाक्य विरोधाभास - सा लिए हुए हैं । जब कोई व्यक्ति ज्ञानी है तो उसके अज्ञान कैसे हो सकता है? — यद्यपि सम्यग्ज्ञानी के भी औदयिक अज्ञान होता है, अल्पज्ञानरूप अज्ञान होता है; तथापि इस अज्ञान के कारण परसमयपना संभव नहीं होता । क्योंकि यहाँ शुद्धसम्प्रयोग का अर्थ अरहंतादि की भक्ति से अनुरंजित चित्तवृत्ति किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि इससे मोक्ष होता है ऐसे अभिप्राय के कारण परसमयपना है । अत: यह सिद्ध ही है कि यहाँ औदयिक अज्ञान की बात नहीं है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 गाथा २ ___ यदि औदयिक अजान की वात नहीं है और ज्ञानी के क्षायांपशमिक अज्ञान होता ही नहीं है तो फिर कौन-सा अज्ञान है? __ भाई. यहाँ मुख्यरूप से तो मिथ्यादृष्टि को ही परसमय बताना है। इसी बात पर वजन डालने के लिए यहाँ यह कहा गया है कि जब अरहंत की भक्ति से मुक्ति प्राप्त होती है - इस अभिप्राय वाले भी परसमय कहे जाते हैं तो फिर विषय-कषाय में सुखबुद्धि से निरंकुश प्रवृत्ति करनेवाले तो परसमय होंगे ही। __ वस्तुत: तो यहाँ चारित्र के दोष पर ही वजन है, श्रद्धा या ज्ञान के दोष पर नहीं; भले ही अज्ञान शब्द का प्रयोग किया हो, पर साथ ही ज्ञानी शब्द का भी प्रयोग है न ? तथा यह भी लिखा है कि रागलव के सद्भाव के कारण परसमयरत है। यहाँ 'रागलव के सद्भाव के कारण' - यह वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। ___ यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र को उन्हें परसमय कहने में संकोच का अनुभव हो रहा है। उनका यह संकोच इस रूप में व्यक्त हुआ है कि वे कहते हैं यह सूक्ष्मपरसमय का कथन है । यद्यपि गाथा में ऐसा कोई भेद नहीं किया है, तथापि अमृतचन्द्र टीका के आरम्भ में ही यह बात लिखते हैं। ___ 'श्रद्धा के दोषवाले मिथ्यादृष्टि स्थूलपरसमय और चारित्र के दोषवाले सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्मपरसमय हैं ' - इसप्रकार का भाव ही इसी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने व्यक्त किया है। उनके मूल कथन का भाव इसप्रकार है - __ "कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्मभावना लक्षणवाले परमोपेक्षासंयम में स्थित होने में अशक्त होता हुआ काम-क्रोधादि अशुद्ध (अशुभ) परिणामों से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का छेद करने के लिए जब पंचपरमेष्ठी का गुणस्तवन करता है, भक्ति करता है, तब Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन सूक्ष्मपरसमयरूप परिणमित होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है, और यदि शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है - ऐसा एकान्त से मानता है तो स्थूलपरसमयरूप परिणाम से स्थूल परसमय होता हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। " 38 उक्त कथन में मिथ्यादृष्टि को स्थूलपरसमय और सराग सम्यग्दृष्टि को सूक्ष्मपरसमय कहा है। इससे यह सहज ही फलित होता है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि स्वसमय है । पंचास्तिकाय की गाथा १६५ से १६९ तक पाँच गाथाओं में शुभराग में धर्मबुद्धि का और शुभरागरूप परिणति का बड़ी ही निर्दयता से निषेध किया गया है। ऐसे जीवों को परसमय कहकर स्वसमय बनने की प्रेरणा दी गई है । समयसार की दूसरी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन निश्चयरत्नत्रय से परिणत जीव को स्वसमय और निश्चयरत्नत्रय से रहित जीव को परसमय कहते हैं । हाँ, एक बात यह भी हो सकती है कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की देशघाति प्रकृति सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व में चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते रहते हैं; उन दोषों को ही यहाँ ' अज्ञानलव' शब्द से संबोधित किया हो; क्योंकि उक्त दोषों का भी लगभग वही स्वरूप है, जो यहाँ सूक्ष्मपरसमय के प्रतिपादन में व्यक्त किया गया है । अत: एक संभावना यह भी हो सकती है कि यहाँ चल, मल और अगाढ़ दोष वाले क्षयोपशम सम्यग्दृष्टियों को ही यहाँ 'सूक्ष्मपरसमय' शब्द से संबोधित किया गया हो । अरे, भाई ! यह सब तो सूक्ष्मपरसमय का विवेचन है, मूलरूप से तो यहाँ यही उपयुक्त है कि स्वसमय माने सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा, मुक्तिमार्गी एवं मुक्त; तथा परसमय माने मिथ्यादृष्टि संसारी । प्रथम गुणस्थान वाले परसमय हैं और चौथे गुणस्थान से सिद्धदशा तक के जीव स्वसमय है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 गाथा २ निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि वास्तविक धर्मपरिणत आत्मा ही धर्मात्मा है, स्वसमय है, और धर्म परिणति से विहीन मोह - राग-द्वेषरूप परिणत आत्मा ही अधर्मात्मा है, परसमय है । स्वसमय उपादेय है, परसमय हेय है, समय ज्ञेय है और समयसार ध्येय है । समयसाररूप ध्येय के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान से यह समय स्वसमय बनता है और समयसार के ज्ञान, श्रद्धान एवं ध्यान के अभाव में मोह-राग-द्वेषरूप परिणत होकर परसमय बनता है । अतः समयसाररूप शुद्धात्मा को समझकर उसमें अपनापन स्थापित करना, उसका ही ध्यान करना अपना परम कर्त्तव्य है । रुचि अनुयायीवीर्य हमें आध्यात्मिक ग्रंथों के स्वाध्याय की वैसी रुचि भी कहाँ है जैसी कि विषय-कषाय और उसके पोषक साहित्य पढ़ने की है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्होंने किसी आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक या दार्शनिक ग्रन्थ का स्वाध्याय आद्योपान्त किया हो । साधारण लोग तो बँधकर स्वाध्याय करते ही नहीं, पर ऐसे विद्वान भी बहुत कम मिलेंगे, जो किसी भी महान ग्रन्थ का जमकर अखण्डरूप से स्वाध्याय करते हों। आदि से अन्त तक अखण्डरूप से हम किसी ग्रन्थ को पढ़ भी नहीं सकते तो फिर उसकी गहराई में पहुँच पाना कैसे संभव है? जब हमारी इतनी भी रुचि नहीं कि उसे अखण्डरूप से पढ़ भी सकें तो उसमें प्रतिपादित अखण्ड वस्तुस्वरूप हमारे ज्ञान और प्रतीति में कैसे आवे? विषय- कषाय के पोषक उपन्यासादि को हमने कभी अधूरा नहीं छोड़ा होगा, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं; उसके पीछे भोजन को भी भूल जाते हैं। क्या आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में भी कभी भोजन को भूले हैं ? यदि नहीं, तो निश्चित समझिये हमारी रुचि अध्यात्म में उतनी नहीं, जितनी विषय- कषाय में है । 'रुचि अनुयायी वीर्य' के नियमानुसार हमारी सम्पूर्ण शक्ति वहीं लगती है, जहाँ रुचि होती है। स्वाध्यायतप के उपचार को भी प्राप्त करने के लिए हमें आध्यात्मिक साहित्य में अनन्यरुचि जागृत करनी होगी। धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ १११ — Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३ दूसरी गाथा में समय की द्विविधता बताई गई थी; पर यह द्विविधता शोभनीय नहीं है, शोभास्पद तो एकत्व ही है। इस बात को तीसरी गाथा में स्पष्ट करते हैं । एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि॥३॥ ( हरिगीत ) एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में। विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ॥३॥ एकत्वनिश्चय को प्राप्त जो समय है, वह लोक में सर्वत्र ही सुन्दर है। इसलिए एकत्व में दूसरे के साथ बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली है। प्रत्येक पदार्थ अपने में ही शोभा पाता है, पर के साथ बंध की कथा, मिलावट की बात विसंवाद पैदा करनेवाली है; अत: यदि विसंवाद से बचना है तो एकत्व को ही अपनाना श्रेयस्कर है । __ आत्मख्याति में इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है - __"यहाँ समय शब्द से सामान्यतः सभी पदार्थ कहे जाते हैं; क्योंकि जो एकीभाव से स्वयं के गुण-पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव; लोक के ये सभी पदार्थ समय शब्द से अभिहित किए जाते हैं और एकत्वनिश्चय को प्राप्त होने से सुन्दरता को पाते हैं । तात्पर्य यह है कि ये सब अकेले ही शोभास्पद होते हैं; क्योंकि अन्यप्रकार से उसमें सर्वसंकरादि दोष आ जावेंगे। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 गाथा ३ वे सभी पदार्थ अपने - अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते । अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं; तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं । पररूप परिणमन न करने से उनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भांति सदा स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य व अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व को सदा टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं । इसप्रकार सर्वपदार्थों का भिन्न-भिन्न एकत्व प्रतिष्ठित हो जाने पर एकत्व सिद्ध हो जाने पर जीव नामक समय को बंध की कथा से ही विसंवाद की आपत्ति आती है । तात्पर्य यह है कि जब सभी पदार्थ परस्पर भिन्न ही हैं तो फिर यह बन्धन की बात जीव के साथ ही क्यों? - जब बंध की बात ही नहीं टिकती तो फिर बंध के आधार पर कहा गया पुद्गल प्रदेशों में स्थित होना भी कैसे टिकेगा ? तथा उसके आधार पर होनेवाला परसमयपना भी नहीं टिक सकता। जब परसमयपना नहीं रहेगा तो फिर उसके आधार पर किया गया स्वसमयपरसमय का विभाग भी कैसे टिकेगा ? जब यह विभाग ही नहीं रहा तो फिर समय (जीव ) के एकत्व होना ही सिद्ध हुआ और यही श्रेयस्कर भी है ।" देखो, दूसरी गाथा में 'समय' शब्द का अर्थ जीवद्रव्य लिया था और यहाँ छहों द्रव्य लिया जा रहा है । वहाँ जो एक ही समय में गमन भी करे और ज्ञान भी करे, उसे समय कहते हैं; इस व्याख्या के अनुसार समय शब्द का अर्थ जीव किया था और यहाँ जो अपने गुण- -पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं, इस व्याख्या के अनुसार समय शब्द का अर्थ छहों द्रव्य लिया है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन दूसरी गाथा में समय का द्विविधपना बताया था और यहाँ उसका निषेध किया जा रहा है, उसमें बाधा उपस्थित की जा रही है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि जब प्रत्येक द्रव्य भिन्न-भिन्न ही हैं, अपने-अपने में ही रहते हैं, कोई किसी को छूता भी नहीं है तो फिर आत्मा का पुद्गल के प्रदेशों में स्थित होना कैसे संभव है ? इस बंध की कथा में ही विसंवाद है अथवा यह बंध की कथा ही विसंवाद पैदा करनेवाली है। जब दो द्रव्य परस्पर मिलते ही नहीं तो बंधने की बात में दम ही क्या है? जब आत्मा बंधा ही नहीं है तो उसके परसमयपना ही नहीं ठहरता है। जब परसमयपना ही नहीं है तो फिर स्वसमय कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि स्वसमय तो परसमय की अपेक्षा कहा जाता है। अत: समय तो समय है, वह न स्वसमय है न परसमय है। इस बंध की कथा ने ही ऐसे दो भेद किये हैं; अत: यह बंधकथा ही विसंवाद पैदा करनेवाली है, दुविधा पैदा करनेवाली है। यदि विसंवाद मिटाना है तो बंध की बात ही मत करो, एकत्वविभक्त आत्मा की कथा ही श्रेष्ठ है। बंध की कथा विसंवाद पैदा करनेवाली और एकत्व-विभक्त आत्मा की कथा विसंवाद मिटानेवाली है। यही बात तो आगे चौथी-पांचवीं गाथा में कहनेवाले हैं कि तुमने अबतक काम, भोग और बंध की कथा ही सुनी है; अब मैं तुम्हें एकत्व-विभक्त आत्मा की कथा सुनाऊँगा। आचार्यदेव को बंध की कथा में कोई रस नहीं है, वे तो आत्मा के एकत्व को ही समझाना चाहते हैं । वे तो यहाँ भी साफ-साफ कह रहे हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्तर में रहनेवाले अनन्तधर्मों को चूमते हैं, परन्तु पर को स्पर्श भी नहीं करते; एकक्षेत्रावगाह रूप से अत्यन्त निकट ठहर रहे हैं, पर अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३ इसलिए बंध की कथा में कोई दम नहीं है, एकत्व की कथा ही करने योग्य है। प्रश्न –विरुद्ध और अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व का उपकार करते हैं; विश्व को टिकाये रखते हैं। - इस कथन का क्या आशय है? उत्तर –उक्त कथन का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "द्रव्य की पर्याय में जो उत्पाद-व्यय है, वह परस्पर विरुद्ध कार्य है। धवल ग्रन्थ में आता है कि एकसमय की पर्याय में उत्पाद-व्यय अर्थात् उपजना व विनशना - इसप्रकार दो परस्पर विरुद्ध कार्य होते हैं । जिससमय द्रव्य की वर्तमान पर्याय उत्पन्न होती है, उसीसमय पूर्व की पर्याय का व्यय होता है। उत्पाद् भावरूप है और व्यय अभावरूप है। इसकारण उत्पाद को व्यय से विरुद्ध कहा जाता है। ऐसा होते हुए भी गुण गुणपने से त्रिकाल कायम रहते हैं, इससे वे अविरुद्ध हैं । ऐसा विरुद्ध-अविरुद्ध वस्तु का स्वरूप ही है। एकसमय की पर्याय में जो उत्पाद-व्यय है, वह परस्पर विरुद्धभाव है और गुण कायम रहते हैं, वह अविरुद्धभाव हैं । इसतरह विरुद्ध और अविरुद्ध कार्य अर्थात् अनन्त द्रव्यों का उत्पाद-व्ययरूप विरुद्धभाव और गुणरूप अविरुद्धभाव – इन दोनों के हेतुपने से हमेशा विश्व का उपकार करते हैं । अर्थात् द्रव्य के गुण-पर्यायरूप स्वरूप के द्वारा विश्व के समस्त पदार्थ जैसे हैं, वैसे ही टिके रहते हैं।" प्रत्येक द्रव्य का परिणमन अपने में ही होता है, कोई भी द्रव्य पररूप परिणमन नहीं करता। इसकारण प्रत्येक द्रव्य का व्यक्तित्व सदा स्वतंत्र ही रहता है, उसकी व्यक्तिता कभी नष्ट नहीं होती; वह अपनी स्वतंत्र इकाई के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहता है। यही कारण है कि सभी पदार्थ टंकोत्कीर्ण की भाँति सदा स्थित रहते हैं। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ ६३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 समयसार अनुशीलन यहाँ एकत्वनिश्चयगत समय का अर्थ स्पष्ट करते हुए सभी पदार्थों के सम्बन्ध में चार बातें स्पष्ट की गई हैं - (१) जीवादि सभी पदार्थ अपने में ही मग्न हैं, अपने गुण-पर्यायों को ही आलिंगित करते हैं, पर को स्पर्श तक नहीं करते। (२) वे एकक्षेत्रावगाहरूप से अत्यन्त निकट रहने पर भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।। (३) पररूप परिणमन न करने से वे टंकोत्कीर्ण की भाँति अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को धारण किये रहते हैं, उनकी व्यक्तिता (व्यक्तित्वइकाई) नष्ट नहीं होती। (४) उत्पाद और व्यय तथा उत्पाद -व्यय और ध्रौव्य जैसे विरोधी स्वभावों को एक साथ धारण करके वे विश्व को टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं। वे पर को स्पर्श नहीं करते, स्वभाव से च्युत नहीं होते और अपनी इकाई को कायम रखते हुए विश्व को टिकाये रखते हैं । जगत के सभी द्रव्यों में ये विशेषतायें समानरूप से पाई जाती हैं । यद्यपि जीव नामक पदार्थ में भी उक्त विशेषतायें पाई जाती हैं, तथापि उसके बंधन की जो बात है, वह विसंवाद पैदा करती है। ___ जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छूता ही नहीं है, अपने स्वभाव से च्युत होता ही नहीं है, टंकोत्कीर्ण की ही भाँति अपनी इकाई को टिकाये रखता है; तो फिर आत्मा ही दूसरे से क्यों बँधे? इस बंध की कथा ने ही तो आत्मा के स्वसमय और परसमय - ऐसे दो भेद किये हैं। इस द्विविधपने ने ही तो आत्मा के सौन्दर्य को खण्डित किया है । अत: अन्य द्रव्यों के समान आत्मा को भी द्विविधता इष्ट नहीं। एकत्व में ही सौन्दर्य है – इसलिए आत्मा को एकत्व ही इष्ट है। आचार्य जयसेन इस गाथा की व्याख्या करते हुए एकत्वनिश्चयगत का अर्थ अपने शुद्धगुण-पर्यायों से परिणत अथवा अभेदरत्नत्रयपरिणत Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 गाथा ३ करते हैं और 'समय' शब्द का अर्थ भी अमृतचन्द्र के समान छहद्रव्य न करके मात्र आत्मा ही करते हैं। इसप्रकार उनके अनुसार अभेदरत्नत्रयपरिणत अर्थात् निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मा ही एकत्वनिश्चयगत आत्मा है और वही लोक में सर्व सुन्दर है, वही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। निष्कर्ष के रूप में वे स्पष्ट लिखते हैं - "ततः स्थितं स्वसमय एव आत्मनः स्वरूपमिति -अत: यह निश्चित हुआ कि स्वसमय ही आत्मा का स्वरूप है ।" _ 'बंधकथा' का अर्थ कर्मजनित गुणस्थान आदि पर्याय करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा के साथ बंध की कथा अर्थात् गुणस्थानादि की चर्चा विसंवादिनी है, असत्य है । ध्यान रहे आचार्य जयसेन विसंवादिनी का अर्थ स्पष्टरूप से असत्य करते हैं। इसप्रकार उनके अनुसार गुणस्थानादिपर्यायों की चर्चा अथवा इन पर्यायों की ओर से आत्मा की चर्चा असत्यार्थ है। उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण का तात्पर्य यह है कि एकत्वनिश्चयगत आत्मा की कथा ही वास्तविक है, करने योग्य है, विसंवाद मिटानेवाली है और काम-भोग-बंध की चर्चा करना ठीक नहीं है, विसंवाद करनेवाली है; जिसे इस जीव ने अनन्तबार सुनी है, समझी है; पर एकत्वनिश्चयगत आत्मा की कथा न सुनी है न समझी है और न उसका परिचय ही प्राप्त किया है। इसी भाव को आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं अगली गाथा में व्यक्त कर रहे हैं। ___ आचार्यदेव जिस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की चर्चा समयसार में करनेवाले हैं, उसके औचित्य पर प्रकाश तो आगामी गाथा में डाला जायेगा; यहाँ तो मात्र इतना ही बताना है कि बंधकथा में उलझने से कोई लाभ नहीं है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४ अब इस चौथी गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि काम, भोग एवं बंध की कथा तो सभी को सुलभ है, पर उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की बात सभी को सहज सुलभ नहीं है, अपितु अत्यन्त दुर्लभ है । सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुबलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ ( हरिगीत ) सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा । पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥४॥ काम, भोग और बंध की कथा तो सम्पूर्ण लोक ने खूब सुनी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है और उनका अनुभव भी किया है; अतः वह तो सर्वसुलभ ही है । परन्तु पर से भिन्न और अपने से अभिन्न भगवान आत्मा की कथा न कभी सुनी है, न उसका कभी परिचय प्राप्त किया है और न कभी उसका अनुभव ही किया है; अतः वह सुलभ नहीं है I यही कारण है कि आचार्यदेव उस असुलभ कथा को इस समयसार ग्रन्थाधिराज के माध्यम से सुलभ कराना चाहते हैं । यद्यपि लोक में काम और भोग शब्द लगभग एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, तथापि आचार्य जयसेन उक्त अर्थ को स्वीकार करते हुए भी अथवा कहकर 'काम' शब्द का अर्थ स्पर्शन और रसना इन्द्रिय का विषय करते हैं और 'भोग' शब्द का अर्थ घ्राण, चक्षु एवं कर्ण इन्द्रिय का विषय करते हैं । इसप्रकार काम - भोगकथा का अर्थ पंचेन्द्रिय विषयों की कथा हो जाता है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 गाथा ४ ___'बंध' शब्द का अर्थ 'संबंधी' करते हुए वे लिखते हैं कि कामभोग सम्बन्धी कथा। 'बंध' शब्द का दूसरा अर्थ प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बंध तथा उसके फल में प्राप्त होनेवाली नरकादिरूप चतुर्गति परिभ्रमण भी वे करते हैं। तीसरी गाथा की टीका में बंधकथा का अर्थ गुणस्थानादि पर्याय किया ही था। इसप्रकार समग्ररूप से उनका कहना यह है कि पंचेन्द्रियों के विषयों एवं चार प्रकार के बंध व उसके फल में प्राप्त होनेवाली नरकादि गतियों तथा गुणस्थानादिरूप संसारी पर्यायों की कथा तो इस जीव ने अनन्तबार सुनी है, समझी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है, अनुभव भी किया है; अत: वह कथा तो सर्वसामान्य को सहज ही सुलभ है। किन्तु पर से भिन्न अपने में एकत्व लिए निश्चयरत्नत्रय से परिणित रागरहित भगवान आत्मा की बात सुलभ नहीं है। इसीकारण आचार्यदेव एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की बात आरम्भ करते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की टीका में इसका भाव इसप्रकार व्यक्त करते हैं - __ "यद्यपि यह कामभोग सम्बन्धी (कामभोगानुबद्धा) कथा एकत्व से विरुद्ध होने से अत्यन्त विसंवाद करानेवाली है; तथापि समस्त जीवलोक ने इसे अनन्तबार सुना है, अनन्तबार इसका परिचय प्राप्त किया है और अनन्तबार इसका अनुभव भी किया है। संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप अनन्त पंचपरावर्तन से भ्रमण को प्राप्त; अपने एकछत्र राज्य से समस्त विश्व को वशीभूत करनेवाला महामोहरूपी भूत जिसे बैल की भाँति जोतता है, भार वहन कराता है; अत्यन्त वेगवान तृष्णारूपी रोग के दाह से संतप्त एवं आकुलित होकर जिसप्रकार मृग मृगजल के वशीभूत होकर जंगल में भटकता है; उसीप्रकार पंचेन्द्रियों के विषयों से घिरा हुआ है या पंचेन्द्रियों के विषयों को घेर रखा है जिसने; Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 समयसार अनुशीलन ऐसा यह जीवलोक इस विषय में परस्पर आचार्यत्व भी करता है, एकदूसरे को समझाता है, सिखाता है, प्रेरणा देता है। यही कारण है कि काम-भोग-बंधकथा सबको सुलभ है। किन्तु निर्मल भेदज्ञानज्योति से स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला आत्मा का एकत्व अथवा एकत्व-विभक्त आत्मा यद्यपि अंतरंग में प्रगटरूप से प्रकाशमान है; तथापि कषाय-चक्र के साथ एकरूप किये जाने से अत्यन्त तिरोभूत हो रहा है। जगत के जीव एक तो अपने को जानते नहीं हैं और जो आत्मा को जानते हैं, उनकी सेवा नहीं करते हैं, उनकी संगति में नहीं रहते हैं। इसकारण इस एकत्व-विभक्त आत्मा की बात जगत के जीवों ने न तो कभी सुनी है न कभी इसका परिचय प्राप्त किया है और न कभी वह आत्मा जगत के जीवों के अनुभव में ही आया है। यही कारण है कि भिन्न आत्मा का एकत्व सुलभ नहीं है।" इस टीका का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "इस लोक में समस्त जीव संसाररूपी चक्र पर चढ़कर पंचपरावर्तनरूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोहकर्मरूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है । इसलिए वे विषयों की तृष्णारूपी दाह से पीड़ित होते हैं और उस दाह का इलाज इन्द्रियों के रूपादि विषयों को जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं तथा परस्पर भी विषयों का ही उपदेश करते हैं। इसप्रकार काम तथा भोग की कथा तो अनन्तबार सुनी, परिचय में प्राप्त की और उसी का अनुभव किया; इसलिए वह सुलभ है। किन्तु सर्व परद्रव्यों से भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्मा की कथा का ज्ञान स्वयं को स्वयं से कभी हुआ नहीं, और जिसे वह ज्ञान हुआ है उनकी सेवा नहीं की; इसलिए उसकी कथा न तो कभी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 गाथा ४ सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया; इसकारण उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है।" अनादिकाल से यह आत्मा पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानता हुआ उन्हीं के संग्रह और भोगने में मग्न है । पुण्योदय से या कालक्रमानुसार मनुष्य पर्याय पाकर भी अनादि अभ्यास के कारण यह पंचेन्द्रियों के विषयों को ही जोड़ने और भोगने में लगा रहता है। धर्म के नाम पर भी जिन भावों से पुण्य-पाप बंधता है, उन भावों का ही विचार करता है, चर्चा-वार्ता करता है, गुणस्थानादि की चर्चा करके या कुछ बाह्याचार पालकर अपने को धर्मात्मा मान लेता है। धर्म के नाम पर भी कर्मबंध की ही चर्चा करता है, 'पर' और रागादि से भिन्न निज भगवान आत्मा का विचार ही नहीं करता है। कर्मबंध की चर्चा तो करता है; पर कर्म से बंधने की बात तो बहुत दूर, कर्म ने तो आज तक आत्मा को छुआ ही नहीं - यह बात आज तक इसके कान में ही नहीं पड़ी है; पड़ी भी हो तो इसने उसपर ध्यान ही नहीं दिया है, विचार ही नहीं किया है। ___ एक तो यह एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा के बारे में स्वयं कुछ जानता नहीं है, दूसरे जो ज्ञानी धर्मात्माजन भगवान आत्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानते हैं - उनकी सेवा नहीं करता, उनका समागम नहीं करता, उनसे कुछ सीखने-समझने की कोशिश नहीं करता; यदि आगे होकर भी वे कुछ सुनायें, समझायें तो यह उनकी बात पर ध्यान ही नहीं देता; इसलिए अनन्तकाल से संसार में भटक रहा है। ___ यहाँ आचार्यदेव ज्ञानियों के सत्समागम की प्रेरणा देते हुए कह रहे हैं कि भाई ! तू ज्ञानियों की सेवा कर, उनकी बात पर ध्यान दे। तुझे पता नहीं है कि भगवान आत्मा को नहीं पहिचानने से तेरी कैसी दुर्दशा हो रही है? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 समयसार अनुशीलन अज्ञानी की दुर्दशा का चित्र खींचते हुए टीका में कहा गया है कि यह लोक संसाररूपी चक्की के पाटों के बीच अनाज के दानों के समान पिस रहा है, मोहरूपी भूत इसे पशुओं की भाँति जोत रहा है, तृष्णारूपी रोग से यह जल रहा है, मृगतृष्णा में फँसकर मृग की भाँति भटक रहा है। आश्चर्य तो यह है कि पंचेन्द्रिय विषयों में उलझा हुआ, फँसा हुआ यह अज्ञानी लोक परस्पर आचार्यत्व भी करता है। लोग विषय-कषाय की चतुराई एक-दूसरे को बताते हैं, सिखाते हैं। पैसा कैसे कमाना, उसे कैसे भोगना - आदि बातों को जगत को बताते हैं, उन्हीं कार्यों के करने की प्रेरणा भी देते हैं। __ बाप बेटों को समझाता है कि पैसा कैसे कमाना, कैसे जोड़ना और बेटे भी बाप को समझाते हैं कि अब जमाना बदल गया है, पुरानी ईमान धर्म की बातें अब नहीं चल सकतीं। अब तो खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ – इसी में सार है। इसप्रकार सभी अज्ञानी एक-दूसरे को भोग भोगने की ही प्रेरणा देते हैं । इसीकारण काम, भोग और बंध की कथा जगत में सर्वत्र सुलभ है; किन्तु पर से विभक्त एवं अपने में अविभक्त भगवान आत्मा की कथा अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि उसको चर्चा करनेवाले इस जगत में अत्यन्त अल्प हैं, कहीं-कहीं ही जुगनू के समान चमकते दिखाई देते हैं। सागारधर्मामृत में लिखा है - "खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतंते क्वचित्-क्वचित् । । सदुपदेश देनेवाले इस कलियुग में जुगनू के समान कहीं-कहीं ही चमकते हैं – इस बात का अत्यन्त खेद है।" यद्यपि भेदज्ञानज्योति से प्रकाशमान यह भगवान आत्मा अन्तरंग में स्पष्टरूप से प्रकाशमान है; तथापि अनादिकालीन अज्ञान से कषायचक्र १. पण्डित आशाधर : सागारधर्मामृत, अध्याय १, श्लोक ७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 गाथा ४ के साथ एकरूप किये जाने से तिरोहित हो रहा है, अज्ञानी जगत को दिखाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि आचार्यदेव भेदज्ञान की है प्रधानता जिसमें - ऐसा यह एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा के स्वरूप का प्रकाशक शास्त्र समयसार लिख रहे हैं। ___ आगामी गाथा में वे इस बात को प्रतिज्ञावाक्य के रूप में भी प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अत: हे भव्यजीवो ! तुम इस विरल महाशास्त्र का गहराई से अध्ययन करना। अत्यन्त विरल यह भगवान आत्मा का प्रतिपादन हम सबके महाभाग्य से हमें प्राप्त हो गया है; अतः पूरे आदर-सम्मान के साथ इसका पूरा-पूरा लाभ लेना चाहिए। बातें तो सब शास्त्रों में लिखी रहती हैं, पर उनका मर्म ज्ञानियों के हृदय में होता है। अत: यहाँ ज्ञानियों के सत्समागम की विशेष प्रेरणा दी गई है, उनकी सेवा करने की भी आज्ञा दी गई है। देखो, यहाँ आचार्यदेव ने जगत के जीवों का कितना वास्तविक चित्रण किया है कि वे एक तो स्वयं कुछ जानते नहीं हैं; दूसरे आत्मज्ञानी सत्पुरुषों की बात मानते नहीं हैं । ज्ञानी धर्मात्माओं की बात मानना तो बहुत दूर, उनकी बात ध्यान से सुनते भी नहीं हैं; अपितु उनका विरोध करते हैं । आचार्यदेव ने 'आत्मज्ञानीनामनुपासनात्' शब्द का प्रयोग किया है - जिसका सीधा-सादा अर्थ होता है कि आत्मज्ञपुरुषों की उपासना नहीं करने से एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। __ आत्मोपलब्धि के पूर्व देशनालब्धि आवश्यक है। देशना की प्राप्ति आत्मज्ञानी धर्मात्माओं के सत्समागम से ही संभव है। यहाँ उपासना का अर्थ कोई पूजा-पाठ करना ही नहीं है, अपितु उनसे प्रीतिपूर्वक आत्मा की बात सुनना है, समझना है; क्योंकि यहाँ साफ-साफ लिखा है कि ज्ञानी धर्मात्माओं की उपासना नहीं करने से आत्मा की बात न कभी सुनी है, न आत्मा का परिचय प्राप्त किया है। इसका तो यही Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 52 आशय हुआ कि गुरुमुख से आत्मा की बात सुनना, आत्मा का परिचय प्राप्त करना भी आत्मानुभव के लिए आवश्यक है। ___ आत्मज्ञानी गुरुओं की सेवा का अर्थ मात्र उनके पैर दबाना नहीं है, अपितु उनकी उचित विनय के साथ, मर्यादा के साथ; उनसे आत्मा की बात सुनना-समझना ही है । यहाँ पर उन आत्मज्ञानी गुरुओं को लेना ही अपेक्षित है कि जो आत्मा की बात करते हों, स्वयं समझते हों; उनकी बात नहीं है, जो आत्मा का नाम सुनते ही उत्तेजित हो जाते हों। ___ आत्मा की बात का आशय भी एकत्व-विभक्त आत्मा की बात से है। यहाँ रागी-द्वेषी विकारी आत्मा की बात नहीं, कर्मों से बंधे संसारी आत्मा की बात भी नहीं; पर इनसे भिन्न शुद्ध-बुद्ध, निरंजन-निराकार. एकत्व-विभक्त त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा की बात है। इसी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करनेवाले, इसमें ही मगन ज्ञानी गुरुओं से एकत्व-विभक्त आत्मा की बात समझने की प्रेरणा इस गाथा में दी गई है। ___ आचार्यदेव इसी एकत्व-विभक्त आत्मा को समझाने की प्रतिज्ञा आगामी गाथा में कर रहे हैं। प्रत्येक आत्मा अपने में स्वयं परिपूर्ण है। स्वभाव से तो प्रत्येक आत्मा स्वयं ज्ञानान्दस्वभावी परिपूर्ण तत्त्व है ही, पर्याय में भी पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे पर की ओर झांकने की आवश्यकता नहीं। यह स्वयं अपनी भूल से दुःखी है और स्वयं अपनी भूल मेटकर सुखी भी हो सकता है। प्रत्येक आत्मा स्वयं भगवानस्वरूप है और यदि पुरुषार्थ करे तो भगवानस्वरूप आत्मा की अनुभूति करने में भी समर्थ है। - सत्य की खोज, पृष्ठ २०१ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ५ अब इस पाँचवीं गाथा में आचार्यदेव एकत्व - विभक्त आत्मा का स्वरूप दिखाने की प्रतिज्ञा करते हैं और पाठकों से अनुरोध करते हैं कि तुम इसके माध्यम से निज भगवान आत्मा का स्वरूप जानकर विशुद्ध आत्मकल्याण की भावना से स्वीकार करना । इससे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । मूल गाथा इसप्रकार है तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥ ५ ॥ ( हरिगीत ) - निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन । पर नहीं करना छल ग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥ ५ ॥ मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को निज वैभव से दिखाता हूँ । यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना । यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपने सम्पूर्ण वैभव से आत्मा की बात समझाऊँगा और तुम अपने बुद्धिरूप वैभव से सम्पूर्ण शक्ति लगाकर इसे समझने का प्रयास करना । यदि मैं अपने प्रयास में सफल होऊँ और भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट कर सकूँ तो तुम उसे अपने अनुभव से प्रमाणित करना, श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना । यदि मैं चूक जाऊँ तो किसी भी प्रकार का छल ग्रहण नहीं करना । आचार्य अमृतचन्द्र की टीका के आधार पर लिखे गये भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा आचार्य कुन्दकुन्द के निजवैभव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन "" आचार्य आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन, पर और अपर गुरु के उपदेश और स्वसंवेदन इन चार प्रकार से उत्पन्न हुए अपने ज्ञानवैभव से एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप दिखाते हैं । हे श्रोताओ ! उसे अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रमाण करो; यदि कहीं किसी प्रकरण में भूल जाऊँ तो उतने से दोष को ग्रहण नहीं करना । कहने का आशय यह है कि यहाँ अपना अनुभव प्रधान है, उससे शुद्धस्वरूप का अनुभव करो। " 54 - यहाँ आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने तो मात्र इतना ही कहा था कि मैं निजवैभव से एकत्व-विभक्त आत्मा की बात समझाऊँगा; पर आचार्य अमृतचन्द्रदेव यह भी स्पष्ट करते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द का वैभव क्या था, कैसा था और कैसे उत्पन्न हुआ था ? अतः जगत तो रुपया-पैसा और धूल-मिट्टी को ही वैभव मानता है । वे स्पष्ट करते हैं कि उनका वैभव ज्ञानवैभव था, वह ज्ञानवैभव मुक्तिमार्ग के प्रतिपादन में पूर्णत: समर्थ था और उसका जन्म आगम के सेवन से हुआ था, युक्ति के अवलम्बन से हुआ था, परम्पराचार्य गुरुओं के उपदेश से हुआ था और आत्मा के अनुभव से हुआ था । तात्पर्य यह है कि उन्होंने जो बात कही है, वह काल्पनिक नहीं है; उसका आधार जिनागम है, भगवान महावीर की दिव्यध्वनि है । जिनागम का गहरा अभ्यास करके ही उन्होंने यह बात जानी है, समझी है । अत: उनका यह समयसार ग्रन्थाधिराज भगवान महावीर की दिव्यध्वनि का सार द्वादशांग जिनवाणी का सार है । यह भगवान आत्मा का प्रतिपादन जिनागम के अनुसार तो है ही, पर इसे मात्र पढ़कर नहीं लिखा गया है, पहले तर्क की कसौटी पर कसकर परखा गया है, युक्तियों के अवलम्बन से उसकी सच्चाई को गहराई से जाना गया है; इतना ही नहीं, भगवान महावीर से लेकर आचार्य कुन्दकुन्द तक चली आई अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 गाथा ५ प्रमाणित किया गया है और उस भगवान आत्मा का साक्षात् अनुभव भी किया गया है; तब जाकर उसका प्रतिपादन किया गया है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द का ज्ञानवैभव जिनागम का अभ्यास कर, सद्गुरुओं के मुख से उसका मर्म सुनकर, तर्क की कसौटी पर कसकर और अनुभव करके उत्पन्न हुआ है । इसी ज्ञानवैभव को आधार बनाकर वे यह समयसार ग्रन्थ लिख रहे हैं। यद्यपि उन्हें सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन करने और उनकी दिव्यध्वनि श्रवण करने का अवसर भी प्राप्त हुआ था; तथापि अमृतचन्द्र ने उसका उल्लेख न कर भगवान महावीर की आचार्य परम्परा का उल्लेख करना ही उचित समझा। आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की टीका लिखते समय अधिकतम विस्तार 'निजवैभव' शब्द की व्याख्या में ही दिया है। उनके द्वारा लिखित इस गाथा की टीका का मूल भाव इसप्रकार है - "मेरे निजवैभव का जन्म लोक की समस्त वस्तुओं के प्रकाशक 'स्यात्' पद की मुद्रावाले शब्दब्रह्म (परमागम) की उपासना से हुआ है; समस्त विपक्षी अन्यवादियों द्वारा गृहीत एकान्तपक्ष के निराकरण में समर्थ अतिनिष्तुष निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से हुआ है। निर्मल विज्ञानघन आत्मा में अन्तर्मग्न परमगुरु सर्वज्ञदेव, अपरगुरु गणधरादिक से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त समस्त आचार्य परम्परा से प्रसाद के रूप में प्राप्त शुद्धात्मतत्त्व के उपदेशरूप अनुगृह से एवं निरन्तर झरते हुए, स्वाद में आते हुए सुन्दर आनन्द की मुद्रा से युक्त स्वसंवेदन से मेरे वैभव का जन्म हुआ है। ___ इसप्रकार शब्दब्रह्म की उपासना से, निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से, गणधरादि आचार्य परम्परा के उपदेश से एवं आत्मानुभव से जन्मे अपने सम्पूर्ण ज्ञानवैभव से मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को दिखाने के लिए कटिबद्ध हूँ, कृतसंकल्प हूँ; इस व्यवसाय में मैं बद्ध हूँ, सन्नद्ध हूँ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन यदि मैं भगवान आत्मा को दिखा दूँ, अपने व्यवसाय में सफल हो जाऊँ तो तुम स्वयं के अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि कहीं स्खलित हो जाऊँ तो तुम्हें छल ग्रहण करने में जागृत नहीं रहना चाहिए।" 56 यहाँ जो चूक जाने की बात कही है, वह भगवान आत्मा के स्वरूप में चूकने की बात नहीं है; यह तो प्रतिपादन में भाषा में शब्दों के प्रयोग आदि में चूकने की बात है । तत्त्वार्थसूत्र के अन्त में भी एक छन्द आता है, जिसमें इसीप्रकार की चर्चा की गई है । वह छन्द इसप्रकार है अक्षरमात्रपदस्वरहीनं ---- व्यंजनसंधिविवर्जितरेकं । साधुभिस्तत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥ अक्षर, मात्रा, पद, स्वर, व्यंजन, सन्धि, रेफ आदि के सन्दर्भ में ही भूल की सम्भावना उक्त छन्द में व्यक्त की है और उसी के लिए क्षमा याचना भी की है; क्योंकि शास्त्र तो समुद्र के समान अपार है, उनमें तो बड़ों-बड़ों से भी भूल हो सकती है । छहढाला में भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया गया है लघु धी तथा प्रमाद तैं शब्द अर्थ की भूल | सुधी सुधार पढ़ो सदा जो पावो भवकूल ॥ भाव उक्त छन्द में भी शब्द और अर्थ की भूल स्वीकार की गई है, की नहीं; क्योंकि ज्ञानी धर्मात्माओं से भाव में तो भूल हो ही नहीं सकती है। भाव के प्रति पूर्णतः आश्वस्त होने पर भी आचार्यदेव, ज्ञानी धर्मात्माजन, शब्दादि के सन्दर्भ में हुई भूल को स्वीकार करने में संकोच नहीं करते, क्षमा याचना करने में भी संकोच नहीं करते; यह उनकी महानता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भूल होगी ही; यहाँ तो मात्र सम्भावना के आधार पर क्षमा याचना की गई है। इसमें से ऐसा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 गाथा ५ अर्थ निकालना कि इसमें अवश्य कोई गलती होगी, क्योंकि आचार्यदेव स्वयं स्वीकार कर रहे हैं – यह हमारी बुद्धि का अजीर्ण ही होगा। यदि चूक जाऊँ तो इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि बात मात्र संभावना की है। चूक होगी ही - ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। कुछ लोग ऐसी बातें भी करते हैं कि देखो ! आचार्यदेव हमसे क्षमा याचना कर रहे हैं । अरे भाई ! आचार्यदेव हमसे क्षमायाचना करें – यह हमारा सौभाग्य नहीं, दुर्भाग्य है । अरे आचार्यदेव तो तुम्हें सावधान कर रहे हैं कि जिससे तुमसे समझने में कोई भूल न हो जावे। आजकल कुछ लोग आचार्यों की भूल निकालने में ही सावधान हैं और अपने को बड़ा विद्वान मान रहे हैं। यहाँ तो आचार्यदेव हल्की-सी डाट पिला रहे हैं कि कहीं कोई अक्षर मात्रा आदि में चूक हो जावे तो छल ग्रहण नहीं करना, भाव को समझने का प्रयास करना। अरे, भाई ! साफ-साफ ही तो लिखा है कि छल ग्रहण करने में जागृत नहीं रहना। इसी प्रकरण में आचार्य जयसेन तो यहाँ तक लिखते हैं कि दुर्जनों के समान छल ग्रहण न करना। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का अभिप्राय भी द्रष्टव्य है - "अनुभव में तो चूक नहीं है, परन्तु भाषा में, छन्द में या व्याकरण में कहीं कुछ कम-बढ़ आ जाय तो छल ग्रहण कर अर्थ का अनर्थ मत कर बैठना। हम जो कहना चाहते हैं, उस भाव को ध्यान में रखकर सही अर्थ, भाव ग्रहण करना; शब्दों को नहीं पकड़ना। वस्तु के निर्णय करने में अनुभव प्रधान है, उससे भगवान पूर्णानन्द का नाथ स्वसंवेदन में आता है। इस रीति से तू प्रमाण करना।" १. यदि च्युतो भवामि तर्हि छलं न ग्राह्यं दुर्जनवदिति । २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ ७९ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि आचार्यदेव के वैभव की उत्पत्ति में तो आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन, परम्पराचार्य गुरु के उपदेश और आत्मा के अनुभव इन चार बातों को लिया है; पर श्रोताओं से 'अनुभव से प्रमाण करना' मात्र यही कहा गया है । ऐसा नहीं कहा कि हे पाठको ! तुम भी हमारी इस बात को आगम से मिलान कर, तर्क की कसौटी पर कसकर, परम्पराचार्यों से समझकर प्रमाणित करना । - - 58 उक्त तीन बातें तो हो ही गई हैं; क्योंकि यहाँ आगम के आधार पर ही तो बात कही जा रही है, युक्तियाँ भी भरपूर दी ही जावेंगी और आचार्य परम्परा से आगत भी बात है ही; बस शिष्य को तो अब मात्र अनुभव से मिलान करना है, प्रमाणित करना है, अनुभव ही करना है । यदि वह समयसार की बात को अन्य आगमों से मिलान करने बैठे, दूसरों से पूछने जाये कि यह सत्य है या असत्य तो समय तो खराब होगा ही, साथ ही यह क्रिया समयसार ग्रन्थाधिराज पर शंका करने जैसी भी होगी । अतः आत्मार्थियों को तो एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा का स्वरूप जो आचार्य बता रहे हैं, उसके आधार पर अन्तरोन्मुख होकर मात्र अनुभव ही करना है, अनुभव से ही प्रमाणित करना है । शेष तीनों बातें तो समयसार के स्वाध्याय से सहज ही सम्पन्न हो जावेंगी। आचार्यदेव ने तीन बातों को तो अत्यन्त सुलभ कर दिया है। अरे भाई ! यदि पेट भरना है तो उसके लिए कमाना होगा, भोज्य पदार्थ बाजार से लाना होगा, उसे बनाना होगा, खाना होगा, चबाना होगा और फिर निगलना भी होगा। इतना तो करना ही होगा, उसके बाद तो भोजन स्वयंचालित प्रक्रिया में चढ़ जावेगा | हाँ, यह तो हो सकता है कि कमाकर कोई दूसरा दे दे, अन्य कोई भोज्य-सामग्री बाजार से ला भी सकता है, बना भी सकता है, खिला. - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 गाथा ५ भी सकता है, कदाचित् चबाने के स्थान पर कूटकर पीसकर भी दे सकता है; पर निगलना तो स्वयं को ही होगा। तुम्हारे भोजन को कोई और निगल तो नहीं सकता । यदि वह निगलेगा तो भोजन उसके पेट में जायेगा, तुम्हारे में नहीं; उससे उसकी भूख मिटेगी, तुम्हारी नहीं । यहाँ और सब काम तो आचार्यदेव ने कर ही दिये हैं; पर अनुभव करना तो निगलने के समान है, उसे तो तुम्हें ही करना होगा । जिसप्रकार दूसरे का निगला हुआ भोजन तुम्हें पोषण नहीं दे सकता; उसीप्रकार दूसरे का अनुभव तुम्हारे काम नहीं आयेगा । आत्मा का अनुभव तो तुम्हें ही करना होगा, तभी तुम्हारा कल्याण होगा। इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि अनुभव से प्रमाण करना । प्रश्न – जब आचार्य कुन्दकुन्द को सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का साक्षात् लाभ प्राप्त हुआ था और उनकी दिव्यध्वनि श्रवण का लाभ भी मिला था तो फिर उनकी देशना को आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भगवान महावीर की आचार्य परम्परा से क्यों जोड़ा ? कुन्दकुन्द की वाणी को सीमन्धर परमात्मा की वाणी से जोड़कर बात करने से उनकी वाणी में विशेष प्रामाणिकता आती, जिससे लोगों को उनकी वाणी का अध्ययन करने में विशेष रस आता, विशेष उत्साह रहता, विशेष प्रेरणा प्राप्त होती । - पर उत्तर - ऊपर-ऊपर से सोचने पर तो ऐसा ही लगता है, गंभीरता से विचार करने पर आचार्य अमृतचन्द्र का यह प्रयोग अत्यन्त विवेक-सम्मत प्रतीत होता है । कुन्दकुन्द वाणी को सीमन्धर परमात्मा से जोड़ने पर अनेक प्रश्न खड़े हो जाते । सर्वप्रथम तो यही कहा जाने लगता कि इसका क्या प्रमाण है कि उन्हें सीमन्धर परमात्मा की दिव्यध्वनि के श्रवण का अवसर प्राप्त हुआ था । ठोस प्रमाण के अभाव में उनकी वाणी पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन यदि किसी तरह यह प्रमाणित भी कर दिया जाता तो फिर यह प्रश्न खड़ा होता कि कौन-कौन से ग्रन्थ उसके पहले लिखे गये और कौनकौन से बाद में ? जो पहले लिखे गये थे, उनकी प्रामाणिकता का आधार क्या होता ? यह सिद्ध करना भी आसान नहीं है कि सभी ग्रन्थ बाद में लिखे गये हैं । जिन आचार्यों को सीमन्धर परमात्मा की वाणी सुनने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है; उनकी वाणी की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया जाने लगता। लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगता कि जिन्होंने सीमन्धर परमात्मा की वाणी सुनी है, उनकी वाणी अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक है जबकि ऐसा कोई भेद जिनागम में है ही नहीं और होना भी नहीं चाहिए। ; 60 सीमन्धर परमात्मा के दर्शन एवं उनकी वाणी का लाभ मिलना महान सौभाग्य की बात है; पर उसमें आचार्य कुन्दकुन्द को कुछ नया ज्ञान प्राप्त हुआ था ऐसी कोई बात नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उन्हें पहले से था ही, छठवें सातवें गुणस्थान की भूमिका के योग्य सम्यक् चारित्र भी था । सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों के बाद भी इससे अधिक कुछ नहीं हुआ था । - - भावलिंगी सच्चे मुनिराजों की यह मर्यादा आगम में बताई गई है कि वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान में जाते ही हैं, अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करते ही हैं, आत्मानुभव करते ही हैं, शुद्धोपयोग में जाते ही हैं। पंचमकाल में इससे आगे जाना संभव ही नहीं है । अतः यह सुनिश्चित है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों के पूर्व ही उस चरमबिन्दु को स्पर्श कर लिया था, जिस पर पहुँचना पंचमकाल में संभव था । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 गाथा ५ यद्यपि यह बात पूर्णतः सत्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द को सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ था, उनकी दिव्यवाणी श्रवण करने का लाभ भी प्राप्त हुआ था; तथापि यदि कोई इसमें शंका करे तो करो; पर इसमें तो शंका करने को कोई स्थान ही नहीं है कि उन्हें हर अन्तर्मुहूर्त में निज भगवान आत्मा के दर्शनों का लाभ प्राप्त होता था; क्योंकि सभी भावलिंगी मुनिराजों को आचार्यों को इसप्रकार का लाभ प्राप्त होता ही है । यही कारण कि उनकी वाणी आत्मानुभव से प्रसूत होती है और उसे आगम और आगमपाठी पूर्वाचार्यपरम्परा का पृष्ठबल प्राप्त रहता है तथा वह वाणी तर्क की तुला पर नपी-तुली होती है । इस समयसार ग्रन्थाधिराज में आचार्य कुन्दकुन्द जिस शुद्धात्म वस्तु का प्रतिपादन करने जा रहे हैं, उसका अनुभव वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में करते थे, उसका रसास्वाद वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में लेते थे; अत: उनकी यह वाणी आत्मानुभव से प्रसूत है । मानों वे हर अन्तर्मुहूर्त में आत्मा को देख-देख कर ही उसका स्वरूप इसमें लिखते रहे हैं । शुद्धात्मा के प्रतिपादन के अतिरिक्त जो भी जिनागम में आता है, उसे तो सुनकर - पढ़कर ही लिखा जाता है, छद्मस्थों द्वारा पुराण- पुरुषों और त्रिलोकादि का वर्णन तो सुनकर या पढ़कर ही जाना जाता है; उनका अनुभव तो संभव है ही नहीं, उन्हें तर्क की कसौटी पर कसना भी संभव नहीं है; क्योंकि वे वस्तुयें काल व क्षेत्र से दूरवर्ती हैं; पर आत्मा तो सदा और सर्वत्र हमारे पास ही हैं; पास ही क्या, हम स्वयं आत्मा ही तो हैं । यही कारण है कि आत्मा का अनुभव संभव होता है । I अतः समयसार के प्रतिपादन को अन्य पुराणादि व त्रिलोकादि के प्रतिपादन के समान मात्र सुनी-सुनाई बात नहीं समझना चाहिए। यह तो आचार्यदेव के अनुभव से निकली हुई बात है और हमें भी इसे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 62 अनुभव से ही प्रमाण करना है। पुराणादि और त्रिलोकादि की बात को तो अनुभव से प्रमाण करना संभव है ही नहीं; आत्मा असंख्यप्रदेशी है, अनन्तगुण वाला है - यह जानना भी अनुभव से संभव नहीं है; क्योंकि अनुभव में प्रदेश प्रत्यक्ष नहीं होते, अनन्तगुण भी गिनने में नहीं आते । अत: इन्हें तो आगम प्रमाण के आधार पर स्वीकार करना ही यथेष्ट है, पर्याप्त है; पर आत्मा का अनुभव तो किया ही जा सकता है; अत: आचार्यदेव का यह आदेश उचित ही है कि तुम इसे अनुभव से प्रमाण करना, अनुभव करके प्रमाण करना, इसका अनुभव करना; तुम्हारा कल्याण इसी में है। इसप्रकार इस गाथा में शुद्धात्मा के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा करके अब आचार्यदेव मूल विषयवस्तु के प्रतिपादन में संलग्न होते हैं। देख ! देख !! देख !!! मेरी ओर आँखें फाड़-फाड़ कर क्या देख रहा है? अपनी ओर देख! एक बार इसी जिज्ञासा से अपनी ओर देख!! जानने लायक, देखने लायक एकमात्र आत्मा ही है, अपना आत्मा ही है। ___ यह आत्मा शब्दों में नहीं समझाया जा सकता, इसे वाणी से नहीं बताया जा सकता। यह शब्दजाल और वाकविलास से परे है। यह मात्र जानने की वस्तु है, अनुभवगम्य है। यह अनुभवगम्य आत्मवस्तु ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का कन्द है। अत: समस्त परपदार्थों, उनके भावों एवं अपनी आत्मा में उठनेवाले विकारी-अविकारी भावों से भी दृष्टि हटाकर एक बार अन्तर में झाँक! अन्तर में देख, अन्तर में ही देख! देख!! देख!!! - तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ६४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ६ पाँचवीं गाथा में एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा के दिखाने की प्रतिज्ञा की गई थी । अतः अब इस छठवीं गाथा में उस एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा का स्वरूप बताते हैं; और यह भी बताते हैं कि उसे शुद्ध किसप्रकार कहा जाता है। 'वह शुद्धात्मा कौन है ? ' इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप ही इस गाथा का उदय हुआ है 1 — दु ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो द जो भावो । एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥ ६ ॥ ( हरिगीत ) न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है । इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ॥ ६ ॥ जो एक ज्ञायकभाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है; इसप्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो वही है; अन्य कोई नहीं । आचार्य जयसेन की टीका में इस गाथा में पाठ भेद पाया जाता है । 'सुद्धं' के स्थान पर 'सुद्धा' शब्द है और 'णादो' के स्थान पर 'णादा' शब्द है । इसप्रकार उनके अनुसार इस गाथा का अर्थ इसप्रकार होता है - — " जो एक ज्ञायक भावरूप शुद्धात्मा है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है ऐसा शुद्धनय के जाननेवाले महापुरुष कहते हैं । उसे चाहे ज्ञायक कहो या शुद्ध कहो एक ही बात है; बस वह तो वही है, ज्ञाता ही है । " यहाँ ही यह भी कहा गया है कि 'प्रमत्त' शब्द से आरंभिक छह गुणस्थान ग्रहण करना और 'अप्रमत्त' शब्द से अन्त के आठ गुणस्थान Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन लेना चाहिए । इसप्रकार यहाँ ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा को गुणस्थानातीत कहकर शुद्ध कहा गया है। ; आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की जो टीका लिखी है, वह अत्यन्त गम्भीर है जो गहराई से मंथन करने की अपेक्षा रखती है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के अनुसार उसका अर्थ और भावार्थ इसप्रकार है - 64 " जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (किसी से उत्पन्न हुआ न होने से ) अनादि सत्तारूप है, कभी विनाश को प्राप्त न होने से अनन्त है, नित्य उद्योतरूप होने से क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है; ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसार की अवस्था में अनादि बंधपर्याय की निरूपणा से ( अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्मपुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी, द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाय तो दुरन्त कषायचक्र के उदय की (कषायसमूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश से प्रवर्त्तमान पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभाशुभ भाव, उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायक भाव से जड़भावरूप नहीं होता), इसलिए वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नरूप से उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है । और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह स्वरूपप्रकाशन की (स्वरूप को जानने की) अवस्था में भी, दीपक की भाँति, कर्त्ता - कर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है स्वयं जाननेवाला है; इसलिए स्वयं कर्त्ता और अपने को जाना इसलिए स्वयं ही कर्म है । (जैसे दीपक घटपटादि को - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 गाथा ६ प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को - अपनी ज्योतिरूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञायक का समझना चाहिए।) ___ भावार्थ :- अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से आती है। उसमें मूलद्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, मात्र परद्रव्य के निमित्त से अवस्था मलिन हो जाती है । द्रव्यदृष्टि से तो द्रव्य जो है वही है और पर्याय (अवस्था) दृष्टि से देखा जाये तो मलिन ही दिखाई देता है। इसीप्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञायकत्वमात्र है; और उसकी अवस्था पुद्गलकर्म के निमित्त से रागादिरूप मलिन है, वह पर्याय है। पर्यायदृष्टि से देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो ज्ञायकत्व तो ज्ञायकत्व ही है; वह कहीं जड़त्व नहीं हुआ। यहाँ द्रव्यदृष्टि को प्रधान करके कहा है । जो प्रमत्तअप्रमत्त के भेद हैं, वे परद्रव्य की संयोगजनित पर्यायें हैं । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टि में गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है। द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। इसलिए आत्मा ज्ञायक ही है; उसमें भेद नहीं हैं; इसलिए वह प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है। 'ज्ञायक' नाम भी उसे ज्ञेय को जानने से दिया जाता है; क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है, तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है । तथापि उसे ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ वैसा ज्ञायक का ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है। यह जो मैं जाननेवाला हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं' - ऐसा अपने को अपना अभेदरूप अनुभव हुआ, तब इस जाननेरूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है, और जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है। ऐसा एक ज्ञायकत्व मात्र स्वयं शुद्ध है। - यह शुद्धनय का विषय है। अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं, वे सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषय हैं। अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्धद्रव्य Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन की दृष्टि में पर्यायार्थिक ही है, इसलिए व्यवहारनय ही है ऐसा आशय समझना चाहिए । 66 यहाँ यह भी जानना चाहिए कि जिनमत का कथन स्याद्वादरूप है, इसलिए अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ न माना जाए; क्योंकि स्याद्वाद प्रमाण से शुद्धता और अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तु का सत्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होती है। अशुद्धनय को यहाँ हेय कहा है, क्योंकि अशुद्धनय का विषय संसार है और संसार में आत्मा क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्य से भिन्न होता है, तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है। इसप्रकार दुःख मिटाने के लिये शुद्धनय का उपदेश प्रधान है। के अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से यह न समझना चाहिए कि आकाश फूल की भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है, ऐसा सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है; इसलिए स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्धनय का आलम्बन लेना चाहिए । स्वरूप की प्राप्ति होने के बाद शुद्धनय का भी आलम्बन नहीं रहता । जो वस्तुस्वरूप है, वह है यह प्रमाणदृष्टि है। इसका फल वीतरागता है । इसप्रकार निश्चय करना योग्य है । — यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त - अप्रमत्त नहीं है - ऐसा कहा है । वह गुणस्थानों की परिपाटी में छट्ठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवें से लेकर अप्रमत्त कहलाता है । किन्तु यह सब गुणस्थान अशुद्धनय की कथनी में हैं; शुद्धनय से तो आत्मा ज्ञायक ही है । " इस गाथा में दृष्टि के विषय को स्पष्ट किया जा रहा है । तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा में अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन है, जिस आत्मा का ध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, और जिस आत्मा के जानने का नाम परमशुद्धनिश्चयनय है तथा जो आत्मा परमपारिणामिकभावरूप है; उस भगवान आत्मा का स्वरूप ही यहाँ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 गाथा ६ स्पष्ट किया जा रहा है। उसी भगवान आत्मा को इस गाथा में ज्ञायकभाव नाम से संबोधित किया गया है। परमपारिणामिकभावरूप होने पर भी यहाँ उसे पारिणामिकभाव न कहकर ज्ञायकभाव ही कहा है; क्योंकि पारिणामिकभाव तो सभी द्रव्यों में समानरूप से पाया जाता है, पर ज्ञायकभाव आत्मा का असाधारण भाव है। यह ज्ञायकभाव वही है, जिसे पिछली गाथाओं में एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा कहा गया है। अब यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह एकत्व-विभक्त ज्ञायकभाव प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वह तो प्रमत्त और अप्रमत्त से परे गुणस्थानातीत है। ___ यद्यपि सिद्ध भी गुणस्थानातीत हैं, तथापि यहाँ सिद्धपर्याय की बात नहीं है; यहाँ तो गुणस्थानों में रहते हुए भी जो ज्ञायकभाव गुणस्थानरूप नहीं होता, उसकी बात है। यह ज्ञायकभाव न सिद्ध है और न संसारी है, यह तो संसारी और सिद्ध - दोनों अवस्थाओं में समानरूप से गुणस्थानातीत है। इसमें न गुणस्थानरूप अवस्था है और न गुणस्थानों के अभावरूप अवस्था है; यह अवस्थारूप है ही नहीं, यह तो त्रिकाली ध्रुवस्वभावरूप भाव है। यह पर्यायस्वभाव की बात नहीं है, द्रव्यस्वभाव की बात है। ___ यह उस ज्ञायकभावरूप द्रव्यस्वभाव की बात है जो अनादि अनन्त, नित्य उद्योतरूप है। यह स्वयंसिद्ध है, किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, अतः अनादि सत्तास्वरूप है; इसका कभी नाश नहीं होगा, अत: अनन्त है; क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त नहीं होता, इसलिए नित्य उद्योतरूप है; और ज्ञानियों के नित्य अनुभव में आता है, गुप्त नहीं है, प्रगट है; अतः प्रकाशमानज्योति है। - ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यह किसी अन्य की बात नहीं है, अपने ही आत्मा की बात है, अपने ही आत्मस्वभाव की बात Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन है । प्रमत्त और अप्रमत्त दशाओं से पार यह त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव मैं ही हूँ; इसमें ही अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है; अत: यही दृष्टि का विषय है । यही ध्यान का ध्येय है, इसमें ही लीन होने का नाम ध्यान है; इसमें ही लगातार अन्तर्मुहूर्त्त तक लीन रहने से केवलज्ञान और अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। मुक्तिमार्ग का मूल आधार यही ज्ञायकभाव है; अतः यही एकमात्र परम-उपादेय है । 68 अब यह स्पष्ट करते हैं कि यह ज्ञायकभाव प्रमत्त और अप्रमत्त क्यों नहीं है ? तात्पर्य यह है कि 'ज्ञायकभाव प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं है' इस कथन की विवक्षा क्या है ? - यद्यपि अनादि बंधपर्याय की अपेक्षा यह ज्ञायकभाव संसार अवस्था में पुद्गलकर्मों के साथ दूध-पानी की तरह एकमेक हो रहा है; तथापि जब द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा से देखते हैं तो शुभाशुभभावों के स्वभावरूप परिणमित नहीं होने से प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है । I ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म और उनके उदय में होनेवाले शरीरादि संयोगों के साथ ज्ञायकभाव का संबंध दूध और पानी की तरह है । यह कहकर दोनों के संबंध का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। तात्पर्यं यह है कि आत्मा और कर्मों का संबंध न तो ज्ञान और आत्मा के समान तादात्म्यसंबंधरूप ही है और न एक बर्तन में एकसाथ रखे हुए गेहुँओं और कंकड़ों के समान एकदम औपचारिक ही है; अपितु वे दोनों एक न होकर भी दूध और पानी के समान एकमेक अवश्य हो रहे हैं। कंकड़ और गेहूँ तो एकदम पृथक्-पृथक् ही हैं, उनका तो परस्पर मात्र इतना ही संबंध है कि वे एक बर्तन में एकसाथ रखे हुए हैं; पर दूध-पानी की स्थिति ऐसी नहीं है, वे पूर्णत: एक क्षेत्रावगाह हो गये हैं, फिर भी हैं तो पृथक्-पृथक् ही। गेहूँ और कंकड़ों का तो क्षेत्र भी अलग-अलग है, पर दूध और पानी आकाश के एकक्षेत्र में ही एकसाथ रह रहे हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 गाथा ६ यद्यपि आत्मा और कर्म दूध-पानी की तरह एकक्षेत्रावगाही होकर भी पृथक्-पृथक् ही हैं, तथापि बंधपर्याय की ओर से देखने पर उन्हें एकरूप ही कहते हैं। __ जिनका अन्त अत्यन्त कठिन है, ऐसी विभिन्न प्रकार की कषायों के उदय के वश होकर, पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले जो अनेकप्रकार के शुभाशुभभाव होते हैं, उनके स्वभावरूप यह भगवान आत्मा परिणमित नहीं होता; इसकारण वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है। यह द्रव्यस्वभाव की बात है। शुभाशुभभाव के स्वभावरूप परिणमित होना एकप्रकार से जड़रूप परिणमित होना ही है; क्योंकि यह परिणमन जड़कर्म के उदय के वश होता है। जिसप्रकार मालिक की आज्ञा से भृत्य द्वारा किए गये कार्य को मालिक का ही कार्य कहा जाता है; उसीप्रकार जिसके वश जो परिणमन होता है, उस परिणमन को उसी का कहा जाता है। अतः जड़कर्म के उदय के वश से हुए शुभाशुभभावों को जड़रूप ही कहा जाता है । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्याति टीका में भी शुभाशुभरूप विभावभावों को जड़स्वभावी कहा गया है। यह ज्ञायकभाव उन शुभाशुभभावोंरूप परिणमित नहीं होता; इसीकारण वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है। __जड़कर्म के वश का अर्थ यह नहीं समझना कि जड़कर्म उसे बलात् अपने वश में करता है, अपितु यह जीव स्वयं अपनी कमजोरी के कारण, पर्यायगत योग्यता के कारण उनके वश होता है। यह एक स्वतंत्र प्रकरण है और विशेष स्पष्टीकरण के लिए गहरे मंथन की अपेक्षा रखता है । यहाँ इसका विस्तार अभीष्ट नहीं है। आगे यथास्थान इस पर विशेष प्रकाश डाला जावेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ ऐसा नहीं कहा कि अशुभभावरूप परिणमित नहीं होने से प्रमत्त नहीं है और शुभभावरूप Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन परिणमित नहीं होने से अप्रमत्त नहीं है; अपितु ऐसा कहा है कि शुभाशुभभावरूप परिणमित न होने से प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; क्योंकि शुभ और अशुभ दोनों ही भाव प्रमत्तभाव हैं और उनके अभाव में होनेवाले निर्मलभाव शुद्धभाव अप्रमत्तभाव हैं । ज्ञायकभाव न तो मलिनभावोंरूप ही है और न पर्यायगत निर्मल भावोंरूप ही है; क्योंकि वह परिणमनरूप ही नहीं है, वह तो अपरिणामी तत्त्व हैं । - 70 वह अपरिणामी ज्ञायकभाव अन्य द्रव्यों और उनके भावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है । परपदार्थों और उनके भावों से भिन्न होने के कारण यद्यपि यह ज्ञायकभाव सदा शुद्ध ही है, तथापि जबतक यह ज्ञायकभाव अपने श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र का विषय नहीं बनता, अनुभूति में नहीं आता; तबतक उसके शुद्ध होने का लाभ पर्याय में प्राप्त नहीं होता, आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका नहीं जगती, मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेद नहीं होता । अतः यह कहा गया है कि वह परभावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है । ― आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी इस विषय को इसप्रकार स्पष्ट किया करते थे "परद्रव्यों और उनके भावों से भिन्न भगवान आत्मा शुद्ध तो है, पर किसको ? जिसने जाना, उसको । आत्मा का अनुभव किए बिना ही जो ऐसे ही शुद्ध-शुद्ध कहा करे, उसे ज्ञायकभाव के शुद्ध होने का लाभ प्राप्त नहीं होता । ज्ञायकभाव तो सदा शुद्ध ही है, में शुद्धता उसके अनुभव से ही आती है।" परन्तु पर्याय इसप्रकार गाथा के आरंभिक तीन पदों का भाव यह सुनिश्चित हुआ कि यह ज्ञायकभाव प्रमत्त- अप्रमत्त नहीं है, गुणस्थानातीत है, और उनके भावों से सर्वथा भिन्न है, पर के साथ इसका कोई भी संबंध परद्रव्य Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 गाथा ६ नहीं है; इसीकारण वह पर से भिन्न अनुभव में आता हुआ शुद्ध कहलाता है । यहाँ पर से भिन्नता को शुद्धि कहा है; अतः पर के साथ किसी भी प्रकार के संबंध को अशुद्धि कहना अनुचित नहीं है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब ज्ञान ज्ञेयाकार परिणमित होता है तो ज्ञेयों के साथ ज्ञायक का ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी हो ही गया । परज्ञेयों के साथ संबंध सिद्ध हो जाने पर ज्ञायक को अशुद्धता का प्रसंग भी उपस्थित होगा ही । ऐसी स्थिति में उसे शुद्ध कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रश्न का उत्तर गाथा के चौथे पद में दिया गया है, जिसका अर्थ आत्मख्याति में यह किया गया है कि 'जिसप्रकार दाह्य ( ईंधन ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उसके ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।' जिस आकार का कोयला, लकड़ी, कंडा (उपला- छाणा) आदि ईंधन होता है, उसे जलानेवाली अग्नि भी उसी आकार को धारण कर लेती है; फिर भी ईंधन में रहनेवाली अशुद्धि अग्नि में नहीं आती । इसीप्रकार ज्ञेयों को जानने के कारण ही आत्मा को ज्ञायक नाम दिया गया है, तथापि परज्ञेयों से आत्मा का कोई संबंध नहीं है; अत: उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता भी नहीं होती । ज्ञेय तो ज्ञान की पर्याय में सहजभाव से ही झलकते हैं। न तो ज्ञेयों को जानने के लिए ज्ञान ज्ञेयों के पास जाता है और न ज्ञेय ही ज्ञान के पास आते हैं; ज्ञान ज्ञान में रहता है और ज्ञेय ज्ञेयों में रहते हैं । दोनों पूर्णत: स्वाधीन हैं, कोई किसी के आधीन नहीं है, दोनों का सहज ही ऐसा स्वभाव है और दोनों अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप स्वयं ही सहजभाव से प्रवर्तते हैं; अत: दोनों में निश्चय से कोई संबंध नहीं है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन दूसरी बात यह है कि ज्ञान में जो ज्ञेयों के आकार भासित होते हैं; वे सभी आकार मूलतः तो ज्ञान के ही हैं; क्योंकि ज्ञान ही स्वयं उन आकारोंरूप परिणमित हुआ है, ज्ञेयों के आकार तो ज्ञेयों में ही रहे हैं, वे ज्ञान में आये ही नहीं हैं; उनके निमित्त से ज्ञान में ही ये आकार निर्मित हुए हैं। अतः वे आकार ज्ञान के ही हैं, ज्ञेयों के नहीं; ज्ञेय तो उनमें मात्र निमित्त हैं । ज्ञान तो ज्ञानाकार ही रहा, ज्ञेयाकार हुआ ही नहीं; अतः उसे अशुद्ध कैसे कहा जा सकता है ? उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के स्पष्टीकरण का भाव इसप्रकार है 72 " ज्ञेयों का ज्ञान ज्ञान की अवस्था है, ज्ञेयों की नहीं । साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा हमारे ज्ञान के ज्ञेय बनें, उन्हें जाननेरूप हमारा ज्ञान परिणमित हो; तब भी जो ज्ञान होगा, वह स्वयं से ही होगा, पर के कारण नहीं, तीर्थंकरदेव के कारण नहीं । - ― भगवान को जानते समय भी भगवान नहीं, तत्संबंधी ज्ञान ही जानने में आता है । पर को जानते समय भी, ज्ञान का परिणमन ज्ञान (स्व) के कारण होता है, ज्ञेय (पर) के कारण नहीं । 'ज्ञेय हैं इसकारण ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाकार होता है । यह बात भी नहीं है । ज्ञेय को जानरूप ज्ञान की योग्यता के कारण ही ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाकार होता है । इसकारण ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं होती । " स्वामीजी के स्पष्टीकरण में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि ज्ञान के ज्ञेयाकार परिणमन में ज्ञेय कारण बने तो ही ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता आ सकती है; किन्तु ज्ञान का परिणमन तो स्वयं अपनी योग्यता से स्वतंत्र ही होता है; अतः ज्ञान में ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं हो सकती । वस्तुत: बात तो यह है कि ज्ञान में ज्ञेयों के जो आकार भासित होते हैं, वे आकार ज्ञान की ही पर्यायें हैं, ज्ञेयों की नहीं; अतः यह स्पष्ट १. प्रवचनरत्नाकर (गुजराती), भाग १, पृष्ठ ९८ — Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 गाथा ६ है कि ज्ञान ज्ञानाकार ही रहा। - ऐसी स्थिति में उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता किसप्रकार हो सकती है? प्रश्न –यदि यह बात है तो फिर उसे ज्ञेयाकार क्यों कहा जाता उत्तर – यह बताने के लिए कि अमुक ज्ञानपर्याय के ज्ञेय अमुक पदार्थ ही बने हैं। पर्वत को जाननेवाले ज्ञान को पर्वताकार इसलिए कहा जाता है कि जिससे यह पता चल सके कि इस ज्ञान का ज्ञेय पर्वत ही बना है, अन्य पदार्थ नहीं। बस, इसीकारण ज्ञानाकारों को ज्ञेयाकार कहा जाता है और यह कथन मात्र उपचार ही है, जो प्रयोजन विशेष से किया गया है। प्रश्न -आप कुछ भी कहें, पर भगवान आत्मा का ज्ञायक नाम तो ज्ञेयों को जानने के कारण ही पड़ा है न? उत्तर –हाँ, यह बात तो सही है; पर ज्ञायकभाव स्वयं भी तो एक ज्ञेय है। अत: एकान्त से यह कैसे कहा जा सकता है कि परज्ञेयों के जानने के कारण ही आत्मा का नाम ज्ञायक पड़ा है; स्वज्ञेय को जानने के कारण भी तो उसे ज्ञायक ही कहा जायेगा। इस बात को आचार्यदेव ने दीपक का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। जिसप्रकार दीपक घट-पटादि को प्रकाशित करता है, उसीप्रकार वह स्वयं को भी प्रकाशित करता है; क्योंकि दीपक को प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं होती। मात्र पर को प्रकाशित करने के कारण ही उसे दीपक नहीं कहा जाता, अपितु स्वयं को प्रकाशित करने के कारण भी वह दीपक ही है। ठीक इसीप्रकार यह ज्ञायकभाव मात्र दूसरों को जानने के कारण ही ज्ञायक नहीं है, अपितु स्वयं को जानने के कारण भी ज्ञायक ही है। निश्चय से कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न नहीं होते, अभिन्न ही होते हैं। यहाँ ज्ञाता भी ज्ञायक है और ज्ञेय भी ज्ञायक ही है। यदि ज्ञानक्रिया Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन को कर्ता-कर्म के रूप में घटित करें तो यह कहा जायेगा कि ज्ञानक्रिया का ज्ञायक ही कर्ता है और जानने में भी ज्ञायक ही आया; अतः वही कर्म भी हुआ । इसप्रकार यहाँ कर्ता-कर्म की अनन्यता के कारण ज्ञेय और ज्ञाता दोनों एक ज्ञायक भाव ही रहा; क्योंकि आत्मा अनुभव में भी ज्ञायकरूप से ही ज्ञात होता है, जानने के स्वभाववाले के रूप में हो ज्ञात होता हैं । 74 इसप्रकार जब ज्ञाता और ज्ञेय दोनों ही रूपों में एक ज्ञायकभाव ही सुनिश्चित हो गया तो फिर परज्ञेय की बात ही कहाँ रही, जिसके कारण ज्ञायकभाव को अशुद्धता का प्रसंग आवे । इसीलिए तो कहा है कि यह ज्ञायकभाव उपासित होता हुआ शुद्ध कहा जाता है, अनुभव में आता हुआ शुद्ध कहा जाता है। अनुभव के काल में जब ज्ञायकभाव परज्ञेय का ज्ञाता ही नहीं रहा तो परज्ञेय के साथ ज्ञेय-ज्ञायक संबंध के कारण आनेवाली अशुद्धता का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। यही कारण है कि उपासित होते हुए ज्ञायकभाव को शुद्ध कहा है । अतः यह ठीक ही कहा है कि जैसे दीपक घटपटादि को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को अपनी ज्योतिशिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह स्वरूपप्रकाशन की अवस्था में भी कर्ता-कर्म के अनन्यत्व होने के कारण ज्ञायक ही है । - इसप्रकार गाथा की उत्थानिका में जो प्रश्न उपस्थित किया गया था कि वह शुद्धात्मा कौन है; उसका समाधान हो गया कि प्रमत्त- अप्रमत्त पर्यायों से रहित ज्ञायक भावरूप से ज्ञात होता हुआ, अनुभव में आता हुआ आत्मा ही शुद्धात्मा है । प्रश्न -आप इस बात पर विशेष बल दे रहे हैं कि ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ आत्मा ही शुद्धात्मा है । 'ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ' का क्या कोई विशेष अर्थ है ? Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 गाथा ६ उत्तर -यह भगवान आत्मा स्वयं ज्ञेय भी है और ज्ञायक भी हैं । तात्पर्य यह है कि यह जानने में भी आता है और जानता भी है । जानने में आने के कारण इसे ज्ञेय कहते हैं और जाननेवाला होने से ज्ञायक कहते हैं । ज्ञेय तो सभी पदार्थ हैं। आत्मा भी ज्ञेय हैं और आत्मा से भिन्न अन्य पदार्थ भी ज्ञेय हैं; पर जीवद्रव्य को छोड़कर शेष सभी द्रव्य कुछ नहीं जानते हैं । इसतरह जानना यह आत्मा का विशेष गुण है, जो अन्य अजीवद्रव्यों में नहीं पाया जाता है; यही कारण है कि यह गुण आत्मा को पर से विभक्त करता है, विभक्त करने का हेतु बनता है । यह ज्ञायकभाव आत्मा का ऐसा विशेष गुण है कि जानने का काम तो करता ही है, आत्मा की पहिचान का चिन्ह भी बनता है । अनुभूति में भी जो भगवान आत्मा ज्ञान का ज्ञेय बनता है, उसमें भी आत्मा के ज्ञायकभाव की ही मुख्यता होती है, ज्ञेयभाव की नहीं । अतः यह कहना उचित ही नहीं, आवश्यक भी है कि अनुभूति में भगवान आत्मा ज्ञायकरूप से ज्ञात होता है । यद्यपि 'ज्ञायकभाव' इस शब्द का वाच्य भगवान आत्मा अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड है, ज्ञायकभाव में अनन्तगुण व्याप्त हैं, अनुभव में भी अखण्ड अभेद आत्मा ही आता है; तथापि ज्ञायकता उसकी विशेष पहिचान है; अतः यह कहा जाता है कि अनुभूति में भगवान आत्मा ज्ञायकरूप से ज्ञात होता है | गहराई से जानने की बात यह है कि इस गाथा में व्यवहारोत्पादक होने से भगवान आत्मा के पर के साथ होनेवाले सर्व संबंधों का निषेध किया गया है । यहाँ तक कि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को भी अशुद्धि कहा गया है । यही कारण है कि ज्ञायकभाव को उपासित होता हुआ, अनुभव आता हुआ शुद्ध कहा गया है; क्योंकि अनुभव के काल में आत्मा का पर के साथ ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी छूट जाता है; वहाँ तो एक शुद्ध ज्ञायकभाव ही अनुभव में आता है । आत्मा ही ज्ञेय और आत्मा ही इसप्रकार ज्ञेय - ज्ञायक भी अभेद ही हो जाते हैं । ज्ञायक ― Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA समयसार अनुशीलन अगली गाथा में आचार्यदेव ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों के भेद को भी व्यवहारोत्पादक होने से अशुद्धि बताकर निषेध करनेवाले हैं; क्योंकि अनुभव के काल में गुणभेद भी नजर नहीं आता। अनुभव के काल में ज्ञायकभाव जैसा नजर आता है, परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत वही ज्ञायकभाव शुद्ध कहलाता है - यह स्पष्ट करना भी उक्त कथन का मूल प्रयोजन है। इसप्रकार इन छठवीं-सातवीं गाथाओं में दृष्टि का विषय पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है । यही कारण है कि इन गाथाओं को समयसार का भी सार कहा जाता है। क्योंकि इनमें सम्पूर्ण समयसार का सार आ जाता है। . सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार दो अलग-अलग चीजें हैं। सत्य की प्राप्ति के लिए समस्त जगत से कटकर रहना आवश्यक है। इसके विपरीत सत्य के प्रचार के लिए जन-सम्पर्क जरूरी है। सत्य की प्राप्ति व्यक्तिगत क्रिया है और सत्य का प्रचार सामाजिक प्रक्रिया। सत्य की प्राप्ति के लिए अपने में सिमटना जरूरी है और सत्य के प्रचार के लिए जन-जन तक पहुँचना। ___ साधक की भूमिका और व्यक्तित्व द्वैध होते हैं। जहाँ एक ओर वे आत्म-तत्त्व की प्राप्ति और तल्लीनता के लिए अन्तरोन्मुखी वृत्ति वाले होते हैं, वहीं प्राप्त सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के विकल्प से भी वे अलिप्त नहीं रह पाते हैं। उनके व्यक्तित्व की यह द्विविधता जन सामान्य की समझ में सहज नहीं आ पाती। यही कारण है कि कभी-कभी वे उनके प्रति शंकाशील हो उठते हैं। यद्यपि उनकी इस शंका का सही समाधान तो तभी होगा, जबकि वे स्वयं उक्त स्थिति को प्राप्त होंगे; तथापि साधक का जीवन इतना सात्विक होता है कि जगत-जन की वह शंका अविश्वास का स्थान नहीं ले पाती। - सत्य की खोज, पृष्ठ १४२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ७ अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि पर के साथ का ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी जब व्यवहार होने से अशुद्धि का जनक है; तब तो विकल्पोत्पादक गुणभेद भी व्यवहार होने से अशुद्धि का ही जनक होगा । ऐसी स्थिति में आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है - ऐसा कहना भी असत्यार्थ होगा ? इसी प्रश्न के उत्तर में सातवीं गाथा का उद्भव हुआ है, जो इसप्रकार है - ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ ( हरिगीत ) दृग ज्ञान चारित जीव के हैं यह कहा व्यवहार से । ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥ ७ ॥ ज्ञानी (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं; निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; ज्ञानी (आत्मा) तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है । " - 1 आत्मा में ज्ञान - दर्शन - चारित्र गुण नहीं है' यह बात नहीं है; क्योंकि आत्मा तो ज्ञानादि अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड ही है और ज्ञानादि गुणों के अखण्डपिण्डरूप आत्मा को ही ज्ञायकभाव कहते हैं । छठवीं गाथा में ज्ञायकभाव को उपासित होता हुआ शुद्ध कहा था, अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहा था और अनुभूति निर्विकल्पदशा में ही होती है । गुणों के विस्तार में जाने से, भेदों में जाने से विकल्पों की उत्पत्ति होती है, इसकारण अनुभूति के विषयभूत ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 समयसार अनुशीलन गुणभेद अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का विषय है और ज्ञायकभाव व्यवहारातीत है; इसकारण त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है । छठवीं गाथा में प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों के निषेध द्वारा उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का निषेध किया गया था। इसप्रकार अब उपचरित और अनुपचरित दोनों ही सद्भूतव्यवहारनयों का निषेध हो गया है। उपचरित और अनुपचरित असद्धृतव्यवहारनयों का निषेध तो तीसरी गाथा की टीका में ही कर आये हैं और 'परद्रव्यों से भिन्न उपासित होता हुआ' - कहकर छठवीं गाथा की टीका में भी कर दिया है। छठवीं व सातवीं गाथा में उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय एवं अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का भी निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार चारों ही प्रकार के व्यवहारनयों का निषेध हो गया है। इसप्रकार पर से भिन्न, प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों से भिन्न एवं गुणभेद से भी भिन्न ज्ञायकभाव अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहलाता है। त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव की शुद्धता का वास्तविक स्वरूप यही है और यही शुद्धस्वभाव दृष्टि का विषय है, ध्यान का ध्येय है और परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत परमपदार्थ है तथा परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत परमपारिणामिकभाव है; इसे ही यहाँ शुद्ध ज्ञायकभाव शब्द से अभिहित किया गया है। ___ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गुणभेद भी तो वस्तु का स्वभाव है, पर्यायें भी वस्तु का अंश हैं; उनका मूलवस्तु में निषेध कैसे किया जा सकता है? इसीप्रकार का प्रश्न उठाते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी गाथा के भावार्थ में लिखते हैं - ___ "इसप्रकार अभेद में भेद किया जाता है, इसलिए वह व्यवहार है। यदि परमार्थ से विचार किया जाय तो एक द्रव्य अनन्त पर्यायों को अभेदरूप से पीकर बैठा है, इसलिए उसमें भेद नहीं है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 गाथा ७ यहाँ कोई कह सकता है कि पर्यायें भी द्रव्य के ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फिर उन्हें व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है - यह ठीक है, किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टि से अभेद को प्रधान करके उपदेश दिया है । अभेददृष्टि में भेद को गौण करने से ही अभेद भली-भाँति मालूम हो सकता है । इसलिए भेद को गौण करके उसे व्यवहार कहा है । यहाँ यह अभिप्राय है कि भेददृष्टि में भी निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागी के विकल्प होते रहते हैं; इसलिए जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते, वहाँतक भेद को गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होने के बाद भेदाभेदरूप वस्तु का ज्ञाता हो जाता है, वहाँ नय का आलम्बन ही नहीं रहता । " पर्यायार्थिकनय का विषय होने से गुणभेद को भी पर्याय कहते हैं । गुणों को तो सहभावीपर्याय कहा ही जाता है। यहाँ जयचन्दजी के भावार्थ में जो पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है, वह गुण और गुणभेद के अर्थ में ही समझना चाहिए। भावार्थ को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है । जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ में उठाये गये प्रश्न और दिये गये उत्तर का जो स्पष्टीकरण स्वामीजी ने किया है, उसका सार इसप्रकार है - - " 'शिष्य का प्रश्न ठीक से समझना चाहिए। गुणभेदरूप पर्याय द्रव्य का ही अंश है, अवस्तु नहीं। यहाँ अवस्तु का अर्थ परवस्तु समझना चाहिए। जिसप्रकार शरीर परवस्तु है, कर्म परवस्तु है; भेदरूप पर्याय उसप्रकार की परवस्तु नहीं है। पर्याय तो स्वद्रव्य का ही अंश है, निश्चय है; उसे व्यवहारनय कैसे कहा जाता है ? यह प्रश्न है शिष्य अतः का । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 समयसार अनुशीलन इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए यहाँ कहा गया है कि यद्यपि पर्याय वस्तु का ही भेद है, अवस्तु नहीं, परवस्तु नहीं; तथापि यहाँ पर्यायदृष्टि छुड़ाकर द्रव्यदृष्टि कराने का प्रयोजन होने से अभेद को मुख्य करके उपदेश दिया गया है । भेद को गौण करने पर ही अभेद भली-भाँति प्रतिभासित होता है; इसलिए यहाँ भेद को गौण किया गया है। ध्यान रहे, यहाँ भेद को (भेदरूप व्यवहार को) गौण किया गया है, उसका अभाव नहीं किया गया है। यहाँ अभिप्राय यह है कि भेददृष्टि में निर्विकल्पदशा नहीं होती, सम्यग्दर्शन नहीं होता; अपितु राग ही उत्पन्न होता है। अनन्तगुणात्मक, अनन्तधर्मात्मक भगवान आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रभुता, स्वच्छता आदि अनन्त गुणों को लक्ष्य में लेने पर राग ही उत्पन्न होता है। नवतत्त्वों के भेद की बात तो दूर ही रहो, यदि गुण गुणी का भेद भी खड़ा होगा तो निर्विकल्पदशा नहीं होगी । वस्तु और उसकी शक्तियाँ - ऐसा भेद भी दृष्टि का विषय नहीं बनता । दृष्टि का विषय तो अभेद, अखण्ड, एक ज्ञायकभाव ही है । दृष्टि स्वयं पर्याय है, वह भी दृष्टि के विषय में नहीं आती, वह भी ध्यान का ध्येय नहीं बनती। प्रश्न - वर्तमान पर्याय को दृष्टि के विषय में मिलाना कि नहीं ? उत्तर – वर्तमान पर्याय तो भिन्न रहकर द्रव्य की प्रतीति करती है, वह उसमें कैसे मिल सकती है? पर्याय अभेद अखण्ड द्रव्य की ओर ढलती है - इस अपेक्षा अभेद कही जाती है, पर वह दृष्टि के विषय में शामिल नहीं होती। वह तो भिन्न रहकर द्रव्य को विषय बनाती है । — निर्मलपर्याय भी बहिर्तत्त्व है, अंतस्तत्त्व नहीं है । उसे भी गौण करके द्रव्यस्वभाव का आश्रय लेने पर निर्विकल्प अनुभव होता है और वही धर्म है । यदि कोई कहे कि अशुद्धता (अशुद्धपर्याय) से छूटने की बात तो करते हो, पर शुद्धता (शुद्धपर्याय) से छूटने की बात क्यों नहीं करते? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 गाथा ७ उससे कहते हैं कि वह शुद्धपर्याय द्रव्य पर लक्ष्य करती है, इसलिए उससे छूटने की बात नहीं करते। __यदि कोई कहे कि जिसप्रकार गुणी में गुणों को – गुणभेद को गौण करते हो; उसीप्रकार पर्याय को भी गौण करो; पर उसका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि पर्याय तो द्रव्य से भिन्न रहकर उसे विषय बनाती है। वह त्रिकाली द्रव्य में है ही नहीं - इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। ___ यद्यपि भेद भी वस्तु का अंश है और उसका जानना राग का कारण भी नहीं है; क्योंकि अरहंत परमात्मा द्रव्य-गुण-पर्याय, भेद-अभेद, लोक-अलोक सभी को जानते हैं; पर उनको राग उत्पन्न नहीं होता; तथापि रागी को भेद के जानने पर राग उत्पन्न होता ही है, विकल्प उत्पन्न होते ही हैं; उनसे पुण्यबंध तो होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन की अबंधपर्याय उत्पन्न नहीं होती। इसलिए जबतक रागादिक का अभाव नहीं होता, तबतक भेद को गौण करके - अभेद का अनुभव करना चाहिए। गुणी में गुण नहीं हैं - यह बात नहीं है, पर भेद को गौण करके अभेद का लक्ष्य कराना मूल प्रयोजन है।" यहाँ एक प्रश्न संभव है कि स्वामीजी के उक्त कथन में जहाँ एक ओर निर्मलपर्याय को भी गौण करके द्रव्यस्वभाव का आश्रय लेने की बात कही है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणभेद के समान गौण करने को अनुचित भी बताया गया है। - इसका कारण क्या है? । निर्मलपर्याय का सर्वथा निषेध न हो जाय - इस अर्थ में 'गौण करके' कहा गया है और वह गुणों के समान दृष्टि के विषय में शामिल न हो जाय - इसलिए निषेध किया गया है। जिसप्रकार दृष्टि के विषय में गुण अखण्ड अभेदपने शामिल हैं पर गुणभेद नहीं; इसीप्रकार यदि कोई यह कहें कि दृष्टि के विषय में १. प्रवचनरत्नाकर (गुजराती), भाग १, पृष्ठ ११३ से ११६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन पर्यायभेद को भले ही शामिल न करो, परन्तु अखण्ड अभेदपने पर्यायों को तो शामिल रखो; परन्तु उसका यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि पर्यायें तो विषयी हैं, विषय बनानेवाली हैं; वे विषय में शामिल कैसे हो सकती हैं ? 82 प्रश्न – प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय से युक्त होती है। स्वचतुष्टय के बिना वस्तु की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जिसप्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं द्रव्य है, उसके प्रदेश उसका क्षेत्र है, उसके गुण उसका भाव है; उसीप्रकार उसकी पर्यायें उसका काल है । दृष्टि के विषय में गुणभेद का निषेध करके भी गुणों को अभेदरूप से रखकर 'भाव' को सुरक्षित कर लिया गया, प्रदेशभेद का निषेध करके भी प्रदेशों को अभेदरूप से रखकर ' क्षेत्र' को सुरक्षित कर लिया गया; उसीप्रकार पर्यायभेद का निषेध कर पर्यायों को अभेदरूप से रखकर 'काल' को भी सुरक्षित कर लेना चाहिए; पर आप तो पर्यायों का सर्वथा निषेध कर वस्तु को काल से अखण्डित नहीं रहने देना चाहते हैं । इसी समयसार में आगे भावना भाई गई है कि 'न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रभावोऽस्मि' - न मैं द्रव्य से खण्डित हूँ, न क्षेत्र से खण्डित हूँ, न काल से खण्डित हूँ और न भाव से खण्डित हूँ; मैं तो सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हूँ ।' उक्त भावना में आत्मा को द्रव्यक्षेत्र - काल - भाव से पूर्णतः अखण्डित रखा गया है । उत्तर - दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्य, अनादिअनन्त त्रिकालीध्रुव नित्य, असंख्यातप्र देशी - अभेद, एवं अनन्तगुणात्मक-अखण्ड, एक कहा गया है। इसमें जिसप्रकार सामान्य कहकर द्रव्य को अखण्ड रखा गया है, असंख्यप्रदेशी - अभेद कहकर १. समयसार की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में २७०वें कलश के बाद का गद्यांश Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8883 गाथा ७ क्षेत्र को अखण्ड रखा गया है, अनन्तगुणात्मक - अखण्ड कहकर भाव को अखण्ड रखा गया है; उसीप्रकार अनादि - अनन्त त्रिकालीध्रुव नित्य कहकर काल को भी अखण्डित रखा गया है । अन्त में एक कहकर सभी प्रकार की अनेकता का निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार दृष्टि विषयभूत त्रिकालीध्रुव द्रव्य में पर्यायों के अनुस्यूति से रचित प्रवाह रूप स्वकाल का निषेध नहीं किया गया है, अपितु विशिष्ट पर्यायों का ही निषेध किया गया है। भूतकाल की पर्यायें तो विनष्ट ही हो चुकी हैं, भविष्य की पर्यायें अभी अनुत्पन्न हैं और वर्तमान पर्याय स्वयं दृष्टि है, जो विषयी है; वह दृष्टि के विषय में कैसे शामिल हो सकती है? विषय बनाने के रूप में तो वह शामिल हो ही रही है; क्योंकि वर्तमान पर्याय जबतक द्रव्य की ओर न ढले, उसके सन्मुख न हो, उसे स्पर्श न करे, उससे तन्मय न हो, उसमें एकाकार न हो जाय; तबतक आत्मानुभूति की प्रक्रिया भी सम्पन्न नहीं हो सकती । इसप्रकार वर्तमान पर्याय अनुभूति के काल में द्रव्य के सन्मुख होकर तो द्रव्य से अभेद होती ही है, पर यह अभेद अन्य प्रकार का है, गुणों और प्रदेशों के अभेद के समान नहीं । इसप्रकार दृष्टि का विषयभूत द्रव्य काल से खण्डित भी नहीं होता और उत्पन्नध्वंसी विशेष पर्याय दृष्टि के विषय में शामिल भी नहीं होती । प्रवचनसार की ९९वीं गाथा की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका में प्रदेशों की अखण्डता को वस्तु की समग्रता और परिणामों की अखण्डता को वृत्ति की समग्रता कहा है । तथा दोनों के व्यतिरेकों को क्रमश: प्रदेश और परिणाम कहकर प्रदेशों के क्रम का कारण अर्थात् विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक है और प्रवाहक्रम का कारण परिणामों (पर्यायों) का परस्पर व्यतिरेक है ऐसा कहा है । - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 समयसार अनुशीलन उक्त तथ्य की गहराई में जाने से एक बात स्पष्ट होती है कि यदि विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का व्यतिरेक है और प्रवाहक्रम का कारण परिणामों का व्यतिरेक है तो प्रदेशों और परिणामों का अन्वय - अनुस्यूति से रचित विस्तार और प्रवाह; क्षेत्र और काल की समग्रता (अखण्डता) का कारण होना चाहिए। इसप्रकार यह सहज ही फलित होता है कि वस्तु की समग्रता क्षेत्र की अखण्डता है और वृत्ति की समग्रता काल की अखण्डता है। तात्पर्य यह है कि प्रदेशों में सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित विस्तार ही क्षेत्र की अखण्डता है और पर्यायों में सर्वदा परस्पर अनुभूति से रचित प्रवाह ही काल की अखण्डता है। इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रवाह की निरन्तरता को भी नित्यता कहते हैं, क्योंकि नित्यता और अनित्यता में काल की अपेक्षा ही मुख्य है । अतः नित्य का अर्थ; वस्तु की सदा उपस्थिति' मात्र इतना ही अभीष्ट नहीं है, अपितु उसमें प्रवाह की निरन्तरता भी सम्मिलित है। यह नित्यता ही काल की अखण्डता है, जो दृष्टि के विषयभूत द्रव्य का अभिन्न अंग है। प्रश्न – इसप्रकार काल की अखण्डता को सुरक्षित रखने से द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य में अर्थात् दृष्टि के विषय में पर्याय शामिल नहीं हो जावेगी क्या ? क्योंकि परिणामों के अन्वय को ही तो काल की अखण्डता कहा जा रहा है। जब परिणामों का अन्वय दृष्टि के विषय में आ गया तो परिणाम ही आ गये समझिये। उत्तर-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आचार्य जयसेन अन्वय को गुण का और व्यतिरेक को पर्याय का लक्षण कहते हैं। उनके मूल शब्द इसप्रकार हैं - "अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवा गुणा इति गुणलक्षणम्। व्यतिरेकिण: पर्याया अथवा क्रमभुवः पर्याया इति पर्याय लक्षणम्।" १. प्रवचनसार ९३वीं गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 गाथा ७ उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि अनुस्यूति से रचित प्रवाह गुण है, पर्याय नहीं। काल का अन्वय (अखण्ड प्रवाह) गुण है और काल का व्यतिरेक पर्यायें हैं । इसप्रकार काल की अखण्डता दृष्टि के विषय में आने पर भी पर्यायें उसमें नहीं आतीं। __ गुण, प्रदेश और पर्याय क्रमशः भाव, क्षेत्र और काल के वाचक हैं । सामान्य और विशेष द्रव्य के भेद हैं, एक और अनेक भाव के भेद हैं, अभेद और भेद क्षेत्र के भेद हैं और नित्य और अनित्य काल के भेद हैं । इनमें द्रव्यदृष्टि का विषय सामान्य, एक, अभेद एवं नित्य द्रव्य बनता है और पर्यायदृष्टि का विषय विशेष, अनेक, भेद एवं अनित्य पर्यायें बनती हैं। पर्यायदृष्टि का विषय बनने के कारण विशेष, अनेक, भेद एवं अनित्यता को पर्याय कहा जाता है और द्रव्यदृष्टि का विषय बनने के कारण सामान्य, एक, अभेद एवं नित्यता को द्रव्य कहा जाता है। यही द्रव्य द्रव्यदृष्टि का विषय बनता है और इसी के आश्रय से सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है। इस द्रव्य में सामान्य के रूप में द्रव्य, एक के रूप में अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड, अभेद के रूप में असंख्यप्रदेशों का अखण्डपिण्ड और नित्य के रूप में अनन्तानन्त पर्यायों का सामान्यांश या वृत्ति का अनुस्यूति से रचित प्रवाह शामिल होता है। इसप्रकार दृष्टि के विषय में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अखण्डता-एकता विद्यमान रहती है। प्रश्न – यहाँ तो आपने विशेष को पर्यायार्थिकनय का विषय बताकर दृष्टि के विषय में से निकाल दिया है, पर ७३वीं गाथा की टीका में तो सामान्य-विशेषात्मक द्रव्य को ही दृष्टि का विषय बताया गया है। उत्तर -वहाँ सामान्य का अर्थ दर्शनगुण एवं विशेष का अर्थ ज्ञानगुण लिया गया है। अत: वहाँ सामान्य-विशेषात्मक द्रव्य का अर्थ ज्ञान-दर्शन स्वभावी भगवान आत्मा ही है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 समयसार अनुशीलन प्रश्न -द्रव्य शब्द का प्रयोग तो अनेक अर्थों में होता है। उनमें दृष्टि का विषय कौन-सा द्रव्य है? उत्तर -प्रत्येक वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमय होती है । वस्तु के इन चार पक्षों में द्रव्य भी एक पक्ष है, जो सामान्य-विशेषात्मक होता है। इसप्रकार वस्तु के सामान्य-विशेषात्मक पक्ष को भी द्रव्य कहते हैं और मूलवस्तु को भी द्रव्य कहते हैं। ये दोनों ही द्रव्य द्रव्यदृष्टि के विषय नहीं बनते हैं। ___ वस्तु के सामान्य और विशेष - ये दो रूप द्रव्य की अपेक्षा हैं, भेद और अभेद - ये दो रूप क्षेत्र की अपेक्षा हैं, नित्य और अनित्य - ये दो रूप काल की अपेक्षा हैं और एक और अनेक – ये दो रूप भाव की अपेक्षा हैं। जिसप्रकार गुणों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय है और गुणभेद पर्यायार्थिकनय का, प्रदेशों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय है और प्रदेशभेद पर्यायार्थिकनय का, द्रव्य का अभेद (सामान्य) द्रव्यार्थिकनय का विषय है और द्रव्यभेद (विशेष) पर्यायार्थिकनय का; उसीप्रकार काल (पर्यायों) का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और कालभेद (पर्यायें) पर्यायार्थिकनय का विषय बनता है। यहाँ जो-जो पर्यायार्थिकनय के विषय हैं, उन सभी की पर्यायसंज्ञा है और जो-जो द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं, उन सभी की द्रव्यसंज्ञा है। इसप्रकार अध्यात्म में गुणभेद, प्रदेशभेद, द्रव्यभेद (विशेष) एवं कालभेद (पर्यायें) - इन सभी की पर्यायसंज्ञा ही है और ये सभी पर्यायें द्रव्यार्थिकनय का विषय नहीं बनती; अतः दृष्टि का विषय भी नहीं बनती। अपनी आत्मवस्तु के इन चार युगलों में सामान्य, अभेद, नित्य और एक - इनकी अखण्डता द्रव्यार्थिकनय का विषय बनती है और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 गाथा ७ इसीकारण इसका नाम द्रव्य है। बस यही द्रव्य द्रव्यदृष्टि का विषय बनता है, इसमें अपनापन स्थापित होना ही सम्यग्दर्शन है। इसके विरुद्ध अपनी आत्मवस्तु के विशेष, भेद तथा उसकी अनित्यता एवं अनेकता की पर्यायसंज्ञा है और इनमें अपनापन होना ही मिथ्यादर्शन है। ___ द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत इस द्रव्य को ही यहाँ शुद्धद्रव्य कहा है और इसे विषय बनानेवाले नय को शुद्धनय, निश्चयनय या शुद्धनिश्चयनय कहा गया है। इस गाथा में निश्चय-व्यवहार की 'अभेद सो निश्चय और भेद सो व्यवहार' इस परिभाषा को मुख्य किया गया है। यही कारण है कि यहाँ अभेद को निश्चय और गुणभेद को व्यवहार कहा गया है। अग्नि के दाहक, पाचक एवं प्रकाशक स्वभाव का उदाहरण देते हुए आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं__"जिसप्रकार अभेदरूप निश्चयनय से अग्नि एक ही है – ऐसा निश्चय करके बाद में भेदरूप व्यवहारनय से इसप्रकार प्रतिपादित करते हैं कि वह अग्नि जलाती है, इसलिए दाहक है; पकाती है, इसलिए पाचक है; और प्रकाश करती है, इसलिए प्रकाशक है। इसप्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा विषय के भेद से वही अग्नि तीन प्रकार की कही जाती है। उसीप्रकार यह जीव अभेदरूप निश्चयनय से शुद्धचैतन्यमात्र होते हुए भी भेदरूप व्यवहारनय से इसप्रकार प्रतिपादित करते हैं कि यह जीव जानता है, इसलिए ज्ञान है; देखता है, इसलिए दर्शन है; और आचरण करता है, इसलिए चारित्र है। इसप्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा विषय के भेद से वही जीव तीन प्रकार का भी कहा जाता है, तीन भेदरूप भी हो जाता है।" Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 समयसार अनुशीलन जिसप्रकार दाहक, पाचक और प्रकाशक - इन गुणों के कारण अग्नि को भी दाहक, पाचक और प्रकाशक कहा जाता है; पर मूलतः अग्नि तीन प्रकार की नहीं, वह तो एक प्रकार की ही है, एक ही है। उसीप्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुणों के कारण आत्मा को भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा जाय; पर इसकारण आत्मा तीन प्रकार का तो नहीं हो जाता; आत्मा तो एक प्रकार का ही रहता है, एक ही रहता है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "इस ज्ञायकभाव के बंधपर्याय के निमित्त से अशुद्धता होती है - यह बात तो दूर ही रहो, इसके तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं – ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतानेवाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का; यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, - व्यवहारमात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है; किन्तु परमार्थ से देखा जाय तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से, जो एक है - ऐसे कुछ मिले हुए आस्वादवाले, अभेद, एकस्वभावी तत्त्व का अनुभव करनेवाले को दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; एक शुद्ध ज्ञायक ही है।" लोक में कर्मोदय से होनेवाले रागादिभावों को आत्मा की अशुद्धि मानी जाती है; व्यवहारनय की प्ररूपणा से जिनवाणी में भी इसप्रकार का प्ररूपण प्राप्त होता है; पर यहाँ तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र के भेद को भी अशुद्धि कहा जा रहा है ; तब फिर रागादिरूप अशुद्धि की क्या बात करें? तात्पर्य यह है कि जब दृष्टि के विषय में विकल्पोत्पादक होने से गुणभेद को भी शामिल नहीं किया जाता है तो रागादिरूप प्रमत्त पर्यायों को शामिल करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 यद्यपि आत्मा तो अनन्त गुणों का अधिष्ठाता एक धर्मी है, सहभावी पर्याय है नाम जिनका, ऐसे अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड है; क्योंकि धर्म और धर्मी में, गुण और गुणी में स्वभाव से भी अभेद होता है; तथापि जो लोग उस अभेद, अखण्ड धर्मी आत्मा को समझते नहीं हैं; उन्हें समझाने के लिए आचार्यदेव धर्मों और गुणों के भेद करके समझाते हैं; पर धर्मों के माध्यम से समझाते तो एक धर्मी को ही हैं, गुणों के माध्यम से भी समझाते तो एक गुणी को ही हैं। समझाने की इस प्रक्रिया का नाम ही व्यवहार है; पर जब अभेद - अखण्ड आत्मा का अनुभव करते हैं तो एकमात्र शुद्ध ज्ञायकभाव ही अनुभव में आता है, ज्ञान दर्शन - चारित्र का भेद दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अनुभव में ज्ञान - दर्शन - चारित्र भिन्न-भिन्न दिखाई नहीं देते, एक त्रिकालीध्रुव नित्य, अभेद, अखण्ड भगवान आत्मा ही दिखाई देता है I - गाथा ७ अनुभव में जो एक अभेद अखण्ड नित्य ज्ञायकभाव दिखाई देता है, वही दृष्टि का विषय है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसी में अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है, एकमात्र वही ध्यान का ध्येय है; अधिक क्या कहें मुक्ति के मार्ग का मूल आधार वही ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा है । ― 'वह भगवान आत्मा अन्य कोई नहीं, स्वयं मैं ही हूँ' – ऐसी दृढ़आस्था, स्वानुभवपूर्वक दृढ़प्रतीति, तीव्ररुचि ही वास्तविक धर्म है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है । इस ज्ञायकभाव में अपनापन स्थापित करना ही आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयों का एकमात्र कर्त्तव्य है । परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत, व्यवहारातीत, परमशुद्ध, निज निरंजन नाथ ज्ञायकभाव का स्वरूप स्पष्ट करना ही समयसार का मूल प्रतिपाद्य है और इसी शुद्ध ज्ञायकभाव का स्वरूप इन छठवीं-सातवीं गाथाओं में बताया गया है । अतः ये गाथाएं समयसार की आधारभूत गाथाएं हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ८ यदि चारों ही प्रकार के व्यवहारनय हेय हैं, निषेध करने योग्य हैं; तो फिर एक निश्चय का ही कथन करना चाहिए था, व्यवहार का कथन ही क्यों किया? – इस प्रश्न के उत्तर में आठवीं गाथा का जन्म हुआ है; जो इसप्रकार है - जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विना दु गाहेदुं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥८॥ ( हरिगीत ) अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को । बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ॥८॥ जिसप्रकार अनार्य (म्लेच्छ) भाषा के बिना अनार्य (म्लेच्छ) जन को कुछ भी समझाना संभव नहीं है; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ (निश्चय) का कथन अशक्य है। उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, उसका भाव इसप्रकार है - "स्वस्ति शब्द से अपरिचित किसी म्लेच्छ (अनपढ़) को यदि कोई ब्राह्मण (पढ़ा-लिखा व्यक्ति) 'स्वस्ति' ऐसा कहकर आशीर्वाद दे, तो वह म्लेच्छ उसकी ओर मेंढे की भांति आँखें फाड़-फाड़कर, टकटकी लगाकर देखता ही रहता है। क्योंकि वह 'स्वस्ति' शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णतः अपरिचित होता है। पर जब दोनों की भाषा को जाननेवाला कोई अन्य व्यक्ति या वही ब्राह्मण म्लेच्छ भाषा में उसे समझाता है कि स्वस्ति शब्द का अर्थ यह है कि तुम्हारा अविनाशी कल्याण हो; तब उसका भाव समझ में आ जाने से उसका चित्त आनन्दित हो जाता है, उसकी आँखों में आनन्द के अश्रु आ जाते हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 गाथा ८ __इसीप्रकार आत्मा शब्द से अपरिचित लौकिकजनों को जब कोई ज्ञानी धर्मात्मा आचार्यदेव 'आत्मा' शब्द से सम्बोधित करते हैं तो वे भी आँखें फाड़-फाड़कर - टकटकी लगाकर देखते ही रहते हैं; क्योंकि वे आत्मा शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णत: अपरिचित होते हैं; परन्तु जब सारथी की भाँति व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथ को चलानेवाले अन्य आचार्यदेव या वही आचार्य स्वयं ही व्यवहारमार्ग में रहते हुए आत्मा शब्द का अर्थ इसप्रकार बतलाते हैं कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त हो, वह आत्मा है; तब वे लौकिकजन भी आत्मा शब्द के अर्थ को भली-भाँति समझ लेते हैं और तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अतीव आनन्द से उनके हृदय में बोधतरंगें उछलने लगती हैं। इसप्रकार जगत म्लेच्छ के तथा व्यवहारनय म्लेच्छ भाषा के स्थान पर होने से व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है और इसीलिए व्यवहारनय स्थापित करने योग्य भी है; तथापि ब्राह्मण को म्लेच्छ तो नहीं बन जाना चाहिए' – इस वचन से व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।" _ 'यदि व्यवहारनय हेय है तो उसका प्रतिपादन ही क्यों किया ?' - शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में म्लेच्छ और म्लेच्छ भाषा का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि जिसप्रकार म्लेच्छ भाषा के बिना म्लेच्छ को समझाना संभव नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाना संभव नहीं है। अत: व्यवहार को परमार्थ का प्रतिपादक जानकर उसका उपदेश दिया गया है। गाथा में तो इतनी ही बात कही गई है, पर टीका में गाथा के भाव को खोलते हुए सावधान भी कर दिया गया है कि म्लेच्छ को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा के उपयोग को तो उचित माना जा सकता है, पर म्लेच्छ हो जाना कदापि ठीक नहीं है। म्लेच्छ से म्लेच्छ भाषा में बात कर लेना अलग बात है और स्वयं म्लेच्छ हो जाना एकदम अलग बात है। इन दोनों के अन्तर को गहराई से पहिचानना चाहिए। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 92 इसीप्रकार व्यवहारीजनों को व्यवहारनय से समझा देना अलग बात है और स्वयं व्यवहारी हो जाना एकदम अलग बात है। व्यवहारनय से परमार्थ को समझाने की बात को तो उचित माना जा सकता है, पर व्यवहार को उपादेय मानना कदापि ठीक नहीं है । व्यवहार को उपादेय मानना तो व्यवहारी हो जाना है, म्लेच्छ हो जाने जैसा है। ध्यान रहे – यहाँ व्यवहारनय की हेयोपादेयता पर विचार करते हुए उदाहरण के रूप में व्यवहारनय का वही भेद लिया गया है, जो ७वीं गाथा में कहा गया था। आत्मा शब्द से अपरिचित व्यक्ति से यदि आत्मा-आत्मा ही कहते रहें तो उसकी समझ में कुछ भी नही आवेगा; पर जब उसे इसप्रकार समझावें कि जाने सो आत्मा, देखे सो आत्मा, तो उसकी समझ में आसानी से आ जाता है; परन्तु इसप्रकार के विकल्पों में उलझे रहने से आत्मा की अनुभूति नहीं होती और आत्मा की अनुभूति होना ही वास्तविक आत्मज्ञान है। अत: आत्मा की प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने के लिए जो जाने सो आत्मा, जो देखे सो आत्मा – यह व्यवहार कथन तो उचित ही है, किन्तु आत्मानुभव के लिए नहीं; क्योंकि आत्मानुभवरूप असली आत्मज्ञान के लिए तो इन विकल्पों से भी पार होना होगा, विकल्पातीत होना होगा, व्यवहारातीत होना होगा। यही बात इस गाथा में कही गई है। इसी गाथा के भावार्थ में पण्डित जयचदंजी छाबड़ा लिखते हैं - "इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि यहाँ व्यवहार का आलंबन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहार का आलंबन छुड़ाकर परमार्थ में पहुँचाते हैं - यह समझना चाहिए।" ___ इस गाथा की टीका का गहराई से अध्ययन करने पर एक बात ध्यान में आती है कि प्रकारान्तर से इसमें सम्यग्दर्शन के पूर्व होनेवाली पाँच लब्धियों का संकेत भी है। ___ गुरु के मुख से 'आत्मा' शब्द सुनने वाले शिष्य को सैनीपंचेन्द्रिय होने से क्षयोपशमलब्धि तो है ही, परन्तु कुछ भी समझ में न आने पर भी क्रोधित नहीं होना, अरुचि प्रदर्शित नहीं करना और टकटकी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 गाथा ८ लगाकर देखते ही रहना विशुद्धिलब्धि को सूचित करता है; क्योंकि कषाय की मंदता के बिना ऐसी प्रवृत्ति संभव नहीं है । आचार्यदेव द्वारा व्यवहारमार्ग से आत्मा का स्वरूप समझाना कि 'जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्राप्त हो, वह आत्मा है ' यह देशनालब्धि है । प्रसन्नचित्त से इस देशना को सुनना, समझने में चित्त लगाना प्रायोग्यलब्धि को सूचित करता है और गुरुवचन का मर्म ख्याल में आते ही बोधतरंगों का उछलना और आनन्दाश्रुओं का आना करणलब्धि का सूचक है। तात्पर्य यह है कि भले ही कोई जीव आत्मा के बारे में कुछ भी न जानता हो; पर उसमें पात्रता हो, अपने आत्मा को समझने योग्य बुद्धि का विकास हो, कषायें मंद हों, आत्मा की तीव्र रुचि हो, आत्मज्ञानी गुरु के प्रति बहुमान का भाव हो, आस्था हो, यथायोग्य विनय हो, उनसे आत्मा का स्वरूप समझने की धगस हो, गहरी जिज्ञासा हो, पूरा-पूरा प्रयास हो तो योग्य गुरु के द्वारा करुणापूर्वक व्यवहारमार्ग से समझाये जाने पर आत्मा की बात उसकी समझ में अवश्य आती है और यदि पुरुषार्थ की उग्रता हो तो आत्मानुभव भी होता ही है । इसप्रकार इस गाथा में पाँचों लब्धियों को प्राप्त कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विधि का भी परिज्ञान करा दिया गया है। पात्र शिष्य और निश्चय-व्यवहारज्ञ आत्मज्ञानी गुरु का स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया गया है । व्यवहारनय की उपयोगिता बताकर जिनवाणी में उसके प्रयोग का औचित्य भी स्पष्ट कर दिया है और अन्त में व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है - यह भी बता दिया है। प्रकारान्तर से आत्मानुभव की प्रेरणा भी दी गई है । अतः हम सभी का परमकर्त्तव्य है कि निज भगवान आत्मा की बात रुचिपूर्वक सुनें, गहराई से समझे; उसपर गंभीरता से विचार करें और भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिए उग्र पुरुषार्थ करें; क्योंकि मानव जीवन की सफलता आत्मानुभव करने में ही है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ९-१० आठवीं गाथा में यह कहा गया है कि परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय भी स्थापित करने योग्य है; परन्तु प्रश्न तो यह है कि व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक किसप्रकार है? इस प्रश्न के उत्तर में ही ९वीं एवं १०वीं गाथाएं लिखी गई हैं, जो इसप्रकार हैं - जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥९॥ जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ॥१०॥ ( हरिगीत ) श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा। श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के॥९॥ जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली। सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिए श्रुतकेवली॥१०॥ जो जीव श्रुतज्ञान के द्वारा केवल एक शुद्धात्मा को जानते हैं, उसे लोक के ज्ञाता ऋषिगण निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, उन्हें जिनदेव व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं; क्योंकि सब ज्ञान आत्मा ही तो है। उक्त गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __"जो श्रुतज्ञान के बल से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं – यह परमार्थ कथन है और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं - यह व्यवहार कथन है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 गाथा ९-१० अब यहाँ विचार करते हैं कि उपर्युक्त सर्वज्ञान आत्मा है कि अनात्मा ? अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है; क्योंकि जड़ अनात्मा तो आकाशादि पाँच द्रव्य हैं, किन्तु उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं है । अतः अन्य उपाय का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है यही सिद्ध होता है; इसलिए यह सहज ही सिद्ध हो गया कि सर्व श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा सिद्ध होने पर यह पारमार्थिक तथ्य सहज ही फलित हो गया कि जो आत्मा को जानता है, वही श्रुतकेवली है । - इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाला जो व्यवहार है, उससे भी मात्र परमार्थ ही कहा जाता है, अन्य कुछ नहीं । 'जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं ' - इस परमार्थ का प्रतिपादन अशक्य होने से 'जो सर्वश्रुत को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं' - ऐसा व्यवहारकथन परमार्थ का ही प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है । ' सातवीं गाथा में जिस अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय की चर्चा की गई थी, यहाँ इन नौवीं - दशवीं गाथाओं में निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतके वली का उदाहरण देकर उसी अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय को परमार्थ (निश्चय) का प्रतिपादक सिद्ध किया गया गया है । श्रुतज्ञान ज्ञानगुण का ही एक प्रकार है या ज्ञानगुण की ही एक पर्याय है । इसप्रकार श्रुतज्ञान (गुण) और आत्मा (गुणी ) में गुण- गुणीरूप तादात्म्यसंबंध है । अथवा श्रुतज्ञान (पर्याय) और आत्मा (पर्यायवान ) में पर्याय- पर्यायवानरूप तादात्म्यसंबंध है । -- गुण-गुणी सम्बन्ध और पर्याय- पर्यायवान सम्बन्ध इन दोनों को ही जिनागम में गुणभेद नाम से ही जाना जाता है और इस गुणभेद को विषय बनानेवाले नय को अनुचरित - सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 समयसार अनुशीलन 'ज्ञानी के ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है' - सातवीं गाथा में समागत उक्त कथन गुणभेदरूप होने से व्यवहारकथन माना गया है। दर्शनज्ञान-चारित्र को गुणरूप में भी देखा जा सकता है और निर्मलपर्याय के रूप में भी देखा जा सकता है; क्योंकि उक्त तीन गुण तो आत्मा में हैं ही, पर इनके निर्मल परिणमन को भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही कहते हैं । मुक्ति के मार्ग के रूप में सर्वत्र इन गुणों के निर्मल परिणमन को ही लिया गया है। गुणों और उनके निर्मल परिणमन को आत्मा का कहना अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का ही कथन है । अत: सातवीं गाथा के कथन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र को गुणरूप में ग्रहण करें, चाहे उनके निर्मल परिणमनरूप में ग्रहण करें; दोनों गुणभेदरूप होने से अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय के विषय ही बनेंगे। ___ 'जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्धात्मा को जानते हैं, वे निश्चयश्रुतकेवली हैं और जो उसी श्रुतज्ञान से द्वादशांगरूप सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं ' - नौवीं-दशवीं गाथा में कहे गये उक्त शब्दों से भी यही फलित होता है कि जिसने श्रुतज्ञान से आत्मा (गुणीपर्यायवान) को जाना, वह निश्चयश्रुतकेवली और जिसने द्वादशांगरूप सर्वश्रुतज्ञान (गुण-पर्याय) को जाना, वह व्यवहार श्रुतकेवली है। ___ आत्मा द्रव्य है और सर्वश्रुतज्ञान उसी आत्मद्रव्य की पर्याय है; अतः सर्वश्रुतज्ञान भी प्रकारान्तर से आत्मा ही है। अत: सर्वश्रुतज्ञान को जाननेवाले व्यवहारनय ने भी प्रकारान्तर से आत्मा को ही बताया है। अत: वह व्यवहार भी परमार्थ का ही प्रतिपादक रहा। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने इन गाथाओं की आत्मख्याति टीका में निष्कर्ष के रूप में यह कहा है कि ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाले व्यवहारनय ने भी परमार्थ ही बताया है और परमार्थप्रतिपादक के रूप में उसने अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर लिया है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 गाथा ९-१० व्यवहारनय ज्ञान (सर्वश्रुतज्ञान) को जानता है और निश्चय ज्ञानी (आत्मा) को। ज्ञान को जाना, सो ज्ञानी को ही जाना; इस नीति के अनुसार व्यवहार परमार्थ का ही प्रतिपादक है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका में लिखते हैं - "जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञान के बल से शुद्धात्मा को जानते हैं, वे निश्चयश्रुतकेवली हैं और जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते; केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं, वे व्यवहारश्रुतकेवली हैं। प्रश्न -तब तो स्वसंवेदन के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली होते होंगे? उत्तर -नहीं, ऐसी बात नहीं है ; क्योंकि पूर्व पुरुषों को जिसप्रकार का शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदनज्ञान होता था, उसप्रकार का स्वसंवेदनज्ञान अभी नहीं है, किन्तु यथायोग्य धर्मध्यान अभी भी है।" प्रश्न -आचार्य जयसेन के उक्त कथन में यह कहा गया है कि जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते, केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं, वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं; तो क्या द्वादशांग के पाठी श्रुतकेवली आत्मा को भी नहीं जानते, आत्मानुभवी नहीं होते? उत्तर -अरे भाई ! ऐसी बात नहीं है; क्योंकि आत्मा के अनुभव के बिना तो कोई द्वादशांग का पाठी हो ही नहीं सकता। जिनागम का यह कथन तो सर्व प्रसिद्ध ही है कि जिन्हें आत्मा का अनुभव नहीं है, स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है, सम्यग्दर्शन नहीं है; उन्हें ग्यारह अंग और नौ पूर्व से अधिक का ज्ञान नहीं हो सकता। जब मिथ्यादृष्टि को ग्यारह Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 समयसार अनुशीलन अंग और नौ पूर्व में अधिक का ज्ञान नहीं होता तो फिर बारह अंग के पाठी द्रव्यश्रुतकेवली - व्यवहारश्रुतकवली स्वसंवेदनज्ञान से रहित कैसे हो सकते हैं ? यह बात गंभीरता से विचारने की है। __श्रुतकेवली कहलाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे आत्मज्ञानी होने के साथ-साथ द्वादशांगश्रुत के पाठी भी हों। यही कारण है कि पंचमकाल में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद अनेक स्वसंवेदी भावलिंगी संत हो गये हैं, पर श्रुतकेवली कोई नहीं हुआ। प्रश्न - आचार्य जयसेन ने तो साफ-साफ लिखा है कि जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते, केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं; वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं। उक्त कथन से तो यही प्रतिफलित होता है कि व्यवहार श्रुतकेवली आत्मानुभवी नहीं होते । इसीप्रकार निश्चयश्रुतकेवली द्वादशांग के पाठी नहीं होते; क्योंकि वे तो स्वसंवेदन ज्ञान के बल से मात्र शुद्धात्मा को ही जानते हैं; परन्तु आप यहाँ यह कह रहे हैं कि प्रत्येक श्रुतकेवली आत्मज्ञानी भी होते हैं, स्वसंवेदन ज्ञानी भी होते हैं और द्वादशांग के पाठी भी होते हैं? उत्तर -अरे, भाई! निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतकेवली कोई अलग-अलग व्यक्ति थोड़े ही होते हैं, श्रुतकेवली तो एक ही होते हैं और वे द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी ही होते हैं । आत्मानुभवी होने के कारण उन्हें ही निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और द्वादशांग के पाठी होने के कारण उन्हें ही व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं। इसी बात को इसप्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं कि श्रुतकेवली निश्चय से निज शुद्धात्मा को ही जानते हैं, पर को नहीं, द्वादशांगरूप श्रुत को भी नहीं; तथा वे ही श्रुतकेवली व्यवहार से द्वादशांगरूप श्रुत को जानते हैं, आत्मा को नहीं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 गाथा ९ १० ध्यान रहे - ये दोनों ही नय एक साथ एक ही समय में एक ही व्यक्ति पर घटित होते हैं, अन्य-अन्य व्यक्तियों पर नहीं, अन्य-अन्य समय पर भी नहीं। जो व्यक्ति जिस समय आत्मा को जानने के कारण निश्चयश्रुतकेवली हैं; वही व्यक्ति उसीसमय द्वादशांगरूप श्रुत का विशेषज्ञ होने के कारण व्यवहार श्रुतकेवली भी है। इसीप्रकार जो व्यक्ति जिससमय द्वादशांग का पाठी होने से व्यवहार श्रुतकेवली है, वही व्यक्ति उसीसमय आत्मज्ञानी होने से निश्चयश्रुतकेवली भी है। उनमें न व्यक्तिभेद है और न समयभेद ही। __इसीप्रकार के प्रयोग केवली भगवान के बारे में भी उपलब्ध होते हैं। नियमसार में लिखा है - "जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५९ ।। अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ॥१६६ ॥ लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥ १६९॥ व्यवहारनय से. केवली भगवान सभी को जानते-देखते हैं और निश्चयनय से केवली भगवान मात्र आत्मा को ही जानते-देखते हैं । केवली भगवान निश्चय से आत्मस्वरूप को ही देखते-जानते हैं, लोकालोक को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहे तो उसमें क्या दोष है? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है । केवली भगवान व्यवहार से लोकालोक को देखते-जानते हैं, आत्मा को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहता है तो उसमें क्या दोष है? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है।" इसीप्रकार का भाव कलश में भी आया है, जो इसप्रकार है - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 समयसार अनुशीलन ( वसंततिलका ) "जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्। नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद् वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्स दोषः॥ तीर्थंकर भगवान वास्तव में समस्त लोक को जानते हैं और वे एक निर्दोष, निजसुख में लीन आत्मा को नहीं जानते - कोई मुनिवर व्यवहारमार्ग से ऐसा कहते हैं तो कोई दोष नहीं है।" क्या उक्त कथनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निश्चयकेवली अलग होते हैं और व्यवहारकेवली अलग; तथा निश्चयकेवली मात्र आत्मा को जानते हैं और व्यवहारकेवली मात्र लोकालोक को ? इसीप्रकार क्या यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि जब केवली निश्चय में होते हैं, तब मात्र आत्मा को जानते हैं; और जब व्यवहार में होते हैं, तब मात्र लोकालोक को जानते हैं? नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि केवली दो प्रकार के होते ही नहीं। एक ही केवली का दो प्रकार से निरूपण किया जाता है - एक निश्चयकेवली और दूसरे व्यवहारकेवली। जो केवली जिससमय आत्मा को जानने के कारण निश्चयकेवली कहे जाते हैं, वे ही केवली उसीसमय लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं; न तो उनमें व्यक्तिभेद होता है और न समयभेद। इसीप्रकार निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतकेवली पर घटित कर लेना चाहिए। उक्त संदर्भ में मोक्षमार्गप्रकाशक का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है - १. नियमसार कलश, २८५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 " 'अंतरंग में आपने तो निर्धार करके यथावत् निश्यचय-व्यवहार मोक्षमार्ग को पहिचाना नहीं और जिन आज्ञा मानकर निश्चयव्यवहाररूप मोक्षमार्ग दो प्रकार मानते हैं । सो मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार है । इसलिए निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चयमोक्षमार्ग और एक व्यवहारमोक्षमार्ग इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। " गाथा ९-१० - उक्त कथन में जिसप्रकार मोक्षमार्ग पर निश्चय - व्यवहार घटित किए गये हैं, उसीप्रकार केवली और श्रुतकेवली पर भी निश्चयव्यवहार घटित कर लेना चाहिए । जिसप्रकार मोक्षमार्ग दो नहीं, उसका निरूपण दो प्रकार से है एक निश्चयमोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहारमोक्षमार्ग; उसीप्रकार केवली या श्रुतकेवली दो नहीं, उनका निरूपण दो प्रकार से है एक निश्चयकेवली या निश्चयश्रुतकेवली और दूसरा व्यवहारकेवली या व्यवहार श्रुतकेवली । ― जिसप्रकार निश्चय और व्यवहार केवली तेरहवें गुणस्थान और उसके आगे ही होते हैं, उसके पहले नहीं; उसीप्रकार निश्चय और व्यवहार श्रुतकेवली भी चौथे से बारहवें गुणस्थान तक ही होते हैं, उसके पहले नहीं; क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव न तो द्वादशांग के पाठी ही होते हैं और न स्वसंवेदनज्ञानी ही । प्रश्न - शास्त्रों में जिन श्रुतकेवलियों की बात आती है, वे तो सभी मुनिराज ही थे; फिर चतुर्थ गुणस्थान से श्रुतकेवली होते हैं यह आप कैसे कहते हैं? - उत्तर - सौधर्मादि इन्द्र, लोकांतिकदेव एवं सर्वार्थसिद्धि आदि के अहमिन्द्र भी तो द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी होते हैं । तथा यह १. पण्डित टोडरमल : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २४८ - २४९ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 102 तो आप जानते ही हैं कि देवगति में संयम नहीं होता; अत: उनका गुणस्थान भी चौथे से ऊपर नहीं होता। यद्यपि यह सत्य है कि चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के जीव श्रुतकेवली हो सकते हैं; तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक का प्रत्येक व्यक्ति श्रुतकेवली होता है; क्योंकि श्रुतकेवली होने के लिए स्वसंवेदनज्ञानी और द्वादशांग का पाठी – दोनों शर्ते पूरी होना अनिवार्य है। प्रश्न - जब चौथे गुणस्थान में श्रुतकेवली हो सकते हैं तो फिर तो पंचमकाल में भी श्रुतकेवली हो सकते होंगे; क्योंकि पंचमकाल में भी छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी संत हो सकते हैं, होते भी हैं। उत्तर - हाँ, हाँ, क्यों नहीं? अवश्य हो सकते हैं; क्योंकि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु पंचमकाल में ही हुए हैं। उनके पहले भी अनेक श्रुतकेवली पंचमकाल में हुए हैं, जिनकी चर्चा जिनागम में है। अतः 'अभी श्रुतकेवली नहीं होते' - आचार्य जयसेन के इस वाक्य में समागत 'अभी' शब्द का अर्थ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद का काल ही लेना चाहिए। ___ 'अभी श्रुतकेवली नहीं होते' – इस कथन से यह अर्थ निकालना कि अभी स्वसंवेदन के बल से आत्मानुभव भी नहीं होता - यह भी ठीक नहीं है और आत्मानुभव होता है, इसलिए अभी निश्चयश्रुतकेवली भी होते हैं - यह भी ठीक नहीं है। जब भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद कोई श्रुतकेवली हुआ ही नहीं तो फिर अभी भी भावश्रुतकेवली होने की बात कहाँ टिकती है? इसीप्रकार जब पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनिराजआर्यिकाएं एवं सम्यग्दृष्टि-अणुव्रती श्रावक-श्राविकायें होना सुनिश्चित है तो फिर अभी स्वसंवेदनरूप आत्मज्ञान का अभाव कैसे हो सकता है? Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 गाथा ९-१० यद्यपि यह सत्य है कि पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनिराज एवं ज्ञानी श्रावक होंगे; पर इतने मात्र से किसी व्यक्तिविशेष को ज्ञानी श्रावक या भावलिंगी संत तो नहीं माना जा सकता है; क्योंकि उसमें अपने पद के अनुरूप सभी पात्रताओं का होना भी तो आवश्यक है । पर जो यह मानते हैं कि इस समय आत्मानुभव – स्वसंवेदनज्ञान हो ही नहीं सकता, उन्हें तो आत्मानुभव होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता और आत्मानुभव के बिना उनका सच्चा साधु होना या सच्चा ज्ञानी श्रावक होना भी संभव नहीं है । निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि श्रुतज्ञान का अधिकतम विकास द्वादशांग का पाठी होना ही है; इसकारण ही उसे यहाँ सर्वश्रुत कहा है । 'जो आत्मा सर्वश्रुत को जानता है, वह श्रुतकेवली है' का अर्थ यह हुआ कि जिस आत्मा का श्रुतज्ञान पूर्णत: विकसित हो गया है, वह श्रुतकेवली है । उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं पूर्ण विकसित श्रुतज्ञान में स्व- पर सभी द्रव्य श्रुतज्ञान के विषय बनते हैं । अतः यह सुनिश्चित हुआ कि सर्वश्रुत को जाननेवाले श्रुतकेवली ने सभी को जाना है। उसके इस सर्वज्ञान में स्व को जानने के कारण वह निश्चयश्रुतकेवली कहा जाता है और द्वादशांगरूप पर को जानने के कारण वह व्यवहारश्रुतकेवली कहलाता है । ऐसी ही अपेक्षा केवली पर भी घटित होती है । स्व-पर सभी को जाननेवाले केवली भगवान स्व को जानने के कारण निश्चयकेवली और लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं । ऐसा भी कहा जाता है कि केवली भगवान निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ । — - 44 'जो जीव ज्ञान की पर्याय में छहों द्रव्य, उनके गुण-पर्याय - सभी ज्ञेयों को जानते हैं, उन्हें व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं। आत्मा को जाने Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 104 - यह बात यहाँ नहीं ली है । यह तो पहले निश्चयश्रुतकेवली में आ गई। यहाँ तो एक समय की ज्ञान की पर्याय, जिसमें सर्वश्रुतज्ञान यानि बारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान होता है, उसे जिनदेव व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं?' जिस ज्ञान की पर्याय में बारह अंग जाने जाते हैं, द्रव्य-गुण-पर्याय जाने जाते हैं, सभी पर जाना जाता है; वह ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं है, किन्तु आत्मरूप (ज्ञानरूप) है। यह ज्ञान अनात्मरूप ज्ञेयों का नहीं, बल्कि आत्मा का ही है। इससे अन्य पक्ष का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है - यह बात सिद्ध होती है । 'ज्ञान की पर्याय वह आत्मा' - यह व्यवहार है और यह व्यवहार परमार्थ आत्मा को बताता है। इसप्रकार परमार्थ को समझानेवाला व्यवहार है तो अवश्य; परन्तु व्यवहार अनुरसरण करने योग्य नहीं है । एक त्रिकाली ज्ञायकभाव का अनुसरण करना ही परमार्थ है। -- ऐसा जानकर व्यवहार का आश्रय छोड़कर एक परमार्थ का ही अनुभव करो।" उक्त सम्पूर्ण अनुशीलन का निष्कर्ष यह है कि यद्यपि व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है, तथापि वह अनुसरण करने योग्य नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ १२८ २. वही, पृष्ठ १३१ ३. वही, पृष्ठ १३२ सहज ज्ञाता-दृष्टा ___ जो हूँ - मात्र उसे देखें, उसे जानें. उसमें ही रम जावें, जम जावें - यही कहना चाहते हैं आप। नहीं, देखो नहीं, देखना सहज होने दो; जानो नहीं, जानना सहज होने दो; रमो भी नहीं, जमो भी नहीं, रमनाजमना भी सहज होने दो। सब-कुछ सहज, जानना सहज, जमना सहज, रमना सहज। कर्तृत्व के अहंकार से ही नहीं, विकल्प से भी रहित सहज ज्ञाता-दृष्टा बन जाओ। - सत्य की खोज, पृष्ठ २०३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ११ दसवीं और ग्यारहवीं गाथा के बीच में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका में दो गाथायें उपलब्ध होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में नहीं हैं। उनमें पहली गाथा रत्नत्रय की भावना की गाथा है, जो १६वीं गाथा के समान ही है । जिसप्रकार का भाव इस गाथा में है, ठीक उसीप्रकार का भाव १६वीं गाथा में भी पाया जाता है। दूसरी गाथा में रत्नत्रय की भावना का फल बताया गया है ।। उक्त दोनों गाथाओं पर आचार्य अमृतचन्द्र की टीका तो है ही नहीं, आचार्य जयसेन की टीका में भी विशेष कुछ नहीं है, मात्र गाथा का सामान्य अर्थ कर दिया गया है । वे दोनों गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - णाणम्हि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य । ते पुण तिण्णिवि आदा तह्मा कुण भावणं आदे ॥ जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ ज्ञान में, दर्शन में एवं चारित्र में भावना करना चाहिए; किन्तु ये तीनों आत्मा ही हैं। अत: आत्मा की ही भावना करना चाहिए । जो मुनि तत्परता के साथ इस आत्मभावना को करता है, वह सम्पूर्ण दु:खों से थोड़े ही काल में मुक्त हो जाता है । उक्त दोनों गाथाओं में कोई नई विषयवस्तु तो है ही नहीं, इनके नहीं होने पर भी विषयवस्तु के क्रम में कोई व्यवधान नहीं आता; अपितु इनके बिना ही क्रमिक विकास सही बैठता है, जैसा कि आगामी गाथा की उत्थानिका से स्पष्ट है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब व्यवहारनय ने परमार्थ प्रतिपादकत्व के कारण अपने को भली-भाँति स्थापित कर लिया है, तो फिर उसका अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप ही ११वीं गाथा का जन्म हुआ है, जो इसप्रकार है - ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥ ११ ॥ ( हरिगीत ) 106 शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आत्मा सम्यक् लहे ॥ ११ ॥ 'व्यवहारनय अभूतार्थ है शुद्धनय भूतार्थ है ' - ऐसा कहा गया है । जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है । उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में लिखते हैं — " सब ही व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूत (अविद्यमानअसत्य) अर्थ को प्रगट करते हैं। एक शुद्धनय ही भूतार्थ होने से भूत (विद्यमान - सत्य) अर्थ को प्रगट करता है । अब इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं । यद्यपि प्रबल कीचड़ के मिलने से आच्छादित है निर्मलस्वभाव जिसका, ऐसे समल जल का अनुभव करनेवाले एवं जल और कीचड़ के विवेक से रहित अधिकांश लोग तो उस जल को मलिन ही अनुभव करते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि स्वभाव से तो जल निर्मल ही है, मलिनता तो मात्र संयोग में है । इसकारण वे जल को ही मलिन मान लेते हैं । तथापि कुछ लोग अपने हाथ से डाले हुए कतकफल के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 गाथा ११ कीचड़ के विवेक से, अपने पुरुषार्थ से प्रगट किये गये निर्मलस्वभाव से उस जल को निर्मल ही अनुभव करते हैं । तात्पर्य यह है कि अधिकांश लोग तो पंकमिश्रित जल को स्वभाव से मैला मानकर वैसा ही पी लेते हैं और अनेक रोगों से आक्रान्त हो दु:खी होते हैं; किन्तु कुछ समझदार लोग अपने विवेक से इस बात को समझ लेते हैं कि जल मैला नहीं है, इस मैले जल में जल जुदा है और मै जुदा है तथा कतकफल के जरिये जल और मैल को जुदाजुदा किया जा सकता है । अत: वे स्वयं के हाथ से कतकफल डालकर मैले जल को इतना निर्मल बना लेते हैं कि उसमें अपना पुरुषाकार भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है और उस जल को पीकर निरोग रहते हैं, आरोग्यता का आनन्द लेते हैं । इसीप्रकार प्रबल कर्मोदय के संयोग से सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है जिसका, ऐसे आत्मा का अनुभव करनेवाले एवं आत्मा और कर्म के विवेक से रहित, व्यवहारविमोहित चित्तवाले अधिकांश लोग तो आत्मा को अनेकभावरूप अशुद्ध ही अनुभव करते हैं; तथापि भूतार्थदर्शी लोग अपनी बुद्धि से प्रयुक्त शुद्धनय के प्रयोग से उत्पन्न आत्मा और कर्म के विवेक से अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रगट किये गये सहज एक ज्ञायकभाव को शुद्ध ही अनुभव करते हैं, एक ज्ञायकभावरूप ही अनुभव करते हैं; अनेकभावरूप नहीं करते । यहाँ शुद्धनय कतकफल के स्थान पर है; इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करते हुए सम्यग्दृष्टि होते हैं; अन्य नहीं । इसलिए कर्मों से भिन्न आत्मा को देखनेवालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है ।" यह गाथा अत्यन्त गंभीर है, इसमें जिनागम का सार तो भरा ही है, जिनागम को समझने की विधि भी बता दी गई है। इस गाथा के मर्म Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 108 को समझने के लिए अत्यधिक सावधानी अपेक्षित है; क्योंकि जरासी चूक हो जाने पर बहुत बड़ी हानि हो सकती है । ___ इस गाथा व इस पर लिखी आत्मख्याति टीका का अर्थ लिखने के उपरान्त भावार्थ लिखते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा हमें सचेत करते हैं तथा अनेक तथ्यों से परिचित भी कराते हैं । अत: उनके भावार्थ को अविकलरूप से देखना आवश्यक है, जो इसप्रकार है - __ "यहाँ व्यवहारनय को अभूतार्थ और शुद्धनय को भूतार्थ कहा है। जिसका विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो; उसे अभूतार्थ कहते हैं। शुद्धनय का विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है; उसकी दृष्टि में भेद दिखाई नहीं देता; इसलिए उसकी दृष्टि में भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ही कहा जाता है। ऐसा तो है नहीं कि भेदरूप कोई वस्तु ही न हो। यदि ऐसा मानेंगे तो जिसप्रकार वेदान्तमतवाले भेदरूप अनित्य को मायास्वरूप कहते हैं, अवस्तु कहते हैं और अभेद-नित्यशुद्धब्रह्म को वस्तु कहते हैं, वैसा हमें भी मानना होगा। ऐसा मानने पर सर्वथा एकान्त शुद्धनय के पक्षरूप मिथ्यादृष्टित्व का प्रसंग आवेगा। इसलिए ऐसा स्वीकार करना ही ठीक है कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है और प्रयोजन के अनुसार नयों को यथायोग्य मुख्य व गौण करके कथन करती है । गहराई से समझने की बात यह है कि प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादि से ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं। जिनवाणी में भी व्यवहार का उपदेश हस्तावलम्बन जानकर बहुत किया है, किन्तु उसका फल तो संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है । इसलिए उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसका ही उपदेश प्रधानता से दिया है और कहा है कि शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसके आश्रय करने से सम्यग्दृष्टि होता है। इसको जाने बिना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 गाथा ११ जबतक जीव व्यवहार में मग्न है, तबतक आत्मा के ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। - ऐसा जानना।" यह गाथा और इसकी टीका के पढ़ने से एक बात एकदम स्पष्ट होती है कि सभीप्रकार के व्यवहारनय अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं और एकमात्र शुद्धनय ही भूतार्थ है, सत्यार्थ है। ___ अब यहाँ एक जिज्ञासा सहज ही उत्पन्न होती है कि जिन्हें यहाँ अभूतार्थ कहा जा रहा है, वे व्यवहारनय कितने प्रकार के हैं, कौनकौन हैं; शुद्धनय क्या है? इन सबका स्वरूप जाने बिना समयसार को समझ पाना संभव नहीं लगता, क्योंकि समयसार में इन नयों का प्रयोग बार-बार आता है । वस्तुत: बात तो यह है कि नयों को समझे बिना जिनागम के किसी भी शास्त्र का मर्म समझ पाना संभव नहीं है; क्योंकि समस्त जिनागम नयों की भाषा में ही निबद्ध है; तथापि समयसार को समझने के लिए कम से कम अध्यात्मनयों का स्वरूप समझना तो अत्यन्त आवश्यक नयों के स्वरूप को विस्तार से जानने के लिए 'परमभावप्रकाशक नयचक्र'* का स्वाध्याय किया जाना चाहिए; क्योंकि उसमें सभी प्रकार के नयों का आगम के आलोक में विस्तार से निरूपण है। अध्यात्मनयों के संदर्भ में भी उसमें सर्वांग निरूपण है। प्रश्न - उसका स्वाध्याय तो जिज्ञासु पाठक करेंगे ही, पर अध्यात्मनयों की सामान्य जानकारी तो यहाँ भी दी जानी चाहिए? उत्तर -जो नय आत्मा के स्वरूप को समझने-समझाने में ही काम आते हैं, उन्हें अध्यात्मनय कहते हैं। * परमभावप्रकाशक नयचक्र : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल; पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन अध्यात्मनय दो प्रकार के होते हैं (२) निश्चयनय । व्यवहारनय भी दो प्रकार का होता है और (२) सद्भूतव्यवहारनय । - 1 110 (१) व्यवहारनय और (१) असद्भूतव्यवहारनय अद्भूत और सद्भूत व्यवहारनय भी उपचरित और अनुपचरित के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। इसप्रकार कुल मिलाकर व्यवहारनय चार प्रकार का हो गया (१) उपचरित - असद्भूतव्यवहारनय (२) अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय (३) उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय (४) अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय निश्चयनय भी दो प्रकार का होता है (१) अशुद्धनिश्चयनय और (२) शुद्धनिश्चयनय । शुद्धनिश्चयनय तीनप्रकार का होता है - (१) एकदेशशुद्धनिश्चयनय (२) शुद्धनिश्चयनय या साक्षात् शुद्धनिश्चयनय और (३) परमशुद्धनिश्चयनय । - इसप्रकार कुल मिलाकर निश्चयनय भी चार प्रकार का हो गया । . ये चार प्रकार के व्यवहार और चार प्रकार के निश्चय - कुल मिलाकर आठ नय अध्यात्मनय कहे जाते हैं । जो नय संयोग का ज्ञान कराये, उसे असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं । शरीर, स्त्री- पुत्रादि, मकानादि को अपना कहना, आत्मा को उनका कर्ता - भोक्ता - ज्ञाता कहना इसी नय का काम है । स्त्री- पुत्रादि, मकानादि तथा ग्राम-नगरादि दूरस्थ परपदार्थों को आत्मा को उनका कर्ता-भोक्ता - ज्ञाता कहना अपना कहना, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 गाथा ११ उपचरित असद्व्यवहारनय है और आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप से रहनेवाले शरीर को अथवा आत्मा और शरीर के मिले हुए रूप को आत्मा कहना, आत्मा का कहना, आत्मा को उसका कर्ता-भोक्ता-ज्ञाता कहना अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। अभेद-अखण्ड आत्मा को गुणों और पर्यायों के भेद करके समझना, समझाना, कहना, सद्भूतव्यवहारनय का कार्य है। __ अल्पविकसित एवं विकारी पर्यायों को आत्मा का कहना, उनका कर्ता-भोक्ता-ज्ञाता आत्मा को कहना उपचरित -सद्भूतव्यवहारनय का कथन है और अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र के भेद करना तथा पूर्ण विकसित निर्मलपर्यायों को आत्मा का कहना, उनका कर्ताभोक्ता-ज्ञाता आत्मा को कहना अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का कार्य है। रागादि विकारी भावों से आत्मा को अभेद बताना अशुद्धनिश्चयनय है। आत्मा को मिथ्यादृष्टि कहना इसी नय का काम है। एक देशशुद्धपर्याय से आत्मा को अभेद बताना एकदेशशुद्धनिश्चयनय है। आत्मा को सम्यग्दृष्टि, देशसंयमी कहना इसी नय का कथन है। __ पूर्णशुद्धपर्याय से आत्मा को अभेद बताना शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय है । आत्मा को केवलज्ञानी कहना, सिद्ध कहना इसी नय का कथन है। ___ आत्मा को सम्पूर्ण शुद्धाशुद्धपर्यायों से रहित, गुणभेद से भिन्न, अभेद-अखण्ड-नित्य जानना-कहना परमशुद्धनिश्चयनय है । त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव इसी परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है। परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत यह ज्ञायकभाव ही दृष्टि का विषय है और इसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 112 इस गाथा में जो शुद्धनय शब्द का प्रयोग है, वह परमशुद्धनिश्चयनय के अर्थ में ही है। यहाँ एकमात्र उसे ही भूतार्थ कहा गया है, शेष निश्चयनय भी परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही हो जाते हैं; अत: किसी अपेक्षा वे भी अभूतार्थ हो जाते हैं; परन्तु परमशुद्धनिश्चयनय सदा ही भूतार्थ रहता है। जैसा कि छठवीं गाथा के भावार्थ में छाबड़ाजी ने लिखा है कि 'अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्धद्रव्य की दृष्टि में पर्यायार्थिक ही है; इसलिए व्यवहार ही है - ऐसा आशय समझना चाहिए।' गाथा में स्पष्टरूप से कहा गया है कि जो जीव भूतार्थ का आश्रय करता है, वह जीव सम्यग्दृष्टि होता है। अत: यह सुनिश्चित ही है कि जिस नय की विषयभूत वस्तु में अपनापन स्थापित करने से सम्यग्दर्शन होता है, वही नय भूतार्थ है, सत्यार्थ है। उक्त आठ नयों में एक परमशुद्धनिश्चयनय ही ऐसा है, जिसके विषयभूत आत्मद्रव्य में अपनापन स्थापित होने से सम्यग्दर्शन होता है; अतः वह ही वास्तविक शुद्धनय है और वही भूतार्थ है; शेष सभी नय अभूतार्थ हैं। प्रश्न - उक्त व्याख्या के अनुसार तो निश्चयनय के आरंभिक तीन भेद भी अभूतार्थ हो गये। तो क्या अशुद्धनिश्चयनय, एकदेशशुद्धनिश्चयनय एवं साक्षात्शुद्धनिश्चयनय भी अभूतार्थ हैं ? उत्तर - 'शुद्धनय' शब्द के प्रयोग से यह तो सुनिश्चित ही है कि उसमें . अशुद्धनिश्चयनय को शामिल करना अभीष्ट नहीं है। शुद्धनिश्चयनय के संदर्भ में आचार्य जयसेन का वह कथन द्रष्टव्य है, जिसमें वे आचार्य अमृतचन्द्रकृत अर्थ को स्वीकार करते हुए इस गाथा का एक और भी अर्थ करते हैं, जो इसप्रकार है - ___ "द्वितीय व्याख्यान से व्यवहारनय भी भूतार्थ और अभूतार्थ इन दो भेदोंरूप कहा गया है। न केवल व्यवहारनय ही भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है, अपितु शुद्धनिश्चयनय भी भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है।" Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 गाथा ११ उक्त कथन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि शुद्धनिश्चयनय के भी अनेक भेद होते हैं तथा उनमें कुछ भूतार्थ और कुछ अभूतार्थ होते हैं। शुद्धनिश्चयनय के जिस भेद का विषय पर और पर्याय से रहित, गुणभेद से भिन्न, अभेद, नित्य, एक भगवान आत्मा बनता है; वह ही भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। । वैसे तो प्रत्येक नय अपने प्रयोजन की दृष्टि से भूतार्थ होता है अर्थात् अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की अपेक्षा भूतार्थ है, पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एकमात्र शुद्धनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के आश्रय से ही होती है; अतः इस दृष्टि से एकमात्र वही भूतार्थ है । प्रश्न - आचार्य जयसेन के उक्त कथन से तो व्यवहार भी भूतार्थ हो गया? उत्तर - व्यवहार भी कथंचित् भूतार्थ है। यह बात चौदहवीं गाथा में पाँच उदाहरणों के माध्यम से पाँच बोलों में की गई है। जिसकी विस्तृत चर्चा यथास्थान होगी ही। इस गाथा के भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी यह बात स्पष्ट कर दी है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि प्राणियों को व्यवहार का पक्ष तो अनादि से ही है और इसका उपदेश भी बहुत दिया जाता है, जहाँ देखो इसी की चर्चा होती है। जिनवाणी में भी यथास्थान इसकी पर्याप्त चर्चा प्राप्त होती है। इतना सब होने पर भी अन्तत: उसका फल तो संसार ही है, उसके आश्रय से मुक्ति प्राप्त होना संभव नहीं है। शुद्धनय का पक्ष अनादि से अभीतक आया नहीं है और उसका उपदेश भी विरल है। अतः उसी की मुख्यता से निरूपण है और यहाँ उसी का आश्रय लेने की प्रेरणा दी गई है, उसी को भूतार्थ कहा है। प्रश्न - "निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः॥५॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है और प्राय: सम्पूर्ण संसार भूतार्थ के ज्ञान से विमुख ही है।" पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के उक्त कथन में आचार्य अमृतचन्द्र ने निश्चयनय को भूतार्थ कहा है और समयसार की ग्यारहवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धनय को भूतार्थ कहा है। निश्चयनय में तो निश्चयनय के चारों ही भेद गर्भित होते हैं, पर शुद्धनय में अशुद्धनिश्चयनय नहीं आता । इसप्रकार इन दोनों कथनों में अन्तर दिखाई देता है । अत: प्रश्न यह है कि यहाँ किस नय को ग्रहण किया जाय ? उत्तर - दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही स्थानों पर परमशुद्धनिश्चयनय ही ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि सम्पूर्ण संसार परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव से ही विमुख है और उसी के आश्रय से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं 114 - "पंचाध्यायी में तो ऐसा कहा है कि जो निश्चयनय के दो भेद करते हैं, वे सर्वज्ञ की आज्ञा के बाहर हैं । वही बात यहाँ कहते हैं कि त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ध्रुव - अखण्ड - एकरूप भूतार्थ सत्वस्तु या उसको जाननेवाला ज्ञानांश ही शुद्धनय है और वह एक ही है, उसके दो भेद नहीं हैं। पर्यायसहित या रागसहित आत्मा को जानना सो निश्चय - ऐसी बात यहाँ नहीं है । यहाँ त्रिकाली ध्रुव एकरूप शुद्ध ज्ञायकरूप ही सत्यार्थ है और उसे जाननेवाला शुद्धनय भी एक ही है, उसके दो भेद नही है । " - प्रश्न मूल गाथा में व्यवहारनय को अभूतार्थ एवं शुद्धनय को भूतार्थ कहा गया है; परन्तु अशुद्धनिश्चयनय को न भूतार्थ कहा है और न ही अभूतार्थ ही कहा है; उसके बारे में तो आचार्यदेव मौन हैं। फिर १. प्रवचनरत्नाकार (गुजराती), भाग १, पृष्ठ १३९ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 गाथा ११ भी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में निश्चयनय को भूतार्थ कहा है। चूंकि अशुद्धनिश्चयनय निश्चयनय का ही एक भेद है; अत: उसे भूतार्थ कहना ही ठीक लगता है। उत्तर – नहीं, यह ठीक नहीं है; क्योंकि मूल गाथा में जब शुद्धनय शब्द है तो उसमें अशुद्धनय को कैसे शामिल किया जा सकता है। दूसरे बृहद्रव्यसंग्रह की गाथा ४८ की टीका में आता है कि 'स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव - और वह अशुद्धनिश्चयनय शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही है।' उक्त कथन के आधार पर अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार होने से अभूतार्थ ही है, भूतार्थ नहीं। परमशुद्धनिश्चयनय को छोड़कर निश्चयनय के शेष भेद किसप्रकार व्यवहारपने को प्राप्त होकर अभूतार्थ हो जाते हैं - इस पर विस्तार से विचार करते हुए परमभावप्रकाशक नयचक्र में जो लिखा गया है, वह इसप्रकार है - "बात यहाँ तक ही समाप्त नहीं होती; क्योंकि जब शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार हो जाता है, तो शुद्धनिश्चय के प्रभेदों में भी ऐसा क्यों नहीं हो ?' अर्थात् होता ही है। परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा साक्षात्शुद्धनिश्चयनय एवं एकदेशसुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही कहे जाते हैं। 'न तथा' शब्द से सबका निषेध करनेवाला परमशुद्धनिश्चयनय कभी भी किसी भी नय द्वारा निषिद्ध नहीं होता, अत: वह कभी भी व्यवहारपने को प्राप्त नहीं होता; किन्तु वह सबका निषेध करके स्वयं निवृत्त हो जाता है और निर्विकल्प आत्मानुभूति का उदय होता है। वास्तव में यह आत्मानुभूति की प्राप्ति ही इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का फल है।" १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८२ २. वही, पृष्ठ ९७ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 116 उक्त मंथन से यह स्पष्ट है कि दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का प्रतिपादक शुद्धनय (परमशुद्धनिश्चयनय) ही एक भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी नय व्यवहार होने से अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । शुद्धनय अथवा शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है; अतः एकमात्र वही उपादेय है। धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। पर और विकारी-अविकारी पर्यायों से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी चैतन्य ध्रुवतत्त्व ही आश्रय करने योग्य परमपदार्थ है। वह स्वयं धर्मस्वरूप है। उसके आश्रय से ही पर्याय में धर्म प्रकट होता है। अतः सुखाभिलाषी को, आत्मार्थी को, मुमुक्षु को अपने को पहिचानना चाहिए, अपने में जम जाना चाहिए, रम जाना चाहिए। सुख पाने के लिए अन्यत्र भटकना आवश्यक नहीं। अपना सुख अपने में है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अतः सुखार्थी का परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा से झाँकना निरर्थक है। तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भण्डार है, सुखस्वरूप है, सुख ही है। सुख को क्या चाहना? चाह ही दुःख है। पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख है ही नहीं। चक्रवर्ती की सम्पदा पाकर भी यह जीव सुखी नहीं हो पाया। ज्ञानी जीवों की दृष्टि में चक्रवर्ती की सम्पत्ति की कोई कीमत नहीं है, वे उसे जीर्ण तृण के समान त्याग देते हैं और अन्तर में समा जाते हैं। अन्तर में जो अनन्त आनन्दमय महिमावन्त पदार्थ विद्यमान है, उसके सामने बाह्य विभूति की कोई महिमा नहीं। धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। अत: आत्मार्थी को धर्म को शब्दों में रटने के बजाय जीवन में उतारना चाहिए, धर्ममय हो जाना चाहिए। ___- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ३८ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १२ अब यह प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि जब शुद्धनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है, व्यवहार के आश्रय से नहीं; इसलिए प्रत्यगात्मदर्शियों के लिए व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है तो फिर इस व्यवहारनय का उपदेश ही क्यों दिया जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में बारहवीं गाथा में कहा गया है कि व्यवहारनय भी किन्हीं-किन्हीं को कभी-कभी प्रयोजनवान होता है; इसलिए यह सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है और इसलिए जिनवाणी में इसका उपदेश दिया गया है। यह व्यवहारनय किनको और कब प्रयोजनवान है ? - यह बताना ही बारहवीं गाथा का मूल प्रतिपाद्य है। मूल गाथा इसप्रकार है - सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥१२॥ ( हरिगीत ) परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं । जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ॥१२॥ जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान हो गये हैं, उन्हें शुद्धात्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं, श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन " जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान वस्तु के उत्कृष्टभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट- मध्यम भावों का अनुभव नहीं होता। इसलिए उन्हें तो शुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं अचलित - अखण्ड एकस्वभावरूप भाव का प्रकाशक शुद्धनय ही सबसे ऊपर की एक प्रतिवर्णिका समान होने से जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है; परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट- मध्यमभाव का अनुभव करते हैं; उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्टभाव का अनुभव नहीं होता है। इसलिए उन्हें अशुद्धद्रव्य का प्रतिपादक एवं भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भावों का प्रकाशक व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमालाओं के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है; क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल की ऐसी ही व्यवस्था है । कहा भी है जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जन तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥ ―― 118 यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों में से एक को भी मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तीर्थ का एवं निश्चयनय के बिना तत्त्व का नाश हो जावेगा । " उक्त सन्दर्भ में परमभावप्रकाशक नयचक्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है "इसमें कहा गया है कि व्यवहार के बिना तीर्थ का लोप हो जावेगा और निश्चय के बिना तत्व का लोप हो जावेगा अर्थात् तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी। यहाँ 'तीर्थ' का अर्थ उपदेश और 'तत्त्व' का अर्थ शुद्धात्मा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 गाथा १२ का अनुभव है। उपदेश की प्रक्रिया प्रतिपादन द्वारा सम्पन्न होती है, तथा प्रतिपादन करना व्यवहार का काम है; अत: व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ मानने से तीर्थ का लोप हो जावेगा - ऐसा कहा है। शुद्धात्मा का अनुभव निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में एकाग्र होने पर होता है; अतः निश्चयनय को छोड़ने पर तत्त्व की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं होगा - ऐसा कहा है। द्वादशांग जिनवाणी में व्यवहार द्वारा जो भी उपदेश दिया गया है, उसका सार एकमात्र आत्मा का अनुभव ही है। आत्मानुभूति ही समस्त जिनशासन का सार है। इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि उपदेश की प्रक्रिया में व्यवहारनय प्रधान है और अनुभव की प्रक्रिया में निश्चयनय प्रधान है। आत्मा के अनुभव में व्यवहारनय स्वत: गौण हो गया है। इसलिए आत्मानुभव के अभिलाषी आत्मार्थी निश्चयनय के समान ही व्यवहार को उपादेय कैसे मान सकते हैं ? व्यवहार की जो उपादेयता है, वे उसे भी अच्छी तरह जानते हैं। ज्ञानीजन जब व्यवहारनय को हेय या असत्यार्थ कहते हैं तो उसे गौण करके ही असत्यार्थ कहते हैं, अभाव करके नहीं - यह बात ध्यान में रखने योग्य है। गाथा की प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि यदि तुम जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार-निश्चय को मत छोड़ो। प्रवर्ताना' शब्द के दो भाव होते हैं। एक तो तीर्थ-प्रवर्तन और दूसरा आत्मानुभव। 'तीर्थप्रवर्तन' का अर्थ जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है । अत: यदि जिनधर्म की उपदेश-प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान करना है तो वह व्यवहार द्वारा ही संभव होगा, अनिर्वचनीय या 'न तथा' शब्द द्वारा वक्तव्य निश्चयनय से नहीं; किन्तु जिनमत का वास्तविक प्रवर्तन तो आत्मानुभवन ही है; अत: आत्मानुभूतिरूप जिनमत का प्रवर्तन तो निश्चयनय के विषयभूत अर्थ में मग्न होने पर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 120 ही संभव है। यहाँ उपदेश के विकल्परूप व्यवहारनय को कहाँ स्थान प्राप्त हो सकता है? __ तीर्थंकर भगवान महावीर का तीर्थ आज भी प्रवर्तित है; क्योंकि उनकी वाणी में निरूपित शुद्धात्मवस्तु का अनुभव ज्ञानीजन आज भी करते हैं - यह व्यवहार और निश्चय की अद्भुत संधि है। अनुभव की प्रेरणा की देशनारूप व्यवहार और अनुभवरूप निश्चय की विद्यमानता व्यवहार-निश्चय को नहीं छोड़ने की प्रक्रिया है, जिसका आदेश उक्त गाथा में दिया गया है। दूसरे प्रकार से विचार करें तो मोक्षमार्ग की पर्याय को तीर्थ कहा जाता है तथा जिस त्रिकाली ध्रुव निज शुद्धात्मवस्तु के आश्रय से मोक्षमार्ग की पर्याय प्रगट होती है, उसे तत्त्व कहते हैं; अत: व्यवहार को नहीं मानने से मोक्षमार्गरूप तीर्थ और निश्चयनय को नहीं मानने से निज शुद्धात्मतत्त्व के लोप का प्रसंग उपस्थित होगा।" इस संदर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के विचार भी द्रष्टव्य हैं - __ "जिनमत अर्थात् वीतराग अभिप्राय का प्रवर्तन कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो। 'व्यवहार नहीं है' - ऐसा मत कहो । व्यवहार है, किन्तु गाथा ११ में जो असत्य कहा है, वह त्रिकालध्रुव निश्चय की विवक्षा में गौण करके असत्य कहा है; बाकी व्यवहार है, मोक्ष का मार्ग है । व्यवहारनय न मानो तो तीर्थ का नाश हो जायगा। चौथा, पाँचवाँ, छठवाँ आदि चौदह गुणस्थान जो व्यवहार के विषय हैं, वे हैं - मोक्ष का उपाय जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र हैं, वे व्यवहार हैं । चौदह गुणस्थान द्रव्य में नहीं हैं - यह तो ठीक, किन्तु पर्याय में भी नहीं है - ऐसा कहोगे तो तीर्थ का ही नाश हो जायेगा तथा तीर्थ का फल जो मोक्ष और सिद्धपद है, उसका भी १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 गाथा १२ अभाव हो जायेगा। ऐसा होने पर जीव के संसारी और सिद्ध - ऐसे जो दो विभाग पड़ते हैं, वह व्यवहार भी नहीं रहेगा । ___ भाई ! बहुत गंभीर अर्थ है। भाषा तो देखो। यहाँ मोक्षमार्ग की पर्याय को 'तीर्थ' कहा और वस्तु को 'तत्त्व' कहा है। त्रिकाली ध्रुव चैतन्यघन वस्तु निश्चय है । यदि उस वस्तु को नहीं मानेंगे तो तत्त्व का नाश हो जाएगा और तत्त्व के अभाव में, तत्त्व के आश्रय से उत्पन्न हुआ जो मोक्षमार्गरूप तीर्थ, वह भी नहीं रहेगा। इस निश्चयरूप वस्तु को नहीं मानने से तत्त्व का और तीर्थ का दोनों का नाश हो जायेगा; इसलिए वस्तुस्वरूप जैसा है, वैसा यथार्थ मानना। जबतक पूर्णता नहीं हुई, तबतक निश्चय और व्यवहार दोनों होते हैं । पूर्णता हो गई अर्थात् स्वयं में पूर्ण स्थिर हो गया, वहाँ सभी प्रयोजन सिद्ध हो गये। उसमें तीर्थ व तीर्थफल सभी कुछ आ गया ।" प्रश्न -'परमभाव में स्थित पुरुषों को शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरमभाव में स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।' - गाथा में समागत उक्त कथन में मूल समस्या यह है कि गुणस्थान परिपाटी के अनुसार किन्हें परमभाव में स्थित माना जाय और किन्हें अपरमभाव में स्थित माना जाय ? उत्तर – यद्यपि आचार्य अमृचन्द्र ने अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण एवं प्रथम-द्वितीय पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण का उदाहरण देकर बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है; तथापि गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न होने से चित्त में थोड़ी-बहुत अस्पष्टता बनी ही रहती है । ___ तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन भी 'परमभाव' शब्द की व्याख्या में तो गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख नहीं करते, परन्तु अपरमभाव' की व्याख्या में जो कुछ लिखते हैं, वह मूलतः इसप्रकार है : १. प्रवचनरत्नाकर भाग १, पृष्ठ १६२-६३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 122 ___ "के षां जे ये पुरुषाः दु पुनः अपरमे अशुद्धे असंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा ठिदा स्थिताः । कस्मिन् स्थिताः ? भावे जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ :।" तात्पर्यवृत्ति के उक्तांश का अर्थ वीरसागरजी महाराज इसप्रकार करते हैं - "जो पुरुष अपरमभाव में स्थित हैं, अर्थात् चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की अपेक्षा से जो सरागसम्यग्दर्शन-लक्षण शुभोपयोग में स्थित हैं अथवा षष्ठ-सप्तम गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-अप्रमत्त संयत (सकलसंयम) की अपेक्षा भेदरत्नत्रयलक्षण शुभोपयोग में - जीवपदार्थ में स्थित हैं, उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनवान है।'' उक्त कथन से स्पष्ट है कि शुभाशुभभावरूप अशुद्धभाव अपरमभाव है और शुद्धोपयोगरूप शुद्धभाव परमभाव है। यह भी स्पष्ट है कि चतुर्थ गुणस्थान से सिद्ध अवस्था तक परमभाव और अपरमभाव को यथास्थान यथायोग्य घटित किया जा सकता है। उक्त कथन से तो यही प्रतीत होता है कि चतुर्थ गुणस्थान के पहले निश्चय और व्यवहारनय नहीं होते।निश्चय और व्यवहारनय सम्यग्ज्ञान के अंश हैं; अतः उनका यथार्थरूप में होना सम्यग्दृष्टि के ही संभव है। तथापि इस संदर्भ में इसी गाथा के भावार्थ में व्यक्त जयचन्दजी छाबड़ा के विचार भी द्रष्टव्य हैं - __ "जहाँतक यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान की प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई हो, वहाँतक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है - ऐसे जिनवचनों को सुनना, धारण करना तथा जिनवचनों को कहनेवाले श्रीजिनगुरु की भक्ति, जिनबिम्ब के दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त १. समयसार : श्रीसमयसार प्रकाशन समिति, शुक्रवार पेठ, सोलपुर-२, पृष्ठ १७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 गाथा १२ होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें श्रद्धान-ज्ञान तो हुआ है किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई - उन्हें पूर्वकथित कार्य, परद्रव्य का आलम्बन छोड़नेरूप अणुव्रत-महाव्रत का ग्रहण, समिति, गुप्ति और पंचपरमेष्ठी के ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसीप्रकार प्रवर्तन करनेवालों की संगति एवम् विशेष जानने के लिए शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरों को प्रवर्तन कराना - ऐसे व्यवहारनय का उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान है । ___ व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहार को ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति तो हुई नहीं है, इससे उल्टा अशुभोपयोग में आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा । __इसलिए शुद्धनय का विषय जो साक्षात् शुद्ध आत्मा है, उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहार भी प्रयोजनवान है - ऐसा स्याद्वादमत में श्रीगुरुओं का उपदेश है ।" उक्त सन्दर्भ में पण्डितप्रवर टोडरमलजी के विचार द्रष्टव्य हैं - "निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेषों से रहित अभेद वस्तु मात्र ही है और व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेषों से सहित अनेक प्रकार है । वहाँ जो जीव सर्वोत्कृष्ट, अभेद, एक स्वभाव को अनुभव करते हैं, उनको तो शुद्ध उपदेशरूप जो शुद्ध निश्चयनय है, वही कार्यकारी है; किन्तु जो स्वानुभव दशा को प्राप्त नहीं हुए हैं अथवा स्वानुभव दशा से छूटकर सविकल्प दशा में आ गये हैं - इसप्रकार अनुत्कृष्टदशा को प्राप्त हैं, अशुद्धस्वभाव में स्थित हैं; उनके लिए व्यवहारनय प्रयोजनवान है।" १. सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पीठिका, पृष्ठ ९-१० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 समयसार अनुशीलन उक्त कथनों में अत्यन्त स्पष्टरूप से उल्लेख है कि जबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई है, तबतक व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है । तथा जिन्हें दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति तो हो गई है; पर साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई है, उन्हें भी व्यवहारमार्ग में प्रवर्तन करनाकराना प्रयोजनवान है। इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शन के पूर्व में भी व्यवहारनय प्रयोजनवान है । उक्त सम्पूर्ण कथन का गहराई से अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमभाव एवं अपरमभाव को निम्नांकित तीन प्रकार से घटित कर सकते हैं - १. आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष श्रद्धा की अपेक्षा परमभाव में स्थित हैं। अत: उन्हें देशनालब्धिरूप व्यवहार का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रहा; क्योंकि समझने योग्य त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को वे समझ चुके हैं, अनुभव भी कर चुके हैं ।। ___ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अपरमभाव में स्थित हैं। वे आत्मा को नहीं समझते हैं । अत: उन्हें आत्मा का स्वरूप समझानेवाला व्यवहारनय प्रयोजनवान है । आठवीं गाथा में म्लेच्छ के उदाहरण से इस बात को भली-भाँति स्पष्ट किया गया है। वहाँ जिसने 'आत्मा' शब्द भी नहीं सुना है - ऐसा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि शिष्य लिया है। उसे समझाने के लिए ही व्यवहार के उपदेश की उपयोगिता बताई है । निश्चय-व्यवहार संबंधी यह प्रकरण भी वहीं से आरंभ हुआ है, जो यहाँ बारहवीं गाथा में आकर समाप्त हो रहा है । अत: यहाँ मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को अपरमभाव में लेना अनुचित प्रतीत नहीं होता । मुख्यरूप से समझाना तो अज्ञानी को ही है और व्यवहार की उपयोगिता भी समझने-समझाने में ही अधिक है। आखिर व्यवहार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२ निश्चय का प्रतिपादक ही तो है; अतः निश्चय को नहीं जाननेवाले को ही व्यवहारमार्ग से समझना - समझाना प्रयोजनवान है । 125 २. शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत - सम्यग्दृष्टि, पंचमगुणस्थानवर्ती अणुव्रती एवं षष्ठगुणस्थानवर्ती महाव्रती मुनिराज शुभोपयोग के काल में अपरमभाव में स्थित हैं और अनुभव के काल में तथा सप्तमादि-गुणस्थानों में स्थित शुद्धोपयोगी परमभाव में स्थित हैं। ३. छद्मस्थ और वीतरागी - सर्वज्ञ की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान तक के सभी ज्ञानी - अज्ञानी छद्मस्थ अपरमभाव में स्थित हैं और तेरहवें गुणस्थान से लेकर आगे के सभी वीतरागी - सर्वज्ञ परमभाव में स्थित हैं; क्योंकि अन्तिमपाक से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान शुद्धता तो उन्हीं पर घटित होती है । प्रश्न – शुद्धोपयोगियों को शुद्धनय का उपदेश देने की क्या आवश्यकता है, अनुभव के काल में वे उपदेश को ग्रहण भी कैसे करेंगे? तथा सम्यग्दृष्टियों को व्यवहार से समझाने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि वे वस्तुतत्त्व को समझकर ही सम्यग्दृष्टि हुए हैं । अतः प्रश्न यह है कि शुद्धोपयोगियों को शुद्धनय और सम्यग्दृष्टियों को व्यवहारनय किसप्रकार प्रयोजनवान होंगे ? उत्तर – यहाँ निश्चय - व्यवहार के उपदेश देने की विवक्षा नहीं है। यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि शुद्धि और अशुद्धि की कहाँकहाँ क्या-क्या स्थिति रहती है। किस भूमिका में कितनी शुद्धता रहती है और कितना राग रहता है - यहाँ तो बस यही बताना अभीष्ट है । जिस भूमिका में जितना राग- व्यवहार रहता है, उस भूमिका में वह राग- व्यवहार उस काल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है । इसीप्रकार जिस भूमिका में जितनी शुद्धि विद्यमान रहती है, वह भी मात्र जानने में आती हुई प्रयोजनवान है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 126 उक्त संदर्भ में आत्मख्याति में समागत निम्नांकित कथन विशेष ध्यान देने योग्य है - "शुद्धनयः ... परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । .व्यवहारनयो .. परिज्ञायमानः तदात्वे प्रयोजनवान् । शुद्धनय जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है और व्यवहारनय उसकाल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है।" उक्त कथन में शुद्धनय को जानने में आता हुआ प्रयोजनवान कहा है और व्यवहारनय को उसकाल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान कहा है। इसमें उपदेश देने और ग्रहण करने की बात ही कहाँ आती है? उक्त दोनों नयों के विषय तो यथास्थान जाने हुए ही प्रयोजनवान हैं। __उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी ने जो स्पष्टीकरण दिया है, वह इसप्रकार ___ "जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए हैं तथा पूर्णज्ञानचारित्रवान हो गये हैं, उन्हें तो शुद्ध आत्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है । देखो, शुद्धनय का आश्रय (शुद्धनय के विषय का आश्रय) तो समकिती को होता है। यहाँ तो शुद्धनय (केवलज्ञान होने पर) पूर्ण हो गया है, उसका आश्रय करने को अब रहा नहीं, इस अपेक्षा से यहाँ बात की है। जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए, अर्थात् जो केवलज्ञान को प्राप्त हुए तथा जिन्होंने चारित्र की सम्पूर्ण स्थिरता को प्राप्त कर लिया, उन्हें तो शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा के आश्रय करने का प्रयोजन रहा नहीं, उन्हें तो शुद्धनय मात्र जानने योग्य है। अर्थात् इसका फल जो कृतकृत्यपना आया, उसका केवलज्ञान में ज्ञान हुआ। पूर्ण निर्विकल्पदशा जिसे हो गई, वह उसे मात्र जानता है। अधूरी दशा में होनेवाला राग उसे नहीं है। इसलिए व्यवहार भी उसके नहीं रहता।' १. प्रवचनरलाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ १५८ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 गाथा १२ ___जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं अर्थात् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं; उन्हें व्यवहार द्वारा भी उपदेश करने योग्य है। सम्यग्दर्शन हुआ है, किन्तु सम्यग्ज्ञान-चारित्र पूर्ण नहीं हुए। सर्वज्ञता की प्रतीति हुई है, किन्तु सर्वज्ञपद प्रकट नहीं हुआ है। - ऐसी साधक दशा में जो स्थित हैं, वे 'व्यवहारदेशिताः' अर्थात् व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं । शब्द तो 'व्यवहारदेशिताः' है; किन्तु इसका वाच्यार्थ तो यह है कि उस काल में जो कुछ व्यवहार है, वह जानने योग्य है। प्रतिसमय साधक को शुद्धता बढ़ती है, अशुद्धता घटती है । जिस समय जितनी शुद्धताअशुद्धता है, वह मात्र जानने के लिए प्रयोजनवान है ।" शुद्धनय जाना हुआ प्रयोजनवान है और व्यवहारनय उसकाल जाना हुआ प्रयोजनवान है। शुद्धनय का विषयभूत आत्मा तो सदा ही जानने योग्य है, पर वह परमभाव को प्राप्त पुरुषों को ही जानने में आता है। व्यवहारनय के विषयभूत अणुव्रत-महाव्रतादि एवं भक्ति-स्वाध्याय आदि के शुभभाव भूमिकानुसार जिस-जिस समय जो-जो आते हैं; वे सब उस-उस समय जाने हुए प्रयोजनवान हैं । तात्पर्य यह है कि वे करने योग्य हैं; उपादेय हैं' - ऐसी बात नहीं है; अपितु वे निचली भूमिका में आये बिना नहीं रहते; अतः उन्हें वीतरागभाव से अपने ज्ञान के ज्ञेय बना लेना चाहिए । न तो उनमें उपादेयबुद्धि रखनी चाहिए और न उनके आजाने से आकुल-व्याकुल ही होना चाहिए; बल्कि ऐसा जानना चाहिए की चौथे-पाँचवें एवं छठे गुणस्थान की भूमिका में ऐसे भावों का होना सहजवृत्ति ही है। आगे भी जहाँतक छद्मस्थ अवस्था है, वहाँतक अबुद्धिपूर्वक यथायोग्य रागभाव विद्यमान रहते हैं, पर वे भी मात्र उसकाल जाने हुए प्रयोजनवान हैं। वे करने योग्य नहीं हैं, पर होते अवश्य हैं। अत: उन्हें निर्विकारभाव से जानकर सहजभाव धारण करना ही श्रेष्ठ है । २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ १५८-५९ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 128 इसप्रकार इस बारहवीं गाथा में यह कहा गया है कि व्यवहारनय अभूतार्थ है, असत्यार्थ है; तथापि वह भी कभी-कभी किसी-किसी को प्रयोजनवान है । 'निश्चय-व्यवहारनयों की उपयोगिता पर समुचित प्रकाश डालने के उपरान्त अब स्याद्वादांकित जिनवचनों में रमण करनेवाले सत्पुरुष ही समयसार को प्राप्त करते हैं'- इसप्रकार के भावों से भरा हुआ मंगल कलश स्थापित करते हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की विषयवस्तु को लेकर अध्यात्मरस से सरावोर २७८ छन्द लिखे हैं, जो 'आत्मख्याति' नामक संस्कृत टीका के ही अभिन्न अंग हैं । आत्मख्याति टीकारूपी स्वर्णहार में वे मुक्तामणियों की भाँति यथास्थान जड़े हुए हैं। इसप्रकार इस आत्मख्याति टीका में विविधवर्णी छन्दों और प्राञ्जल गद्य का मणिकांचन संयोग हो रहा है। विषयवस्तु के अनुसार विविधवर्णी छन्दों में रचित और विभिन्न अलंकारों से अलंकृत ये छन्द 'कलश' नाम से जाने जाते हैं। आत्मख्याति से सुसज्जित समयसाररूपी मन्दिर के गगनचुम्बी शिखर पर आरोहित ये कलश अपने आप में अद्भुत हैं, अजोड़ हैं। आत्मख्याति में तो वे तिल में तेल की भाँति समाहित हैं ही, वे पृथक्प से स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में भी प्रतिष्ठित हो चुके हैं। आत्मख्याति संस्कृत टीका की भाषाटीका लिखनेवालों ने तो उनका अनुवाद किया ही है, किन्तु उनपर स्वतंत्ररूप से भी टीकाएँ लिखी गई हैं; जिनमें आचार्य शुभचन्द्रकृत 'परमाध्यात्मतरंगिणी' नामक संस्कृत टीका, कलशटीका नाम से प्रसिद्ध पाण्डे राजमलजी बालबोध नाम की हिन्दी टीका एवं 'अध्यात्म-अमृतकलश' नाम से प्रसिद्ध पण्डित जगन्मोहनलालजी की 'स्वात्मप्रबोधनी' नाम की हिन्दी टीका उल्लेखनीय हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 कलश ४ इनके अतिरिक्त पाण्डे राजमलजी की बालबोध टीका को आधार बना कर पण्डित बनारसीदासजी ने इन कलशों की विषयवस्तु को हिन्दी के विविध छन्दों में सुसज्जित कर 'नाटक समयसार' के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपने-आप में बेजोड़ कृति है और विगत चार शताब्दियों से अध्यात्मप्रेमी समाज का कण्ठहार बनी हुई है। आरंभ के तीन कलश तो आत्मख्याति के मंगलाचरण एवं ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा आदि के रूप में ही हैं, जिनका अनुशीलन हम आरंभ में ही कर चुके हैं । अब आरंभ की बारह गाथाओं के बाद चार कलश आये हैं । इनमें से एक तो इन बारह गाथाओं के उपसंहाररूप है और तीन कलश आगामी गाथा की उत्थानिका के रूप में हैं। ( मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव॥४॥ ( रोला ) उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक । स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय। स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ॥४॥ जो पुरुष निश्चय और व्यवहार - इन दो नयों के प्रतिपादन में दिखाई देने वाले विरोध को ध्वसं करनेवाले, स्याद्वाद से चिन्हि जिनवचनों में रमण करते हैं; स्वयं पुरुषार्थ से मिथ्यात्व का वमन करनेवाले वे पुरुष कुनय से खण्डित नहीं होनेवाले, परमज्योतिस्वरूप अत्यन्त प्राचीन अनादिकालीन समयसाररूप भगवान आत्मा को तत्काल ही देखते हैं, अर्थात् उसका अनुभव करते हैं। :: Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन उक्त कलश में यह कहा गया है कि जो पुरुष जिनवचनों में रमण करते हैं, वे तत्काल ही आत्मा का अनुभव करते हैं । यहाँ जिनवचनों में रमण करने का अर्थ मात्र जिनवाणी का पठन-पाठन करना ही नहीं है; अपितु जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय के विषयभृत त्रिकालीध्रुव, नित्य, अखण्ड, अभेद, एक निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना, उसे ही निज जानना और उसमें जमना - रमना है; क्योंकि आत्मानुभव करने की यही प्रक्रिया है । 'जिनवचसि रमन्ते' का अर्थ पाण्डे राजमलजी कलशटीका में इसप्रकार करते हैं - शुद्ध जीववस्तु का "दिव्यध्वनि द्वारा कही है उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु, उसमें सावधानपने रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करते हैं । विवरण प्रत्यक्षपने अनुभव करते हैं, उसका नाम रुचि श्रद्धा - प्रतीति है । भावार्थ इसप्रकार है - वचन पुद्गल है, उसकी रुचि करने पर स्वरूप की प्राप्ति नहीं । इसलिए वचन के द्वारा कही जाती है जो कोई उपादेय वस्तु, उसका अनुभव करने पर फल प्राप्ति है । " - 130 - आत्मकल्याण की भावना से जिनवाणी का अत्यन्त रुचिपूर्वक स्वाध्याय करना, पढ़ना-पढ़ाना, लिखना - लिखाना; उसके अर्थ का विचार करना, मंथन करना; परस्पर चर्चा करना, प्रश्नोत्तर करना आदि व्यवहार से जिनवचनों में रमण करना है और जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय की विषयभूत आत्मवस्तु का अनुभव करना निश्चय से जिनवचनों में रमण करना है । व्यवहारजिनवचनों में रमण करना देशनालब्धि का प्रतीक है और निश्चयजिनवचनों में रमण करना करणलब्धि का प्रतीक है। यहाँ जिनवचनों में रमने का फल तत्काल ही आत्मानुभव बताया है; अतः यहाँ निश्चयनय वाला अर्थ लेना ही उपयुक्त है I Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 कलश ४ 'स्वयं वान्तमोहा' - का अर्थ भी कलश टीकाकार ने विशेष किया है, जो विचार करने योग्य है। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है - "सहजपने बमा है मिथ्यात्व - विपरीतपना, ऐसे हैं। भावार्थ इसप्रकार है .. अनन्त संसार जीव के भ्रमते हुए जाता है । वे संसारी जीव एक भव्यराशि है, एक अभव्यराशि है। उसमें अभव्यराशि जीव त्रिकाल ही मोक्ष जाने के अधिकारी नहीं। भव्यजीवों में कितने ही जीव मोक्ष जाने योग्य हैं। उनके मोक्ष पहुँचने का कालपरिमाण है। विवरण - यह जीव इतना काल बीतने पर मोक्ष जायगा - ऐसी नोंध केवलज्ञान में है। वह जीव संसार में भ्रमते-भ्रमते जभी अर्द्धपुद्गलपरावर्तन मात्र रहता है, तभी सम्यक्त्व उपजने योग्य है। इसका नाम काललब्धि कहलाता है। यद्यपि सम्यक्त्वरूप जीवद्रव्य परिणमता है, तथापि काललब्धि के बिना करोड़ उपाय जो किये जाएं तो भी जीव सम्यक्त्वरूप परिणमन योग्य नहीं - ऐसा नियम है। इससे जानना कि सम्यक्त्ववस्तु यलसाध्य नहीं, सहजरूप है।" प्रश्न - एक ओर तो कहते हैं कि जो पुरुष जिनवचनों में रमते हैं, वे तत्काल ही आत्मा को प्राप्त करते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि सम्यक्त्ववस्तु यत्नसाध्य नहीं, सहजरूप है । दोनों में सत्य क्या है? उत्तर - दोनों ही सत्य हैं, मुक्ति के मार्ग में दोनों का ही अद्भुत सुमेल है; क्योंकि जिनवचनों में रमणता भी सहज ही होती है । 'जिनवचसि रमन्ते' और 'स्वयं वान्तमोहा' दोनों ही पद मूल छन्द में एक साथ ही विद्यमान हैं। ___ कलशटीका के उक्त कथन में समागत विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि यह जीव इतना काल बीतने पर मोक्ष में जाएगा - ऐसी नोंध केवलज्ञान में है और काललब्धि के बिना करोड़ उपाय करो तो भी सम्यक्त्व नहीं होगा। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 132 उक्त दोनों ही कथन क्रमबद्धपर्याय को सिद्ध करते हैं । क्रमबद्धपर्याय के संबंध में विस्तार से जानने की भावना हो तो लेखक की अन्य कृति 'क्रमबद्धपर्याय' का अध्ययन किया जाना चाहिए। जिनवचनों की विशेषता बताते हुए उक्त छन्द में कहा गया है कि वे जिनवचन निश्चय-व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों के बीच दिखाई देनेवाले विरोध को मिटाने में समर्थ 'स्याद्' पद से अंकित हैं। निश्चयनय अथवा द्रव्यार्थिकनय से आत्मवस्तु सामान्य, अभेदअखण्ड, नित्य एवं एक है और व्यवहारनय अथवा पर्यायार्थिकनय से विशेष, भेद, अनित्य एवं अनेक है। - इसप्रकार उक्त दोनों नयों में परस्पर विरोध भासित होता है; पर ऐसा विरोध तो एकान्तवादियों के ही हो सकता है, 'स्याद्' पद को स्वीकार करनेवाले अनेकान्तवादियों के नहीं। इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी इसप्रकार करते हैं ( सवैया इकतीसा ) निहचै मैं रूप एक विवहार मैं अनेक, यही नै-विरोध मैं जगत भरमायौ है। जग के विवाद नासिबे कौं जिन आगम है, जामैं स्याद्वादनाम लच्छन सुहायौ है। दरसनमोह जाकौ गयौ है सहजरूप, आगम प्रमान ताके हिरदै मैं आयौ है। अनै सौं अखंडित अनूतन अनंत तेज, ऐसो पद पूरन तुरंत तिनि पायौ है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 कलश ५ 'निश्चयनय से वस्तु एकरूप है और व्यवहारनय से अनेक रूप है' - इसप्रकार दो नयों के कथनों में जो विरोध भासित होता है; उसमें ही सम्पूर्ण जगत भ्रमित हो रहा है। उक्त भ्रम को दूर करने में स्याद्वादवाणी से सम्पन्न जैनागम पूर्णत: समर्थ है। जिस व्यक्ति के दर्शनमोह के उदय में होने वाला मिथ्यात्वभाव चला गया है; उसके हृदय को उक्त स्याद्वादमयी आगम सहज ही स्वीकृत हो जाता है और वह कुनयों से अखण्डित, अनादि-अनंत, पूर्णपद को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। __उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि स्याद्वाद ही एक ऐसा अमोध उपाय है कि जिसके द्वारा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाला वस्तुस्वरूप सहजभाव से स्पष्ट हो जाता है। चौथे कलश को समाप्त करते हुए एवं पाँचवें कलश की भूमिका स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - ___ "इसप्रकार यह बारह गाथाओं की पीठिका है। अब आचार्यदेव शुद्धनय को प्रधान करके निश्चयसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं। अशुद्धनय (व्यवहारनय) की प्रधानता में जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है, जबकि यहाँ उन जीवादितत्त्वों को शुद्धनय के द्वारा जानने से सम्यक्त्व होता है - यह कहते हैं। टीकाकार इसकी सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं। उनमें से प्रथम श्लोक में यह कहते हैं कि व्यवहारनय को कथंचित् प्रयोजनवान कहा, तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है।" ( मालिनी ) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या मिहनिहितपदानां हंत हस्तावलंबः। तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित्॥५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 134 ( रोला ) ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों । ___ उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में । पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को । जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥५॥ यद्यपि खेद है कि जिन्होंने पहली पदवी में पैर रखा है, उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, हाथ का सहारा है; तथापि जो परद्रव्यों और उनके भावों से रहित, चैतन्यचमत्कारमात्र परम-अर्थ को अन्तर में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं, उसमें लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं; उन्हें यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है। बारहवीं गाथा में परमभाव और अपरमभाव की चर्चा में इस विषय को विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है; अतः यहाँ कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। बस इतना कहना पर्याप्त है कि इस छन्द में 'हस्तावलम्ब' कहकर व्यवहारनय की यथास्थान उपयोगिता भी बता दी है और 'हंत' कहकर इस पराधीनता पर खेद भी व्यक्त कर दिया है। हाथ की लाठी शक्ति की नहीं, अशक्ति (कमजोरी) की सूचक है। प्राथमिक भूमिका में अपनी कमजोरी के कारण व्यवहारनय का सहारा लेना पड़ता है, पर वह हमारे लिए सौभाग्य की बात नहीं है। जिसप्रकार बीमारी से उठे अशक्त व्यक्ति को कमजोरी के कारण चलने-फिरने में लाठी का सहारा लेना पड़ता है, पर उसकी भावना तो यही रहती है कि कब इस लाठी का आश्रय छूटे ? वह यह नहीं चाहता कि मुझे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। उसीप्रकार व्यवहार का सहारा लेते हुए भी कोई आत्मार्थी यह नहीं चाहता कि उसे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। वह तो यही चाहता है कि कब इसका आश्रय छूटे और कब मैं अपने में समा जाऊँ। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 कलश ६ बस यही भाव उक्त छन्द में व्यक्त किया गया है । अब आगामी कलश में निश्चयसम्यक्त्व का स्वरूप कहते हैं - ( शार्दूलविक्रीडित ) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ॥ सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं । तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ ( हरिगीत ) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से । वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक है परद्रव्य से ॥ नव तत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये । इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिये ॥६॥ शुद्धनय से ज्ञान के घनपिण्ड, स्वयं में परिपूर्ण, अपने गुण-पयायों में व्याप्त, एकत्व में नियत, शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा को परद्रव्यों और उनके भावों से पृथक् देखना निश्चय सम्यग्दर्शन है। बस यही आत्मा मैं हूँ अथवा ऐसा ही आत्मा मैं हूँ और इसके दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है। - ऐसा ज्ञानी जानते हैं। इसलिए ज्ञानीजन भावना भाते हैं कि इस नवतत्त्व की परिपाटी को छोड़कर हमें तो एक आत्मा ही प्राप्त हो। तात्पर्य यह है कि हमें तो एक आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन ही इष्ट है; नवतत्त्व की विकल्पात्मक श्रद्धावाले व्यवहार सम्यग्दर्शन से कोई प्रयोजन नहीं । इस कलश में अन्य परद्रव्य और उनके आश्रय से उत्पन्न होनेवाले शुभभावों की बात तो बहुत दूर ही रही; नवतत्त्व संबंधी विकल्पों एवं उनके ज्ञान-श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन के प्रति भी अरुचि प्रदर्शित की गई है और दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा या उसके आश्रय Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 समयसार अनुशीलन से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रति रुचि, श्रद्धा, आस्था व्यक्त की गई है; क्योंकि सच्चा मुक्ति का मार्ग वही है। उक्त कलश के भावार्थ में पण्डित श्री जयचंदजी छाबड़ा ने बहुत अच्छा स्पष्टीकरण किया है, जो मूलतः इसप्रकार है - ___ "सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदों में व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है - शुद्धनय से ज्ञायकमात्र एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्यों और अन्यद्रव्यों के भावों से अलग देखना, श्रद्धान करना सो नियम से सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार (दोष) आता है, नियम नहीं रहता। शुद्धनय की सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता, इसलिए नियमरूप है। शुद्धनय का विषयभूत आत्मा पूर्ण ज्ञानघन है - सर्व लोकालोक को जाननेवाला ज्ञानस्वरूप है। ऐसे आत्मा का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है। यह कहीं पृथक् पदार्थ नहीं है; आत्मा का ही परिणाम है, इसलिए आत्मा ही है। अत: जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं। __ यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो नय हैं सो श्रुतप्रमाण का अंश है, इसलिये शुद्धनय भी श्रुतप्रमाण का ही अंश हुआ। श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है; क्योंकि वस्तु को सर्वज्ञ के आगम के वचन से जाना है; इसलिए यह शुद्धनय सर्व द्रव्यों से भिन्न, आत्मा की सर्व पर्यायों में व्याप्त पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप - सर्व लोकालोक को जाननेवाले, असाधारण चैतन्यधर्म को परोक्ष दिखाता है । यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगम को प्रमाण करके शुद्धनय से दिखाये गये पूर्ण आत्मा का श्रद्धान करे तो वह श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन है। जबतक केवल व्यवहारनय के विषयभूत जीवादिक तत्त्वों का ही श्रद्धान रहता है तबतक निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 कलश ६ इसलिए आचार्य कहते हैं कि इन नवतत्त्वों की संतति (परिपाटी) को छोड़कर शुद्धनय का विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते। यह वीतराग अवस्था की प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है । यदि सर्वथा नयों का पक्षपात ही हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभव में आये तो इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं ? उसका समाधान यह है - नास्तिकों को छोड़कर सभी मतवाले आत्मा को चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जाये तो सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायेगा, इसलिए सर्वज्ञ की वाणी में जैसा सम्पूर्ण आत्मा का स्वरूप कहा है, वैसा श्रद्धान होने से ही निश्चयसम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिए।" उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि आत्मानुभव के लिए परमागम में दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का जो स्वरूप बताया गया है, उसे आगम के अभ्यास से एवं गुरुमुख से सुनकर अच्छी तरह समझना चाहिए । राजमार्ग यही है। कभी किसी को इसके बिना सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती देखी गई हो, सुनी गई हो, तो उसे अपवाद ही समझना चाहिए, राजमार्ग नहीं; क्योंकि उसे पूर्वभव में या इसी भव में पहले कभी देशना उपलब्ध हो गई होगी या आगमाभ्यास से उसे यह बात ख्याल में आ गई होगी। इसप्रकार के उदाहरणों का बहाना बनाकर आगमाभ्यास और देशनालब्धि की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। भगवान आत्मा का सच्चा स्वरूप समझे बिना 'आत्मा चैतन्य है' मात्र इतना विचारते रहने से कुछ भी उपलब्ध होनेवाला नहीं है यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। - अब आगामी कलश में यह कहते हैं कि शुद्धनय के आश्रय से परद्रव्यों से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती है, वह आत्मज्योति नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 138 ( अनुष्टुभ् ) अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्। नवतत्त्वगतत्वेपि यदेकत्वं न मुंचति ॥ ७॥ (दोहा ) शुद्धनयाश्रित आतमा प्रगटे ज्योतिस्वरूप। नवतत्त्वों में व्याप्त पर तजे न एकस्वरूप॥७॥ अतः शुद्धनय के आश्रय से पर से भिन्न जो आत्मज्योति प्रगट होती वह नवतत्त्वों को प्राप्त होकर भी एकत्व को कभी नहीं छोड़ती। उक्त छन्द का अर्थ करते हुए कलशटीका में कहा गया है - "जैसे अग्नि दाहक लक्षणवाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्य को दहती है, दहती हुई अग्नि दाह्याकार होती है, पर उसका विचार है कि जो उसे काष्ठ, तृण और कण्डे की आकृति में देखा जाय तो काष्ठ की अग्नि, तृण की अग्नि और कण्डे की अग्नि ऐसा कहना साँचा ही है और जो अग्नि की उष्णतामात्र विचारा जाय तो उष्णमात्र है। काष्ठ की अग्नि, तृण की अग्नि और कण्डे की अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झूठे हैं । उसीप्रकार नौ तत्त्वरूप जीव के परिणाम हैं । वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप हैं, कितने ही अशुद्धरूप हैं । जो नौ परिणाम में ही देखा जाय तो नौ ही तत्त्व साँचे हैं और जो चेतनामात्र अनुभव किया जाय तो नौ ही विकल्प झूठे हैं।" ___ कलशटीका के उक्त भाव को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने इकतीसा सवैया छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत किया है - जैसैं तृण काठ बांस आरने इत्यादि और, ईंधन अनेक विधि पावक मैं दहिये। आकृति विलोकित कहावै आग नानारूप, दीसे एक दाहक सुभाव जब गहिये। तैसैं नव तत्त्व मैं भयौ है बहु भेषी जीव, सुद्धरूप मिश्रित असुद्धरूप कहिये । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 कलश ७ जाही छिन चेतना सकति कौ विचार कीजै, ताही छिन अलख अभेदरूप लहिये। जिसप्रकार तिनका, काष्ठ, बाँस और कंडे आदि ईंधन जब अग्नि में जलते हैं तो अग्नि उनके आकार रूप में ही परिणमित होती है । यदि उक्त आकारों की दृष्टि से देखें तो अग्नि अनेक प्रकार की दिखाई देगी; परन्तु यदि अग्नि के दाहक स्वभाव की दृष्टि से देखें तो सभी अग्नि एक प्रकार की ही हैं, एक ही हैं। उसीप्रकार यह भगवान आत्मा नव तत्वों रूप परिणमित होता हुआ शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र आदि अनेक रूप हुआ प्रतीत होता है; किन्तु यदि उसी समय चेतना शक्ति की दृष्टि से देखें तो वह अखण्ड आत्मा अभेदरूप ही दिखाई देता है। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार अनेक प्रकार के ईंधन को जलानेवाली अग्नि ईंधन के आकाररूप से परिणमित होने के कारण अनेक नाम पाती है; काठ की अग्नि, तृण की अग्नि, कंडे की अग्नि आदि अनेक नामों से अभिहित की जाती है; तो भी स्वभाव की दृष्टि से देखने पर वह एक दाहकस्वभाव के रूप में ही दिखाई देती है। उसीप्रकार यह भगवान आत्मा नवतत्त्वों में जाकर शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र भावों से युक्त होकर अनेक प्रकार का हो गया है, नवतत्त्वरूप हो गया है, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष रूप हो गया लगता है; तो भी चेतनास्वभाव की दृष्टि से देखने पर अत्यन्त स्पष्टरूप से एक, अभेद, अखण्ड, नित्य ही प्रतीति में आता है। नौ तत्त्वों में एक आत्मा ही प्रकाशमान है; क्योंकि नौ तत्त्वरूप होकर भी उसने अपने शुद्धनय के विषयभूत सामान्य, नित्य, अभेद एवं एक स्वभाव को नहीं छोड़ा है। १. समयसार नाटक, जीवद्वार, छंद ८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 समयसार अनुशीलन छठवें कलश में कहा गया था कि हमें नौ तत्त्व की संततिवाला व्यवहारसम्यग्दर्शन नहीं चाहिए, हमें तो शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चयसम्यग्दर्शन ही अभीष्ट है। अत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि नौ तत्त्वों में भी एक आत्मज्योति ही प्रकाशमान है और वह नौ तत्त्वों में जाकर भी एकत्व को नहीं छोड़ती है। ___ तात्पर्य यह है कि निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन अलग-अलग नहीं होते। सम्यग्दर्शन तो एक ही है और वह शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होता है । उक्त निश्चयसम्यग्दर्शन के धारक को नवतत्त्वों की भी सच्ची श्रद्धा होती है अर्थात् वे जैसे हैं, उनकी वैसी ही श्रद्धा होती है । निश्चयसम्यग्दृष्टि की नवतत्त्वों संबंधी उक्त श्रद्धा को ही व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते हैं। ___ सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के आत्मश्रद्धान को निश्चयसम्यग्दर्शन और नवतत्त्व के श्रद्धान को व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है। अगली ही गाथा में यह कहने जा रहे हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। पाँचवाँ, छठवाँ एवं सातवाँ - ये तीनों कलश अगली गाथा की उत्थानिकारूप कलश हैं। अत: इन कलशों की संगति आगामी गाथा से बैठती है। जहाँ विवेक है; वहाँ आनन्द है, निर्माण है और जहाँ अविवेक है; वहाँ कलह है, विनाश है। समय तो एक ही होता है, पर जिस समय अविवेकी निरन्तर षड्यन्त्रों में संलग्न रह बहुमूल्य नरभव को यों ही बरबाद कर रहे होते हैं; उसी समय विवेकीजन अमूल्य मानव भव का एक-एक क्षण सत्य के अन्वेषण, रमण एवं प्रतिपादन द्वारा स्वपर हित में संलग्न रह सार्थक व सफल करते रहते हैं। वे स्वयं तो आनन्दित रहते ही हैं, आसपास के वातावरण को भी आनन्दित कर देते हैं। - सत्य की खोज, पृष्ठ १९९ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १३ आचार्य जयसेन के अनुसार संक्षिप्त रुचिवाले आसन्नभव्य जीवों के लिए तो समयसार की पीठिकारूप आरंभ की १२ गाथाएं ही पर्याप्त हैं; क्योंकि वे तो इतने से ही हेयोपादेय तत्त्वों को जानकर अपने विशुद्ध ज्ञान- दर्शनस्वभाव की भावना भाने में समर्थ होते हैं । अतः संक्षिप्त रुचिवालों के लिए तो समयसार यहीं समाप्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे संक्षेप में तो वे कह ही चुके हैं । समयसार का मूल प्रतिपाद्य जो दृष्टि का विषय है, उसका स्पष्टीकरण तो छठवीं-सातवीं गाथा में आ ही गया है । आठवीं से बारहवीं गाथा तक निश्चय - व्यवहार का स्वरूप, उनकी उपयोगिता तथा उनकी भूतार्थता - अभूतार्थता भी बता दी गई है। छठवीं-सातवीं गाथा में प्रतिपादित आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है। अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की एकतारूप मोक्षमार्ग का मूल आधार तो स्पष्ट हो ही गया है । उसे जानकर, उसमें अपनापन स्थापित करके; उसमें ही जमकर रमकर, मोक्षमार्ग में आरूढ़ होकर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । अतः तीक्ष्ण प्रज्ञा के धनी, संक्षिप्त रुचिवाले आसन्नभव्य जीवों का काम तो हो ही गया है। अब तो विस्तार रुचिवाले सर्व सामान्यजनों को समझाने के लिए नवतत्त्वों का आध्यात्मिक स्वरूप समझाने की पावन भावना से विस्तारपूर्वक कथन आरंभ किया जाता है । उसमें सर्वप्रथम इस तेरहवीं गाथा में यह बताते हैं कि भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं । मूल गाथा इसप्रकार है Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 142 भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥१३॥ ( हरिगीत ) चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा । तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ॥१३॥ भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष – ये नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। इस गाथा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप तो बताया ही गया है, प्रकारान्तर से समयसार में आगे आनेवाली विषयवस्तु का संकेत भी कर दिया है, आगे के अधिकारों के नामोल्लेख भी कर दिये हैं । कर्ताकर्म अधिकार एवं सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार को छोड़कर अन्य सभी अधिकारों के नाम भी आ ही गये हैं, अधिकारों का क्रम भी आ गया है। इस गाथा में तत्त्वों के नाम जिस क्रम से आये हैं, वही क्रम अधिकारों का है। इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में तत्त्वों के नामों का जो क्रम है, वह छन्दानुरोध से नहीं, अपितु बुद्धिपूर्वक रखा गया है। ____ यह क्रम तत्त्वार्थसूत्र के क्रम से कुछ हटकर है । तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र में भी जो क्रम है, वही क्रम उसके प्रतिपादन में भी है, अधिकारों में भी है। अत: वहाँ भी वह क्रम बुद्धिपूर्वक ही रखा गया है। उसके औचित्य पर भी उसके टीकाकारों ने प्रकाश डाला है । तत्त्वार्थसूत्र गद्य में होने से छन्दानुरोधवाला तर्क भी नहीं दिया जा सकता। ___अत: यहाँ समयसार में समागत क्रम के औचित्य की समीक्षा भी आवश्यक है। उक्त सन्दर्भ में हमें आत्मख्याति से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है । नाटक के मंच पर जोड़ों (युग्मों) की प्रधानता रहती है। इसके अधिकारों के चयन में भी जोड़ों को ध्यान में रखा गया है। जैसे – जीव-अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य- पाप, आस्रव-संवर, बंध Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 गाथा १३ मोक्ष। चूँकि तत्त्व नौ हैं, अत: एक तो बिना जोड़े का रहना ही था। इस कारण निर्जरा तत्त्व बिना जोड़े के रह गया है और सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार तो स्वतंत्र है ही। ___ यद्यपि कर्ता-कर्म और सर्वविशुद्धज्ञान – ये दो नवतत्त्वों में नहीं आते हैं, तथापि इनके सन्दर्भ में जनसामान्य में बहुत अज्ञान रहता है। इस अज्ञान का निवारण किए बिना आत्मतत्त्व को सही रूप में समझ पाना संभव नहीं है। अत: इन्हें भी समयसार में स्थान प्राप्त हुआ है। कर्ता-कर्म अधिकार को जीवाजीवाधिकार के तत्काल बाद क्यों रखा गया है? यहाँ यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है। कर्ता-कर्म संबंधी भूल प्रकारान्तर से जीव-अजीव संबंधी भूल ही है; क्योंकि जीव को अजीव का और अजीव को जीव का कर्ता-भोक्ता मानना भी जीव-अजीव संबंधी भूल ही है। इसकारण इसे जीवाजीवाधिकार के तत्काल बाद रखा गया है। प्रश्न - यदि कर्ता-कर्म संबंधी भूल जीव-अजीव संबंधी भूल ही है तो फिर इस अधिकार की विषय-वस्तु को जीवाजीवाधिकार में ही शामिल कर लेना चाहिए; पृथक् अधिकार बनाने की क्या आवश्यकता है? उत्तर - कर्ता-कर्म संबंधी भूल की ओर विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए यह आवश्यक था कि तत्संबंधी अधिकार स्वतंत्र रखा जाय। न केवल कर्ता-कर्म अधिकार स्वतंत्र है, अपितु यह सभी अधिकारों में सबसे बड़ा अधिकार भी है । ४१५ गाथाओं के समयसार में यह अकेला ही ७६ गाथाओं के अपने में समेटे हुए है। सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में भी कर्ता-कर्म संबंधी भूल पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि मुक्ति के मार्ग में कर्ता-कर्म संबंधी भूल का निवारण करना कितना आवश्यक है? Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 समयसार अनुशीलन सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार तो सम्पूर्ण समयसार का निचोड़ है, सारांश है; अतः उसे अन्त में रखना तो एकदम स्वाभाविक ही है। प्रश्न - जीवाजीवाधिकार और कर्ता-कर्म अधिकार के प्रतिपादन में मूलभूत अन्तर क्या है? उत्तर - जीव-अजीव के सम्बन्ध में जो भूल होती है, वह मुख्यत: चार रूपों में पाई जाती है – पर में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि। इन भूलों को निकालकर उक्त सन्दर्भ में सही वस्तुस्थिति से परिचित होना प्रत्येक आत्मार्थी का प्राथमिक कर्तव्य है। इनमें से परद्रव्य में एकत्व और ममत्व का निषेध जीवाजीवाधिकार में किया गया है तथा परद्रव्य के कर्तत्व एवं भोक्तृत्व का निषेध कर्ताकर्म अधिकार में किया गया है। इनमें से एकत्व को अपनत्व और ममत्व को स्वामित्व भी कहते हैं । इसप्रकार पर में अपनत्व और स्वामित्व संबंधी भूल को निकालना जीवाजीवाधिकार का प्रतिपाद्य है और कर्तृत्व और भोक्तृत्व संबंधी भूल को निकालना कर्ता-कर्म अधिकार का प्रतिपाद्य है। - इन दोनों अधिकारों के प्रतिपादन में यही मूलभूत अन्तर है। प्रश्न - जब कर्ता-कर्म अधिकार में कर्ता-कर्म के साथ-साथ भोक्ता-भोग्य संबंधी भूल पर भी प्रकाश डाला गया है, तब इस अधिकार का नाम अकेले कर्ता-कर्म के नाम पर कैसे रखा जा सकता है? इसका नाम तो कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य अधिकार होना चाहिए। उत्तर - बात तो ऐसी ही है, पर क्या इतना लम्बा नाम अच्छा लगता? उक्त अधिकार के सम्पूर्ण प्रतिपादन पर जब एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो एक बात स्पष्ट होती है कि इसमें सर्वत्र कर्ता-कर्म सम्बन्ध की चर्चा ही मुख्यरूप से की गई है। हाँ, यह अवश्य है कि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 गाथा १३ एक प्रकरण समाप्त होने पर सर्वत्र यह कह दिया गया है कि इसीप्रकार भोक्ता-भोग्य के संबंध में भी समझना चाहिए। इसप्रकार इस अधिकार में मुख्यरूप से कर्ता-कर्म और गौणरूप से भोक्ता-भोग्य की बात की है। अत: उक्त नाम उचित ही है। प्रश्न - तत्त्वार्थसूत्र में जीवादितत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और तत्त्वार्थ सात बताये गये हैं तथा उनके अधिगम के उपाय के रूप में प्रमाण और नयों को प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नयों से जाने हुए जीवादि सप्त तत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और यहाँ इस तेरहवीं गाथा में भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्वों को ही सम्यग्दर्शन कहा है। उक्त दोनों कथनों में यह मतभेद क्यों है? उत्तर - यह मतभेद नहीं, विवक्षाभेद है। यदि दोनों कथनों की विवक्षायें समझ ली जावें तो कोई आशंका नहीं रहेगी। तत्त्वार्थसूत्र का कथन सैद्धांतिक कथन है और समयसार का कथन आध्यात्मिक कथन है। तत्त्वार्थसूत्रकर्ता को सप्त तत्त्वार्थों का प्रमाण और नयों से गुण-पर्याय सहित, सर्वांग विवेचन अभीष्ट था, जैसा कि उन्होंने आगे किया भी है। जीवों के संसारी-सिद्ध सभी भेद बताये, उनके रहने के स्थानों की चर्चा की। अजीवादि तत्त्वों का भी इसीप्रकार विस्तृत विवेचन किया। आस्रव में सत्तावन प्रकार के आस्रव बताये, उनके शुभाशुभभेद करके व्रतों का वर्णन भी किया। बंधतत्त्व में कर्मों की प्रकृतियाँ गिनाईं, निर्जरा में भी उसके उपायों की विस्तृत समीक्षा की। पर समयसार में यह सब नहीं है, समयसार की प्रतिपादनशैली ही अलग है । समयसार में तो सभी तत्त्वों में प्रकाशमान आत्मज्योति को ही खोजा गया है। १. तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय १, सूत्र २ २. वही, सूत्र ४ ३. वही, सूत्र ६ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 146 सर्वत्र आत्मज्योति को खोजना भूतार्थनय का ही कार्य है। भूतार्थनय ही यह महान कार्य कर सकता है । अत: समयसार के आरंभ में ही, इस तेरहवीं गाथा में ही यह घोषित कर दिया कि भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं और आगे सभी तत्त्वों की मीमांसा भी इसी नय से प्रस्तुत की है. सर्वत्र आत्मज्योति को ही खोजा गया है। रही बात तत्त्वों की संख्या में सात और नौ के अन्तर की, सो यह कोई बात नहीं है; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य और पाप को आस्रव-बंध में शामिल कर लिया गया है और समयसार में उन्हें अलग कह दिया गया है। - बस इतनी ही बात है। पुण्यतत्त्व में उपादेयबुद्धि भी एक ऐसा अज्ञान है कि जिसके कारण भगवान आत्मा के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए इस अज्ञान का निवारण भी अत्यन्त आवश्यक है । यही कारण है कि समयसार में पुण्य-पाप को आस्रव-बंध में शामिल न कर तत्त्वव्यवस्था में स्वतंत्र स्थान दिया गया है और तत्संबंधी अज्ञान के निवारण के लिए स्वतंत्र अधिकार भी रखा गया है। ___ यह तेरहवीं गाथा एक ऐसी गाथा है कि जिसमें आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति टीका के बीच में भी एक कलश दिया है। सामान्यरूप से आचार्य अमृतचन्द्र यह पद्धति अपनाते हैं कि पहले गद्य में टीका लिखते हैं और यदि आवश्यकता समझें तो अन्त में कलश लिखते हैं; पर इस गाथा की टीका में मध्य में भी कलश दिया है और अन्त में भी। टीका का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने गाथा में समागत विषय-वस्तु के स्पष्टीकरण के उपरान्त उपसंहार के रूप में आठवाँ कलश दिया है। उसके उपरान्त जो विषयवस्तु गाथा में तो नहीं आई है, तथापि उन्हें उसपर भी प्रकाश डालना प्रसंगोपात्त लगा; अत: उसपर भी प्रकाश डाला है और अन्त में उसके उपसंहार रूप कलश दिया है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 नवतत्त्वों की चर्चा तो मूल गाथा में है, पर प्रमाण -नय-निक्षेप की चर्चा मूल गाथा में नहीं है । अतः नवतत्त्व संबंधी स्पष्टीकरण करने के बाद उपसंहार का कलश लिख दिया। उसके बाद प्रमाण-नयनिक्षेप की चर्चा करके तत्संबंधी कलश लिखा । गाथा १३ प्रश्न उसकी भी चर्चा टीका में की जावे? उत्तर- इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है; क्योंकि सम्बन्धित विषयों का स्पष्टीकरण करना टीकाकार का कर्तव्य है । फिर इस गाथा में तो यह कहा गया है कि भूतार्थनय से जाने हुए नौ तत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं। यह सुनकर जिज्ञासु पाठकों को यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि क्या भूतार्थनय के अतिरिक्त भी कोई जानने के साधन हैं? यदि हैं तो उनसे जाने हुए नवतत्त्व सम्यग्दर्शन क्यों नहीं हैं ? - यह बात तो ठीक नहीं लगती कि जो चर्चा गाथा में न हो, इस जिज्ञासा के शमन के लिए ही आठवें कलश के बाद की टीका लिखी गई है, जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेप के बारे में न केवल प्रकाश डाला गया है, अपितु उनकी भूतार्थता - अभूतार्थता भी स्पष्ट कर दी है। 44 यहाँ हम भी आत्मख्याति को इसीप्रकार विभाजित करके प्रस्तुत कर रहे हैं । इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - भूतार्थनय से जाने हुए ये जीवादि नवतत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं; क्योंकि तीर्थ (व्यवहारधर्म ) की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष नामक नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त होती है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन इनमें विकारी होने योग्य विकार्य भाव और विकार करनेवाला विकारक कर्म दोनों ही पुण्य हैं और दोनों ही पाप हैं, आस्रवरूप होने योग्य आस्राव्य भाव और आस्रव करनेवाला आस्रावक कर्म दोनों ही आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य संवार्य भाव और संवर करनेवाला संवारक कर्म - दोनों ही संवर हैं, निर्जरारूप होने योग्य निर्जर्य भाव और निर्जरा करनेवाला निर्जरक कर्म - दोनों ही निर्जरा हैं, बंधनरूप होने योग्य बंध्य भाव और बंधन करनेवाला बंधक कर्म - 148 - दोनों ही बंध हैं तथा मोक्षरूप होने योग्य मोच्य भाव और मोक्ष करनेवाला मोचक कर्म - दोनों ही मोक्ष हैं; क्योंकि दोनों में से किसी एक का अपने-आप अकेले पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप होना संभव नहीं है । वे दोनों जीव और अजीव हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युगल में से पहला जीव है और दूसरा अजीव है। बाह्यदृष्टि से देखा जाय तो जीव- पुद्गल की अनादिबंधपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; अतः इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इसीप्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाय तो एक ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है। इनमें से पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप भाव केवल जीव के विकार हैं, जीव के विशेषभाव हैं, जीवरूप भाव हैं और जीव के विकार के हेतुभूत जो पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप तत्त्व हैं, वे सभी केवल अजीव हैं । ऐसे ये नवतत्त्व, जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वयं और पर जिनके कारण हैं – ऐसे एकद्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 गाथा १३ के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसलिए इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इसप्रकार एकत्वरूप से प्रकाशित यह भगवान आत्मा शुद्धनय के रूप में अनुभव किया जाता है और यह अनुभूति आत्मख्याति ही है तथा यह आत्मख्याति सम्यग्दर्शन ही है। अत: भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन है – यह कथन पूर्णत: निर्दोष है।" __ यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की संस्कृत भाषा में जो टीका लिखी है, उसका नाम उन्होंने 'आत्मख्याति' रखा है और सर्वप्रथम इस गाथा की टीका में 'आत्मख्याति' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ स्वयं उन्होंने आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन किया है। आत्मख्याति का अर्थ होता है आत्मा की प्रसिद्धि। हमारा आत्मा दूसरों को जाने या दूसरे आत्मा हमें जानें – इसका नाम आत्मख्याति या आत्मप्रसिद्धि नहीं है; अपितु अपना आत्मा स्वयं को ही जाने, अनुभव करे; अपने में ही अपनापन स्थापित करे, अपने में ही रम जाय, जम जाय, समा जाय – यही सच्ची आत्मख्याति है। आत्मख्याति अर्थात् मोक्षमार्ग – अपनी समझ, अपनी पहिचान, अपने में ही सर्वस्व समर्पण। यह आत्मख्याति, यह आत्मानुभूति भूतार्थनय के विषयभूत निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होती है और यही निश्चयसम्यग्दर्शन है। कौन नय भूतार्थ है और कौन नहीं – यह बात ग्यारहवीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है। अत: भूतार्थनय की व्याख्या करना यहाँ आवश्यक नहीं है। प्रश्न - ग्यारहवीं गाथा के निष्कर्ष में तो एक परमशुद्धनिश्चयनय को ही भूतार्थ कहा है और उसका विषय तो परमपारिणामिकभावरूप Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 समयसार अनुशीलन शुद्ध जीवतत्त्व ही है । ऐसी स्थिति में भूतार्थनय से नवतत्त्वों को कैसे जाना जा सकता है ? उत्तर- टीका के प्रथम पैरा में यह कहा गया है कि तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीवादि नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्रगट होती है। इससे यही प्रतिफलित होता है कि नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को देखना ही भूतार्थनय से नवतत्त्वों को जानना है। इसी बात को विस्तार से समझाते हुए टीका में आगे नवतत्त्वों को भाव और द्रव्य इन दो भागों में बाँटा है और यह स्पष्ट किया गया है कि द्रव्यपुण्य, द्रव्यपाप, द्रव्यास्रव, द्रव्यसंवर, द्रव्यनिर्जरा, द्रव्यबंध और द्रव्यमोक्ष अजीव हैं, अजीव के ही विस्तार हैं; तथा भावपुण्य, भावपाप, भावास्रव, भावसंवर, भावनिर्जरा, भावबंध और भावमोक्ष जीव हैं, जीव के ही विस्तार हैं । इसप्रकार ये नवतत्त्व जीव और अजीव के ही विस्तार हैं । तात्पर्य यह है कि इन नवतत्त्वों में प्रकारान्तर से जीवतत्त्व समाहित है । नवतत्त्वों में समाहित इस जीवतत्त्व को दिखाना ही भूतार्थनय का कार्य है और इसे ही भूतार्थनय से नवतत्त्वों का जानना कहते हैं । जीवाजीवात्मक इन नवतत्त्वों की भूतार्थता - अभूतार्थता पर विचार करते हुए टीका में कहा गया है कि बाह्यदृष्टि से देखा जाय तो जीवपुद्गल की अनादिबंधपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । अत: इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। I आगे कहा है कि अन्तर्दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है । पुण्यपापादि तत्त्वों में Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 गाथा १३ भावपुण्यादि जीव के विकार हैं और जीव के विकार के निमित्त द्रव्यपुण्य-पापादि अजीव हैं । जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर एक द्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं; सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे नवतत्त्व अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिए इन नवरत्नों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इसप्रकार भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्वों में भी एकप्रकार से एकमात्र परमपारिणामिकभावरूप शुद्ध जीवतत्त्व ही जाना गया है और यह जाना जाना ही आत्मख्याति है, आत्मानुभूति है, निश्चयसम्यग्दर्शन है। अत: इस कथन में कोई दोष नहीं है कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं। उक्त कथन का भाव स्पष्ट करते हुए भावार्थ में पण्डित जयचंदजी छाबड़ा लिखते हैं - "इन नवतत्त्वों में, शुद्धनय से देखा जाये तो जीव ही एक चैतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है, इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न नवतत्त्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जबतक इसप्रकार जीवतत्त्व की जानकारी जीव को नहीं है तबतक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न-भिन्न नवतत्त्वों को मानता है । जीव-पुद्गल की बन्धपर्यायरूप दृष्टि से यह पदार्थ भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं; किन्तु जब शुद्धनय से जीव-पुद्गल का निजस्वरूप भिन्न-भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य-पापादि सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त-नैमित्तिक भाव से हुए थे; इसलिए जब वह निमित्त-नैमित्तिक भाव मिट गया, तब जीव, पुद्गल भिन्नभिन्न होने से अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकती। वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्य का निजभाव द्रव्य के साथ ही रहता है तथा निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है, इसलिए शुद्धनय से जीव को जानने से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है । जबतक भिन्न Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन भिन्न नवपदार्थों को जाने और शुद्धनय से आत्मा को न जाने तबतक पर्यायबुद्धि है । " 152 उक्त सम्पूर्ण कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि नवतत्त्वों में भी सर्वत्र एक जीवतत्त्व ही प्रकाशमान है और शुद्धनय से उसे जानना ही भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन कहा गया है । अब इसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला कलश लिखते हैं और उसमें प्रेरणा देते हैं कि हे भव्यजनो ! तुम तो नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को ही देखो। ( मालिनी ) चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥ ८ ॥ ( रोला ) शुद्धकनक ज्यों छिपा हुआ है बानभेद में । नवतत्त्वों में छिपी हुई त्यों आत्मज्योति है ॥ एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह । अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानो ॥ ८ ॥ जिसप्रकार वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं; उसीप्रकार नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय के द्वारा बाहर निकालकर प्रगट की गई है और यह आत्मज्योति पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में चित्-चमत्कारमात्र एकरूप में उद्योतमान है । इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम इसे सदा ही अन्यद्रव्यों एवं उनके आश्रय से होनेवाले नैमित्तिकभावों से भिन्न एकरूप देखो। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 कलश ८ ___खान में पड़ा हुआ स्वर्ण अपनी आरम्भिक अवस्था से ही अनेक अन्य पदार्थों से मिला हुआ रहता है । जब उसे बाहर निकालकर अग्नि में तपाकर शुद्ध करते हैं तो अशुद्धता के जलने से अग्नि की लौ में स्वर्ण के हरे-पीले अनेक रंग दिखाई देते हैं; तथापि वह कहलाता तो स्वर्ण ही है। __ भले ही वह स्वर्ण कहलाये, तथापि स्वर्ण का पारखी सर्राफ उसका मूल्य उतना ही देता है कि जितना उसमें शुद्ध स्वर्ण है। उस अशुद्ध स्वर्ण को कसौटी पर कसकर सर्राफ यह जान लेता है कि इसमें अशुद्धता कितनी है और क्या है तथा शुद्धता कितनी है और क्या है? अशुद्धता की उपेक्षा कर शुद्धता की कीमत देकर उसे प्राप्त कर लेता है। इसीप्रकार अनादि से ही यह आत्मा नवतत्त्वों में छिपा हुआ है। शुद्धनय के प्रयोग से आत्मार्थी यह जान लेता है कि असली आत्मा क्या है और उसमें ही अपनापन स्थापित कर, उसमें ही जमकर, रमकर, मुक्तिमार्ग पर आरूढ़ हो जाता है। इस बात को कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में इसप्रकार छन्दोबद्ध किया है - ( इकतीसा सवैया ) जैसैं बनवारी मैं कुधात के मिलाप हेम, ___ नाना भाँति भयौ पे तथापि एक नाम है। कसिकै कसोटी लीकु निरखै सराफ ताहि, बान के प्रवान करि लेतु देतु दाम है। तैसैं ही अनादि पुद्गलसौं संजोगी जीव, नव तत्त्वरूप मैं अरूपी महाधाम है। दीसै उनमान सौं उदोतवान ठौर ठौर, दूसरौ न और एक आतमा ही राम है ॥९॥ जिसप्रकार घरिया में स्वर्ण कुधातुओं के मिलने से अनेक रूप होता दिखाई देता है; पर नाम तो उसका स्वर्ण ही रहता है। अनेक धातुओं Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन से मिले हुए उक्त स्वर्ण को सर्राफ ( सोने के व्यापारी) कसौटी पर कसकर देखते हैं और उसमें जितने प्रमाण में शुद्ध स्वर्ण होता है; उतने ही पैसे देते हैं । 154 उसी प्रकार यह जीव अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग में है; इसकारण नवतत्व रूप हो रहा है; परन्तु है तो अरूपी ही। अरूपी होने पर भी स्थान-स्थान पर अनुमान से प्रकाशमान होने वाला और कोई नहीं; एक आत्माराम ही है । उक्त संदर्भ में कलश - टीकाकार ने कुछ गहराई से चर्चा की है, जो इसप्रकार है — " जीववस्तु अनादिकाल से धातु और पाषाण के संयोग के समान कर्मपर्याय से मिली ही चली आ रही है । सो मिली हुई होकर वह रागादि विभाव परिणामों के साथ व्याप्य व्यापक रूप से स्वयं परिणमन कर रही है । वह परिणमन देखा जाय, जीव का स्वरूप न देखा जाय तो जीववस्तु नौ तत्त्वरूप है ऐसा दृष्टि में आता है। ऐसा भी है, सर्वथा झूठ नहीं है; क्योंकि विभावरूप रागादि परिणाम शक्ति जीव में ही है। वस्तु का विचार करने पर भेदरूप भी वस्तु ही है, वस्तु से भिन्न भेद कुछ वस्तु नहीं है । भावार्थ इसप्रकार है कि सुवर्णमात्र न देखा जाए, बानभेद मात्र देखा जाय तो बानभेद है; सुवर्ण की शक्ति ऐसी भी है । जो बानभेद न देखा जाय, केवल सुवर्णमात्र देखा जाय तो बानभेद झूठा है । इसीप्रकार जो शुद्ध जीववस्तु मात्र न देखी जाय, गुण- पर्याय मात्र या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य मात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय हैं तथा उत्पादव्यय - ध्रौव्य हैं; जीववस्तु ऐसी भी है। जो गुण- पर्यायभेद या उत्पादव्यय - ध्रौव्यभेद न देखा जाय, वस्तुमात्र देखी जाय तो समस्त भेद झूठा है । ऐसा अनुभव सम्यकत्व है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 कलश ८ जो भेदबुद्धि करते हुए जीववस्तु चेतना लक्षण से जीव को जानती है, वस्तु विचारने पर इतना विकल्प भी झूठा है, शुद्धवस्तु मात्र है । ऐसा अनुभव सम्यकत्व है।" उक्त कथन में संयोग, संयोगीभाव, द्रव्य-गुण-पर्याय एवं उत्पादव्यय-ध्रौव्य के भेद तथा लक्ष्य-लक्षण भेद सभी को व्यवहारनय से सत्यार्थ बताकर भी यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्धनय से, भूतार्थनय से ये सभी असत्यार्थ हैं ; इन सबसे भिन्न शुद्ध जीववस्तु मात्र ही सत्यार्थ है और उसके आश्रय से ही अनुभव होता है, सम्यक्त्व होता है । कलशटीका में 'उन्नीयमान' का अर्थ अनुमानगोचर और 'उद्योतमान' का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानगोचर तथा 'विविक्त' का अर्थ नौ तत्त्वों के विकल्प से रहित किया है; जो विशेष ध्यान देने योग्य है। तात्पर्य यह है कि जीववस्तु चेतनालक्षण से जानी जाती है – इसकारण अनुमानगोचर है और अनुभवज्ञान का विषय बनती है – इसलिए प्रत्यक्षज्ञानगोचर है। तेरहवीं गाथा की आत्मख्याति टीका में समागत आठवें कलश के उपरान्त जो टीका लिखी गई है, उसमें मूलरूप से तो यही बताना अभीष्ट है कि भूतार्थनय के अतिरिक्त जो नय और प्रमाण व निक्षेप हैं; वे भी उसीप्रकार अभूतार्थ हैं, जिसप्रकार उनके द्वारा जाने गये नवपदार्थ; फिर भी यहाँ संक्षेप में प्रमाण, नय और निक्षेप का स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ नयों के भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के रूप में लिए गए हैं। __इन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का स्वरूप यदि विस्तार से जानने की जिज्ञासा हो तो लेखक की अन्य कृति "परमभावप्रकाशक नयचक्र" के तृतीय अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। वहाँ इन नयों पर ४८ पृष्ठों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि जिनागम का मर्म समझने के लिए इनका समझना अत्यन्त आवश्यक है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 156 __ आठवें कलश के उपरान्त समागत आत्मख्याति का भाव इसप्रकार है - "अब जैसे नवतत्त्वों में एक जीव को ही जानना भूतार्थ कहा है, उसीप्रकार एकरूप से प्रकाशमान आत्मा के अधिगम के उपायभूत जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं; वे भी निश्चय से अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा ही भूतार्थ है। तात्पर्य यह है कि उनमें भी एक आत्मा को बतानेवाला नय ही भूतार्थ है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। जो इन्द्रिय, मन आदि उपात्त परपदार्थों एवं प्रकाश, उपदेश आदि अनुपात्त परपदार्थों द्वारा प्रवर्ते, वह परोक्षप्रमाण है और जो केवल आत्मा से ही प्रतिनिश्चितरूप से प्रवृत्ति करे, वह प्रत्यक्षप्रमाण है। पाँच प्रकार के ज्ञानों में मतिज्ञान व श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं, अवधिज्ञान व मनः पर्य यज्ञान एक देशप्रत्यक्षप्रमाण हैं और के वलज्ञान सकलप्रत्यक्षप्रमाण है। प्रत्यक्ष और परोक्ष - ये दोनों ही प्रमाण; प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय के भेद का अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; किन्तु जिसमें सर्वभेद गौण हो गये हैं, ऐसे एक जीव के स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। __ नय दो प्रकार के हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में जो नय मुख्यरूप से द्रव्य का अनुभव कराये, वह द्रव्यार्थिक नय है और जो नय उसी द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु में मुख्यरूप से पर्याय का अनुभव कराये, वह पर्यायार्थिक नय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक – ये दोनों नय द्रव्य और पर्याय का पर्याय से, भेद से, क्रम से अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और द्रव्य तथा पर्याय दोनों से अनालिंगित शुद्धवस्तुमात्र जीव के चैतन्यमात्र स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 कलश ८ 1 - निक्षेप चार प्रकार के हैं - नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप | गुण की अपेक्षा बिना वस्तु का नामकरण करना नामनिक्षेप है; 'यह वह है ' इसप्रकार अन्य वस्तु में किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व स्थापित करना स्थापनानिक्षेप है; अतीत और भावी पर्यायों का वर्तमान में आरोप करना द्रव्यनिक्षेप है और वर्तमान पर्यायरूप वस्तु को वर्तमान में कहना भावनिक्षेप है । ये चारों ही निक्षेप अपने-अपने लक्षणभेद से विलक्षण ( भिन्नभिन्न) अनुभव किए जाने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और भिन्न-भिन्न लक्षण से रहित एक अपने चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभाव का अनुभव करने पर ये चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसप्रकार इन प्रमाण, नय, निक्षेपों में भूतार्थरूप से एक जीव ही प्रकाशमान है।" पहले कहा था कि नवतत्त्वों में भूतार्थरूप से एक जीव ही प्रकाशमान है और यहाँ कहा जा रहा है कि इन प्रमाण, नय, निक्षेपों में भी भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है । इसप्रकार एकमात्र यही कहा जा रहा है कि नवतत्त्वों में भी एकमात्र शुद्धजीवतत्त्व ही प्रकाशमान है और प्रमाण, नय, निक्षेपों में भी एकमात्र वही शुद्धजीवतत्त्व प्रकाशमान है। यह प्रकाशमान जीवतत्त्व ही दृष्टि का विषय है, श्रद्धा का श्रद्धेय है, ध्यान का ध्येय है, परमज्ञान का ज्ञेय है, मुक्तिमार्ग का मूल आधार हैं, इसके आश्रय से ही मुक्ति का मार्ग प्रगट होता है । जब वह शुद्धजीवास्तिकाय ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धान का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय बनता है अर्थात् आत्मा का अनुभव होता है, आत्मानुभूति होती है, तब प्रमाण-नय-निक्षेप की तो बात ही क्या; परन्तु किसी भी प्रकार का द्वैत ही भासित नहीं होता है, एक आत्मा ही प्रकाशमान होता है । यही भाव आगामी कलश में भी व्यक्त किया गया है, जो इसप्रकार है Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 158 ( मालिनी ) उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन् ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव॥९॥ (रोला) निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते। अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई॥ अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई॥९॥ सर्वप्रकार के भेदों से पार सामान्य, अभेद-अखण्ड, नित्य, एक चिन्मात्र भगवान आत्मा को विषय बनानेवाले परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मा का अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदय को प्राप्त नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है? – यह हम नहीं जानते। जब द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता, तब प्रमाणादि के विकल्पों की तो बात ही क्या करें? ___ तात्पर्य यह है कि अनुभव में सर्वप्रकार के भेद अत्यन्त गौण हो जाते हैं, प्रमाण-नयादि के भेदों की बात तो बहुत दूर, द्वैत का भी अनुभव नहीं होता, मात्र एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है । प्रश्न -कलशटीका में तो लिखा है कि प्रमाण-नय-निक्षेपरूप बुद्धि के द्वारा एक ही जीवद्रव्य के द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप जो भेद किए जाते हैं, वे समस्त झूठे हैं । इन सबके झूठे होने पर जो कुछ वस्तु का स्वाद आता है, वह अनुभव है। __ अब प्रश्न यह है कि यहाँ झूठे का क्या अर्थ है, क्या द्रव्य-गुणपर्याय व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वस्तु में नहीं हैं? प्रमाण-नय-निक्षेप और उनका कथन क्या सर्वथा असत्यार्थ है? Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 कलश ९ उत्तर -नहीं, ऐसी बात नहीं है। वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायरूप है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप भी है। इस विषय की सम्यक् जानकारी के लिए प्रवचनसार के ज्ञे यतत्त्व प्रज्ञापन के द्रव्यसामान्याधिकार का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए। ___ कलशटीका में उन्हें जो झूठा कहा है, उसका प्रयोजन भी उनकी सत्ता से इन्कार करना नहीं है, अपितु अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्प उत्पन्न नहीं होते - मात्र इतना बताना ही अभीष्ट है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कलशटीका में लिखा है - "भावार्थ इसप्रकार है कि अनादिकाल से जीव अज्ञानी है, जीवस्वरूप को नहीं जानता है। वह जब जीवसत्त्व की प्रतीति आनी चाहे, तब जैसे ही प्रतीति आवे, तैसे ही वस्तुस्वरूप साधा जाता है । सो यह साधना गुण-गुणी ज्ञान द्वारा होती है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिए वस्तुस्वरूप का गुण-गुणी के भेदरूप में विचार करने पर प्रमाण-नय-निक्षेपरूप विकल्प उत्पन्न होते हैं । वे विकल्प प्रथम अवस्था में भले ही हैं, तथापि स्वरूपमात्र अनुभवने पर झूठे हैं।" उक्त कथन में पाण्डे राजमलजी यह कहना चाहते हैं कि यद्यपि वस्तुस्वरूप समझने के लिए अध्ययन-मनन-चिन्तन करते समय प्रमाण-नय-निक्षेप संबंधी विकल्प उत्पन्न होते हैं और उनकी उस समय उपयोगिता भी है; तथापि अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्प उत्पन्न ही नहीं होते । यहाँ झूठे का अर्थ उत्पन्न ही नहीं होना है। यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, द्रव्य-गुण-पर्याय एवं प्रमाण-नय-निक्षेप के निषेध की बात नहीं है, अपितु अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्पों के उत्पन्न न होने की बात है। इसीप्रकार आत्मवस्तु तो द्वैताद्वैतस्वरूप है, भेदाभेदस्वरूप है; परन्तु अनुभव के काल में द्वैत भी भासित नहीं होता। इसलिए कहा है कि जब अनुभव के काल में द्वैत भी भासित नहीं होता, तब अन्य विकल्पों की क्या बात करें। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 160 इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं रवि-मंडल के उदै महि-मंडल मैं, आतप अटल तम पटल विलातु है। तैसैं परमातमा को अनुभौ रहत जौलों, तौलौं कहूं दुविधा न कहूं पच्छपातु है॥ नय कौ न लेस परवान कौ न परवेस, निच्छेप के वंस को विधुंस होत जातु है। जे जे वस्तु साधक हैं तेऊ तहां बाधक हैं, बाकी राग दोष की दसा की कौन बातु है॥ जिसप्रकार सूर्योदय होने पर समस्त पृथ्वी पर धूप फैल जाती है और अंधकार विलुप्त हो जाता है; उसीप्रकार जब तक आत्मानुभव रहता है, तब तक किसीप्रकार की दुविधा नहीं रहती और न ही किसीप्रकार का पक्षपात ही रहता है। नय विकल्पों का लेश भी नहीं रहता और प्रमाण संबंधी विकल्पों का प्रवेश भी नहीं होता तथा निक्षेप संबंधी समस्त व्यवहार का तो अभाव ही हो जाता है। राग-द्वेष की तो बात ही क्या करें, जो-जो वस्तुएँ विकल्प के काल में साधक होती थीं; वे सभी अनुभूति के काल में बाधक हो जाती हैं। प्रश्न-आपने कहा कि अनुभव के काल में द्वैत भासित नहीं होता, तो क्या वस्तु में द्वैतभाव है ही नहीं? उत्तर -इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी कलश के भावार्थ में लिखते हैं - "यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदान्ती कहते हैं कि अन्त में परमार्थरूप तो अद्वैत का ही अनुभव हुआ। यही हमारा मत है, इसमें आपने विशेष क्या कहा? Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 इसका उत्तर तुम्हारे मत में सर्वथा अद्वैत माना जाता है। यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्यवस्तु का अभाव ही हो जाये और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मत में नयविवक्षा है, जो बाह्यवस्तु का लोप नहीं करती। जब शुद्ध अनुभव से विकल्प मिट जाता है, तब आत्मा परमानन्द को प्राप्त होता है । इसलिए अनुभव कराने के लिए यह कहा है कि शुद्ध अनुभव में द्वैत भासित नहीं होता । यदि बाह्यवस्तु का लोप किया जाये तो आत्मा का लोप हो जायेगा और शून्यवाद का प्रसंग आयेगा। इसलिए जैसे तुम कहते हो, उसप्रकार से वस्तुस्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती और वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा के बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है, वह भी मिथ्यारूप है । शून्य का प्रसंग होने से तुम्हारा अनुभव भी आकाशकुसुम के अनुभव के समान है ।" 1 कलश १० - इसप्रकार इस तेरहवीं गाथा, उसकी टीका एवं उसमें समागत कलशों में एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से उभर कर सामने आई है कि यद्यपि प्रमाण-नय-निक्षेपों के विषयभूत नवतत्त्वार्थ, द्रव्य-गुण- पर्याय एवं उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य भी जानने योग्य हैं, उन्हें जानना उपयोगी भी है, आवश्यक भी है; तथापि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा के आश्रय से ही होती है । अत: अब आगामी गाथा में शुद्धनय का स्वरूप कहेंगे । - आगामी गाथा की उत्थानिकारूप में समागत १० वें कलश में भी शुद्धनय के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । वह कलश मूलत: इसप्रकार है आत्मस्वभावं ( उपजाति ) परभावभिन्नमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १० ॥ ( हरिगीत ) परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है । संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 समयसार अनुशीलन जो एक है परिपूर्ण है – ऐसे निजात्मस्वभाव को । करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ॥१०॥ परभावों से भिन्न, आदि-अन्त से रहित, परिपूर्ण, संकल्पविकल्पों के जाल से रहित एक आत्मस्वभाव को प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय उदय को प्राप्त होता है। ___ यहाँ परभाव में परद्रव्य, परद्रव्यों के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से प्रगट होनेवाले अपने विभावभाव – इन सभी को लिया गया है; क्योंकि परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत भगवान आत्मा इन सभी से भिन्न होता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्यों में अपनत्व स्थापित करना संकल्प है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना विकल्प है। शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा इन संकल्प-विकल्पों से रहित है, अनादि-अनन्त है, परिपूर्णतत्त्व है। इसमें किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है। __इस कलश में जिस आत्मस्वभाव की चर्चा है और जिसे प्रकाशित करता हुआ शुद्धनंय उदय को प्राप्त होता है, वही आत्मस्वभाव दृष्टि का विषय है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है। तेरहवीं गाथा में जिसे भूतार्थनय कहा गया था, उसे ही यहाँ शुद्धनय नाम से कहा जा रहा है। वहाँ भूतार्थनय से नवपदार्थों के जानने को सम्यग्दर्शन कहा गया था। यहाँ शुद्धनय से आत्मा के जानने को सम्यग्ज्ञान कहा जा रहा है। इस कलश में शुद्धनय के विषयभूत आत्मा के जो विशेषण दिये गये हैं, आगामी गाथा में भी लगभग वे ही विशेषण दिये हैं। अतः उनकी चर्चा तो विस्तार से वहाँ होगी ही, यहाँ उनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १४ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥ ( हरिगीत ) अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को। संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ॥१४॥ जो नय आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित एवं अन्य के संयोग से रहित देखता है, जानता है; हे शिष्य तू उसे शुद्धनय जान। तात्पर्य यह है कि शुद्धनय से भगवान आत्मा कर्मों से अबद्ध है, परपदार्थों ने इसे छुआ तक नहीं है । वह नर-नारकादि पर्यायों में रहते हुये भी अन्य-अन्य नहीं होता, अनन्य ही रहता है तथा अपने स्वभाव में सदा नियत ही है, समस्त विशेषों में व्याप्त होने पर भी अवशेष ही रहता है तथा रागादि में संयुक्त नहीं होता। यह गाथा शुद्धनय के विषय को स्पष्ट करनेवाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गाथा है । इस पर आचार्य अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, वह भी अत्यन्त गंभीर है । गाथा और टीका का अर्थ लिखने के उपरान्त विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने जो भावार्थ लिखा है, उसका आरम्भिक अंश इसप्रकार है - "आत्मा पाँच प्रकार से अनेकरूप दिखाई देता है - (१) अनादिकाल से कर्मपुद्गल के संबंध से बंधा हुआ कर्मपुद्गल के स्पर्शवाला दिखाई देता है। (२) कर्म के निमित्त से होनेवाली नर-नारकादि पर्यायों में भिन्नभिन्न स्वरूप से दिखाई देता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन (३) शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते भी हैं यह वस्तुस्वभाव है । इसलिए वह नित्य - नियत एकरूप दिखाई नहीं देता । (४) वह दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेषरूप दिखाई देता है । ― 164 (५) कर्म के निमित्त से होनेवाले मोह - राग-द्वेष आदि परिणामों से सहित वह सुख - दुःख रूप दिखाई देता है । यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनय का विषय है । इस दृष्टि से देखा जाय तो यह सब सत्यार्थ है; परन्तु आत्मा का एकस्वभाव इस नय से ग्रहण नहीं होता और एकस्वभाव जाने बिना यथार्थ आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नय को उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिकनय को ग्रहण करके एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्मा का भाव लेकर, उसे शुद्धनय की दृष्टि से सर्व परद्रव्यों से भिन्न, सर्वपर्यायों में एकाकार, हानि-वृद्धि से रहित, विशेषों से रहित और नैमित्तिक भावों से रहित देखा जाये तो सर्व (पाँच) भावों से जो अनेकप्रकारता है, वह अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।" - यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि यहाँ सर्वपर्यायों से भिन्न शब्द का प्रयोग न करके सर्वपर्यायों में एकाकार शब्द का प्रयोग किया है। उक्त सन्दर्भ में इसीप्रकार के प्रयोग अन्यत्र भी देखने में आते हैं, जो अपना विशेष प्रयोजन रखते हैं । यद्यपि शुद्धनय के विषय में पर्यायें नहीं आती हैं, तथापि पर्यायों की भिन्नता उसप्रकार की नहीं है, जिसप्रकार की परद्रव्यों और उनकी पर्यायों की है। इस सन्दर्भ में द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के माध्यम से विस्तृत चर्चा ७वीं गाथा में की ही जा चुकी है । नर-नारकादि पर्यायों में जो परस्पर भिन्नता भासित होती है, उसपर से दृष्टि हटाकर; उन नर-नारकादि सभी पर्यायों में जो समानरूप से Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 गाथा १४ विद्यमान रहता है, एक रूप ही में रहता है, एकाकार रहता है; उस सामान्य, अभेद नित्य एवं एक आत्मा पर ही दृष्टि को केन्द्रित करना, उसे ही ज्ञान का ज्ञेय बनाना शुद्धनय का उदय है; क्योंकि वह शुद्धात्मा ही शुद्धtय का विषय है । यह बताने के लिए ही सर्वपर्यायों में एकाकार शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक अवस्था में जो एक ही रूप में सदा विद्यमान रहता है, वह ज्ञायकभाव ही शुद्धनय का विषय है । अनन्य विशेषण के माध्यम से आचार्यदेव यही कहना चाहते हैं । तात्पर्य यह है कि नर-नारकादि पर्यायें आत्मा में से वस्तुरूप से अलग नहीं हो जाती हैं, वे तो अपने क्रमानुसार होती ही रहती हैं, बदलती ही रहती हैं; कभी मनुष्य पर्याय होती है तो कभी नारकी पर्याय होती है; तथापि क्रमश: प्रवर्त्तमान होनेवाली पर्यायों में जो सदा एकसा रहता है, अक्रमरूप से विद्यमान रहता है, अनेकाकार पर्यायों में जो एकाकाररूप से उपस्थित रहता है; वह ज्ञायकभाव ही शुद्धनय का विषय है । दूसरी बात यह है कि भावार्थ में जो एकस्वभाव और अनेकस्वभाव या अनेकप्रकारता की बात की है; वह द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में जो भाव के भेद के रूप में, गुणभेद और गुणभेद के निषेध के रूप में एक-अनेक की बात आती है, वह नहीं है। यहाँ तो बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से युक्तता अनेकस्वभाव है और इनसे रहितता एकस्वभाव है । इनमें से आत्मा का एकस्वभाव शुद्धनय का विषय है और अनेकस्वभाव अशुद्धनय का विषय है । यह बताया जा रहा है । प्रश्न - शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त इन पाँच भावों से युक्त है, एकस्वभाववाला है; तो क्या आत्मा में विद्यमान बद्धस्पृष्टादिभाव सर्वथा अभूतार्थ हैं, आत्मा का अनेकस्वभाव सर्वथा अभूतार्थ है ? - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन उत्तर - बद्धस्पृष्टादिभावों की भूतार्थता - अभूतार्थता पर आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में विविध उदाहरणों के माध्यम से विस्तार से प्रकाश डाला है, जो इसप्रकार है 44 — अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है, इसप्रकार एक आत्मा ही प्रकाशमान है। शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग-अलग नहीं । — 166 प्रश्न - ऐसे आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ? उत्तर - बद्धस्पृष्टादिभावों के अभूतार्थ होने से यह अनुभूति हो सकती है। अब इसी बात को पाँच दृष्टान्तों के द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं (१) जिसप्रकार जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र का जल से स्पर्शितपर्याय की ओर से अनुभव करने पर, देखने पर, जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य कमलिनी पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । इसीप्रकार अनादिकाल से बंधे हुए आत्मा का पुद्गलकर्मों से बंधने, स्पर्शित होनेरूप अवस्था से अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि पुद्गल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । (२) जैसे कुण्डा, घड़ा, खप्पर आदि पर्यायों से मिट्टी का अनुभव करने पर अन्यत्व (वे अन्य-अन्य हैं, जुदे- जुदे हैं यह ) भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वत: अस्खलित ( सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भी भेदरूप न होनेवाले ) एक मिट्टी के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 गाथा १४ इसीप्रकार नर-नारकादि पर्यायों से आत्मा का अनुभव करने पर अन्यत्व भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वतः अस्खलित (सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भेदरूप न होनेवाले) एक चैतन्याकार आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। __ (३) जिसप्रकार समुद्र का वृद्धि-हानिरूप अवस्था से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि समुद्र के नित्य स्थिरस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। इसीप्रकार आत्मा का वृद्धि-हानिरूप पर्यायभेदों से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है ; तथापि नित्य स्थिर आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। (४) जिसप्रकार सोने का चिकनापन, पीलापन, भारीपन इत्यादि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है; तथापि जिसमें सर्वविशेष विलय हो गए हैं – ऐसे सुवर्णस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। इसीप्रकार आत्मा का ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय हो गये हैं – ऐसे आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। (५) जिसप्रकार अग्नि जिसका निमित्त है - ऐसी उष्णता के साथ संयुक्ततारूप - तप्ततारूप अवस्था से जल का अनुभव करने पर जल की उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि एकान्त शीतलतारूप जलस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर उष्णता के साथ जल की संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 समयसार अनुशीलन उसीप्रकार कर्म जिसका निमित्त है – ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से आत्मा का अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है ; तथापि जो स्वयं एकान्त बोधरूप है, ज्ञानरूप है – ऐसे जीवस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।" प्रश्न - उक्त कथन में लगभग सर्वत्र ही 'पर्याय से अनुभव करने पर' और 'द्रव्यस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर' शब्द आये हैं तो क्या पर्याय का भी अनुभव करना है? उत्तर - अरे भाई, यह अनुभव करने की बात नहीं है। यहाँ तो जानने की ही बात चल रही है। यहाँ अनुभव करने का अर्थ जानना है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का निम्नांकित मार्गदर्शन अत्यन्त उपयोगी है__ "जहाँ पर्याय से अनुभव करने पर' ऐसा आवे, वहाँ अनुभव करने का अर्थ 'जानना' होगा तथा जहाँ 'द्रव्य का अनुभव करने पर' ऐसा आवे, वहाँ अनुभव करने का अर्थ 'द्रव्य का आश्रय करना' जानना चाहिए।" उक्त पाँचों बोलों में दो दृष्टियों का उल्लेख है - (१) संयोग की, पर्याय की, भेद की ओर से देखने की दृष्टि । (२) स्वभाव के समीप जाकर देखने की दृष्टि । संयोग की ओर से, पर्याय की ओर से, भेद की ओर से देखने की दृष्टि अशुद्धनय की दृष्टि है, अभूतार्थनय की दृष्टि है, व्यवहारनय की दृष्टि है; और स्वभाव के समीप जाकर देखने की दृष्टि शुद्धनय की दृष्टि है, भूतार्थनय की दृष्टि है, परमशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि है। अशुद्धनय की दृष्टि से बद्धस्पृष्टादिभाव आत्मा में विद्यमान हैं; अतः १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ २३२ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 गाथा १४ भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; पर शुद्धनय की दृष्टि से वे भाव आत्मा में नहीं है; अत: अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। ___ध्यान रहे कि ये बद्धस्पृष्टादिभाव और अबद्धस्पृष्टादिभाव एक ही आत्मा में एक ही काल में विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही साथ घटित होते हैं, रहते हैं । यह एक ही आत्मा की बात है, भिन्न-भिन्न अनेक आत्माओं की नहीं। जो आत्मा जिस समय अशुद्धनय से बद्धस्पृष्टादिभावों से सहित होता है; वही आत्मा उसी समय शुद्धनय से बद्धस्पृष्टादिभावों से रहित भी होता है। इसमें कोई क्या करे, वस्तुस्वरूप ही ऐसा है। इस गाथा में अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - इन पाँच विशेषणों के माध्यम से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है; क्योंकि निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति इसी आत्मा के आश्रय से होती है। (१) इन पाँच विशेषणों में अबद्धस्पृष्ट आत्मा की पर से भिन्नता को बताया है। जब आत्मा का पर के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है तो कर्मों से बंधने की बात ही कहाँ रहती है? इसीप्रकार जब भगवान आत्मा में स्पर्श नामक गुण ही नहीं है तो उसे कोई छू भी कैसे सकता है? __ आगम में कर्म से बंधने और पर के स्पर्श की जो बात आती है, आत्मख्याति टीका में उसकी भूतार्थता की अपेक्षा भी स्पष्ट कर दी है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आत्मस्वभाव के समीप जाकर देखने पर बंधन की बात, पर के स्पर्श की बात एकदम अभूतार्थ है। जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र के उदाहरण से यह बात एकदम स्पष्ट हो गई है । यद्यपि कमलिनी का पत्ता जल में डूबा हुआ है, तथापि वह अपने रूखे स्वभाव के कारण रंचमात्र भी गीला नहीं होता। उसीप्रकार यह भगवान आत्मा कर्मों के मध्य स्थित होने पर अपने अबद्धअस्पर्शीस्वभाव के कारण कर्मों से अबद्ध ही है, अस्पर्शी ही है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन इसप्रकार इस विशेषण से दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को पर से भिन्न सिद्ध किया गया है। 170 (२) अनन्य विशेषण से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को अनेक द्रव्यपर्यायों (असमानजातीय द्रव्यपर्यायों) से नर-नारकादि पर्यायों से भी पार बताया गया है। मिट्टी और मिट्टी से बने हुए घट, सकोरा आदि बर्तनों के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो गई है कि यद्यपि घट और सकोरा अन्य - अन्य हैं, जुदे- जुदे हैं; घट सकोरा नहीं है और सकोरा घट नहीं है; तथापि जब हम घट और सकोरा को दृष्टि में न लेकर जिस मिट्टी से वे दोनों बने हैं, उस मिट्टी के रूप में ही देखें तो घट भी मिट्टी ही है और सकोरा भी मिट्टी ही है; अतः वे दोनों अन्यअन्य नहीं, अनन्य (एक) ही हैं। इसीप्रकार यद्यपि मनुष्य और नारकी अन्य-अन्य (जुदे - जुदे) ही हैं, मनुष्य नारकी नहीं है और नारकी मनुष्य नहीं है; तथापि जब हम मनुष्य और नारकी पर्यायों को दृष्टि में न लेकर, जिस आत्मा की वे पर्यायें हैं, उन सभी पर्यायों में व्याप्त एकाकार उस आत्मा को देखें तो मनुष्य भी आत्मा ही है और नारकी भी आत्मा ही है; अत: नारकी और मनुष्य दोनों अन्य - अन्य नहीं हैं, अनन्य (एक) ही है । यदि पर्याय की ओर से देखें तो मारीचि अन्य है और महावीर अन्य है । मारीचि का चरित्र जानकर हमें उसके प्रति अश्रद्धा होती है और महावीर का चरित्र जानकर हमें उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, मारीचि से द्वेष होता है और महावीर से राग होता है; पर जब हमारा ध्यान मारीचि और महावीर पर्याय की ओर नहीं जाता है; उन दोनों पर्यायों में अनुस्यूतरूप से विद्यमान भगवान आत्मा की ओर जाता है, तोन अश्रद्धा होती है, न श्रद्धा होती है, साम्यभाव रहता है; न द्वेष होता है न राग होता है, एक वीतरागभाव बना रहता है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 गाथा १४ अतः आत्मा को नर-नारकादि पर्यायों में विभक्त करके अन्य अन्य देखना वीतरागभाव के लिए उपयुक्त नहीं है, अपितु नर-नारकादि पर्यायों में समानरूप से समाहित अनन्य एकरूप देखना ही वीतरागभाव के लिए उपयुक्त है । (३) नियत विशेषण के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में, दृष्टि के विषय में षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप पर्यायें तथा निरन्तर घटना - बढ़ना है स्वभाव जिनका ऐसी औपशमिकभाव, क्षायोपशमिकभावरूप पर्यायें और क्षायिकभावरूप पर्यायें भी नहीं है । समुद्र के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट किया गया है । यद्यपि समुद्र में भी ज्वार-भाटे आते हैं, उसमें भी वृद्धि हानि होती है; तथापि समुद्र अपनी मर्यादा को कभी नहीं छोड़ता । यदि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ने लगे तो लोक में प्रलय हो जावेगा। छोटी-बड़ी नदियों में जब बाढ़ आती है तो उसके किनारे बसे बड़े-बड़े नगर एवं गाँव उजड़ जाते हैं, हाहाकार मच जाता है, यदि समुद्र में बाढ़ आने लगे तो क्या होगा ? समुद्र के किनारे बम्बई जैसे बहुमंजिली नगर बसे हुए हैं, किसी को यह चिन्ता नहीं होती कि यदि समुद्र में बाढ़ आ गई तो क्या होगा ? सभी को समुद्र के इस स्वभाव की भली-भाँति खबर है, इसीकारण सभी निश्चित रहते हैं । वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि समुद्र भी घटता-बढ़ता है, पर अपनी मर्यादा में ही रहता है । अतः कोई चिन्ता की बात नहीं है । समुद्र के नियतस्वभाव के भरोसे ही समुद्र के किनारे इस नगरीय सभ्यता का विकास हो रहा है । जिसप्रकार समुद्र में आनेवाले ज्वार-भाटे की ओर से समुद्र को देखें तो वह घटता भी है और बढ़ता भी है, और उसका यह घटनाबढ़ना इस दृष्टि से भूतार्थ ही है, सत्यार्थ ही है; क्योंकि इस दृष्टि से समुद्र का स्वभाव अनियत ही है; तथापि यदि समुद्र को उसके Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 172 नियतस्वभाव की ओर से देखें तो वह न कभी घटता ही है और न कभी बढ़ता ही है, सदा अपनी मर्यादा में ही रहता है; अत: वह नियत ही है, अनियत नहीं; इस दृष्टि से उसका अनियतपना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। ___ द्रव्य होने से आत्मा में षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप पर्यायें भी है और औपशमिकभाव, क्षायिकभाव और क्षामोपशमिकभाव रूप पर्यायें भी हैं। इन पर्यायों की ओर से देखने पर आत्मा भी घटता-बढ़ता है; अत: अनियतस्वभाववाला है, अनियत है; पर नित्य स्थिर नियतस्वभाव की ओर से देखने पर यह अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। चूंकि शुद्धनय के विषयभूत आत्मा का स्वभाव नियत है, अत: शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में यह अनियतता नहीं है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण भी द्रष्टव्य है - "इसीप्रकार आत्मा को वृद्धि-हानिरूप पर्यायों से देखें तो अनियतपना कम-बढ़पना है । ज्ञान की पर्याय में ही हीनाधिकता होती है। किसी समय नौ पूर्व का क्षयोपशम प्रगट हो- ज्ञान की ऐसी पर्याय होती है तो किसी समय अक्षर का अनन्तवाँ भागमात्र ज्ञान का क्षयोपशम देखा जाता है । आलू, लहसुन, मूली आदि कंदमूल में निगोद के जीव हैं । एक राई जितने टुकड़े में असंख्यात शरीर हैं। एक-एक शरीर में आजतक जितने सिद्ध हुए, उनसे अनंतगुणे जीव हैं। निगोद के जीवों की पर्याय में अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान का विकास है। उसमें से कोई जीव बाहर निकल कर मनुष्य होकर द्रव्यलिंगी साधु हो और पर्याय में नौ पूर्व की लब्धि (क्षयोपशमज्ञान) प्रगट करले। ___ इसप्रकार आत्मा के वृद्धि-हानिरूप पर्याय भेदों से देखने पर अनियतपना सत्यार्थ है । व्यवहारनय से पर्याय में हानि-वृद्धि है - यह सत्य है; तथापि नित्य स्थिर (निश्चल) उत्पाद-व्ययरहित ध्रुव आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 गाथा १४ है। आत्मस्वभाव में वृद्धि-हानि नहीं है, उत्पाद-व्यय में वृद्धि-हानि भले हो । पर्याय में केवलज्ञान हो, तो भी ध्रुवस्वभाव में कुछ घटता नहीं है और निगोद में अक्षर का अनन्तवाँ भाग क्षयोमशम रह जाय, इससे नित्य ध्रुवस्वभाव में कुछ बढ़ जाय – ऐसा नहीं है। भले ही पर्याय में हीनाधिकता हो, तथापि वस्तु तो जैसी है, वैसी ध्रुव-ध्रुवध्रुवस्वभाव ही रहती है। अहा हा .... ! विषय तो यह चलता है कि आत्मा की ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि की पर्यायों में एकपना नहीं है, वृद्धि-हानि होती है। पर्याय के लक्ष्य से देखने पर यह वृद्धि-हानि सत्यार्थ है, परन्तु पर्याय के लक्ष्य से त्रिकाली आत्मा अनुभव में नहीं आता; तथा आत्मा का सम्यक् श्रद्धानज्ञान तो त्रिकाली शुद्धज्ञायकभाव का अनुभव करने पर होता है।" स्वामीजी के उक्त कथन में आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि गुणों की औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभावरूप पर्यायों में जो वृद्धि-हानि होती है, शुद्धनय के विषय में उसका निषेध किया गया है, प्रकारान्तर से उन औपशमिकादि पर्यायों का ही निषेध किया गया है। षट्गुणी हानि-वृद्धि का निषेध तो पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ से ही स्पष्ट हो जाता है । छाबड़ाजी के भावार्थ की वे पंक्तियाँ इसप्रकार हैं - ___ "शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते भी हैं - यह वस्तुस्वभाव है; इसलिए वह नित्य-नियत एकरूप दिखाई नहीं देता।" इसकी व्याख्या स्वामीजी इसप्रकार करते हैं - "शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते भी हैं । ज्ञानादिक पर्याय में हीनाधिकता होती है। पर्याय में हीनाधिकता १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ २३३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 174 होना – यह पर्यायस्वभाव है, इससे नित्य नियत एकरूप दिखाई नहीं देता।" __ शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेदों का घटना-बढ़ना षट्गुणीहानिवृद्धिरूप ही होता है । अत: उक्त कथन से यह भी सिद्ध है कि शुद्धनय के विषय में षट्गुणीहानि-वृद्धिरूप पर्याय भी नहीं आती। ___ इस गाथा के भावार्थ में मुनिराज श्री वीरसागरजी महाराज भी नियत का अर्थ षट्गुणीहानि-वृद्धि से रहित करते हैं। प्रश्न -यह षट्गुणीहानि-वृद्धि क्या है, जिसका निषेध शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में नियत विशेषण के माध्यम से किया जा रहा है? उत्तर -षट्गुणीहानि-वृद्धि अगुरुलघुगुण की स्वभाव अर्थपर्याय है। जैसा कि अलापपद्धति के पर्यायाधिकार में कहा गया है - ___ "अगुरुलघुविकाराः स्वभावार्थपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपाः षड् ढानिरूपाः अनन्तभागवृद्धिः असंख्यातभागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धि अनन्तगुणवृद्धिः इति षट् वृद्धि तथा अनन्तभागहानिः असंख्यातभागहानिः संख्यातभागहानिः संख्यातगुणहानिः असंख्यातगुणहानिः अनन्तगुणहानिः-इति षट्हानि एवं षट्वृद्धि षड्ढानिरूपा ज्ञेयाः। अगुरुलघुगुण का परिणमन स्वाभाविक अर्थपर्यायें हैं। वे पर्यायें बारह प्रकार की हैं - छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ २४१ २. आचार्य देवसेन : आलापपद्धति, पृष्ठ ५३-५४, प्रकाशक श्री शान्तिवीर दि. जैन संस्थान, महावीरजी (राजस्थान) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 गाथा १४ संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि - ये छह वृद्धिरूप पर्यायें हैं । अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि – ये छह हानिरूप पर्यायें हैं । इसप्रकार छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप पर्यायें जानना चाहिए ।" प्रत्येक द्रव्य में आगमप्रमाण से सिद्ध अनन्त अविभागप्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है, जिसका छह स्थान पतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है । प्रश्न – औपशमिक भावों में कर्म का उपशम निमित्त होता है, क्षायोपशमिक भावों में कर्म का क्षयोपशम निमित्त होता है, क्षायिक भावों में कर्म का क्षय निमित्त होता है, औदयिकभावों में कर्म का उदय निमित्त होता है । अतः शुद्धनय के विषय में इनके निषेध की बात तो समझ में आती है; परन्तु इस षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप स्वभाव अर्थपर्यायों में तो कोई भी कर्म निमित्त नहीं होता है। यह तो एक सहज परिणमन है । अतः शुद्धनय के विषय में इसके निषेध की क्या आवश्यकता है? उत्तर - यह स्वभाव अर्थपर्याय भी वृद्धि हानि रूप होने से विकल्पोत्पादक है, इसके आश्रय से भी उपयोग स्थिर नहीं हो सकता । अतः ध्यान के ध्येय में, श्रद्धान के श्रद्धेय में और शुद्धनय के विषय में इसका भी निषेध अभीष्ट है । इसप्रकार यह स्पष्ट हुआ कि नियत विशेषण से शुद्धनय के विषय में षट्गुणीहानि - वृद्धिरूप पर्यायों और औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भावरूप अर्थपर्यायों का भी निषेध हो गया है । १. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ५, सूत्र ७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 176 प्रश्न -जब नियत विशेषण से औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिकभावरूप अर्थपर्यायों का निषेध किया है तो साथ में औदयिकभावरूप अर्थपर्यायों का भी निषेध क्यों नहीं कर दिया? उत्तर –उनका निषेध आगे असंयुक्त विशेषण के माध्यम से किया जायेगा। अत: यहाँ उनके निषेध की आवश्यकता नहीं समझी गई। कलशटीका में अनियत का अर्थ कुछ हटकर किया है, जो इसप्रकार है - "असंख्यातप्रदेशसम्बन्धी संकोच और विस्ताररूप परिणमन का नाम अनियतभाव है" प्रदेशों के संकोच-विस्तार रूप तो नर-नारकादि रूप व्यंजन पर्यायें ही होती हैं; इसीकारण प्रदेशत्वगुण के विकार को व्यंजनपर्याय कहते हैं । उनका निषेध तो अनन्य विशेषण में ही किया जा चुका है। अतः यदि कलश टीका के उक्त कथन का आशय प्रदेशभेद के निषेध के रूप में लिया जाय तो भी अयुक्त न होगा। आत्मा के क्षेत्र के सम्बन्ध में एक बात यह भी विचारणीय है कि आत्मा का कोई सुनिश्चित आकार तो है नहीं; क्योंकि जिनागम में उसे व्यवहार से देहप्रमाण और निश्चय से असंख्यप्रदेशी कहा गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में द्रव्यसंग्रह में जो कुछ कहा गया है, वह इसप्रकार है - "अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंख्यदेसो वा॥ व्यवहारनय से यह जीव समुद्घात के काल को छोड़कर संकोचविस्तार के कारण अपने छोटे या बड़े शरीर प्रमाण रहता है और निश्चयनय की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी है।" १. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव : द्रव्यसंग्रह, गाथा १० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 गाथा १४ उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि आत्मा कर्मोदयानुसार जिस देह में पहुँच जाता है, आत्मा के प्रदेश वही आकार धारण कर लेते हैं और ज्यों-ज्यों देह का आकार बदलता है, तदनुसार आत्मा का आकार भी बदलता रहता है । यद्यपि आत्मप्रदेशों के उक्त आकारों के कारण आत्मा को कोई सुख-दुःख नहीं होता, तथापि वे आकार आत्मा के निरुपाधि आकार तो नहीं माने जा सकते। ऐसी स्थिति में वे आकार आत्मध्यान के ध्येय भी कैसे बन सकते हैं? यदि किसी मनुष्यादि देह के आकार में स्थित आत्मा को ध्यान का ध्येय बनायेंगे तो वह मनुष्यादि पर्याय ही ज्ञान का ज्ञेय और ध्यान का ध्येय बनेगी, जो निश्चित रूप से द्रव्यदृष्टि न होकर पर्यायदृष्टि ही होगी। अतः प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए आत्मा के किस आकार का ध्यान किया जाये ? दूसरी बात यह भी है कि मनुष्यादि आकार की बात भी स्थूल है; चलती-फिरती सांस लेती मनुष्य देह के भी तो दिन में हजारों आकार बदलते हैं; तदनुसार आत्मा का आकार भी बदलेगा ही । ऐसी स्थिति में मनुष्यादि देह के किस आकार को ध्यान का ध्येय बनाया जायेगा ? इस समस्या के समाधान के लिये यदि यह कहा जाय कि सिद्धदशा में आत्मा जिस आकार में रहता है, उसी आकार का ध्यान किया जाय; तो भी समस्या का समाधान न होगा; क्योंकि सिद्धों का आकार भी तो अन्तिम देह के अनुसार ही होता है, अन्तिमदेह के किंचत् न्यून होता है। निर्वाण होते समय अन्तिम समय में देह का जो आकार होगा, सिद्धदशा में भी किंचित् न्यूनरूप से वही आकार होगा - यह शास्त्रों का वचन है। वह आकार भी तो आत्मा का निरुपाधि आकार नहीं हैं, वह भी तो एक प्रकार से देहाकार ही है और यह तो सर्वविदित ही है कि देहाकार के ध्यान से साध्य की सिद्धि नहीं होती । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 178 एक बात यह भी तो है कि चरमदेह की अन्तिम स्थिति पद्मासन और खड्गासन-दोनों रूपों में से किसी भी रूप में हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम आत्मा के किस आकार का ध्यान करेंगे - पद्मासन का या खड्गासन का? दोनों का ध्यान तो एकसाथ सम्भव है नहीं। हमें अभी यह भी तो पता नहीं है कि जब हमारा मोक्ष होगा, तब हमारा आकार पद्मासन होगा. या खड्गासन ? ऐसी स्थिति में हम किस आसन के आकार का ध्यान करेंगे? ___यदि कोई कहे कि हम उन सिद्धों के आकार का ध्यान करेंगे, जो अब तक सिद्ध हो चुके हैं। यदि ऐसा किया गया तो फिर वह ध्यान किसी अन्य का होगा, स्वयं का नहीं। अन्य के ध्यान से कर्म नहीं कटते, धर्म भी नहीं होता; शुभभाव हो सकता है, पुण्य भी बन्ध सकता है; पर कर्मों का नाश होकर परमानंद प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में समस्या यह है कि आखिर हम ध्यान में भगवान आत्मा को किस आकार में देखें? अरे भाई ! ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय, शुद्धनय का ज्ञेय, दष्टि का विषय आत्मा साकार नहीं, अनाकार है। यह अनाकार आत्मा ही निश्चयनय से असंख्यप्रदेशी कहा गया है, उसे किसी आकार का नहीं बताया। जब भी आत्मा के आकार की चर्चा होती है तो कहा जाता है कि आत्मा व्यवहार से देह प्रमाण और निश्चय से असंख्यातप्रदेशी होता है। अतः दृष्टि के विषय में आत्मा का कोई आकार नहीं आता। अनुभव के काल में आत्मा का कोई आकार नहीं दिखता, आनन्द का अनुभव होता है । रहस्यपूर्ण चिठ्ठी में पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि आत्मानुभूति में प्रदेशों का प्रत्यक्ष नहीं होता, अनुभव प्रत्यक्ष होता है। __ जो लोग ऐसा कहते हैं कि हमें आत्मा का साक्षात्कार हुआ और वह अमुक आकार में दिखाई दिया; उन्हें उक्त मंथन पर गंभीरता से Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 गाथा १४ विचार करना चाहिये; क्योंकि अनुभूति में तो असंख्यप्रदेशी अखण्ड आत्मा ही अनुभव में आता है, कोई आकार दिखाई नहीं देता, कोई प्रकाश दिखाई नहीं देता। प्रकाश तो पुद्गल की पर्याय है और आकार देहादि का ही है । अत: अनुभूति में प्रकाश और आकार दिखने की बात कपोलकल्पित ही है । I ४९वीं गाथा में आत्मा को अनिर्दिष्टसंस्थान वाला कहा है। उसका आशय भी यही है कि आत्मा का ऐसा कोई सुनिश्चित आकार नहीं है, जिसे ध्यान का ध्येय बनाया जाय । अनिर्दिष्टसंस्थान की विस्तृत व्याख्या तो यथास्थान ही होगी; यहाँ तो मात्र इतना स्पष्ट करना ही अभीष्ट है कि ध्यान में भगवान आत्मा का कोई आकार नहीं दिखता । अतः शुद्धनय के विषय में, दृष्टि के विषय में भी कोई आकार सम्मिलित नहीं है । (४) अविशेष विशेषण से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा गुणभेद से भिन्न बताया गया है। इस बात को सोने का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। सोने को सोने में विद्यमान गुणों की ओर से देखें तो सोना पीला है, चिकना है, भारी है; यह बात सत्य ही है, तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय को प्राप्त हो गये हैं; ऐसे सोने के शुद्धस्वभाव की ओर से देखें तो सोना तो सोना ही है; पीला, चिकना आदि कुछ भी नहीं । - इसीप्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की ओर से देखने पर भगवान आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है; पर जिसमें सर्व विशेष विलय को प्राप्त हो गये हैं, ऐसे आत्मस्वभाव के समीप जाकर देखें तो आत्मा तो आत्मा ही है, न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है । इस विषय को ७वीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। अतः यहाँ विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं है I Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन (५) असंयुक्त विशेषण के माध्यम से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को रागादि विकारी पर्यायों से असंयुक्त बताया गया है, भिन्न बताया गया है। इस बात को गर्म जल के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है । 180 यद्यपि जल स्वभाव से तो ठंडा ही है, तथापि यदि वह अग्नि के संयोग में रहे तो गर्म हो जाता है। जब वह गर्म होता है, तब भी स्वभाव से तो ठंडा ही रहता है। तात्पर्य यह है कि वह अपने शीतलस्वभाव को कभी छोड़ता नहीं है । यद्यपि यह बात भी सत्य है कि कोई व्यक्ति जल के शीतलस्वभाव से अभिभूत होकर खोलते हुए गर्म पानी में हाथ डाल दे तो जले बिना नहीं रहेगा: तथापि यह भी सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति जल को गर्म जानकर उसका पीना ही बन्द कर दे तो भी प्यासा ही रहेगा। जिसप्रकार शीतलता जल का स्वभाव है और गर्म होना संयोगीभाव है, विभावभाव है; उसीप्रकार रागादि से असंयुक्त रहना आत्मा का स्वभाव है और रागादि से संयुक्त होना आत्मा का विभावभाव है । शुद्धनय का विषय स्वभाव ही होता है; अतः शुद्धनय का विषयभूत आत्मा रागादि से असंयुक्त ही है । इसप्रकार शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को उक्त पाँच विशेषणों में से एक विशेषण के माध्यम से अर्थात् अबद्धस्पृष्ट विशेषण के माध्यम से पर से भिन्न, एक विशेषण के माध्यम से अर्थात् अविशेष विशेषण के माध्यम से गुणभेद से भिन्न एवं शेष तीन विशेषणों के माध्यम से पर्यायों से भिन्न बताया गया है। पर्यायों में अनन्य विशेषण के माध्यम से नर-नारकादि असमानजातीय व्यंजनपर्यायों से भिन्न, नियत विशेषण के माध्यम से षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप स्वभाव अर्थपर्यायों से भिन्न एवं औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भावों से भिन्न एवं असंयुक्त विशेषण से औदयिक भावों से, रागादि विकारी भावों से भिन्न बताया गया है 1 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 गाथा १४ प्रदेशभेद से भिन्नता को गुणभेद से भिन्न में गर्भित जानना चाहिए; क्योंकि आत्मा में गुणों के समान ही प्रदेशों की स्थिति है । जिसप्रकार यह भगवान आत्मा अनन्तगुणात्मक होकर भी एक है, उसीप्रकार असंख्यप्रदेशी होकर भी अभेद है। जिसप्रकार आत्मा में गुण हैं; पर गुणभेद नहीं; उसीप्रकार आत्मा में प्रदेश हैं, पर प्रदेशभेद नहीं । प्रदेशभेद से भिन्नता को व्यंजनपर्यायों से भिन्नता में भी गर्भित किया जा सकता है; क्योंकि व्यंजनपर्यायें आत्मा के आकार से ही संबंधित हैं और प्रदेशत्वगुण के विकार को ही व्यंजनपर्याय कहते हैं । कलशटीका के अर्थ के अनुसार विचार करें तो प्रदेशभेद के निषेध की बात नियत विशेषण से भी ली जा सकती है । इसप्रकार प्रदेशभेद की बात विभिन्न अपेक्षाओं से अनन्य, नियत और अविशेष विशेषणों में से किसी से भी ली जा सकती है या फिर तीनों से ही ली जा सकती है । भगवान आत्मा को व्यजंनपर्याय से भिन्नता के कारण अनन्य विशेषण में देह से भिन्न, अबद्धस्पृष्ट विशेषण में द्रव्यकर्म से भिन्न, असंयुक्त विशेषण में भावकर्म से भिन्न, नियत विशेषण में पर्यायों से पार, सर्वपर्यायों में एकाकार और अविशेष विशेषण में गुणभेद से भिन्न बता दिया है और विभिन्न अपेक्षाओं से प्रदेशभेद का भी निषेध कर दिया गया है । इसप्रकार जो नय आत्मा को देह से भिन्न, द्रव्यकर्मभावकर्म से भिन्न, पर्यायों से पार, सर्वपर्यायों में एकाकार और गुणभेद से भिन्न प्रदेशभेद से भिन्न असंख्यातप्रदेशी एक बताये; वह शुद्धनय है । यह सहज ही प्रतिफलित हो गया । छठवीं-सातवीं गाथा में दृष्टि के विषयभूत जिस शुद्धात्मा का प्रतिपादन किया गया था, उसे ही यहाँ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेषं और असंयुक्त विशेषणों से समझाया गया है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 182 __ अब आगामी कलश में इसी शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं। कलश मूलतः इसप्रकार है - ( मालिनी ) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितंरतोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥११॥ ( हरिगीत ) पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ॥११॥ ये बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव जिस आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करते, मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते हैं और जो आत्मस्वभाव चारों ओर से प्रकाशमान है अर्थात् सर्व-अवस्थाओं में प्रकाशमान है; आत्मा के उस सम्यक्स्वभाव का हे जगत के प्राणियों ! तुम मोहरहित होकर अनुभव करो। उक्त छन्द में शुद्धनय के विषयभूत बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से रहित, अपनी समस्त अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक् आत्मस्वभाव के अनुभव करने की प्रेरणा दी गई है और यह भी कहा गया है कि शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा के अतिरिक्त जो बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव हैं, उनसे एकत्व का मोह तोड़ो, उन्हें अपना मानना छोड़ो। चूंकि अनुभव में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों की सभी अन्तरोन्मुखी पर्यायें शामिल होती हैं; अत: यहाँ अनुभव करने का आशय यह है कि शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को ही जानो, उसमें ही अपनापन स्थापित करो और उसमें ही स्थिर हो जावो, लीन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 कलश ११. १२ हो जावो, जम जावो, रम जावो, समा जावो, उसका ही ध्यान करो, उसे ही ध्यान का ध्येय बनाओ। एकमात्र करने योग्य कार्य तो यही है, सच्चा धर्म भी यही है, मुक्ति का मार्ग भी यही है, परमसुखी होने का उपाय भी यही है। इस कलश के भावानुवाद में कविवर बनारसीदासजी भी अत्यन्त सशक्त शब्दों में आत्मानुभव करने की प्रेरणा देते हैं; जो इसप्रकार है ( कवित्त ) सदगुरु कहै भव्यजीवनि सौं, तोरहु तुरित मोह की जेल। समकितरूप गहौ अपनौ गुन, करहु सुद्ध अनुभव को खेल। पुदगलपिंड भाव रागादिक, इनसौं नाहिं तुम्हारौ मेल। ए जड़ प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसे भिन्न तोय अरु तेल॥ सद्गुरु भव्य जीवों से कहते हैं कि इस मोह (मिथ्यात्व) की जेल को तत्काल तोड़ दो, वस्तु के सम्यक्स्वरूप को ग्रहण करो, सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो; क्योंकि वह अपने ही श्रद्धागुण का निर्मल परिणमन है और शुद्धात्मा के अनुभव को प्राप्त कर उसके साथ खेलो। पुद्गलादि अजीव द्रव्य और इन रागादि भावों से तुम्हारा कोई मेल (संबंध) नहीं है; क्योंकि ये प्रकटरूप से जड़ है और तुम अन्तर में गुप्त चेतन तत्त्व हो। ये और तुम उसीप्रकार भिन्न-भिन्न हो कि जिसप्रकार पानी और तेल भिन्न-भिन्न हैं, भिन्न-भिन्न रहते हैं। अब आगे बारहवें कलश में कहते हैं कि यह शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा स्वयं ही देवाधिदेव है । कलश मूलत: इसप्रकार है - ( शार्दूलविक्रीड़ित ) भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीयद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलंकपंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 समयसार अनुशीलन ( रोला ) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत्। वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥ तो निज अनुभवगम्य आत्मा सदा विराजित। विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥ १२ ।। यदि कोई बुद्धिमान सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीव अपने आत्मा को भूत, वर्तमान और भविष्य काल संबंधी कर्मों के बंध से भिन्न करके देखे, बद्धस्पृष्टादि भावों के प्रति एकत्व के मोह को अपने पुरुषार्थ से बलपूर्वक दूर करके अंतरंग में देखे तो अनुभवगम्य महिमा का धारक यह निजभगवान आत्मा कर्मकंलकरूपी कीचड़ से अलिप्त, निश्चल, नित्य, शाश्वत स्वयं देवाधिदेव के रूप में ही दिखाई देता है; क्योंकि शुद्धनय का विषयभूत निजभगवान आत्मा तो सदा ही देहदेवल में बद्धस्पृष्टादिभावों से रहित विराजमान है। इस कलश का भावानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया है - ( सवैया इकतीसा ) कोऊ बुद्धिवंत नर निरखै सरीर-घर, भेदग्यानदृष्टि सौं विचारै वस्तु-वास तौ। अतीत अनागत वरतमान मोहरस, भीग्यौ चिदानंद लखै बंध मैं विलासतौ। बंधकौ विदारि महा मोह को सुभाउ डारि, आतमा को ध्यान करै देखै परगासतौ। करम-कलंक-पंकरहित प्रगटरूप, ___ अचल अबाधित विलोकै देव सासतौ॥ कोई बुद्धिमान व्यक्ति देहदेवल में विराजमान आत्मा को देखें और भेदज्ञान की दृष्टि से वस्तुस्वरूप का विचार करें तो भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन मोहरस में भींगे तथा बंध में विलास करते हुए आत्मा का निश्चय करके बंध का विदारण और मोह के निवारण पूर्वक आत्मा को देखते हुए आत्मा का ध्यान करे तो यह आत्मा निज को Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 कलश १२ कर्मकलंकरूपी कीचड़ से रहित, अचल, अवाधित प्रगटरूप शास्वत परमात्मा के रूप में देखता है । तात्पर्य यह है कि अपना यह आत्मा ही कर्मकलंक से रहित स्वयं साक्षात् परमात्मा है । --- भगवान दो प्रकार के होते हैं एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्माओं की नित्य उपासना करते हैं, भक्ति करते हैं, पूजन करते हैं; जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं, भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं । दूसरे देहदेवल में विराजमान शुद्धनय का विषयभूत निजभगवान आत्मा भी परमात्मा है; भगवान है और इसे कारणपरमात्मा कहते हैं । इस कारणपरमात्मा की ही चर्चा इस १२वें कलश में की गई है । मन्दिर में विराजमान परमात्माओं के दर्शन का नाम देवदर्शन है और उससे हमें सातिशय पुण्य का बंध होता है; पर देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है और इससे किसी कर्म का बंध नहीं होता, अपितु बंध का अभाव होता है, कर्मबंधन करते हैं । इस त्रिकाली ध्रुव निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है और यह संसारी आत्मा पर्याय में परमात्मा बनता है, सच्चा देव बनता है; इसकारण वह देवाधिदेव है । वह शाश्वत है, नित्य है, सदा ही कर्मकलंकरूप पंक से विकल है, कर्मों से अबद्धस्पृष्ट है; अनन्य है, नियत है, अविशेष है, असंयुक्त है, अनुभवगम्य है; एकमात्र आराध्य भी वही है और उसकी आराधना ही परमधर्म है । वह भगवान आत्मा तेरे भीतर ही विराजमान है, तू ही है; फिर भी यह अज्ञानी जगत उसे बाहर में खोजता है । यह बड़ी भारी भूल है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 186 इसी भूल के कारण ही यह अज्ञानी जगत महादु:खी है। इस दुःख को दूर करने का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है तथा देहदेवल में विराजमान इस आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है, इसमें अपनापन होना ही सम्यग्दर्शन है, इसमें जमना-रमना ही सम्यक्चारित्र है। इसे जानना, पहिचानना, इसमें जमना-रमना ही मोह को हटात् हटाने का पुरुषार्थ है; इसके अतिरिक्त कोई क्रिया ऐसी नहीं है, जो मोह का नाश कर सके; शेष क्रियायें तो बंध को बढ़ानेवाली ही हैं। इस आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। अत: एक इस आत्मा में ही निश्चल हो जाना चाहिए। यह बात आगामी कलश में व्यक्त करते हैं; जो इसप्रकार है - ( वसंततिलका ) आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंप मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समंतात् ॥१३॥ ( रोला ) शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो। वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ।। आतम में आतम को निश्चल थापित करके। सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो॥१३॥ इसप्रकार जो शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है । यह जानकर तथा आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके ज्ञान के घनपिण्ड और नित्य इस आत्मा को सदा ही देखना-जानना चाहिए। इस कलश का भावानुवाद कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 कलश १३ ( सवैया तेईसा ) सुद्धनयातम आतम की, अनुभूति विज्ञान-विभूति है सोई। वस्तु विचारत एक पदारथ, नाम के भेद कहावत दोई॥ यौं सरवंग सदा लखि आपुहि, आतम-ध्यान करै जब कोई। मेटि असुद्ध विभावदसा तब, सुद्ध सरूप की प्रापति होई॥ शुद्धनय के विषयभूत आत्मा की अनुभूति ही ज्ञानानुभूति है, विज्ञानविभूति है। वस्तुस्वरूप का विचार करने पर आत्मानुभूति और ज्ञानानुभूति दोनों एक ही हैं ; इनमें भेद तो मात्र नाम का ही है। इसप्रकार सदा सर्वांग स्वयं का अनुभव कर जब कोई आत्मध्यान करता है; तब उसे अशुद्धविभावदशा के अभावपूर्वक शुद्धस्वरूप की प्राप्ति होती है। यहाँ ज्ञान और आत्मा को एक मानकर ही बात की गई है। इसकारण आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा है । ज्ञान आत्मा का गुण है और आत्मा गुणी द्रव्य है। गुण-गुणी को अभेद मानकर आत्मानुभूति को ज्ञानानुभूति कहा है। ज्ञानगुण आत्मद्रव्य का लक्षण है । आत्मा की पहिचान ज्ञानगुण से ही होती है । इसलिए लक्ष्यलक्षण के अभेद से भी ज्ञान को आत्मा कहा जाता है। ___ शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा की अनुभूति ही आत्मानुभूति कहलाती है, इसकारण ही यहाँ आत्मानुभूति को शुद्धनयात्मिका कहा गया है। शुद्धनय और उसके विषयभूत भगवान आत्मा की चर्चा विस्तार से की जा चुकी है। अतः यहाँ उस पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है। यह कलश आगामी गाथा की उत्थानिकारूप कलश है । आगामी गाथा में आत्मानुभूति को समस्त जिनशासन की अनुभूति कहा गया है। अतः इस कलश में भी आत्मानुभूति की ही प्रेरणा दी गई है। यह कलश मूलतः प्रेरणा देनेवाला कलश ही है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन आचार्य अमृतचन्द्र की यह विशेषता है कि वे टीका में तो गाथा के मर्म को खोलते हैं, गाथा के भाव को तर्क और युक्तियों से सिद्ध करते हैं, उदाहरणों से पाठकों के गले उतारते हैं और कलशों के माध्यम से उसे जीवन में उतारने की प्रेरणा देते हैं । इसकारण कलशों की व्याख्या में अधिक कुछ कहने को नहीं होता; क्योंकि उन्हें जो कुछ कहना होता है, वह तो वे टीका में ही कह चुकते हैं, कलश में तो उसी की गहराई में जाने की बात कहते हैं । टीका लिखते समय आचार्य अमृतचन्द्र का बुद्धिपक्ष सजग रहता है और कलशों में उनका हृदय हिलोरे लेने लगता है । बुद्धि को तर्कवितर्क के माध्यम से वस्तु की गहराई में जाने की टेब होती है और हृदय में भावना का बेग उमड़ता है । यहीकारण है कि उनकी गद्यात्मक टीका में तत्त्व की गहराई से मीमांसा होती है और कलशों से हृदय को छ लेनेवाली पावन प्रेरणा प्राप्त होती है । इसप्रकार उनकी यह आत्मख्याति टीका एकप्रकार से चम्पूकाव्य बन गई है। चम्पूकाव्य की परिभाषा ही यही है "" 'गद्य-पद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते 188 काव्य को चम्पू कहते हैं । " - - गद्य और पद्यमय - यद्यपि चम्पूकाव्य का उपयोग मूलतः कथा साहित्य में पाया जाता है; जैसे – जीवन्धरचम्पू, पुरुदेवचम्पू आदि; क्योंकि इस विधा की प्रकृति कथासाहित्य के ही अनुकूल हैं; तथापि आचार्य अमृतचन्द्र ने इस टीकाग्रन्थ में भी इसका सफल प्रयोग किया है। आत्मानुभूति की पावन प्रेरणा देनेवाले इस कलश के बाद अब आगामी गाथा में कहते हैं कि जो व्यक्ति शुद्धनय के विषयभूत उक्त आत्मा की अनुभूति करता है, उसे जानता है, वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १५ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुठं अणण्णमविसेसं। *अपदेससंतमझं पस्सादि जिणसासणं सव्व ॥१५॥ ( हरिगीत ) अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को। द्रव्य एवं भावश्रुतमय सकल जिनशासन लहे ॥१५॥ जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षण से नियत और अंसयुक्त) देखता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है । वह जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला १४वीं गाथा में शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के जो पाँच विशेषण दिये गये हैं, उनमें से अबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेष - ये तीन विशेषण तो इस गाथा में वैसे के वैसे ही दुहराये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि वे इन विशेषणों के माध्यम से इस गाथा में भी उसी आत्मा की चर्चा कर रहे हैं, जिसकी चर्चा १४वीं गाथा में की गई थी; गाथा में स्थान न होने से नियत और असंयुक्त विशेषणों का उल्लेख नहीं हो पाया है। अत: उपलक्षण से इन्हें भी शामिल कर लेना उचित ही है। शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के उक्त विशेषणों पर १४वीं गाथा में गहराई से मंथन हो चुका है। अत: अब यहाँ उन पर विशेष चर्चा करना आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की आत्मख्याति में इनकी चर्चा विशेष नहीं की है, अपितु * पाठान्तर : अपदेशसुत्तमझं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 190 गाथा के उत्तरार्द्ध को मुख्य बनाकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि शुद्धनय के विषयभूत आत्मा को जानने से सर्वश्रुत किसप्रकार जान लिया जाता है। सम्पूर्ण जिनागम का एकमात्र मूल प्रतिपाद्य शुद्धनय का विषयभृत यह भगवान आत्मा ही है । अथवा यह भी कह सकते हैं कि जिनशासन का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु शुद्धनय का विषयभूत यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त भाववाला भगवान आत्मा ही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग इसी भगवान आत्मा के आश्रय से होता है। उक्त संदर्भ में "तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ' का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है - "भगवान महावीर के उपदेशों का केन्द्रबिन्दु आत्मा है। अत: आत्मतत्त्व के प्रतिपादन के लिए परद्रव्यों का जितना और जो कथन आवश्यक है, उतना और वही कथन उनकी वाणी में मुख्यरूप से आया है । जीव का प्रतिपादन तो जीव के समझने के लिए है ही, किन्तु अजीव द्रव्यों का प्रतिपादन भी जीव (आत्मा) को समझने के लिए ही है; क्योंकि आत्मा का हित तो आत्मा के जानने में है। पर को मात्र जानना है और अपने जीव को जानकर उसमें जमना है, रमना है। पर को जानकर उससे हटना है और जीव को अर्थात् स्वजीव को जानकर उसमें डटना है। पर को जानकर उसे छोड़ना है और स्व को जानकर उसे पकड़ना है, जकड़ना है। तीर्थंकर महावीर की प्रतिपादन शैली की यह मुख्य पकड़ है। इसे जाने बिना उनके प्रतिपादन के निष्कर्ष बिन्दु को पकड़ पाना संभव नहीं है।" १. तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ, पृष्ठ ९४ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 गाथा १५ उक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सम्पूर्ण जिनशासन (जिनागम) का एकमात्र उद्देश्य संसार के दुःखी प्राणियों को संसार दुःख से मुक्त होकर सुखी होने का मार्ग बताना है । वह मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप है और ये सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र शुद्धtय के विषयभूत आत्मा के आश्रय से प्रगट होते हैं; अत: मूलरूप से शुद्धय के विषयभूत भगवान आत्मा को जानना ही आवश्यक रहा । अतः यह कहना उपयुक्त ही है कि जो अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा को जानता है; वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है । वह जिनशासन द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप है । द्रव्यश्रुत द्वादशांग जिनवाणी को कहते हैं और उसे अथवा उसके प्रतिपाद्य को जाननेवाली श्रुतज्ञानपर्याय को भावश्रुत कहते हैं । 'अपदेशसुत्तमज्झ' का अर्थ आचार्य जयसेन इसप्रकार करते - "जिसके द्वारा पदार्थ कहा जाय, वह अपदेश है; इसप्रकार अपदेश का अर्थ शब्द होता है, जिससे कि यहाँ पर द्रव्यश्रुत को ग्रहण करना और सूत्र शब्द से परिच्छित्तिरूप भावश्रुत जो कि ज्ञानात्मक है, उसे ग्रहण करना; इसप्रकार जो द्रव्यश्रुत के द्वारा वाच्य और भावश्रुत के द्वारा परिच्छेद्य हो, वह अपदेश - सूत्रमध्य कहा जाता है । " " उक्त कथन का सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि शुद्धनय का विषयभूत जो भगवान आत्मा द्रव्यश्रुत के द्वारा कहा गया है और भावश्रुत के द्वारा जाना गया है, उसे ही यहाँ अपदेश - सुत्तमज्झ कहा गया है। इसप्रकार सम्पूर्ण गाथा का अर्थ यह हुआ कि जो पुरुष द्रव्यश्रुत से वाच्य एवं भावश्रुत से ज्ञेय, अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त १. समयसार की आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका का आचार्य ज्ञानसागरजी कृत हिन्दी अनुवाद | Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 192 आत्मा को जानता है, अनुभव करता है; वह समस्त जिनशासन को जानता है। तात्पर्य यह है कि जो जैनागम के माध्यम से या उसके उपदेशदाता जिनवरदेव या जिनगुरुओं के माध्यम से, ज्ञानी धर्मात्माजनों के माध्यम से निजभगवान आत्मा को जानकर उसका अनुभव करता है, आत्मानुभूति से सम्पन्न होता है; वही समस्त जिनशासन का मर्मज्ञ है। और भी अधिक स्पष्ट कहें तो यह कह सकते हैं कि देशनालब्धिपूर्वक करणलब्धि पार कर जो आत्मानुभवी हुए हैं; वे ही समस्त जिनशासन के मर्मज्ञ हैं। इस संदर्भ में स्वामीजी का कथन भी द्रष्टव्य है - "अन्तर में एकरूप परमात्मतत्त्व की प्रतीति व रमणता करना ही शुद्धोपयोग है, जैनशासन है। यह जैनशासन "अपदेशसान्तमध्य" अर्थात् बाह्यद्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भाव श्रुतवाला है। जयसेनाचार्य की टीका में आता है कि बाह्यद्रव्यश्रुत में ऐसा ही कहा है कि अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करना ही जैनशासन है। बारह अंगरूप वीतरागवाणी का यही सार है कि शुद्धात्मा का अनुभव कर। द्रव्यश्रुत वाचक है, अन्दर भावश्रुतज्ञान उसका वाच्य है। द्रव्यश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मा के स्वरूप का निरूपण करता है और भावश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करता है। पण्डित श्री राजमलजी ने कलश १३ में बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया है। "शिष्य ने पूछा - इस प्रंसग में दूसरी यह भी शंका होती है कि कोई जानेगा कि द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व उपलब्धि है? उसका समाधान - द्वादशांगज्ञान विकल्प है। उसमें भी ऐसा ही कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, वीतरागी शुद्धात्मा का Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 गाथा १५ अनुशरण करने पर जो अनुभव होता है, वह अनुभूति मोक्षमार्ग है । ऐसी वस्तु को जानने के बाद विकल्प आवें तो शास्त्र बाँचे; किन्तु ऐसे जीवों को शास्त्र पढ़ने की कोई अटक नहीं है अर्थात् शास्त्र पढ़े बिना चले नहीं - ऐसा नहीं है ।" शास्त्रों के स्वाध्याय का मूल प्रयोजन तो एकमात्र दृष्टि के विषयभूत निजभगवान आत्मा को जानना है; क्योंकि उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्ग की उत्पत्ति होती है । दृष्टि का विषय और शुद्धनय का विषय एक ही है । अत: जब शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को जान लिया तो फिर शास्त्र पढ़ने की 'अनिवार्यता समाप्त हो जाती है; फिर भी ज्ञानी धर्मात्माओं की रुचि के अनुकूल होने से एवं उपयोग की विशुद्धि के लिए उपयोग अन्यत्र न भटके - इसके लिए ज्ञानी धर्मात्मा भी स्वाध्याय करते हैं और करना भी चाहिए। बात स्वाध्याय नहीं करने की नहीं है, अपितु यहाँ तो मात्र इतना बताया गया है कि आत्मानुभूति हो जाने पर वह अनिवार्य नहीं रहता । गाथा का मूल अभिप्राय तो यही है कि जो व्यक्ति के शुद्धनय विषयभूत अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अवशेष और असंयुक्त निजआत्मा को द्रव्यश्रुत और भावश्रुत से जानते हैं, अनुभूतिपूर्वक जानते हैं; वे सर्व जिनशासन को जानते हैं । इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँचभावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है, इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है । १. प्रवचनरत्नाकार (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन किन्तु जब सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान के तिरोभाव से ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है; तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है; तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं; उन्हें वह स्वाद में नहीं आता । 194 - अब इसी बात को विस्तार से दृष्टान्त देकर समझाते हैं। जिसप्रकार अनेक प्रकार के व्यंजनों के संबंध से उत्पन्न सामान्यलवण का तिरोभाव और विशेषलवण के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला जो लवण है, उसका स्वाद अज्ञानी व्यंजनलोलुप मनुष्यों को आता है; किन्तु अन्य के संबंधरहितता से उत्पन्न सामान्य के अविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है, उसका स्वाद नहीं आता । यदि परमार्थ से देखें तो विशेष के अविर्भाव से अनुभव में आनेवाला लवण ही सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाल लवण है । इसीप्रकार अनेकप्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला (विशेष भावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान, अज्ञानी - ज्ञेयलुब्ध जीवों के स्वाद में आता है; किन्तु अन्य ज्ञेयाकारों के संयोग की रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वाद में नहीं आता । यदि परमार्थ से देखें तो जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है, वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है । जिसप्रकार अन्यद्रव्य के संयोग से रहित केवल सैंधव (नमक) का अनुभव किए जाने पर सैंधव की डली सभी ओर से एक क्षाररसत्व के कारण क्षाररूप से ही स्वाद में आती है; उसीप्रकार परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल एक आत्मा का ही अनुभव किये जाने पर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 चारों ओर से एक विज्ञानघनता के कारण यह आत्मा भी ज्ञानरूप से ही स्वाद में आता है । " गाथा १५ टीका में समागत भाव की चर्चा करने से पहले विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए इस टीका का अर्थ लिखने के उपरान्त जो भावार्थ पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने लिखा है; उसे देख लेना भी उपयोगी रहेगा । वह भावार्थ इसप्रकार है - 44 'यहाँ आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा गया है । अज्ञानीजन ज्ञेयों में ही, इन्द्रियज्ञान के विषयों में ही लुब्ध हो रहे हैं । वे इन्द्रियज्ञान के विषयों से अनेकाकार हुए ज्ञान को ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं, परन्तु ज्ञेयों से भिन्न ज्ञानमात्र का आस्वादन नहीं करते और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त नहीं हैं; वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञान का ही आस्वाद लेते हैं; जिसप्रकार शाकों से भिन्न नमक की डली का क्षारमात्र स्वाद आता है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं; क्योंकि जो ज्ञान है, सो आत्मा है और आत्मा है, सो ज्ञान है । - इसप्रकार गुण गुणी की अभेददृष्टि में आनेवाला सर्व परद्रव्यों से भिन्न अपनी पर्यायों में एकरूप निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, परनिमित्त से उत्पन्न हुए भावों से भिन्न अपने स्वरूप का अनुभव ही ज्ञान का अनुभव है । और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासन का अनुभवन है, शुद्धनय से इसमें कोई भेद नहीं हैं।" I उक्त टीका व भावार्थ में एक बात विशेष कही गई है कि आत्मानुभूति ही ज्ञानानुभूति है । उत्थानिका के कलश में भी इसी बात को विशेष बल देकर कहा गया था कि शुद्धनयात्मक आत्मानुभूति ही ज्ञानानुभूति है । टीका के आरंभ में कहा गया है कि जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पांचभावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है । इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 196 उक्त कथन का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है। भाव श्रुतज्ञानरूप शुद्धोपयोग से जो आत्मा का अनुभव हुआ, वह आत्मा ही है; क्योंकि रागादि आत्मा नहीं, अनात्मा हैं । धर्मी को भी अनुभूति के पश्चात् जो राग आता है, वह अनात्मा है । द्रव्यश्रुत में भी यही कहा है और यही अनुभव में आया। इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है; क्योंकि भाव श्रुत में जो त्रिकाली वस्तु ज्ञात हुई, वह वीतरागस्वरूप है और उसकी जो अनुभूति प्रगट हुई - वह वीतराग परिणति है। भगवान आत्मा त्रिकाल मुक्त स्वरूप ही है, उसका पर्याय में अनुभव हुआ, वह भाव श्रुतज्ञान है, शुद्धोपयोग है, आत्मा की ही जाति का होने से आत्मा ही है। अनुभूति में पूरे आत्मा का नमूना आया, इसलिए वह आत्मा ही है। इसे द्रव्य की अनुभूति कहो या ज्ञान की अनुभूति कहो - एक ही चीज है । 'ही' शब्द लिया है। यह सम्यक्एकान्त है।" ___ द्रव्य और शुद्धपर्याय को अभेद करके कहनेवाले कथन परमागम में बहुत हैं । उक्त कथन भी इसीप्रकार का है। शुद्धनय के विषय को भी 'शुद्धनय' इसी अपेक्षा से कहा जाता है। आगे १६वीं गाथा में भी कहेंगे कि परमार्थ से देखा जाये तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं; क्योंकि वे अन्य वस्तु नहीं हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं। ___ इस पन्द्रहवीं गाथा की टीका की विशेष बात तो यह है कि इसमें सामान्यनमक और विशेषनमक का उदाहरण देकर सामान्यज्ञान और विशेषज्ञान के आविर्भाव और तिरोभाव को समझाया गया है। यद्यपि नमक तो नमक ही है और वह एकप्रकार का ही होता है; तथापि उसे सामान्यनमक और विशेषनमक के रूप में दो भागों में १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 गाथा १५ विभाजित कर दिया जाता है । शुद्धनमक अर्थात् किसी पदार्थ में मिश्रित न होनेवाले नमक को सामान्यनमक कहते हैं और शाकादि खाद्यपदार्थ में मिश्रित नमक को विशेषनमक कहते हैं। ___ शाकादि में मिश्रित होने पर भी नमक तो नमक ही रहता है, वह अपने खारेपन को छोड़ नहीं देता, वह तो जहाँ भी रहता है, खारा ही रहता है। तात्पर्य यह है कि वह वास्तव में तो खारेपन में ही रहता है, अन्य कहीं जाता ही नहीं। इसीप्रकार ज्ञान तो ज्ञान ही है और वह एक प्रकार का ही होता है; तथापि उसे सामान्यज्ञान और विशेषज्ञान के रूप में दो भागों में विभाजित कर दिया जाता है। शुद्धज्ञान को सामान्यज्ञान कहते हैं और ज्ञेयाकारज्ञान को विशेषज्ञान कहते हैं। ज्ञेयों को जाननेवाले ज्ञान को ज्ञेयाकार ज्ञान कहते हैं; क्योंकि ज्ञानपर्याय में उन ज्ञेयों के आंकार प्रतिबिम्बित होते हैं। यद्यपि ज्ञान तो सदा ज्ञानाकार ही रहता है। ज्ञेयों को जानने के काल में भी वह अपने ज्ञानाकार को नहीं छोड़ता; तथापि ज्ञेयों के प्रतिबिम्बित होने से उसे ज्ञेयाकार भी कहा जाता है। ज्ञेयों के प्रतिबिम्बित होने से ज्ञेयों के आकार के जो आकार ज्ञान में बनते हैं, वे आकार स्वयं ज्ञान के ही हैं, ज्ञेयों के नहीं, फिर भी उन्हें कहा तो ज्ञेयाकार ही जाता है। अकेला नमक कोई नहीं खाता, सभी लोग किसी न किसी खाद्यपदार्थ में मिलाकर ही नमक खाते हैं । अतः स्वाद के लोलुपी लोगों को नमक के असली स्वाद का अनुभव नहीं होता। पूर्वपुरुषों से सुनकर या पुस्तकों में पढ़कर भले ही वे यह कहते हों कि नमक खारा होता है, फिर भी उन्हें नमक के खारेपन का अनुभव नहीं होता, बात मात्र बातों तक ही सीमित रहती है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 समयसार अनुशीलन इसीप्रकार इस अज्ञानी जगत ने अकेले आत्मा को कभी नहीं जाना; शरीरादि संयोगों में, बद्धस्पृष्टादिभावों में ही देखा-जाना है; अत: उन्हें आत्मा का अनुभव नहीं होता, सम्यग्ज्ञान नहीं होता । शास्त्रों में पढ़कर या गुरुमुख से सुनकर वे भले ही यह कहते हों कि आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी है, शरीरादि से भिन्न है, अबद्धस्पृष्टादिभावों से युक्त है; पर उन्हें शरीरादि से भिन्न, अबद्धस्पृष्टादिभावों से युक्त, ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा का अनुभव नहीं होता; बात मात्र बातों तक ही सीमित रहती है। ___ जब कोई स्वादलोलुप मनुष्य शाकादि में मिश्रित नमक खाता है तो उसके स्वाद में सामान्यनमक का तिरोभाव और विशेषनमक का आविर्भाव हो जाता है; किन्तु जब शाकादि अन्यद्रव्य के संयोग से रहित केवल शुद्धनमक खाया जाता है तो विशेषनमक का तिरोभाव और सामान्यनमक का आविर्भाव हो जाता है; क्योंकि उस समय वह शुद्धनमक खारा-खारा ही लगता है। __ इसीप्रकार जब कोई ज्ञेयलुब्ध व्यक्ति ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का अनुभव करता है, ज्ञेयाकार ज्ञान का अनुभव करता है, तब उसके ज्ञान में सामान्यज्ञान का तिरोभाव और विशेषज्ञान का आविर्भाव हो जाता है; किन्तु जब कोई ज्ञानी अन्य ज्ञेयाकारों के संयोग की रहितता से केवल ज्ञान का अनुभव करता है तो विशेषज्ञान का तिरोभाव और सामान्यज्ञान का आविर्भाव हो जाता है। यह सामान्यज्ञान का आविर्भाव होना ही ज्ञानानुभूति है, आत्मानुभूति है, शुद्धनय का उदय होना है। इसप्रकार ये सुनिश्चित हुआ है कि आत्मानुभूति के काल में सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेषज्ञान का तिरोभाव हो जाता है। इस बात का स्पष्टीकरण स्वामीजी इसप्रकार करते हैं - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 गाथा १५ "सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेषज्ञान के तिरोभाव से जब ज्ञानमात्र का अनुभव हो, तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है । देखो, रागमिश्रित ज्ञेयाकार ज्ञान जो पूर्व में था, उसकी रुचि छोड़कर और ज्ञायक की रुचि का परिणमन करके सामान्यज्ञान का पर्याय में अनुभव करने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव व विशेषज्ञान का तिरोभाव कहते हैं। __ यह पर्याय की बात है । ज्ञान की पर्याय में अकेला ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान का वेदन होना और शुभाशुभ ज्ञेयाकार ज्ञान के ढक जाने को सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान का तिरोभाव कहते हैं और इसतरह ज्ञानमात्र का अनुभव करते हुए ज्ञान आनन्दसहित ' पर्याय में अनुभव में आता है। यहाँ सामान्यज्ञान का आविर्भाव अर्थात् त्रिकालीभाव का आविर्भाव – यह बात नहीं है। सामान्यज्ञान अर्थात् शुभाशुभ ज्ञेयाकार रहित अकेले ज्ञान का पर्याय में प्रगटपना । अकेले ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान का अनुभव - यह सामान्यज्ञान का आविर्भाव है। ज्ञेयाकार रहित अकेला प्रगटज्ञान सामान्यज्ञान है और इसका विषय त्रिकाली है। जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं, उन्हें यह आत्मा स्वाद में नहीं आता। चैतन्यस्वरूप निजपरमात्मा की जिन्हें रुचि नहीं है, ऐसे अज्ञानी जीवों को या जो परज्ञेयों में आसक्त हैं, व्रत, तप, दया, दान, पूजा, भक्ति आदि व्यवहार रत्नत्रय के परिणामों में आसक्त हैं, शुभाशुभ विकल्पों के जानने में रुक गये हैं; ऐसे ज्ञेयलुब्ध जीवों को आत्मा के अतीन्द्रियज्ञान और आनन्द का स्वाद नहीं आता।" प्रश्न -यह तो अनुभव के काल की बात हुई। अनुभव के काल में तो सामान्यज्ञान का आविर्भाव और विशेषज्ञान का तिरोभाव रहता ही है, पर प्रश्न तो यह है कि जिन्हें आत्मा का अनुभव हो गया है और १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६२ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 समयसार अनुशीलन जो अभी भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा हैं; क्या उन्हें परज्ञेयों को जानते समय भी सामान्यज्ञान का आविर्भाव होता है ? उत्तर – हाँ, हो सकता है; पर इसकी विवक्षा को अच्छी तरह समझना होगा । जिस व्यक्ति ने बिना किसी शाकादि पदार्थ में मिलाये नमक की डली का स्वाद चखा है, उसे नमक के स्वाद का ज्ञान डली खाते समय ही नहीं रहता; अपितु अच्छी तरह कुल्ला कर लेने के बाद भी रहता है । अन्तर मात्र इतना ही है कि खाते समय वह स्वाद प्रत्यक्षज्ञान के रूप में रहता है और खाने के बाद धारणाज्ञान के रूप में, स्मृतिज्ञान के रूप में, प्रत्यभिज्ञान के रूप में रहता है I धारणाज्ञान के रूप में तो निरन्तर ही रहता है, स्मृति - प्रत्यभिज्ञान के रूप में कभी रहता है, कभी नहीं रहता है। शाकादि खाते समय जब विशेषनमक का स्वाद प्रत्यक्ष आ रहा होता है, तब उसे सामान्यनमक की स्मृति भी हो सकती है और ऐसा प्रत्यभिज्ञान भी हो सकता है कि इस शाक में जो नमक का स्वाद आ रहा है, वह वही डली जैसा नमक है, जिसे मैंने चखा था इसीप्रकार आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्माओं को आत्मा का ज्ञान अनुभव के काल में तो अनुभवप्रत्यक्ष के रूप में रहता है और अन्यकाल में धारणाज्ञान के रूप में, स्मृतिज्ञान के रूप में, प्रत्यभिज्ञान के रूप में रहता है । अनुभवप्रत्यक्ष में आया भगवान आत्मा ज्ञानी धर्मात्माओं के धारणाज्ञान में तो सदा रहता ही है; किन्तु जब उसका ज्ञान अन्य ज्ञेयों को जानता है, तब भी उसे आत्मा की स्मृति हो सकती है, ऐसा प्रत्यभिज्ञान भी हो सकता है कि ज्ञेयाकार परिणत ज्ञान में जो ज्ञान का ज्ञान हो रहा है, वह वही ज्ञान है, जिसे अनुभवज्ञान में जाना गया था। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 इसप्रकार अनुभव के काल से भिन्न समय में भी सामान्यज्ञान का आविर्भाव हो सकता है । धारणाज्ञान की अपेक्षा तो वह सदा ही रहता है, पर स्मृति - प्रत्यभिज्ञान के समय कभी-कभी ही होता है। १५वीं गाथा का निष्कर्ष निकालते हुए स्वामीजी कहते हैं "यहाँ तीन बातें आई हैं - (१) एक तो परद्रव्य और पर्याय से भी भिन्न, अखण्ड, एक, शुद्ध, त्रिकाली ज्ञानस्वभाव का अनुभवनरूप भावश्रुतज्ञान ही शुद्धनय है । (२) दूसरे शुद्धनय के विषयभूत द्रव्यसामान्य का अनुभव ही शुद्धनय है और यही जैनशासन है । - कलश १४ (३) तीसरे त्रिकाली शुद्धज्ञायक भाव का वर्तमान में भाव श्रुतज्ञानरूप अनुभव जैनशासन है; क्योंकि भावश्रुतज्ञान वीतरागी ज्ञान है, वीतरागी पर्याय है।" गाथा में जिस शुद्धनय के विषय को जानने को सर्व जिनशासन का जानना कहा गया है, शुद्धनय का विषयभूत वह भगवान आत्मा हमारे ज्ञान में नित्य प्रकाशित रहे ऐसी भावना आगामी कलश में व्यक्त की गई है। कलश मूलतः इसप्रकार है — - ( पृथ्वी ) अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥ १४ ॥ १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 202 (रोला ) खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है। ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल। जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो॥१४॥ जिसप्रकार नमक की डली खारेपन से लबालब भरी हुई है, उसीप्रकार आत्मा ज्ञानरस से लबालब भरा हुआ है। वह ज्ञेयों के आकाररूप में खण्डित नहीं होता, इसलिए अखण्डित है; अनाकुल है, अविनाशीरूप से अन्तर में दैदीप्यमान है, सहजरूप से सदा विलसित हो रहा है और चैतन्य के परिणमन से परिपूर्ण है; ऐसा उत्कृष्ट तेजोमय आत्मा हमें प्राप्त हो। इस कलश का भावानुवाद कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) अपनैं ही गुन परजाय सौं प्रवाहरूप, परिनयौ तिहूं काल अपनै अधार सौं। अन्तर-बाहर-परकासवान एकरस, खिन्नता न गहै भिन्न रहै भौ-विकारसौं। चेतना के रस सरवंग भरि रह्यौ जीव, जैसे लौन-कांकर भर्यो है रस खार सौं। पूरन-सुरूप अति उज्ज्वल विग्नानघन, मो कौं होहु प्रगट विसेस निरवार सौं॥१५॥ स्वयं के आधार से तीनोंकाल स्वयं के ही गुण-पर्याय में प्रवाह रूप से परिणमित, अन्तर-बाह्य में प्रकाशमान, खिन्नता से रहित और भवविकार से भिन्न यह भगवान आत्मा चेतना के रस से इसप्रकार सर्वांग सरावोर एक रस हो रहा है कि जिसप्रकार नमक की डली खारे Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 कलश १४ रस से सर्वांग सराबोर है । मोह के क्षय से स्वयं में परिपूर्ण अति उज्ज्वल विज्ञानघन आत्मतत्त्व मुझे प्रगट हो। उक्त कलश में ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, अनाकुलस्वभावी, अखण्ड, अविनाशी आत्मा हमारी अनुभूति में सदा प्रकाशित रहे - यह भावना भाई गई है। ___ आत्मख्याति के अनुसार जो १५वीं व १६वीं गाथाएं हैं, उनके बीच जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति में एक गाथा पाई जाती है, जो आत्मख्याति में नहीं है। वह गाथा इसप्रकार है - आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे। ( हरिगीत ) निज ज्ञान में है आत्मा दर्शन चरित में आत्मा। अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आत्मा। निश्चय से मेरे ज्ञान में आत्मा ही है। मेरे दर्शन में, चारित्र में और प्रत्याख्यान में भी आत्मा ही है । इसीप्रकार संवर और योग में भी आत्मा ही है। यह गाथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में ही बंधाधिकार में २९६ गाथा के रूप में भी उपलब्ध होती है। उक्त दोनों गाथायें यद्यपि एक सी ही हैं; तथापि जीवाधिकार में इसका अर्थ सामान्यरूप से करके आगे बढ़ गये हैं; पर बंधाधिकार में इसका अर्थ सहेतुक विस्तार से किया गया है; जो मूलत: पठनीय है। आत्मख्याति के बंधाधिकार में भी इसी से मिलती-जुलती थोड़े बहुत अन्तर के साथ एक गाथा प्राप्त होती है, जिसका क्रमांक २७७ है। वह गाथा इसप्रकार है - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 204 आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो॥ ( हरिगीत ) निज आत्मा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आत्मा। अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आत्मा। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संवर तथा योग है। ___ आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति की गाथाओं के अर्थ को सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तात्पर्यवृत्ति की गाथाओं में तो यह बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, योग, संवर और प्रत्याख्यान में आत्मा ही है; किन्तु आत्मख्याति में इन सभी को आत्मा ही कहा गया है। समान सी दिखने वाली ये गाथायें आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति के बंधाधिकार में एक ही क्रम में एक ही स्थान पर आई हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि तात्पर्यवृत्ति में यह पुनरावृत्ति प्रकरण की आवश्यकतानुसार ही हुई है, पर हुई है। ऐसी गाथायें तो ध्यान में हैं कि जो आचार्य कुन्दकुन्द के विभिन्न ग्रन्थों में हूबहू पाई जाती हैं; पर एक ही ग्रन्थ में अनेक बार पाई जाने वाली गाथा अभी तक यह एक ही ध्यान में आई है। पिछली गाथा में कहा गया है कि जो व्यक्ति शुद्धनय के विषयभूत अबद्धस्पृष्टादि भावों से संयुक्त भगवान आत्मा को जानता है, वह सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है; क्योंकि वह शुद्ध-आत्मा ही सम्पूर्ण जिनशासन का मूल प्रतिपाद्य है, प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु है । उसी शुद्धात्मा की महिमा बताते हुए इस गाथा में कहा गया है कि वह आत्मा ही ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, प्रत्याख्यान है, संवर है, योग है; सबकुछ वह Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 कलश १५ एक शुद्धात्मा ही है । उस शुद्धात्मा की आराधना से, साधना से ही ज्ञानदर्शन-चारित्र की प्राप्ति होती है, प्रत्याख्यान होता है, संवर होता है और योग भी होता है। ___ इसके बाद आनेवाली गाथा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र के सेवन की प्रेरणा दी जायगी और साथ में यह भी कहा जायगा कि निश्चय से इन तीनों को एक आत्मा ही जानों । अब आगामी (१६वीं) गाथा की उत्थानिकारूप कलश कहते हैं ( अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्॥१५॥ ( हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये। बस साध्य-साधकभाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ॥१५॥ स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुष साध्यभाव और साधकभाव से इस ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही उपासना करें । ___ यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव उपदेश दे रहे हैं, आदेश दे रहे हैं कि आत्मार्थी पुरुषो ! आत्मा का कल्याण चाहनेवाले सत्पुरुषो !! तुम निरन्तर ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के रसकन्द इस भगवान आत्मा की ही उपासना करो, आराधना करो; चाहे साध्यभाव से करो, चाहे साधकभाव से करो, पर एक निज भगवान आत्मा की ही उपासना करो। उपासना करने योग्य तो एकमात्र यह ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकन्द एक भगवान आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं । महाकवि बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस कलश का भावानुवाद करते हुये साध्य-साधक भाव को भी परिभाषित करते हैं, जो इसप्रकार हैं - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 206 ( कवित्त ) जंह ध्रुवधर्म कर्मछय लच्छन, सिद्धि समाधि साधिपद सोई । सुद्धपयोग जोग महिमंडित, साधक ताहि कहै सब कोई ॥ यौं परतच्छ परोच्छ रूप सौं, साधक साधि अवस्था दोई। दुहु कौ एक ग्यान संचय करि, सेवै सिववंछक थिर होई ॥ त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से कर्मों क्षय करके जो अरहंत और सिद्धदशारूप समाधि दशा प्रगट होती है, वह साध्यभाव है और उसके पूर्व की शुद्धोपयोग दशा साधकभाव है । इन दोनों में प्रत्यक्ष और परोक्ष का अन्तर है, साध्यभाव प्रत्यक्ष है और साधकभाव परोक्ष है । इन दोनों को जाननेवाला ज्ञानी धर्मात्मा अपने में स्थिर होता है । यद्यपि एक अपेक्षा से सिद्धदशा साध्यभाव है और उसके नीचे की स्थिति साधकभाव है; तथापि यहाँ बनारसीदासजी अरहंत अवस्था को भी साध्यभाव में ही सामिल कर रहे हैं; क्योंकि वे साधकभाव को परोक्ष बता रहे हैं । अरहंतदशा ज्ञान की प्रत्यक्ष दशा ही है; अत: वह साध्यभाव ही हुई । यहाँ आत्मा की उपासना करने का तात्पर्य निज आत्मा की पूजाभक्ति करने से नहीं है, स्तुति - वंदना करने से भी नहीं है, नमस्कारादि करने से भी नहीं है; अपितु उसे सही रूप में जानने से है, पहिचानने से है, उसका अनुभव करने से है; उसी में समा जाने से है, उसी का नित्य ध्यान करने से है, ध्यान रखने से है; उसको ही सर्वस्व मानने है; उसी में पूर्णत: समर्पित हो जाने से है। यही निज भगवान आत्मा की उपासना की विधि है, आराधना की विधि है, साधना की विधि है । निज भगवान आत्मा की यह उपासना दो प्रकार से होती है (१) साध्यभाव से और (२) साधकभाव से । चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और सिद्ध-अवस्था साध्यदशा है । अथवा चौथे गुणस्थान से बाहरवें - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 कलश १५ गुणस्थान तक साधकदशा है और अरहंत और सिद्धदशा साध्यदशा है। पर्याय में पूर्णता की प्राप्ति हो जाना साध्यदशा है और आत्मोपलब्धि होकर पूर्णता की ओर अग्रसर होना साधकदशा है। अथवा आत्मा में उपयोग का केन्द्रित होना और फिर बाहर आ जाना, फिर अन्दर जाना और फिर बाहर आ जाना - इसप्रकार बार-बार अन्दर जाना और बाहर आना साधकदशा है और शुद्धोपयोग में अनन्तकाल तक के लिए समा जाना साध्यदशा है। __ आत्मा की सिद्धदशा अमल भी है और अचल भी है; परन्तु अरहंत-अवस्था अमल तो है, पर अचल नहीं; क्योंकि उसमें योग के निमित्त से आत्मप्रदेशों में चंचलता पाई जाती है, चलाचलपना पाया जाता है । इस दृष्टि से विचार करें तो अकेली सिद्धदशा ही साध्यभाव है, आत्मज्ञानी की शेष सभी दशायें साधकभाव में आती हैं। पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ हो जाने से, अमलता प्राप्त हो जाने से तथा उपयोग के निरन्तर आत्मसन्मुख ही रहने से, निरन्तर शुद्धोपयोगी होने से जब अरहंत भगवान को भी साध्यदशा में लेते हैं तो फिर उसके पहले के धर्मात्मा जीव साधकदशावाले कहे जाते हैं। उपयोग का आत्मसन्मुख होना ही आत्मा की सच्ची उपासना है। जब वह उपयोग निरन्तर आत्मसन्मुख होता है तो उस उपासना को साध्यभाव की उपासना कहते हैं और जब वह कभी-कभी आत्मसन्मुख होता है तो उसे साधकभाव की उपासना कहते हैं। पर एक बात निश्चित ही है कि आत्मा की उपासना तो आत्मसन्मुख होने में ही है, आत्मज्ञान में ही है, आत्मध्यान में ही है, अपने में अपनापन स्थापित करने में ही है। इन्हीं का नाम निश्चय रत्नत्रय है - निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र है। तात्पर्य यह है कि निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति ही निज भगवान आत्मा की उपासना है, निज भगवान आत्मा की आराधना Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 समयसार अनुशीलन है, निज भगवान आत्मा की साधना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि निरन्तर आत्मध्यान की दशा ही साध्यभाव की उपासना है और कभी-कभी आत्मध्यान की दशा होना, साधकभाव की उपासना है । आत्मा के कल्याण के इच्छुक पुरुषों को, चाहे वे साध्यभाव से उपासना करें या साधकभाव से उपासना करें, पर उपासना तो नित्य निज भगवान की ही करना चाहिए । ___ यह कलश १६वीं गाथा की उत्थानिका का कलश है । अत: गाथा में भी यही विषयवस्तु आनेवाली है। इसप्रकार यह प्रतिफलित हुआ कि निश्चय से तो चौथे गुणस्थान से सिद्धभगवान तक सभी उपासक हैं और उपास्य है प्रत्येक का स्वयं का आत्मा, शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा, अबद्धस्पृष्टादिभावों से युक्त त्रिकाली ध्रुव आत्मा; अभेद-अखण्ड, सामान्य, नित्य, एक आत्मा; पर और पर्याय से भिन्न आत्मा; गुणभेद और प्रदेशभेद से भिन्न आत्मा, देहदेवल में विराजमान पर देह से भिन्न आत्मा। प्रश्न -अरहंत-सिद्ध भगवान को उपासक कहना तो अच्छा नहीं लगता। उत्तर -इसमें अच्छा नहीं लगने की क्या बात है, बुरा लगने की भी क्या बात है ? जब अपने में अपनापन स्थापित होने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं को जानने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं में स्थिर होने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं में जमने-रमने का नाम ही आत्म-उपासना है तो फिर क्या अरंहतसिद्ध भगवान अपने में अपनापन नहीं रखते, अपने को नहीं जानते, अपने में ही स्थिर नहीं हैं, क्या उनके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नहीं है ? यदि हैं तो फिर वे आत्मा के उपासक क्यों नहीं हैं, उन्हें आत्मोपासक कहने में क्या परेशानी है? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 निश्चय में भिन्न द्रव्यों के बीच उपास्य-उपासकभाव घटित नहीं होता । आखिर एक द्रव्य दूसरे की उपासना क्यों करे ? उसमें ऐसी क्या कमी है, जो दूसरों के सामने हाथ पसारे ? प्रत्येक आत्मा स्वयं में परिपूर्ण हैं । कहा भी है कलश १५ - "हे प्रभु तूं सब बातें पूरा, हे प्रभु तूं सब बातें पूरा । पर की आस करे क्यों मूरख, तूं काँई बातें अधूरा ।। रे प्रभु तूं सब बातें पूरा ॥ निश्चय से प्रत्येक आत्मा का स्वयं का द्रव्यस्वभाव स्वयं के लिए उपास्य है और स्वयं की पर्याय उपासक है। इसप्रकार निश्चय से उपास्य-उपासकभाव एक द्रव्य में ही घटित होता है । अत: अरहंतसिद्धभगवान का सामान्य, नित्य, अभेद - अखण्ड, एक त्रिकालीध्रुव आत्मस्वभाव उपास्य है और उनके श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र गुण की निर्मलपर्यायें उपासक हैं तथा वे सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पर्यायें ही उपासना हैं । इसलिए यहाँ कहा गया है कि इस ज्ञान के घनपिण्ड आत्मा की ही नित्य उपासना करो; और आगामी गाथा में कहेंगे कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन करो; क्योंकि ये तीनों निश्चय से एक आत्मा ही हैं । इसप्रकार आत्मा की उपासना और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन एक ही बात है 1 - बिना डींग हाँके दुर्भाग्य से लड़ने की जितनी क्षमता नारियों में सहज देखी जा सकती है; पुरुषों में उसके दर्शन असम्भव नहीं, तो दुर्लभ तो हैं ही। आप कुछ भी कहो, पृष्ठ ५६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १६ दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो॥१६॥ ( हरिगीत ) चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा। ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा॥१६॥ साधुपुरुष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए और उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो। __ गाथा में समागत 'साधु' शब्द का अर्थ पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा एवं सहजानन्दजी वर्णी ने साधुपुरुष किया है, जो पूर्णत: सत्य प्रतीत होता है; क्योंकि इस ग्रन्थराज में मूलतः भद्र मिथ्यादृष्टि गृहस्थों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का ही मार्ग बताया गया है। 'साधु' शब्द देखकर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि यह ग्रन्थराज मुनिराजों के लिए ही बनाया गया है और इसे पढ़ने का अधिकार भी मुनिराजों को ही है,सद्गृहस्थों को नहीं; क्योंकि इसमें सर्वत्र ही अज्ञानियों को समझाने का प्रयास किया गया है। मुनिराज तो ज्ञानी धर्मात्मा होते हैं, सम्यग्दृष्टि तो होते ही हैं, उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रेरणा देने, मार्ग बताने की क्या आवश्यकता है? यदि इसे पढ़ने का अधिकार गृहस्थों को नहीं है तो फिर पाण्डे राजमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, पण्डित टोडरमलजी, पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा, श्रीमद् रायचन्दजी, ब्र. शीतलप्रसादजी जैसे विद्वानों ने इसका अध्ययन कैसे किया ? बिना अध्ययन किये इसकी टीकायें लिखना, इसके उद्धरण अपने ग्रन्थों में देना कैसे सम्भव था? कहते हैं कि क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी को तो आत्मख्याति कण्ठस्थ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 गाथा १६ थी और सहजानन्दजी वर्णी ने तो इसकी सप्तदशांगी टीका लिखी है। ये भी तो मुनिराज नहीं थे, क्षुल्लक तो श्रावकों में ही आते हैं; क्योंकि ग्यारह प्रतिमाएं श्रावकों की ही होती हैं। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा कहनेवाले गृहस्थ विद्वान स्वयं भी इसका अध्ययन करते देखे जाते हैं । जो विद्वान श्रावकों के लिए समयसार के अध्ययन का निषेध करते हैं, उन्होंने स्वयं इसका अध्ययन किया है या नहीं? यदि किया है तो दूसरों को मना क्यों करते हैं और यदि नहीं किया है तो फिर बिना देखे ही मना करने को कैसे उचित माना जा सकता है? इस ग्रन्थ में भी अनेक स्थानों पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जिससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थराज अज्ञानियों को समझाने के लिए ही लिखा गया है । आठवीं गाथा में तो एकदम अज्ञानी शिष्य लिया है। इसीप्रकार २६-२७वीं गाथा में एवं ३८वीं गाथा में भी अत्यन्त अप्रतिबुद्ध की चर्चा की है, नयविभाग से अपरिचित शिष्य लिया है। २३ से २५ तक की गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं - __ "अथाप्रतिबुद्धवोधनाय व्यवसायः क्रियते -अब अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) को समझाने के लिए व्यवसाय करते हैं।" 'साधु शब्द का अर्थ सज्जनपुरुष होता है।' - इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं । नीतिसंबंधी निम्नांकित छन्द तो प्रसिद्ध ही है - "विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधो विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥ दुर्जनों की विद्या विवाद के लिए होती है, धन मद के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है; जबकि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 212 साधुपुरुषों की विद्या ज्ञान के लिए होती है, धन दान के लिए होता है और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।" उक्त छन्द के 'साधु' शब्द का प्रयोग मुनिराज के अर्थ में नहीं, अपितु सज्जनपुरुष के अर्थ में ही हुआ है; क्योंकि मुनिराजों के पास धन कहाँ होता है ? 'साधु का धन दान के लिए होता है'- इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि यहाँ साधु शब्द का प्रयोग धनवान सज्जन गृहस्थ के लिए किया गया है। इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि यह ग्रन्थ अज्ञानियों के लिए ही है, मुनिराजों के लिए है ही नहीं; मुनिराजों के लिए भी इस ग्रन्थराज का स्वाध्याय अत्यन्त उपयोगी है। हम तो मात्र यह कहना चाहते हैं कि यह ग्रन्थराज अपनी-अपनी योग्यतानुसार ज्ञानी-अज्ञानी, श्रावकसाधु सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी है; सभी इसका गहराई से मंथन करें, किसी के लिए भी इसके पढ़ने का निषेध न हो। यद्यपि मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के धारी मुनिराज ही होते हैं ; तथापि गृहस्थ भी अपनी-अपनी भूमिकानुसार रत्नत्रय के धारी हो सकते हैं, होते भी हैं। रत्नत्रय का आरंभ चौथे गुणस्थान में होता है और पूर्णता सिद्धों में होती है । यद्यपि यह बात सत्य है, तथापि प्रेरणा तो छठवें गुणस्थान तक ही दी जा सकती है। अतः साधुपुरुषों को दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करना चाहिए - यह प्रेरणा पहले से छठवें गुणस्थान तक ही दी जाना संभव है। जो व्यक्ति अज्ञानदशा में है, उसे सर्वाधिक प्रेरणा की आवश्यकता है और उसके बाद क्रमश: चौथे, पाँचवें एवं छठवें गुणस्थानवालों को उत्तरोत्तर कम प्रेरणा की आवश्यकता है। जो मुनिराज घर-बाहर छोड़कर आत्मकल्याण में ही पूर्णत: संलग्न हैं; उनसे विशेष क्या कहें? कहना तो उनसे है जो गृहस्थी के जंजाल में उलझे हैं। अतः रत्नत्रय धारण करने का उपदेश तो मुख्यतः गृहस्थों के लिए ही होता है । हाँ, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 गाथा १६ यह बात अवश्य है कि पात्र सत्पुरुषों को दिया गया उपदेश ही कार्यकारी होता है; दुर्जनों को दिया गया उपदेश न केवल निरर्थक ही जाता है, कभी-कभी विपत्ति का कारण भी बन सकता है। इसीलिए तो कहा गया कि 'सीख न दीजे बानरा, उल्टा देय मिटाय'। अत: यहाँ साधुपुरुषों, सज्जनपुरुषों को ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धारण करने की प्रेरणा दी गई है। प्रश्न –'सीख न दीजे बानरा, उल्टा देय मिटाय' - इसका क्या आशय है? उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर 'पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव' नामक पुस्तक में इसप्रकार दिया गया है - "इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि कहीं दूसरों के सुधार के चक्कर में हम अपना ही अहित न कर बैठें । हमारी दशा भी उस चिड़िया के समान न हो जावे, जिसने बरसात में भीगते हुए बन्दर को यह सीख दी थी कि भाई तुम्हारे तो आदमी के समान हाथपैर हैं; तुम बरसात, धूप और सर्दी से बचने के लिए घर क्यों नहीं बनाते? देखो, हमारे तो हाथ भी नहीं है, फिर भी हम अपना एक घोंसला बनाती हैं और उसमें शान्ति से रहती हैं, गर्मी, सर्दी और बरसात से बच जाती हैं। भैया मेरी मानो तो तुम भी एक घर जरूर बना लो। उसका सत्य और सार्थक उपदेश भी चंचल प्रकृति बंदर को सुहा नहीं रहा था। अत: वह एकदम चिड़चिड़ा कर बोला - 'तू चुप रहती है या फिर .....' बेचारी चिड़िया सहम गई, पर साहस बटोर कर फिर बोली - 'भैया, मैं तो तुम्हारे हित की बात कह रही थी। यदि तुम्हें बुरा लगता है तो कुछ नहीं कहूंगी। मुझे तो तुम पर दया आ रही थी। इसलिए इतना Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 समयसार अनुशीलन कह गई। बुरा क्यों मानते हो ? जरा सोचो तो सही, इसमें क्या बुरी बात है? तुम सर्वप्रकार समर्थ हो, बना लो न अपना घर ।' चिड़िया अपनी बात पूरी न कर पाई थी कि बन्दर ने गुस्से में आकर उसका घोंसला छिन्न-भिन्न कर दिया, तोड़ कर फेंक दिया और बोला - ___ 'बड़ी आई दया दिखाने वाली। अब दिखा दया, अब तो तू भी हमारे समान ही बेघर हो गई। बोल, अब बोल; अब क्या कहना है तुझे ? और भी कोई उपदेश शेष हो तो वह भी दे ले।' बेचारी चिड़िया चुप रह गई। करती भी क्या ? यदि हम दूसरों को सुधारने के विकल्प में अधिक उलझे तो हमारी दशा भी चिड़िया के समान ही हो सकती है। अत: समझदारी इसी में है कि हम अपने कल्याण की ही सोचें। जो लोग सत्य समझना चाहते हों, विनयवंत हों, सरल हृदय हों; उनके अनुरोध पर जो कुछ सत्य जानते हों, अवश्य बताना, समझाना; पर जो लोग सुनना ही न चाहें, समझना ही न चाहें; उन्हें समझाने के विकल्प में समय व शक्ति व्यर्थ गंवाना ठीक नहीं है।" १६वीं गाथा की व्याख्या आत्मख्याति में इसप्रकार की गई है - "यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है, उपासना करने योग्य है। इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से समझाते हैं कि साधुपुरुष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदा सेवन करने योग्य है, सदा उपासना करने योग्य है; किन्तु परमार्थ से देखा जाय तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं; अन्यवस्तु नहीं हैं। __ जिसप्रकार देवदत्त नामक पुरुष के ज्ञान, दर्शन और आचरण, देवदत्त के स्वभाव का उल्लघंन न करने से देवदत्त ही हैं; अन्य वस्तु १. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ ५१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 गाथा १६ नहीं। उसीप्रकार आत्मा में भी घटित करना चाहिए कि आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और आचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लघंन न करने से आत्मा ही है, अन्य वस्तु नहीं। इसलिए यह स्वत: ही सिद्ध हो गया कि एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है, सेवन करने योग्य है।'' जैसाकि उत्थानिका के कलश में कहा था कि 'एष ज्ञानघनो आत्मा नित्यं समुपास्यताम्' –इस ज्ञान के घनपिण्ड आत्मा की ही नित्य उपासना करो; ठीक उसीप्रकार टीका के अन्त में भी यही निष्कर्ष निकाला है कि 'तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते - एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है ' - यह स्वत: ही सिद्ध हो गया। साध्यभाव और साधकभाव की उपासना की चर्चा कलश की व्याख्या करते समय विस्तार से की ही जा चुकी है; अत: उस सन्दर्भ में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। प्रश्न –टीका में निश्चय-व्यवहार की संधि स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वयं अन्तर में तो यह निश्चय करें कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है, उपासना करने योग्य है; परन्तु दूसरों को समझाते समय व्यवहार से ऐसा समझावें कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए; क्योंकि ये तीनों एक आत्मा ही हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं, अन्य वस्तु नहीं। उक्त कथन में प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मा ही हैं, तो फिर स्वयं के समझने में और दूसरों को समझाने में यह अन्तर क्यों हो? क्या यह ऐसी बात नहीं हुई कि हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और? उत्तर – नहीं, भाई ! ऐसी बात नहीं है। जबतक भेद करके न समझाया जाय, तबतक अबोध शिष्य की समझ में बात आती नहीं है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 समयसार अनुशीलन यद्यपि इस बात को आठवीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट कर दिया गया है, तथापि यहाँ भी संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। जब ज्ञानगुण आत्मसन्मुख होकर आत्मा का अनुभव करता है, तब आत्मा को जाननेरूप ज्ञान का जो निर्मल परिणमन होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; उसीसमय आत्मसन्मुखता की दशा में ही श्रद्धागुण पर में से एकत्व-ममत्व तोड़कर शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में जो अपनापन स्थापित करता है, श्रद्धागुण का वह आत्माश्रित निर्मल परिणमन सम्यग्दर्शन कहलाता है ; उसीसमय जो आत्मा में ही उपयोग केन्द्रित होता है, आत्मा ही ध्यान का ध्येय बनता है और चारित्रगुण में अनन्तानुबंधी कषाय के अभावरूप निर्मलता प्रगट होती है, वह सम्यक्चारित्र का अंश है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र की यह प्रकटता ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपासना कही जाती है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन कहा जाता है और यही आत्मा की उपासना है, आत्मा का सेवन है। यदि अज्ञानी को यही कहते रहें कि आत्मा का सेवन करो, आत्मा की उपासना करो, तो उसकी समझ में कुछ भी न आये; अत: उसे व्यवहार से समझाते हैं कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपासना करो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करो। समझाने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना ही पड़ता है। अत: यह ठीक ही कहा गया है - स्वयं तो यह निश्चय करे कि शुद्धनय का विषयभूत एक भगवान आत्मा ही उपास्य है; पर शिष्यों को व्यवहार से यह समझावे कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करो। ___ "अभेद सो निश्चय और भेद सो व्यवहार" अथवा "एक सो निश्चय और अनेक सो व्यवहार" - निश्चय-व्यवहार की उक्त परिभाषाओं के अनुसार यहाँ अभेद एक आत्मा के सेवन को निश्चय और उसके भेदरूप दर्शन-ज्ञान-चारित्र के सेवन को व्यवहार कहा गया है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 गाथा १६ ध्यान रहे, अभेद को एक और अमेचक भी कहा जाता है और भेद को अनेक और मेचक भी कहा जाता है । इसप्रकार अभेद, अमेचक, एकाकार आत्मा की आराधना निश्चय आराधना है और भेद, मेचक और अनेकाकार आत्मा की आराधना व्यवहार आराधना है । - दर्शन - ज्ञान चारित्र - ये तीन हैं, अतः अनेक हैं, अनेकाकार हैं, मेचक हैं, भेद हैं; अत: इनकी उपासना को व्यवहारोपासना कहा जाता है। शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा एक है, एकाकार है, अभेद है, अमेचक है; अतः उसकी उपासना को निश्चयोपासना कहा गया है । यहाँ अनेकाकार होना, मेचक होना ही अशुद्धि है, मलिनता है और एकाकार होना, अमेचक होना ही शुद्धि है, निर्मलता है । अत: एक आत्मा की उपासना शुद्धनय है और दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उपासना अशुद्धनय है । यहाँ इससे अधिक और कुछ नहीं है । प्रश्न - - जब आत्मा की आराधना और दर्शन - ज्ञान - चारित्र की आराधना एक ही बात है तो फिर दोनों में से एक को शुद्ध कहना और दूसरे को अशुद्ध कहना कहाँ तक उचित है? उत्तर - अरे भाई, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं हैं; क्योंकि यहाँ अभेद को शुद्धि और भेद को अशुद्धि कहना ही अभीष्ट है । प्रश्न – ऐसा क्यों है ? - उत्तर – इसलिए कि भेद के लक्ष्य से विकल्पों की उत्पत्ति होती है और अभेद के लक्ष्य से विकल्पों का शमन होकर निर्विकल्प दशा उत्पन्न होती है। आत्मा का अनुभव निर्विकल्प दशा में ही होता है । सम्यग्दर्शन- - ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति भी निर्विकल्प दशा में ही होती है । हाँ, इनकी सत्ता विकल्पात्मक दशा में भी रह सकती है, पर उत्पत्ति विकल्पात्मक दशा में नहीं हो सकती हैं । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन देखें उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी क्या कहते हैं अभेदकथन से व्यवहारीजन समझ नहीं सकते, इससे उन्हें दर्शन - ज्ञान - चारित्र के भेद करके व्यवहार से समझाया है कि साधुपुरुष दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन करें। भगवान आत्मा निश्चय है तो उसकी अपेक्षा दर्शन - ज्ञान - चारित्र इसप्रकार तीन का सेवन करना व्यवहार है, मेचकपन है, मलिनपन है, अनेकपन है दर्शनस्वभाव, ज्ञानस्वभाव, चारित्रस्वभाव - इत्यादि अनेक स्वभाव हो जाते हैं; इसकारण यह व्यवहार है । ' 1 44 - - - T ज्ञायकस्वभाव एकरूप है, उस एक का सेवन करने से पर्यायें तीन हो जाती हैं, अनेकस्वभाव स्वरूप हो जाती हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों का भिन्न-भिन्न स्वभाव है । दर्शन का प्रतीतिरूप स्वभाव, ज्ञान का जानरूप स्वभाव और चारित्र का शान्ति व वीतरागतारूप स्वभाव है । एकरूप ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा की सेवा करने से अनेकरूप स्वभावपर्यायें उत्पन्न होती हैं। इस अनेकरूप स्वभाव पर्यायों की सेवा करो - यह तो व्यवहार से उपदेश दिया है। इससे सिद्ध तो यही होता है कि दृष्टि में सेवन करने योग्य तो एक आत्मा ही है। " अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव चार कलशों के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि प्रमाण और नयों से आत्मा की उक्त सन्दर्भ में क्या स्थिति है और हमें क्या करना चाहिए? उक्त चारों कलश इसप्रकार हैं ( अनुष्टुभ् ) दर्शन - ज्ञान - चारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम् । मेचको मेचकश्चापि सममात्मा १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ २७६ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ २८० 218 प्रमाणतः ॥ १६ ॥ - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 कलश १६-१९ दर्शन-ज्ञान-चारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्त्वतः। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचकः॥१७॥ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥१८॥ आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः। दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः साध्यसिद्धि न चान्यथा ॥१९॥ ( हरिगीत ) मेचक कहा है आतमा दृगज्ञान अर आचरण से। यह एक निज परमात्मा है अमेचक बस स्वयं से। परमाण से मेचक अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा॥१६॥ आत्मा है एक यद्यपि किन्तु नय व्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञान दर्शन चरण से। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। इसे जाने बिन जगतजन न लगे सन्मार्ग में ॥१७॥ आत्मा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से। किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से॥१८॥ मेचक-अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब इन विकल्पों से तुम्हें इन से साध्य क्या। हो साध्यसिद्धि एक बस सद् ज्ञान दर्शन चरण से। पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचें संसरण से॥१९॥ यदि प्रमाण दृष्टि से देखें तो यह आत्मा एक ही साथ अनेक अवस्थारूप मेचक भी है और एक अवस्थारूप अमेचक भी है; क्योंकि इस आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र से तीनपना – अनेकपना प्राप्त है और यह स्वयं से एक है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 समयसार अनुशीलन यद्यपि यह आत्मा एक है, तथापि व्यवहारदृष्टि से देखा जाये तो त्रिस्वभावरूपता के कारण अनेक है, अनेकाकार है, मेचक है; क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन भावोंरूप परिणमन करता है। यद्यपि व्यवहारनय से आत्मा अनेकरूप कहा गया है, तथापि परमार्थ से विचार करें तो - शुद्धनिश्चयनय से देखें तो प्रगटज्ञायकज्योतिमात्र से आत्मा एक ही है, एकस्वरूप ही है; क्योंकि सर्व अन्यद्रव्यों के स्वभाव तथा उनके निमित्त से होनेवाले अपने विभाव भावों को दूर करने का उसका स्वभाव है। इसलिए वह परमार्थ से शुद्ध है, एकाकार है, अमेचक है। यह आत्मा मेचक है, भेदरूप अनेकाकार है, मलिन है; अथवा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है, शुद्ध है, निर्मल है, - ऐसी चिन्ता से बस हो, इसप्रकार के अधिक विकल्पों से कोई लाभ नहीं है; क्योंकि साध्य आत्मा की सिद्धि तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन भावों से ही होती है, अन्यप्रकार से नहीं। - यह नियम है। उक्त कलशों में एकाकार-अनेकाकार, अमेचक-मेचक, निर्मलमलिन, अभेद-भेद के सन्दर्भ में निश्चय, व्यवहार और प्रमाण का पक्ष प्रस्तुत करने के उपरान्त यह बताया गया है कि यह सब जान लेने के बाद इन्हीं विकल्पों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं है; क्योंकि साध्य की सिद्धि - अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति इन विकल्पों से प्राप्त होने वाली नहीं है। साध्य की सिद्धि तो निश्चयनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही होनेवाली है, अथवा इसी आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से ही होनेवाली है। उक्त भाव को नाटक समयसार में कविवर पण्डित बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं -- Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 कलश १६-१९ ( कवित्त तेईसा ) दरसन - ग्यान - चरन त्रिगुनातम समलरूप कहिये विवहार | निहचै- दृष्टि एकरस चेतन भेदरहित अविचल अविकार ॥ सम्यकदसा प्रमान उभैनय निर्मल समल एक ही बार । यौं समकाल जीव की परिणति कहैं जिनेन्द्र गह्रै गनधार ॥ ( दोहा ) एकरूप आतम दरब ग्यान चरन दृग तीन । भेदभाव परिनाम सौं विवहारै सु मलीन ॥ जदपि समल विवहार सौं पर्ययसकति अनेक । तदपि नियतनय देखिये सुद्ध निरंजन एक ॥ एक देखिए जानिये रमि रहिये इक ठौर । समल विमल न विचारिये यह सिद्धि नहिं और ॥ व्यवहारनय से भगवान आत्मा को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप तीन गुण वाला होने के कारण व्यवहारनय से अनेकाकार, मेचक अथवा समल कहा जाता है और निश्चयनय से वही चेतन आत्मा भेदरहित अभेद अविचल अविकारी एकाकार, अमेचक या अमल कहा जाता है । प्रमाण की अपेक्षा यह भगवान आत्मा समल और अमल, एकाकार और अनेकाकार, मेचक और अमेचक एक ही साथ होता है। इसप्रकार जीव की परिणति समल और अमल एक साथ ही होती है। ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं और गणधरदेव ग्रहण करते हैं । यद्यपि आत्मद्रव्य एक रूप ही है, अमल ही है; तथापि व्यवहार से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के तीन भेद रूप होने से अनेकाकार कहा जाता है, मलिन कहा जाता है । यद्यपि व्यवहारनय से पर्यायशक्ति अनेकाकार होने से समल कही गई है; तथापि निश्यचयनय से देखने पर भगवान आत्मा शुद्ध, निरंजन और एक ही है, अमल ही है । १. नाटक समयसार, जीवद्वार छन्द १६ से १९ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन अधिक क्या कहें, एक त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को देखो, जानो और एक आत्मा में ही रम जावो: समल-अमल के विकल्पों में न उलझो ; - सिद्धि का एक मात्र यही उपाय है। देखो, गंभीरता से विचारने की बात यह हैं कि यहाँ दर्शन, ज्ञान और चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा है, अनेकाकार होने से मेचक कहा जा रहा है । जहाँ शुद्धनय के विषय में दर्शन - ज्ञान - चारित्र के भेद को भी मलिनता कहा जा रहा हो, वहाँ रागादिक मलिनता की तो बात ही क्या करें? इस विषय को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं 222 - "यहाँ पर शरीर-मन-वाणी और विकल्पों की तो बात ही नहीं है । यहाँ तो उस शुद्धता की बात है, जिसे छठवीं गाथा में प्रमत्त- अप्रमत्त पर्यायों रहित एक ज्ञायकभावरूप कहा है। उस शुद्ध चैतन्यघन आत्मा को देखना निश्चय, उसे ही तीन रूप परिणमित होते हुए जानना व्यवहार और दोनों को एक साथ जानना प्रमाण है । आत्मा में रहनेवाले अनंतगुण, उन अनंतगुणस्वरूप भगवान आत्मा एकरूप है और उसे दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप तीन परिणाम से देखना व्यवहार है । त्रिकाली एकरूप देखें तो निश्चय व तीनरूप देखें तो व्यवहार है। अभेद से देखें तो अमेचक निर्मल है और भेद से देखें तो मेचक – मलिन है। एकरूप देखें तो एकाकार है और तीनरूप देखें तो अनेकाकार है । आत्मा को गुण-गुणी भेद से देखें तो अनेकाकार है, व्यवहार है, मलिन है, आश्रय करने लायक नहीं है। तीन प्रकार के दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणाम भी आश्रय करने लायक नहीं हैं । १. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८३ २. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८३ आत्मा को जो अमेचक कहा है; वह निर्मलपना, एकपना, शुद्धपना आदि की अपेक्षा कहा है । यहाँ विकल्प रहित निर्मलता की बात की Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश १६-१९ है और पर्याय में जो निश्चय मोक्षमार्ग का तीनपने परिणमन उनमें एक प्रतीतिरूपभाव, एक जाननेरूपभाव तथा स्थिरतारूपभाव - ऐसे तीन स्वभाव भिन्न कहे हैं। तीन हैं, अनेकाकार हैं - इसकारण अशुद्ध कहे गये हैं । तीनपने का लक्ष्य करना अशुद्धता है और त्रिकाली एकाकार का लक्ष्य करना शुद्धता है । 223 साध्य यानि मोक्षपर्याय की प्राप्ति तो दर्शन - ज्ञान - चारित्र से ही है । तीन भेद करके तो समझाया गया है, आश्रय तो एक आत्मा का ही करना है । यह तो व्यवहारी लोगों को पर्याय के भेद से समझाया है; क्योंकि जगतजन भेद के बिना समझ नहीं सकते । सेवा तीन की नहीं, बल्कि सेवा तो अखण्ड एकरूप ज्ञायक की ही करनी है। 'दर्शनज्ञान - चारित्र से ही सिद्धि है'. ऐसा कहकर अन्य द्रव्य का निषेध किया है । स्वद्रव्य का ही सहारा है, अन्यद्रव्य का सहारा नहीं है । परद्रव्यरूप देव- शास्त्र - गुरु या उनकी भक्ति के विकल्प का भी मोक्षमार्ग में सहारा नहीं है यह बात भी आ गई । " - — उक्त कथन से सम्पूर्ण वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई है कि साध्य की सिद्धि तो एकमात्र शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप परिणमन से ही होनेवाली है; अन्य देहादिक की क्रिया अथवा शुभरागरूप परिणमन से साध्य की सिद्धि तीन काल में भी होनेवाली नहीं है । अतः जिन लोगों को आत्मा का कल्याण करना हो, अपने को भवसमुद्र में नहीं डुबाना हो; अतीन्द्रिय- आनन्द की प्राप्ति करनी हो, सर्वज्ञता प्राप्त करनी हो; वे अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को जाने, पहिचाने और उसी में जम जाय, रम जाय; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है । 4 १. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८९ २. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २९० - २९१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 समयसार अनुशीलन यहाँ कलशटीका की एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जहाँ सर्वत्र दर्शन का अर्थ श्रद्धान, प्रतीति, अपनापन, एकत्व, ममत्व किया जाता है और ज्ञान का अर्थ जानना तथा चारित्र का अर्थ रमना, जमना, वीतरागतारूप परिणमन करना, शान्त रहना किया जाता है; वहाँ कलशटीका के इस प्रकरण में निम्नानुसार अर्थ किया है - "सामान्यरूप से अर्थग्राहक शक्ति का नाम दर्शन है, विशेषरूप से अर्थग्राहक शक्ति का नाम ज्ञान है और शुद्धत्वशक्ति का नाम चारित्र है।" उक्त कथन में 'दर्शन' को दर्शनगुण की पर्याय के रूप में ग्रहण किया गया है, जबकि अन्य सब जगह श्रद्धागुण की पर्याय के रूप में ग्रहण किया जाता है। प्रश्न -क्या यह ठीक है? उत्तर -इसमें ठीक या गलत होने की क्या बात है? जब शब्दों के विभिन्न अर्थ होते हैं तो विद्वानों द्वारा उनके विभिन्न अर्थ किये जाने पर क्या आपत्ति हो सकती है? हाँ, यह बात अवश्य है कि वे अर्थ सिद्धान्तानुसार और प्रसंगानुकूल होना चाहिए। अन्धश्रद्धा अन्धश्रद्धा तर्क स्वीकार नहीं करती। यही कारण है कि अंधश्रद्धालु को सही बात समझा पाना असंभव नहीं तो कष्ठसाध्य अवश्य है । यदि वह तर्कसंगत बात को स्वीकार करने लगे तो फिर अन्धश्रद्धालु ही क्यों रहे ? अन्धश्रद्धालु को हर तर्क कुतर्क दिखाई देता है। इष्ट की आशा और अनिष्ट की आशंका उसे सदा भयाक्रान्त रखती है। भयाक्रान्त व्यक्ति की विचारशक्ति क्षीण हो जाती है। उसकी इसी कमजोरी का लाभ कुछ धूर्त लोग सदा से ही उठाते आये हैं और उठाते रहेंगे । - सत्य की खोज, अध्याय ७, पृष्ठ ३६ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १७-१८ अब आगामी १७-१८वीं गाथाओं में उसी बात को उदाहरण से समझाकर स्पष्ट करते हैं, जिसकी चर्चा १६वीं गाथा में की गई है । जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण॥१७॥ एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण॥१८॥ ( हरिगीत ) 'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ॥१७॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनप को जानिये। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहचानिए॥१८॥ जिसप्रकार कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर उसकी श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, उसकी लगन से सेवा करता है; ठीक उसीप्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुषों को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर उसका श्रद्धान करना चाहिए, उसके बाद उसी का अनुचरण करना चाहिए; अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय हो जाना चाहिए। यद्यपि गाथाओं का अर्थ एकदम सहज और सरल है ; तथापि पंडित जयचन्दजी छाबड़ा ने अपने भावार्थ में और भी सरल कर दिया है; जो इसप्रकार है - "साध्य आत्मा की सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही है, अन्यप्रकार से नहीं; क्योंकि पहले तो आत्मा को जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभव में आता है, सो मैं ही हूँ । इसके बाद उसका प्रतीतिरूप श्रद्धान Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त अन्यभावों से भेद करके अपने में स्थिर हो इसप्रकार सिद्धि होती है। किन्तु यदि जाने ही नहीं तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता और ऐसी स्थिति में स्थिरता कहाँ से करेगा ? इसलिए यह निश्चय है कि अन्यप्रकार से सिद्धि नहीं होती । " - 226 आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका लिखते समय इस बात पर विशेष बल देते हैं कि जिसप्रकार धनार्थी छत्रचमरादि राज्यचिन्हों से राजा को जानकर श्रद्धा करता है और सेवा करता है; उसीप्रकार जीवराजा को स्वसंवेदनज्ञान से जानना चाहिए और निर्विकल्पसमाधि द्वारा उसका अनुभव करना चाहिए; शुभाशुभ विकल्प मात्र से कुछ होनेवाला नहीं है । तात्पर्य यह है कि वे आत्मानुभूति पर विशेष बल देते हैं । - आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " जिसप्रकार धनार्थीपुरुष पहले तो राजा को प्रयत्नपूर्वक जानता है, फिर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी का अनुचरण करता है, सेवा करता है, उसकी आज्ञा में रहता है, उसे हर तरह से प्रसन्न रखता है; उसीप्रकार मोक्षार्थीपुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिए, फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिए; और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिये, अनुभव के द्वारा उसी में लीन हो जाना चाहिए: क्योंकि साध्य की सिद्धि की उपपत्ति इसीप्रकार संभव है, अन्यप्रकार से नहीं । - अब इस बात को विशेष स्पष्ट करते हैं. जब आत्मा को, अनुभव में आने पर अनेक पर्यायरूप भेदभावों के साथ मिश्रितता होने पर भी सर्वप्रकार से भेदविज्ञान में प्रवीणता से 'जो यह अनुभूति है, सो ही मैं हूँ' – ऐसे आत्मज्ञान से प्राप्त होता हुआ इस आत्मा को जैसा जाना - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 गाथा १७-१८ है, वैसा ही है – इसप्रकार की प्रतीति जिसका लक्षण है - ऐसा श्रद्धान उदित होता है; तब समस्त अन्यभावों का भेद होने से निशंक स्थिर होने में समर्थ होने से आत्मा का आचरण उदय होता हुआ आत्मा को साधता है। ऐसे साध्य आत्मा की सिद्धि की इसीप्रकार उपपत्ति है। परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादिबंध के वश परद्रव्यों के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ़ - अज्ञानीजन को 'जो यह अनुभूति है, वही में हूँ - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता; समस्त अन्यभावों के भेद से आत्मा में निशंक स्थिर होने की असमर्थता के कारण आत्मा का आचरण उदित न होने से आत्मा को साध नहीं सकता। इसप्रकार साध्य आत्मा की सिद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति है।" __ आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन का पहला पैरा तो एकदम गाथा के अनुसार ही है; किन्तु दूसरे और तीसरे पैरे में वे साध्य की सिद्धि की उपपत्ति व अनुपपत्ति किसप्रकार होती है; - यह बात स्पष्ट करते हैं; जो गंभीरता से विचार करने योग्य है, गहराई से समझने योग्य है। यह भगवान आत्मा स्वभाव से ही स्वपरप्रकाशक है, सभी पदार्थों को जानना इसका सहज स्वभाव है। अतः सदाकाल ही इसके स्वपरप्रकाशक ज्ञान का उदय रहता है और इसके ज्ञान में अपनी पर्यायगत योग्यतानुसार स्वपरपदार्थ प्रतिभासित होते रहते हैं। अपनी आत्मा में उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पापरूप शुभाशुभ भाव भी ज्ञात होते रहते हैं और जानने-देखनेवाला अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी ज्ञात होता रहता है। यद्यपि ये सभी भाव मिश्रितरूप से ही ज्ञात होते हैं, अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी पर्यायरूप अनेक भेदभावों के साथ मिश्रित ही Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 228 दिखाई देता है; तथापि जब कोई आत्मा भेदज्ञान की प्रवीणता से इन सबमें 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ' – यह जान लेता है और उसे यह प्रतीति भी आ जाती है, श्रद्धान भी हो जाता है; तब भगवान आत्मा को अन्यभावों से भिन्न जान लिए जान से, उसमें निशंक स्थिर हो जानेरूप आचरण का उदय होता है। इसप्रकार यह आत्मा अपने को साधता है, अपनी साधना करता है। आत्मा की साधना की यही विधि है और साध्य की सिद्धि की उपपत्ति भी इसीप्रकार होती है। ___ तात्पर्य यह है कि परपदार्थों के साथ-साथ अपना आत्मा भी अपनी विकारी-अविकारी पर्यायों सहित प्रतिसमय हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनता रहता है, जैसाकि टीका में स्पष्टरूप से उल्लेख है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं आ रहा है। प्रश्न - यदि यह बात सत्य है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदा ही आबाल-गोपाल के अनुभव में आ रहा है तो फिर सभी को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी होना चाहिए; क्योंकि आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी होते ही है और उनके अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में होनेवाली चारित्र गुण की निर्मलता भी रहती ही है। उत्तर - इसी प्रश्न का उत्तर टीका के तीसरे पैरे में दिया गया है। यद्यपि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सभी के अनुभव में सदा आ रहा है, तथापि परपदार्थों में अनादिकालीन एकत्वबुद्धि के कारण अज्ञानीजनों को 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ' - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता। इस आत्मज्ञान के अभाव में 'अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है' - इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मश्रद्धान भी उदित नहीं होता और इसीकारण आत्माचरण भी नहीं होता है। इसप्रकार उन्हें आत्मोपलब्धि नहीं हो पाती है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 गाथा १७-१८ ध्यान रहे यहाँ अनुभूति' शब्द का प्रयोग निर्मलपर्याय के अर्थ में न होकर त्रिकाली-ध्रुव के अर्थ में हुआ है। अनुभूतिस्वरूप आत्मा माने त्रिकालीध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा। यद्यपि अन्य पदार्थों एवं अपने विकारी-अविकारी भावों के साथ यह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी सभी ज्ञानी-अज्ञानीजनों को सदा अनुभव में आता रहता है; तथापि भेदज्ञान के अभाव में अज्ञानीजन उसे पहिचान नहीं पाते, जान नहीं पाते; इसकारण उसमें जम भी नहीं पाते, रम भी नहीं पाते; किन्तु ज्ञानीजन भेदज्ञान के बल से उसे परपदार्थों एवं अपने विकारी-अविकारी भावों से भिन्न जानकर, भिन्न मानकर, अपनीअपनी योग्यतानुसार उसी में जम जाते हैं, रम जाते हैं। इसप्रकार अज्ञानियों को आत्मा अनुपलब्ध रहता है और भेदज्ञानियों को सदा उपलब्ध रहता है । यही आत्मा की उपलब्धि और अनुपलब्धि का रहस्य है । प्रश्न - यहाँ आबाल-गोपाल शब्द का क्या भाव है? उत्तर - 'अज्ञानी-ज्ञानी सभी लोग' - यही अर्थ है आबाल-गोपाल का। बाल माने बालक और गोपाल माने भगवान। इसप्रकार आबालगोपाल का अर्थ हुआ बालक से भगवान तक सभी लोग। बाल माने अबोध बालक और गोपाल माने समझदार वृद्ध। इसप्रकार आबालगोपाल का अर्थ हुआ अबोध बालक से लेकर समझदार वृद्धों तक सभी लोग। बाल माने बालक और गोपाल माने ग्वाले । दुनिया में बालक और ग्वाला - दोनों को ही अल्पबुद्धि माना जाता है। इसप्रकार पूरे वाक्य का भाव यह है यह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अबोध बालक और समझदार वृद्ध, ज्ञानी-अज्ञानी सामान्यजन और भगवान सभी के अनुभव में सदा आ रहा है। प्रश्न - 'अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सबके अनुभव में सदा आ रहा है' - इस बात को स्वीकार कैसे किया जावे? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 230 उत्तर - इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य माणिक्यनन्दि परीक्षामुख सूत्र में लिखते हैं - "घटमहमात्मना वेनि । कर्मवत् कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः। मैं (आत्मा) घड़े को स्वयं (ज्ञान) से जानता हूँ। घड़ेरूप कर्म के समान कर्ता आत्मा, करण ज्ञान एवं जानना क्रिया भी जानने में आती है।" उक्त सूत्रों में यह बात स्पष्ट की गई है कि जब कोई व्यक्ति किसी पदार्थ को जानता है तो वह उस समय अकेले उस पदार्थ को ही नहीं जानता, अपितु यह भी जानता है कि मैं जान रहा हूँ, अपने ज्ञान से जान रहा हूँ और मात्र जान रहा हूँ, इसे बना नहीं रहा हूँ। इसतरह ज्ञेयरूप कर्म के साथ ज्ञातारूप कर्ता, ज्ञानरूप करण एवं जाननेरूप क्रिया भी जानने में आती है । जानने की प्रक्रिया का ही यह स्वरूप है; अत: जहाँ जानने का कार्य होगा, वहाँ ज्ञेय के साथ ज्ञाता, ज्ञान और जानना क्रिया भी जानने में अवश्य आवेगी। __ हाँ, यह बात अवश्य है कि ज्ञेय ज्ञेयरूप से ज्ञात होता है, ज्ञाता ज्ञातारूप से ज्ञात होता है, ज्ञान ज्ञानरूप से ज्ञात होता है और जानना जाननेरूप से ज्ञात होता है। इसलिए छठवीं गाथा में कहा था कि अनुभव में आत्मा ज्ञायकरूप में ज्ञात हुआ। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय के अभेद का भी यही आशय है कि अनुभव में ज्ञाता भी आत्मा, ज्ञेय भी आत्मा, ज्ञान भी आत्मा; जो कुछ है, वह सब आत्मा ही है। यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि ज्ञान में तो आत्मा भी ज्ञात हो रहा है, आत्मा में उत्पन्न होने वाले विकारी-अविकारी भाव भी ज्ञात हो रहे हैं, पुण्य-पाप भी ज्ञात हो रहे हैं और परपदार्थ भी ज्ञात हो रहे हैं । इन सब में जब अपनेरूप में अकेला अनुभूति स्वरूप आत्मा ही १. परीक्षामुख अध्याय १, सूत्र ८९ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 दिखाई देता है, तब साध्य की सिद्धि होती है और उसके अतिरिक्त कोई भी अपनेरूप में ज्ञात हो तो साध्य की सिद्धि की अनुपपत्ति होती है। समस्या पर को जानने या नहीं जानने की नहीं है, विकारी- अविकारी भावों को जानने या नहीं जानने की भी नहीं है, अपितु उन्हें निजरूप जानने की है; क्योंकि उनमें एकत्व-ममत्व से मिथ्यात्व होता है, मात्र जानने से नहीं; क्योंकि निज को निजरूप और पर को पररूप जानने में कोई हानि नहीं, लाभ ही लाभ है। यहाँ इस बात पर विशेष ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि बात तो मात्र इतनी-सी ही है कि तेरी आत्मा की सिद्धि मात्र इसलिए रुकी हुई है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा निरन्तर जानने में आते हुए भी तू उसे निज नहीं जानता, उसमें अपनापन स्थापित नहीं करता और उसीकाल में जानने में आते हुए रागादि में अपनापन करता है, परपदार्थों में अपनापन करता है । तेरी इतनी-सी भूल के कारण तू संसार में भटक रहा है। तू अपनी यह भूल सुधार ले तो कल्याण होने में देर नहीं । 1 उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी कहते हैं - 46 'ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक यह जो जाननक्रिया द्वारा जाना जाता है; वह मैं हूँ - ऐसे अन्तर में नहीं जाकर जानने में आते हुए राग के वश होकर 'वह राग ही मैं हूँ' - इसप्रकार अज्ञानी मानता है; इसकारण आत्मज्ञान उदित नहीं होता। दर्शनमोह के कारण आत्मज्ञान उदित नहीं होता ऐसा नहीं कहा। कोई माने कि कर्म से होता है - यह बात झूठी है। तीनकाल में भी कर्म से आत्मा का कछ भी सुधार बिगाड़ नहीं होता । कर्म तो परद्रव्य है । परद्रव्य से स्वद्रव्य में 'कुछ होता है ' यह बात सर्वथा मिथ्या है । " " १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ ३०३ गाथा १७-१८ - - - - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 समयसार अनुशीलन अरे भाई, राई की ओट में पहाड़ छिप गया है । आँख की पुतली के सामने से राई हटी नहीं कि पूरा पहाड़ दिखाई देने लगेगा; क्योंकि पहाड़ तो एकदम सामने ही पड़ा है न ? अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदा अन्तर में ही विराजमान है, निरन्तर अनुभव में भी आ रहा है; बस कमी तो इतनी ही है कि ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं हो रहा है कि यह जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हो रहा है, वही मैं हूँ। ऐसा ज्ञान उदित होते ही, सहज ही उसी में अपनापन स्थापित हो जावेगा और तदनुरूप आचरण भी उदित हो जायेगा। साध्य की सिद्धि का यही एकमात्र उपाय है। __ अब आचार्यदेव कलशरूप काव्य लिखते हैं। ये सत्तरह-अठारहवीं गाथाएँ भी ऐसी गाथाएँ हैं कि जिनकी टीका के बीच में ही आचार्य अमृतचन्द्र ने कलशरूप काव्य लिखा है; जो इसप्रकार है - ( मालिनि ) कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम्। सततमनुभवामोऽनंतचैतन्यचिन्हं न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः॥२०॥ ( हरिगीत ) त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना॥२०॥ यद्यपि जिसने किसी भी प्रकारसे तीनपने को अंगीकार किया है, तथापि जो एकत्व से च्युत नहीं हुई है, निर्मलता से उदय को प्राप्त है और अनन्तचैतन्य है चिन्ह जिसका; ऐसी आत्मज्योति का हम निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि उनके अनुभव के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती । - ऐसा आचार्य देव कह रहे हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 कलश २० देखो, पिछले कलशों में कहा था दर्शन - ज्ञान - चारित्र के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती और यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मानुभव के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती । भाई, एक ही बात है, भेद से कहें तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बिना साध्यसिद्धि नहीं होती ऐसा कहा जायेगा और अभेद से कहें तो एक आत्मा के अनुभव बिना साध्यसिद्धि नहीं होती – ऐसा कहा जायेगा । इन दोनों कथनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, मात्र विविक्षाभेद है; क्योंकि वही आत्मज्योति तीनपने को प्राप्त हुई है और उसी ने एकत्व को नहीं छोड़ा है; पर है तो वह आत्मज्योति ही, आत्मा ही । - तात्पर्य यह है कि सुखी होने का एकमात्र उपाय आत्मसाधना ही है । यहाँ आचार्यदेव ने उत्तमपुरुष में बात की है कि ऐसे भगवान आत्मा का हम निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि साध्य की सिद्धि का कोई दूसरा उपाय नहीं है । उत्तमपुरुष में बात करके भी आचार्यदेव प्रेरणा दे रहे हैं कि जो व्यक्ति साध्य की सिद्धि चाहते हैं, दुःखों से मुक्ति चाहते हैं, अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति करना चाहते हैं; वे निजभगवान आत्मा का निरन्तर अनुभव करें। जब कोई सुयोग्य पिता अपने पुत्र से बार-बार कहता है कि जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब प्रात: ५ बजे उठता था और ५ किलोमीटर घूमने जाया करता था; तब उसका आशय अपनी दिनचर्या बताना नहीं होता है, अपनी प्रशंसा करना भी नहीं होता है; अपितु पुत्र को प्रेरणा देना होता है कि यह उम्र प्रातः ९ बजे तक सोते रहने की नहीं है । इसीप्रकार यहाँ आचार्यदेव हमें प्रेरणा दे रहे हैं कि यदि तुम सुखशान्ति चाहते हो तो अपने आत्मा को जानों, पहिचानों, उसमें ही जम जावो, रम जावो; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। यह मानव जीवन यों ही विषयों में बर्बाद कर देने के लिए नहीं मिला है। आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मानुभव की पावन प्रेरणा से परिपूर्ण यह कलश लिखने के बाद जो टीका लिखी है, उसका भाव इसप्रकार है — Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 234 "प्रश्न -आत्मा तो ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; अत: वह ज्ञान की उपासना निरन्तर करता ही है। फिर भी उसे ज्ञान की उपासना करने की प्रेरणा क्यों दी जाती है? उत्तर - ऐसी बात नहीं है। यद्यपि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नही करता; क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति या तो स्वयंबुद्धत्व से होती है या फिर बोधितबुद्धत्व से होती है । तात्पर्य यह है कि या तो काललब्धि आने पर स्वयं ही जान ले या फिर कोई उपदेश देनेवाला मिल जावे, तब जाने। प्रश्न –तो क्या आत्मा तबतक अज्ञानी ही रहता है, जबतक कि वह या तो स्वयं नहीं जान लेता या फिर किसी द्वारा समझाने पर नहीं जान लेता? उत्तर - हाँ, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि उसे अनादि से सदा अप्रतिबुद्धत्व ही रहा है, अज्ञानदशा ही रही है।" उक्त कथन में उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज नामक जो दो भेद हैं, उनकी ओर संकेत किया गया है। जिसप्रकार सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं जाग जाय या फिर कोई जगाये, तब जागे । इसीप्रकार यह आत्मा या तो स्वयं जागृत हो और अपने आत्मा को जान ले या फिर कोई गुरु उपदेश देकर जागृत करे, आत्मा का स्वरूप समझावे, आत्मानुभव करने की प्रेरणा करे; तब जागृत हो और पुरुषार्थ करके आत्मा को जान ले, अनुभूति प्राप्त कर ले। प्रश्न –तो क्या ऐसा होता है कि कोई तो स्वयं जान ले और कोई गुरुदेव के समझाने पर जाने? उत्तर – यह कथन मुख्यता और गौणता की दृष्टि से किया गया कथन है। वैसे तो नियम ऐसा ही है कि देशनालब्धिपूर्वक ही करणलब्धि होती है और सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति करणलब्धिपूर्वक ही होती है। अत: उपदेश भी आवश्यक है और स्वयं का पुरुषार्थ भी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 आवश्यक है; फिर भी कभी - कभी ऐसा होता है कि किसी जीव को देशनालब्धि पूर्वभव में या बहुत पहले प्राप्त हुई हो और उस समय उसने पुरुषार्थ न कर पाया हो; इसकारण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी उसे न हो पाई हो; बाद में बहुतकाल बाद या अगले भव में वह पुरुषार्थ करे और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर ले तो उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहेंगे । तत्काल देशना का अभाव होने से उसे निसर्गज कहते हैं, पहले तो देशना की प्राप्ति हुई ही थी। देशना मिले और अल्पसमय में ही, उसी भव में ही पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ले तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । अनादि से तो जीव अज्ञानी ही है, मिथ्यादृष्टि ही है; अत: जबतक उसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं की; तबतक अज्ञानी ही रहता है; ज्ञान के साथ तादात्म्य होने से वह ज्ञानी नहीं हो जाता । देखो उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी क्या कहते हैं "कैसी गजब की बात है कि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्यरूप से है, तथापि एक क्षणमात्र भी ज्ञान का सेवन नहीं करता अर्थात् 'ज्ञान ही आत्मा है' – पर्याय में ऐसी एकता नहीं करता; इसकारण ज्ञान का सेवन नहीं करता । ' कलश २० - पर्याय को अन्तर्मुखी करके 'ज्ञान ही आत्मा है ' ऐसा उसके स्वरूप में एकाग्र होकर उसे जाने तो इसने ज्ञान की सेवा की ऐसा माना जाता है । इसके सिवा सब राग की ही सेवा है; आत्मा की सेवा नहीं ।" 1 १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३१३ २ . वही, पृष्ठ ३१४ — — अतः यह सुनिश्चित है कि ज्ञान के साथ तादात्म्य संबंध होने पर भी जबतक यह आत्मा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा को जानकर, उसमें अपनत्व स्थापित नहीं करता; तबतक अज्ञानी ही रहता है । ' Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा १९ यदि ऐसा है तो यह आत्मा कबतक अप्रतिबुद्ध रहेगा, अज्ञानी रहेगा; ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर उसके उत्तरस्वरूप आगामी गाथा का उदय हुआ है । कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥ १९ ॥ ( हरिगीत ) मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी । यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ॥ १९ ॥ जबतक यह आत्मा ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्मों, मोह राग द्वेषादि भावकर्मों एवं शरीरादि नोकर्मों में अहंबुद्धि रखता है, ममत्वबुद्धि रखता है; यह मानता रहता है कि 'ये सभी मैं हूँ और मुझमें ये सभी कर्म - नोकर्म हैं जबतक अप्रतिबुद्ध रहता है, अज्ञानी रहता है । तात्पर्य यह है कि कर्म - नोकर्म में अहंबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि ही अज्ञान है । , - - अहंबुद्धि को एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि को स्वामित्वबुद्धि भी कहते हैं । परपदार्थों और उनके निमित्त से होनेवाले विकारीभावों में अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि ही अज्ञान है, अप्रतिबुद्धता है । - 'ये ही मैं हूँ' इसप्रकार की मान्यता का नाम अहंबुद्धि है, एकत्वबुद्धि है और 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' - इसप्रकार की मान्यता का नाम ममत्वबुद्धि है, स्वामित्वबुद्धि है । इसीप्रकार 'मैं इनका कर्ता हूँ, ये मेरे कर्त्ता हैं' - इसप्रकार की मान्यता का नाम कर्तृत्वबुद्धि है Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 गाथा १९ और मैं इनका भोक्ता हूँ, ये मेरे भोक्ता हैं - इसप्रकार की बुद्धि का नाम भोक्तृत्वबुद्धि है । इनमें कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि का निषेध तो कर्ता-कर्म अधिकार में किया जायगा; यहाँ तो एकत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि के सन्दर्भ में ही विचार अपेक्षित है । यही कारण है कि इस १९वीं गाथा में अज्ञानी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा जा रहा है कि जबतक शरीरादि नोकर्म एवं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परपदार्थों एवं द्रव्यकर्मों के उदय से अपनी आत्मा में उत्पन्न होनेवाले विकारीभावों में अहंबुद्धि रहेगी, ममत्वबुद्धि रहेगी, तबतक आत्मा अज्ञानी रहेगा। आगे कर्ता-कर्म अधिकार में ७५वीं गाथा में कहा जायगा कि कर्म के परिणाम को और नोकर्म के परिणाम को जो कर्ता नहीं है, मात्र जानता है, वह ज्ञानी है । यहाँ अज्ञानी की परिभाषा बताई जा रही है और वहां ज्ञानी की परिभाषा बताई जावेगी । यदि दोनों को मिलाकर बात कहें तो इसप्रकार कह सकते हैं कि जो कर्म में और नोकर्म में तथा कर्म के उदय में होनेवाले अपने विकारी परिणामों में अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रखता है, वह अज्ञानी है और जो व्यक्ति इनमें अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि नहीं रखता है; किन्तु मात्र उन्हें जानता है, वह ज्ञानी है । इस १९वीं गाथा पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखित आत्मख्याति टीका पर विचार करने के पूर्व जयचन्दजी छाबड़ा का भावार्थ देख लेना उपयोगी रहेगा; क्योंकि पहले उसके अध्ययन से विषयवस्तु को समझने में विशेष सुविधा रहेगी। वह भावार्थ इसप्रकार है - 44 ' जैसे स्पर्शादि में पुद्गल का और पुद्गल में स्पर्शादि का अनुभव होता है अर्थात् दोनों एकरूप अनुभव में आते हैं; उसीप्रकार जबतक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 238 आत्मा को, कर्म और नोकर्म में आत्मा की और आत्मा में कर्म नोकर्म की भ्रान्ति होती है; अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते हैं; तबतक तो वह अप्रतिबुद्ध है; और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गल के ही हैं; तभी वह प्रतिबुद्ध होता है । जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है ; वहाँ यह ज्ञात होता है कि 'ज्वाला तो अग्नि में ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है; और जो दर्पण में दिखाई दे रही है, वह दर्पण की स्वच्छता ही है।' इसीप्रकार 'कर्म-नोकर्म अपने आत्मा में प्रविष्ट नहीं हैं ; आत्मा की ज्ञानस्वच्छता ही ऐसी है कि जिसमें ज्ञेय का प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्मनोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिए वे प्रतिभासित होते हैं ' - ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्मा को या तो स्वयंमेव हो अथवा उपदेश से हो, तभी वह प्रतिबुद्ध होता है।" उक्त भावार्थ में दो बातें स्पष्ट की हैं - (१) जिसप्रकार पुद्गलद्रव्य और उसके स्पर्शादि गुण हमें एक ही लगते हैं; क्योंकि हमें पुद्गल में स्पर्शादि का और स्पर्शादि में पुद्गल का अनुभव होता है। उसीप्रकार कर्म-नोकर्म और आत्मा में भी हमें एकत्व की भ्रान्ति होती है, वे दोनों एक ही लगते हैं। जबतक यह भ्रान्ति रहेगी, तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध रहेगा। किन्तु जब आत्मा यह जान लेता है कि आत्मा और कर्म-नोकर्म भिन्न-भिन्न हैं ; क्योंकि आत्मा तो ज्ञाता, चेतनद्रव्य है और कर्म-नोकर्म पुद्गल हैं, अचेतन हैं; तब प्रतिबुद्ध हो जाता है। इसप्रकार कर्म-नोकर्म में एकत्वबुद्धि अप्रतिबुद्धता है, अज्ञान है, और भगवान आत्मा को इनसे भिन्न जानना प्रतिबुद्धता है, ज्ञान है। (२) जिसप्रकार दर्पण में जो ज्वाला दिखती है, वह अग्नि की नहीं, दर्पण की ही स्वच्छता है; क्योंकि अग्नि - ज्वाला तो दर्पण में प्रविष्ट ही नहीं हुई है, वह तो अग्नि में ही हैं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 गाथा १९ उसीप्रकार कर्म-नोकर्म तो ज्ञेय है; उनका जो प्रतिबिम्ब आत्मा में प्रतिभासित होता है; वह आत्मा के ज्ञान की ही स्वच्छता है; क्योंकि कर्म-नोकर्म तो आत्मा में प्रविष्ट हुए ही नहीं हैं; वे तो स्वयं में ही हैं। इसप्रकार का भेदज्ञानरूप अनुभव जब आत्मा को होता है, तभी आत्मा प्रतिबुद्ध होता है। इसी बात को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आदि भावों में तथा चौड़ा, गहरा, अवगाहरूप उदरादि के आकार परिणत हुए पुद्गलस्कंधों में 'यह घट है' इसप्रकार की अनुभूति होती है और घट में यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़े, गहरे, उदराकार आदि रूप परिणत पुद्गलस्कंध है' - इसप्रकार वस्तु के अभेद से अनुभूति होती है। उसीप्रकार जो मोह आदि अन्तरंग परिणामरूप कर्म और शरीरादि बाह्यवस्तुरूप नोकर्म - सभी पुद्गल के परिणाम हैं और आत्मा को तिरस्कार करनेवाले हैं; उनमें 'यह मैं हूँ' - इसप्रकार तथा आत्मा में 'यह मोह आदि अन्तरंग परिणामरूपकर्म और शरीरादि बाह्यवस्तुरूप नोकर्म आत्मतिरस्कारी पुद्गल परिणाम हैं ' - इसप्रकार वस्तु के अभेद से जबतक अनुभूति है, तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है। जिसप्रकार रूपी दर्पण की स्वच्छता ही स्व-पर के आकार का प्रतिभास करनेवाली है और उष्णता तथा ज्वाला अग्नि की है। इसीप्रकार अरूपी आत्मा की तो अपने को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गल के हैं। इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेश से, जैसे भी हो; जिसका मूल भेदविज्ञान है, ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी, तब ही आत्मा प्रतिबुद्ध होगा, ज्ञानी होगा।" Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन यद्यपि उक्त कथन से सम्पूर्ण विषयवस्तु अत्यन्त स्पष्ट हो गई है, तथापि टीका के अन्तिम अंश के सम्बन्ध में स्वामीजी के विचारों से अवगत होना आवश्यक प्रतीत होता है, जो इसप्रकार है अपना ज्ञान होना और पर - राग का ज्ञान होना यह तो अपने ज्ञान की परणति का स्वपरप्रकाशक स्वभाव है । राग है, इसकारण राग का ज्ञान हुआ - ऐसा नहीं है; परन्तु उस काल में अपने ज्ञान की पर्याय स्वयं राग के ज्ञेयाकाररूप से परिणमित होती हुई, स्वयं ज्ञानाकाररूप हुई है । वह स्वयं से हुई है, स्वयं में हुई है; पर (ज्ञेय) से नहीं हुई है। अरूपी आत्मा को तो स्वयं को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है । यह ज्ञातृता स्वयं की है, स्वयं से सहज है, राग से नहीं और राग. की भी नहीं । राग है, इसलिए राग का जानना होता है - ऐसा नहीं है । वस्तु का सहजस्वरूप ही ऐसा है । 44 - 'स्वपर का प्रतिभास होना' यह स्वयं की सहज सामर्थ्य है । परपदार्थ हैं, इसकारण उनका ज्ञान होता है - ऐसा नहीं है । आत्मा की तो स्वपर को जाननेवाली ज्ञातृता है । उसमें कर्म व नोकर्म पुद्गल के हैं ऐसा ज्ञात होता है । — 240 — १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, २. वही, भाई, रागादि पर हैं और जो पर्याय में रागादि का ज्ञान है, वह मेरा है; ऐसा भेदज्ञान रूप अनुभव तब होता है, जबकि रागादि का लक्ष्य छोड़कर अपने लक्ष्य में आवे, तब ही इसकी परिणति में भेदज्ञान होता है । शरीर, मन, वाणी, इत्यादि नोकर्म और रागादि भावकर्म - ये सब पर- पुद्गल के ही हैं, पुद्गल ही हैं; और इन ज्ञेयों को जाननेवाला ज्ञान मेरा है, ज्ञायक का है - ऐसी भिन्नता जानकर एक ज्ञायक सत्ता में ही जो लक्ष्य करे, उसे भेदज्ञान होता है । " २ पृष्ठ ३२५ पृष्ठ ३२८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 कलश २१ इसप्रकार बात अत्यन्त स्पष्ट है और आगे भी इसी विषय पर मंथन चलनेवाला है। अत: यहाँ अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। अब इसी अर्थ का सूचक कलशकाव्य कहते हैं : ( मालिनी ) कथमपि हि लभंते भेदविज्ञानमूला मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा। प्रतिफलननिमग्नानंतभावस्वभावै Mकुरवदविकाराः संततं स्युस्त एव॥२१॥ (रोला) जैसे भी हो स्वतः अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञान मूलक अविचल अनुभूति हुई हो। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी। अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी॥२१॥ जो पुरुष अपने आप ही अथवा पर के उपदेश से किसी भी प्रकार से भेदविज्ञान है मूल जिसका, ऐसी अपने आत्मा की अविचल अनुभूति प्राप्त करते हैं; वे पुरुष ही दर्पण की भांति अपने में प्रतिबिम्बित हुए अनन्तभावों के स्वभावों से निरन्तर विकाररहित होते हैं; ज्ञान में जो ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं, उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते। उक्त कलश में मूलत: तो टीका की बात को ही कहा है, फिर भी इसमें दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह है कि अनुभूति को भेदज्ञानमूलक कहा है और दूसरी यह कि आत्मा के ज्ञानदर्पण में अनन्तपदार्थ झलकें, पर उससे ज्ञानी आत्मविकार को प्राप्त नहीं होते। जिसप्रकार अग्नि के प्रतिबिम्बित होने से दर्पण गर्म नहीं होता, उसीप्रकार रागादि के ज्ञेय बनने से आत्मा रागादिरूप परिणमित नहीं होता। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 समयसार अनुशीलन यदि आत्मानुभूति प्राप्त करना है तो स्व और पर के बीच भेदविज्ञान करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही कारण है कि यहाँ आत्मा और कर्म-नोकर्म के बीच भेदविज्ञान कराया गया है। आत्मानुभूति को भेदविज्ञानमूला कहने का मूल कारण यह है कि अन्य करोड़ों उपाय करो, तो भी भेदविज्ञान के बिना आत्मानुभूति की प्राप्ति नहीं होगी। पूजा-पाठ, जप-तप, तीर्थयात्रा, व्रत-शील, संयम आदि से आत्मानुभूति प्राप्त होने वाली नहीं है। आत्मानुभूति का तो एक ही मार्ग है और वह है भेदविज्ञान । इसलिए इस कलश में प्रेरणा दी जा रही है कि कथमपि स्वतो वा अन्यतो वा कैसे भी करके स्वतः अथवा अन्य से जैसे भी हो, मरपच के भी एक आत्मानुभूति प्राप्त करो; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। यह आत्मानुभूति दो प्रकार से होती है। - यह बताना मूल प्रयोजन नहीं है; मूलप्रयोजन तो यह है कि इस पर बहस मत करो कि वह स्वतः प्राप्त होगी या पर से, जैसे भी हो, उसे प्राप्त करने का उग्र पुरुषार्थ करो। साधन की दृष्टि से अनुभूति को भेदविज्ञानमूला कहा है। साधन तो एकमात्र भेदविज्ञान ही है, कोई अन्य नहीं। अन्यतो वा' कहकर तो मात्र निमित्त का ज्ञान कराया है। __प्राप्त करने योग्य तो एकमात्र आत्मानुभूति ही है और उसका उपाय एकमात्र भेदविज्ञान है । यही कारण है कि आगे संवर अधिकार के एक कलश में तो यहाँ तक कहेंगे कि - "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन। __ अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥१३१ ।। जितने भी जीव आज तक सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जितने भी संसार में बंधे हैं, वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही बंधे हैं।" Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 कलश २१ और भी अनेक स्थानों पर भेदविज्ञान की महिमा विविध प्रकार से गाई गई है। जिसे जानकर पूरी शक्ति लगाकर भेदविज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि परपदार्थों के जानने से न तो लाभ है और न हानि ही है। उनके नहीं जानने से तो हमारा कुछ बिगड़नेवाला है ही नहीं; परन्तु अपने ज्ञान में उनके ज्ञेय बनने से भी कुछ बिगड़नेवाला नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार दर्पण में अनन्त पदार्थ झलकते हैं, पर उससे दर्पण विकृत नहीं होता; उसीप्रकार अनन्त ज्ञेयों के जानने से भी हमारा ज्ञानदर्पण विकृत होनेवाला नहीं है । बिगड़ता तो उन्हें अपना जानने से है, अपना मानने से है, उनमें ही जमने-रमने से है, उनका ही ध्यान करने से हैं; अकेले जाननेमात्र से कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं है । अतः न उन्हें जानने का हट करना चाहिए और न नहीं जानने का भी हट करना चाहिए । सहजभाव से जैसे जो ज्ञात हो जावे, हो जाने दें; न होवे तो, न होने दें; उनके प्रति सहजभाव धारण करना ही श्रेयस्कर है । इस कलश में इन्हीं दो बातों पर वजन दिया गया है। इस कलश के भाव को बनारसीदासजी ने निम्नांकित छन्द में इसप्रकार व्यक्त किया है - ( सवैया तेईसा ) कै अपनौं पद आप संभारत, कै गुरु के मुख की सनि वानी। भेदविग्यान जग्यो जिन्हि कै, प्रगटी सुविवेक कला रजधानी॥ भाव अनंत भये प्रतिबिम्बित जीवन मोख दसा ठहरानी। ते नर, दर्पण ज्यौं अविकार हैं थिररूप सदा सुखदानी॥ या तो स्वयं ही या गुरुमुख से सुनकर जो अपने आत्मा को जानते हैं, देखते हैं, स्वयं को संभालते हैं; अन्तर में भेद-विज्ञान जग जाने से जिनके स्वपर विवेक की शक्ति प्रगट हो गई है, जिनके ज्ञानदर्पण में अनंत भाव प्रतिबिम्बित हो गये हैं और जिनकी दशा जीवनमुक्त जैसी , Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 समयसार अनुशीलन हो गई हैं; वे लोग अनन्त पदार्थों को जानते हुए भी दर्पण के समान निर्विकार रहते हैं और सदासुख देनेवाली स्थिरदशा को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार इस कलश में यही प्रेरणा दी गई है कि जैसे भी हो स्वतः या पर से, परन्तु भेदविज्ञानमूलक आत्मानुभूति को अवश्य प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि यह भेदविज्ञानमूलक आत्मानुभूति की ही महिमा है कि जिसके कारण अनन्त ज्ञेयों को जानने पर भी ज्ञान अविकारी ही रहता है। इसके बाद दो गाथाएँ आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में प्राप्त होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति में नहीं हैं । वे दोनों गाथाएँ इसप्रकार हैं - जीवे व अजीवे वा संपदि समयह्यि जत्थ उवजुत्तो। तत्थेव बंध मोक्खो होदि समासेण णिहिट्ठो। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ॥ जब जीव में उपयोग लगता है तो मोक्ष होता है और अजीव में उपयोग लगता है तो बंध होता है। बंध और मोक्ष की संक्षेप में यही प्रक्रिया है। निश्चयनय से आत्मा जिस भाव को करता है, उसी भाव का कर्ता होता है और व्यवहारनय से पुद्गलकर्म का कर्ता होता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र की टीका में तो ये गाथाएँ हैं ही नहीं, आचार्य जयसेन ने भी इनका सामान्य अर्थ ही लिखा है, विशेष कुछ नहीं कहा है। उन्होंने इनके बारे में जो कुछ कहा है उसका सार इसप्रकार है - "शुद्धजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि से परिणत हुआ तो मोक्ष होता है और देहादिक अजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि से परिणत हुआ तो बंध होता है - ऐसा संक्षेप में सर्वज्ञ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 कलश २१ भगवान ने कहा है। इसलिए सहजानन्दस्वभावी निजात्मा में रति करना चाहिए और परद्रव्य में रति नहीं करना चाहिए। यह आत्मा अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्धभावों का और शुद्धनिश्चयनय से शुद्धभावों कर्ता है तथा अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है । अत: संसार से भयभीत मुमुक्षुओं के द्वारा रागादि से रहित निज शुद्धात्मा की भावना करना चाहिए।" सबकुछ मिलाकर सार यह है कि देहादि परपदार्थों से एकत्व, ममत्व छोड़कर, उनके कर्तृत्व से भी मुख मोड़कर निज शुद्धात्मा की आराधना करना ही श्रेयस्कर है। दूसरी गाथा की प्रथम पंक्ति कर्ता-कर्म अधिकार में दो स्थानों पर हूबहू प्राप्त होती है। आत्मख्याति के अनुसार उनकी क्रम संख्या ९१ एवं १२६ है और तात्पर्यवृत्ति के अनुसार उनकी संख्या क्रमशः ९८ एवं १३४ है। उक्त गाथा में जो विषयवस्तु है, वह भी कर्ता-कर्म भाव से संबंधित है; अतः इसपर विस्तृत मीमांसा कर्ता-कर्म अधिकार में करना ही उचित प्रतीत होता है। आगामी गाथाओं की संधि भी १९वीं गाथा से ही मिलती है। . भगवान ने यदि 'भव्य' कहा तो इससे महान अभिनन्दन और क्या होगा? भगवान की वाणी में 'भव्य' आया तो मोक्ष प्राप्त होने की गारंटी हो गई। पर इस मूर्ख जगत ने यदि भगवान भी कह दिया तो उसकी क्या कीमत? स्वभाव से तो सभी भगवान हैं, पर जो पर्याय से भी वर्तमान में हमें भगवान कहता है, उसने हमें भगवान नहीं बनाया वरन् अपनी मूर्खता व्यक्त की है। विनय बहुत ऊँची चीज है, उसे इतने नीचे स्तर पर नहीं लाना चाहिए। भाई साहब! विनय तो वह तप है जिससे निर्जरा और मोक्ष होता है, वह क्या चापलूसी से हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं। ___- धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ १०८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २० से २२ १९वीं गाथा में यह कहा था कि जबतक यह आत्मा कर्म और नोकर्म में एकत्व - ममत्व रखेगा, तबतक अप्रतिबुद्ध रहेगा, अज्ञानी रहेगा; अतः अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि हम कैसे पहिचाने कि यह व्यक्ति अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है ? तात्पर्य यह है कि अज्ञानी की पहिचान के चिन्ह क्या हैं? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप आगामी २० से २२ तक की गाथायें लिखी गई हैं; जो इसप्रकार हैं - अहमेदं एदमहं अहमेदस्सम्हि अत्थि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ॥ २० ॥ आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि ॥ २१ ॥ एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ॥ २२ ॥ ( हरिगीत ) सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब परद्रव्य ये । हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही ॥ २० ॥ हम थे सभी के या हमारे थे सभी गतकाल में । हम होंगे उनके हमारे वे अनागत काल में ॥ २१ ॥ ऐसी असंभव कल्पनाएँ मूढ़जन नित ही करें । भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ॥ २२ ॥ जो पुरुष अपने से भिन्न परद्रव्यों में सचित स्त्री- पुत्रादिक में, अचित्त धन-धान्यादिक में, मिश्र ग्राम-नरगादिक में - ऐसा विकल्प करता है, मानता है कि मैं ये हूँ, ये सब द्रव्य मैं हूँ; मैं इनका हूँ, ये Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 गाथा २०-२२ मेरे हैं; ये मेरे पहले थे, इनका मैं पहले था; तथा ये सब भविष्य में मेरे होंगे, मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा - वह व्यक्ति मूढ़ है, अज्ञानी है; किन्तु जो पुरुष वस्तु का वास्तविक स्वरूप जानता हुआ ऐसे झूठे विकल्प नहीं करता है, वह ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि पर में अपनापन अनुभव करनेवाले अज्ञानी हैं और अपने आत्मा में अपनापन अनुभव करनेवाले ज्ञानी हैं । ज्ञानीअज्ञानी की मूलतः यही पहिचान है। __ आचार्य अमृतचन्द्र इस बात को अग्नि और ईंधन का उदाहरण देकर आत्मख्याति में इसप्रकार समझाते हैं - "जिसप्रकार कोई पुरुष ईंधन और अग्नि को मिला हुआ देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि जो अग्नि है, वही ईंधन है और जो ईंधन है, वही अग्नि है; अग्नि का ईंधन है और ईंधन की अग्नि है; अग्नि का ईंधन पहले था और ईंधन की अग्नि पहले थी; अग्नि का ईंधन भविष्य में होगा और ईंधन की अग्नि भविष्य में होगी, तो वह अज्ञानी. है; क्योंकि इसप्रकार के विकल्पों से अज्ञानी पहिचाना जाता है। ___ इसीप्रकार परद्रव्यों में - मैं ये परद्रव्य हूँ, ये परद्रव्य मुझरूप है; ये परद्रव्य मेरे हैं, मैं इन परद्रव्यों का हूँ; ये पहले मेरे थे, मैं पहले इनका था; ये भविष्य में मेरे होंगे और मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा - इसप्रकार के झूठे विकल्पों से अप्रतिबुद्ध अज्ञानी पहिचाना जाता है। ___ अग्नि है, वह ईंधन नहीं है और ईंधन है, वह अग्नि नहीं है; अग्नि है, वह अग्नि ही है और ईंधन है, वह ईंधन ही है। अग्नि का ईंधन नहीं है और ईंधन की अग्नि नहीं है; अग्नि की अग्नि है और ईंधन का ईंधन है। अग्नि का ईंधन पहले नहीं था, ईधन की अग्नि पहले नहीं थीं; अग्नि की अग्नि पहले थी, ईंधन का ईंधन पहले था, अग्नि का ईंधन भविष्य में नहीं होगा और ईंधन की अग्नि भविष्य में नहीं होगी; अग्नि की अग्नि ही भविष्य में होगी और ईंधन का ईंधन ही भविष्य में होगा। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 248 इसप्रकार जैसे किसी को अग्नि में ही सत्यार्थ अग्नि का विकल्प हो, तो वह उसके प्रतिबुद्ध होने का लक्षण है। ___ इसीप्रकार मैं ये परद्रव्य नहीं हूँ और ये परद्रव्य मुझस्वरूप नहीं हैं ; मैं तो मैं ही हूँ और परद्रव्य हैं, वे परद्रव्य ही हैं ; मेरे ये परद्रव्य नहीं हैं और इन परद्रव्यों का मैं नहीं हूँ; मैं मेरा हूँ और परद्रव्य के परद्रव्य हैं; ये परद्रव्य पहले मेरे नहीं थे और इन परद्रव्यों का मैं पहले नहीं था; मेरा ही मैं पहले था और परद्रव्यों के परद्रव्य ही पहले थे। ये परद्रव्य भविष्य में मेरे नहीं होंगे और न मैं भविष्य में इनका होऊँगा; मैं भविष्य में अपना ही रहूँगा और ये परद्रव्य भविष्य में इनके ही रहेंगे। इसप्रकार जो व्यक्ति स्वद्रव्य में ही आत्मविकल्प करते हैं, स्वद्रव्य को निज जानते-मानते हैं, वे ही प्रतिबुद्ध हैं, ज्ञानी हैं। ज्ञानी का यही लक्षण है और इन्हीं लक्षणों से ज्ञानी पहिचाना जाता है।" उक्त कथन में अनेकप्रकार से एक ही बात कही गई है कि अपनी ज्ञान पर्याय में ज्ञात होने वाले परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व करना ही अज्ञान है और परद्रव्यों से एकत्व-ममत्व तोड़कर अपने आत्मा में एकत्व-ममत्व करना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन है। अतः इस एकत्वममत्व के आधार पर ही ज्ञानी-अज्ञानी की पहिचान होती है। यहाँ एकत्व-ममत्व को अग्नि व ईंधन के उदाहरण से तीनों कालों की अपेक्षा घटित करके समझाया गया है। गाथा में व टीका में उसी को सर्वांग घटित करके स्पष्ट किया है। अतः कुछ पिष्टपेषण-सा लगता है, पर यह तो मूल बात है और अपने अन्तर में गहराई से उतारने की बात है। अत: इसमें पिष्टपेषण दोष नहीं, गुण माना जाता है; क्योंकि आखिर हमें पर से एकत्व-ममत्व तोड़ना है और अपने में एकत्व-ममत्व जोड़ना है। इसलिए इसप्रकार की भावना अनवरतरूप से भाना ही होगी। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249 गाथा २०२२ आचार्य जयसेन की टीका में और सब बातें तो आत्मख्याति के समान ही हैं, पर एक बात विशेष है। वह यह कि उन्होंने सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों को गृहस्थ की अपेक्षा, तपोधन मुनिराजों की अपेक्षा एवं निर्विकल्प समाधिस्थ पुरुष की अपेक्षा पृथक्-पृथक् घटित करके समझाया है। उनके मूल कथन का भाव इसप्रकार है - "उनमें गृहस्थ की अपेक्षा छात्रादि स्त्री आदि सचित्त, स्वर्णादि अचित्त एवं वस्त्राभूषण सहित स्त्री आदि मिश्र हैं । तपोधन की अपेक्षा छात्रादि सचित्त; पीछी-कमण्डलु पुस्तक आदि अचित्त और उपकरण सहित छात्रादि मिश्र हैं अथवा रागादि भावकर्म सचित्त, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अचित्त एवं द्रव्यकर्म और भाव - दोनों मिलाकर मिश्र हैं। विषय-कषाय रहित निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुष की अपेक्षा सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप सचित्त, पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अचित्त और गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणादिरूप परिणत संसारीजीव का स्वरूप मिश्र है।" ___ यहाँ प्रकरण यह चल रहा है कि अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) की पहिचान का चिन्ह क्या है ? हम कैसे जाने कि यह अप्रतिबुद्ध है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जो व्यक्ति सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों में अपनेपन का विकल्प करता है, वह अज्ञानी है और जो भूतार्थ को जानते हुए परपदार्थों में इसप्रकार के आत्मविकल्प नहीं करता है, वह ज्ञानी है, प्रतिबुद्ध है। उक्त गाथा की टीका में सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों की व्याख्या में आचार्य अमृतचन्द्र तो एकदम मौन है; क्योंकि उनकी दृष्टि में यह अत्यन्त सरल बात है, जिसे सभी अच्छी तरह समझते हैं । अतः उन्होंने इनकी व्याख्या में कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं समझी, पर आचार्य जयसेन ने उक्त व्याख्या की है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन इन तीनों उक्त व्याख्या में गृहस्थ, तपोधन, परमसमाधि में स्थित की अपेक्षा बताकर वे क्या कहना चाहते हैं ? इस बात को गहराई से समझना चाहिए; क्योंकि गृहस्थों में तो ऐसा अज्ञान संभव है कि वे स्त्री- पुत्रादि, धन-धान्यादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प करें। उन्हें अपना माने; पर तपोधन तो ज्ञानी धर्मात्मा होते हैं; वे इसप्रकार की मान्यता छात्रादि में कैसे कर सकते हैं ? यदि यह भी मान लें कि कोई वेशधारी ऐसा करे, उसकी अपेक्षा यह बात है; तो भी जो निर्विकल्पसमाधि में स्थित हैं वे तो ऐसा मान ही नहीं सकते। वे तो किसी परद्रव्य को न तो अपना मान ही सकते हैं और न उन्हें इसप्रकार के विकल्पों की उत्पत्ति संभव है; क्योंकि वे तो निर्विकल्पसमाधि में रत हैं । - - - - अतः यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि गृहस्थ की अपेक्षावाला जो उदाहरण है, वह तो ज्ञानी अज्ञानी सभी पर घटित होगा और शुभोपयोगी तपोधन एवं निर्विकल्पसमाधि में स्थित तपोधनवाला उदाहरण मात्र ज्ञानी पर ही घटित होगा। तात्पर्य यह है कि जो गृहस्थ शरीरादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प करते हैं, वे अज्ञानी हैं और जो गृहस्थ एवं शुभोपयोग में प्रवर्तमान तपोधन व निर्विकल्पसमाधिरत तपोधन शरीरादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प न करके अपने आत्मा को ही निज जानते- मानते हैं; वे ज्ञानी धर्मात्मा है, प्रतिबुद्ध हैं । अब आचार्य अमृतचन्द्र कलश के माध्यम से प्रेरणा देते हैं कि हे जगतजनो ! पर से एकत्व का मोह अब तो छोड़ो; क्योंकि यह आत्मा, अनात्मा के साथ कभी भी एकत्व को प्राप्त नहीं होता । कलश मूलतः इसप्रकार है 250 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 कलश २२ ( मालिनी ) त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः किल कलयति काले क्वापि तदात्म्यवृत्तिम् ।। २२ ॥ ( हरिगीत ) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो॥ तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं॥२२॥ हे जगत के जीवो ! अनादि से लेकर आजतक अनुभव किये गये मोह को कम से कम अब तो छोड़ो और रसिकजनों को रुचिकर उदित ज्ञान का आस्वादन करो; क्योंकि आत्मा इस लोक में किसी भी स्थिति में अनात्मा के साथ तादात्म्य को धारण नहीं करता, पर के साथ एकमेक नहीं होता। 'रसिकजन' शब्द का अर्थ कलशटीकाकार ने शुद्धस्वरूप का अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुष किया है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीवों की रुचि तो एकमात्र ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा में होती है, वे तो निरन्तर उसी में रहना चाहते हैं, उसी में रमना चाहते हैं; क्योंकि उनका अपनापन तो अपने त्रिकालीध्रुव ज्ञायकभाव में ही स्थापित हो गया है। यहाँ आचार्यदेव जगत के जीवों को सम्बोधित करते हुए समझा रहे हैं कि तुम भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्माओं के समान निज ज्ञानानन्दस्वभाव का ही आस्वादन करो, उसमें ही अपनापन स्थापित करो, उसमें ही जम जावों, रम जावों; क्योंकि परके साथ तुम्हारा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। ये शरीरादि परपदार्थ न तो आजतक तुम्हारे हुए हैं और न कभी होंगे ही। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन अरे भाई, तुमने अनादि से आज तक परपदार्थों में ही अपनापन स्थापित किया है, निजभगवान आत्मा को कभी जाना ही नहीं; इसकारण अनंत दुःख उठाये हैं । फिर भी उन्हीं परपदार्थों से एकत्व स्थापित किये हो और अनन्त दुःखी हो रहे हो । अरे भाई, अब तो इस एकत्व के मोह को छोड़ो और अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में एकत्व स्थापित करो । I 252 शरीरादि परपदार्थों में, रागादि विकारी भावों में एकत्व स्थापित करना ही दर्शनमोह है, मिथ्यात्व है। यहाँ उस एकत्व छोड़ने की ही प्रेरणा दी जा रही है । 44 इस कलश की महिमा से विभोर होते हुए स्वामीजी कहते हैं अहो । अमृतचन्द्राचार्य के कलश बहुत गंभीर हैं। टीका भी बहुत गंभीर है। जिसप्रकार ग्वाला गाय के स्तनों में से दोहन करके दूध निकालता है, उसीप्रकार शास्त्रों में भरे हुयें भावों को अमृतचन्द्र ने तर्क की ताकत लगाकर निकाला है और टीका में भर दिया है । - भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप है और राग अचेतन है। चाहे दया, दान, व्रतादि का विकल्प हो या गुण-गुणी के भेद का विकल्प हो; ये सब विकल्प अचेतन है; इनमें ज्ञानस्वभाव की किरण नहीं हैं। इसलिए उस राग का स्वाद छोड़कर इस ज्ञानस्वरूप आत्मा को आस्वादो । भगवान आत्मा में आनन्द का स्वाद है । अनादिकाल से राग का स्वाद लिया, वह दुःख का, आकुलता का स्वाद था; उसमें कुछ नया नहीं है। यदि कुछ नया करना हो तो ज्ञान को आस्वादो । - ऐसा कहते हैं । " इसप्रकार इस कलश में पर के साथ एकत्व के मोह को तोड़ने एवं अपने में एकत्व स्थापित करने की प्रेरणा देकर आचार्यदेव अब आगामी गाथा में तर्क से, युक्ति से इसी बात को समझाते हैं । १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३४८ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २३ से २५ अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो॥२३॥ सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥ २४॥ जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं। तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ॥२५॥ ( हरिगीत ) अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय। अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहे ॥२३॥ सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह। पुद्गलमयी हो. यह किसतरह तू अपना कहे ? ॥२४॥ जीवमय पुद्गल-" : पुद्गलमयी हो जीव जब। 'ये मेरे पुद्गल द्रव्' - यह कहा जा सकता है तब ।। २५ ॥ जिसकी मति अज्ञान से मोहित है और जो मोह-राग-द्वेष आदि अनेक भावों से युक्त है; ऐसा जीव कहता है कि ये शरीरादि बद्ध और धनधान्यादि अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरे हैं। उसे समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा देखा गया जो सदा उपयोगलक्षणवाला जीव है, वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो सकता है कि जिससे तू कहता है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है। यदि जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो जाय और पुद्गलद्रव्य जीवत्व को प्राप्त करे तो तू कह सकता है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ।। पर यह तो संभव नहीं है; अतः तुम्हारा यह कहना ठीक नहीं है कि शरीरादि बद्ध और धनधान्यादि अबद्ध परपदार्थ मेरे हैं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 समयसार अनुशीलन गाथा और आत्मख्याति टीका का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्य को अपना मानता है। यहाँ उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतन द्रव्य - दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं; कभी भी किसी भी प्रकार से एक नहीं होते - ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने देखा है। इसलिए हे अज्ञानी ! तू परद्रव्य को एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थ की मान्यता से बसकर।" आचार्य जयसेन भी इन तीनों गाथाओं के शब्दार्थ को स्पष्ट करने के उपरान्त निष्कर्ष के रूप में कहते हैं - "जिसप्रकार बरसात में नमक जलरूप हो जाता है और गर्मियों में वही जल फिर नमकरूप हो जाता है; उसीप्रकार यदि जीव चेतनता छोड़कर पुद्गलद्रव्यरूप हो जावे और पुद्गल मूर्तपने को छोड़कर चेतनरूप हो जावे तो तेरा कहना सत्य हो सकता है कि पुद्गलद्रव्य मेरा है। किन्तु हे दुरात्मन् ! ऐसा कभी होता नहीं है; क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष ही विरोध भासित होता है अर्थात् प्रत्यक्षप्रमाण से ही विरोध आता है। हम तो स्पष्ट देख रहे हैं कि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाववाला अमूर्तजीव इस जड़ देह से एकदम भिन्न ही है।" गाथा की भावना को आत्मसात करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अनेक उदाहरणों से गाथा के मर्म को खोलते हुए कहते हैं - "जिसप्रकार स्फटिक पाषाण में अनेक प्रकार के रंगों की निकटता के कारण अनेकरूपता दिखाई देती है, स्फटिक का निर्मलस्वभाव दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार एक ही साथ अनेकप्रकार की बंधन की उपाधि की अतिनिकटता से वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभावभावों के संयोगवश अपने स्वभावभाव के तिरोभूत हो जाने से, जिसकी Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 गाथा २३-२५ भेदज्ञानज्योति पूर्णतः अस्त हो गई है और अज्ञान से विमोहित है हृदय जिसका; - ऐसा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) जीव स्वपर का भेद न करके उन अस्वभावभावों को अपना मानता हुआ पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित करता है। ऐसे अज्ञानीजीव को समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे दुरात्मन् ! घास और अनाज को परम-अविवेकपूर्वक एकसाथ खानेवाले हाथी के समान तू स्व और पर को मिलाकर एक देखने के इस स्वभाव को छोड़ ! छोड़ !! संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से संपूर्णत: रहित एवं विश्व की एकमात्र अद्वितीय ज्योति - ऐसे सर्वज्ञ के ज्ञान में जाना गया नित्य उपयोगलक्षण जीवद्रव्य पुद्गल कैसे हो गया, जो तू कहता है, अनुभव करता है कि पुद्गलद्रव्य मेरा है। __ यदि किसी भी प्रकार से जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो; तभी 'नमक के पानी' के अनुभव की भाँति तेरी यह अनुभूति ठीक हो सकती है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकार से बनता नहीं है। __ अब इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हैं । जिसप्रकार खारापन है लक्षण जिसका, ऐसा नमक पानीरूप होता दिखाई देता है और प्रवाहीपन है लक्षण जिसका ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है; क्योंकि खारेपन और प्रवाहीपन में एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है, कोई बाधा नहीं है। किन्तु नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप होता दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोगलक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप होता हुआ दिखाई नहीं देता; क्योंकि प्रकाश और अंधकार की भाँति उपयोग और अनुपयोग का एक ही साथ रहने में विरोध है। इसकारण जड़ और चेतन कभी एक नहीं हो सकते। इसलिए तू सर्वप्रकार प्रसन्न हो, अपने चित्त को उज्ज्वल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही 'यह मेरा है' इसप्रकार अनुभव कर।" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 256 इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव का हृदय आन्दोलित हो उठा है। तभी तो वे एक ओर हे दुरात्मन्' इस शब्द का उपयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रसीद"विबुध्यस्व' इन प्रेरणादायक कोमल शब्दों का उपयोग करते हैं, जिसका अर्थ होता है प्रसन्न होवो, चित्त को शान्त करो; समझो, सावधान होवो; नादानी न करो। इसके तत्काल बाद जो कलश उन्होंने लिखा है, उसमें भी अत्यन्त कोमल शब्दों में समझाया है। टीका में गाथा का भाव एकदम स्पष्ट हो गया है; क्योंकि इसमें स्फटिक पाषाण, हाथी आदि पशु, नमक के पानी तथा प्रकाश और अंधकार का उदाहरण देकर बात को एकदम सरल एवं बोधगम्य बना दिया गया है। यद्यपि स्फटिक पाषाण एकदम निर्मल होता, स्वच्छ होता है; तथापि अनेक पदार्थों के संयोग के कारण अनेक रंगोंमय दिखाई देता है; उसका मूल-स्वभाव तिरोहित हो जाता है, दिखाई नहीं देता है; इसकारण स्फटिक के स्वभाव को न जाननेवाले लौकिकजन उसे अनेक वर्णवाला ही मान लेते हैं। उसीप्रकार भेदविज्ञान की ज्योति से रहित अज्ञानीजन भी आत्मा के मूलस्वभाव को निर्मल - स्वच्छस्वभाव को न जानने के कारण अनादिबंधन की उपाधि से होनेवाले विभावभावों को ही आत्मा का स्वभाव मान लेते हैं और इसीकारण पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित कर लेते हैं। जिसप्रकार हाथी आदि पशु अनाज मिश्रित घास खाते हैं; पर उस मिश्रितस्वाद में यह भेद नहीं कर पाते हैं कि इसमें घास का स्वाद क्या है और अनाज का स्वाद क्या है । वे उस मिश्रितस्वाद को घास का ही स्वाद समझते हैं; इसीप्रकार आत्मा और पुद्गल को एक साथ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257 गाथा २३. २५ जाननेवाले अज्ञानीजन भेदविज्ञान के अभाव में दोनों की भिन्न पहिचान नहीं कर पाते हैं और पुद्गल में अपनापन स्थापित कर लेते हैं। खारा पानी जमकर नमक बन जाता है और वह नमक घुलकर पानी हो जाता है; क्योंकि प्रवाहीपन और नमक के खारेपन का एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है; परन्तु आत्मा चेतन है और पुद्गल अचेतन है तथा चेतन और अचेतन का एकसाथ होने में प्रकाश और अंधकार के समान प्रत्यक्ष विरोध है। अत: पुद्गल को आत्मा और आत्मा को पुद्गल नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में पुद्गलद्रव्य को अपना कहना युक्तिसंगत नहीं है, शास्त्रसंमत भी नहीं है; अपितु प्रत्यक्षादि प्रमाणों से असिद्ध है, विरुद्ध है। इसलिए पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित करना अज्ञान है, मिथ्यात्व है, अनंतसंसार का कारण है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की आत्मख्याति नामक टीका में पुद्गल का लक्षण अनुपयोग बताते हैं । इसका रहस्य उद्घाटित करते हुए स्वामीजी समझाते हैं - ___ "यहाँ पुद्गल का अर्थ जड़ (स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाला पुद्गल) नहीं; अपितु अन-उपयोगस्वरूप दया, दान, व्रतादिक परिणाम हैं । ये स्वयं को अथवा पर को नहीं जानते; इसकारण इन्हें जड़, अचेतन या पुद्गल कहा है। ये रागादि परिणाम चैतन्य - उपयोगस्वरूप से भिन्न चीज हैं। यहाँ कहते हैं कि भगवान ने तो तुझे उपयोगस्वरूप देखा है, पर तू यह झूठी मान्यता कहाँ से लाया कि मैं तो रागस्वरूप हूँ। वर्तमान पर्याय ने उपयोग में दया, दान, व्रतादि के राग को लक्ष्य में लेकर 'यह राग मेरा अस्तित्व' - ऐसा माना तो यह तो पुद्गल का ही अनुभव हुआ, भगवान आत्मा का अनुभव तो रह ही गया।' १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 258 जो ज्ञानपर्याय जिस आत्मद्रव्य की है, उस ज्ञानपर्याय ने उसी आत्मद्रव्य को ज्ञेय न बनाकर जो राग उसमें नहीं है, उस राग को ज्ञेय बनाया और उसी में एकत्वबुद्धि की - यही मिथ्यात्व है। ऐसी मान्यतावाले जीव मिथ्यादृष्टि हैं। पूर्णानन्द के नाथ त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को दृष्टि में लेकर 'यह आत्मा मैं हूँ' - ऐसा जिस पर्याय ने स्वीकार किया, वह पर्याय सत्य हुई; क्योंकि उस पर्याय में सत्य की स्वीकृति है; और यही पर्याय सम्यग्दर्शन है, धर्म है। ___ यह शरीर, स्त्री, लड़का, ग्राम और देश तो कितने दूर हैं, प्रगट पर हैं; जो इनको भी अपना माने, उनकी मूर्खता का तो कोई ठिकाना नहीं। प्रभु! यह तो तेरी मूल में ही भूल है। यहाँ तो सूक्ष्म बात की है। यह जीव-अधिकार है; इसलिए कहते हैं कि ये व्रत-तप आदि के विकल्प अजीव हैं, जीव नहीं; क्योंकि यदि ये जीव हों तो भिन्न नहीं हो सकते, किन्तु ये तो भिन्न हो जाते हैं; अत: ये दोनों सर्वथा जुदे-जुदे हैं, किसी भी प्रकार एक नहीं हैं।" ___ आचार्यदेव सर्वज्ञ भगवान की साक्षी देकर समझाते हैं कि सर्वज्ञभगवान के ज्ञान में तो यह आया है कि जीव सदा ही उपयोगलक्षणवाला है और पुद्गल में, रागादि में ज्ञानदर्शन-उपयोग है ही नहीं; फिर तू उसे अपना कैसे कह सकता है ? अतः अब तू पुद्गल को, रागादि को अपना मानना छोड़ और उससे भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा का अनुभव कर। यही बात आगामी कलश में भी कही जा रही है कि कैसे भी हो, मरपच कर भी; देह से भिन्न निज भगवान आत्मा का अनुभव कर। आत्मानुभव की पावन प्रेरणा देनेवाला वह कलश मूलतः इसप्रकार है - १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६२ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६९ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 ( मालिनी ) अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन कलश २३ त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥ २३ ॥ ( हरिगीत ) निजतत्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का । हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ॥ जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयं को तव शीघ्र ही । तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ॥ २३ ॥ अरे भाई ! किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी निजात्मतत्त्व का कौतूहली होकर इन शरीरादि मूर्त द्रव्यों का एक मुहूर्त को पड़ोसी बनकर आत्मा का अनुभव कर; जिससे तू अपने आत्मा के विलास को सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर, इन शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यों के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा । आचार्यदेव करुणा से अत्यन्त विगलित हो मर्मस्पर्शी कोमल शब्दों में समझा रहे हैं कि अरे भाई ! मरणतुल्य कष्ट हो तो भी एकबार पर से भिन्न अपने आत्मा को समझने का उग्र पुरुषार्थ करो । आत्मा के समझने में न तो कोई कष्ट ही होनेवाला है और न मृत्यु होने की बात ही है; तथापि आचार्यदेव ऐसा कहकर आत्मज्ञान की महिमा बता रहे हैं, उपयोगिता बता रहे हैं; यह कह रहे हैं कि मृत्यु की कीमत पर भी यदि आत्मज्ञान प्राप्त होता हो तो भी करना; क्योंकि उसके बिना दुख दूर होनेवाला नहीं है और आत्मज्ञान होने पर कोई कष्ट रहनेवाला नहीं है । अत: जैसे भी बने आत्मा का अनुभव करने का उग्र पुरुषार्थ करना चाहिए । जगत के पदार्थों को जानने का कौतूहल तो लोक में सर्वत्र पाया जाता है, पर उनके जानने से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 समयसार अनुशीलन संसारसागर की एक बूंद भी कम नहीं होती और अपने आत्मा को अनुभवपूर्वक जानने से सम्पूर्ण संसारसागर सूख जाता है । अत: हे भव्यजीवो ! कौतूहल में ही सही एकबार आत्मा को जानने का पुरुषार्थ तो-करो । आत्मतत्त्व का कौतूहली बनकर और शरीरादि परपदार्थों का पड़ौसी बनकर एकबार आत्मा का अनुभव करके तो देखो, तुम्हारा जीवन बदल जावेगा । अबतक तो तुमने देह में एकत्वबुद्धि की है, अहंबुद्धि की है, ममत्वबुद्धि की है, स्वामित्वबुद्धि की है; पर इससे अनन्तदुखों के अलावा तुम्हें क्या मिला ? एकबार इस बात पर गंभीरता से विचार करो और एकबार इस देह के पड़ौसी बनकर देखो तो तुम्हारा इसमें जो एकत्व का मोह है, वह अवश्य ही टूट जावेगा, छूट जावेगा और अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका जगेगी, जो आगे जाकर आनन्द के सागर में परिणमित हो जावेगी । जिसप्रकार हम पड़ौसी को अपना भी नहीं मानते और उससे असद्व्यवहार भी नहीं करते; उसीप्रकार इस देह में एकत्वबुद्धि भी नहीं रखना और इससे असद्व्यवहार भी नहीं करना । इससे पड़ौसी धर्म तो निभाना, पर इसे अपने घर में नहीं बिठा लेना । हमें पक्का विश्वास है कि यदि तुम एकबार भी परद्रव्यों से भिन्न अपने भगवान आत्मा का विलास देखोगे, वैभव देखोगे, तो अवश्य ही पर से एकत्व के मोह को छोड़ दोगे । अतः भाई ! तुम हमारी बात सुनो और एकबार आत्मतत्त्व के कौतूहली बनकर उसे देह से भिन्न अनुभव करो; तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । यदि पड़ौसी का जीवन खतरे में हो तो हम उसकी सुरक्षा करते हैं, उसे जीवनयापन में सहज सहयोग करते हैं; पर उसके लिए अपना जीवन बरबाद नहीं करते; उसके लिए भोगसामग्री नहीं जुटाते । इसीप्रकार इस देह की सुरक्षा के लिए शुद्धसात्विक आहार का ग्रहण Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 कलश २३ अवश्य करो; पर इसके पीछे अभक्ष्यादि का भक्षण कर नर्क - निगोद जाने की तैयारी मत करो। इसे शत्रु भी मत मानो, इससे शत्रु जैसा व्यवहार भी मत करो और घरवाला भी मत मानो, घरवालों जैसा भी व्यवहार न करो। बस, पड़ौसी जैसा व्यवहार करो - यही उचित है । इसके लिए जीवन का सर्वस्व समर्पण करना उचित नहीं है, सर्वस्व समर्पण तो निज भगवान आत्मा पर ही करना है । इसमें एक मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी आत्मा का अनुभव करने की बात कही है; क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त तक आत्मध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इसी बात को ध्यान में रखकर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी कलश के भावार्थ में लिखते हैं - " यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्य से भिन्न अपने शुद्धस्वरूप का अनुभव करे ( उसमें लीन हो ) परीषह आने पर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्म का नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो । जब आत्मनुभूति की ऐसी महिमा है, तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम ही है। इसलिए श्रीगुरु ने प्रधानता से यही उपदेश दिया है।" प्रश्न – केवलज्ञान तो अन्तर्मुहूर्त में होता है, किन्तु यहाँ एक मुहूर्त तक अनुभव करने की बात कही है। ऐसा क्यों है ? उत्तर - अन्तर्मुहूर्त माने मुहूर्त के भीतर ही । जब एक मुहूर्त के भीतर ही केवलज्ञान होता है तो फिर जो एक मुहूर्त लगातार आत्मध्यान करेगा, उसके तो होना ही है । अतः इसप्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है । ध्यान रहे, एक घड़ी २४ मिनट की होती है और दो घड़ियों का एक मुहूर्त होता है। प्रश्न – कलश टीका में तो अनुभव को सहजसाध्य कहा है और -- यहाँ आचार्य उग्र पुरुषार्थ करने की बात कह रहे हैं ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन उत्तर – इसी कलश की टीका में कलशटीकाकार उक्त शंका का समाधान इसप्रकार करते हैं - 44 262 भावार्थ इसप्रकार है कि शुद्धचैतन्य का अनुभव तो सहजसाध्य है, यत्नसाध्य तो नहीं; पर इतना कहकर यहाँ अत्यन्त उपादेयपने को दृढ़ किया है। " वस्तुत: बात यह है कि सहजसाध्य और पुरुषार्थ में कोई विरोध नहीं है; क्योंकि आत्मानुभव का पुरुषार्थ भी सहज ही होता है अथवा सहज होना ही आत्मानुभूति का सम्यक्पुरुषार्थ है । जब हमारी दृष्टि में आत्मानुभव अत्यन्त उपादेयपने स्थापित हो जावेगा तो अन्तर में रुचि की तीव्रता से अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ सहज ही स्फुरित होगा । 'रुचि अनुयायी वीर्य' इस उक्ति के अनुसार वीर्य रुचि के अनुसार ही स्फुरायमान होता है । उक्त कलश के भाव को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार प्रस्तुत किया है - ( सवैया इकत्तीसा ) " बानारसी कहै भैया भव्य सुनो मेरी सीख, कैहूँ भाँति कैसे हूँ कै ऐसौ काजु कीजिए । एकहू मुहूरत मिथ्यात कौ विधुंस होइ, ग्यान कौं जगाइ अंस हंस खोजि लीजिए ॥ वाही कौ विचार वाकौ ध्यान यहै कौतूहल, यौं ही भरि जनम परम रस पीजिए । तजि भव-वास कौ विलास सविकाररूप, अंतकरि मोह कौ अनन्तकाल जीजिए ॥ पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि हे भाई! हे भव्यजीवो!! तुम मेरी सीख ध्यान से सुनो। किसी भी तरह कुछ भी करके ऐसा कार्य अवश्य करो कि एक मुहूर्त को मिथ्यात्व का नाश होकर ज्ञान का अंश जागृत हो जावे और आत्मरूपी हंस की प्राप्ति हो जावे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 कलश २३ एकवार ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाने पर फिर जन्मभर उस ही का विचार करते रहो, उस ही का ध्यान करते रहो, उसी में क्रीडा करते रहो; इसप्रकार सम्पूर्ण जीवन भर अतीन्द्रिय आनन्दरूपी परमरस का पान करते रहो। राग-द्वेष रूप विलास एवं संस्कार का वास छोड़कर तथा मोह का नाश कर अनन्तकाल तक सच्चा जीवन जीते रहो । सच्चा जीवन तो आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्माओं का ही है, शेष सब तो भवभ्रमण ही है 1 ― मोहभाव की उत्पत्ति ही मरण है, भावमरण है और मोह का अभाव ही जीवन है, सुखी जीवन है, शान्त जीवन है । इसीलिए यहाँ कहा गया है कि मोह का नाश कर अनन्तकाल तक अनन्त - आनन्दमय जीवन जीने का सौभाग्य प्राप्त करो । प्रश्न – मोह का नाश किसप्रकार करें ? मोह के नाश का उपाय क्या है, सम्यक्पुरुषार्थ क्या है ? 1 उत्तर - शरीरादि परपदार्थों और उनके लक्ष्य से होने वाले मोहराग-द्वेषादि भावों में अपनापन ही मोह है, उनमें एकत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि ही मोह है । इस मोह के नाश का उपाय किसी प्रकार का कोई क्रियाकाण्ड नहीं है, व्रत- शील संयमादि भी नहीं है, जप-तप तीर्थयात्रा भी नहीं है, किसी की सेवा-चाकरी आदि भी नहीं है । इस मोह के नाश का उपाय तो पर से भिन्न, राग से भिन्न, पर्याय से पार एवं सर्वपर्यायों में एकाकार तथा गुणभेद से भिन्न, प्रदेशभेद से भिन्न अनन्तगुणात्मक असंख्यातप्रदेशी एक भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना, उसी का विचार करना, उसी का मंथन करना, घोलन करना, उसी का ध्यान करना; - इसीप्रकार जीवन भर उसी का रसपान करते रहना है । इसलिए हे भाई ! तुम अपने ज्ञान के परमशुद्धनिश्चयनयरूप अंश को जगाकर निज भगवान आत्मा, त्रिकाली शुद्धज्ञायक भावरूपी हंस Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 समयसार अनुशीलन को खोज लो। अरे भाई ! अब जग जाइये, उसी के रस में पग जाइये, उसी में समा जाइये; क्योंकि मिथ्यात्व के नाश का एक यही सम्यक्पुरुषार्थ है। यदि एक मुहूर्त के लिए भी तेरे इस मिथ्यात्व का नाश हो गया तो तेरा कल्याण हुए बिना न रहेगा, तू अनन्तसुखी हुए बिना न रहेगा, तुझे मुक्ति की प्राप्ति होगी, होगी, अवश्य होगी; क्योंकि मार्ग यही है, अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। __ अत: हे भाई ! जैसे भी बने मरपच कर भी यह कार्य अवश्य करो,. इससे तुम्हारा कल्याण होगा। सामाजिक संगठन और शान्ति बनाए रखना और सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त प्रगतिशील समाज की स्थापना ही तो इस बहुमूल्य नरभव की सार्थकता नहीं है; इस मानव जीवन में तो आध्यात्मिक सत्य को खोजकर, पाकर, आत्मिक शान्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करना ही वास्तविक कर्तव्य है। आध्यात्मिक सत्य में भी पर्यायगत सत्य को जानना तो है, पर उसमें उलझना नहीं है, उसे तो मात्र जानना है; पर त्रैकालिक परमसत्य को, परमतत्त्व को मात्र खोजना ही नहीं है, जानना भी है, उसी में जमना है, रमना है, उसी में समा जाना है, उसीरूप हो जाना है। भाई! अनन्त शान्ति और सुख प्राप्त करने का तो एकमात्र यही मार्ग है। अत: मेरी तो यही भावना है कि यह आध्यात्मिक परमसत्य, त्रैकालिक परमसत्य, ज्ञानानन्दस्वभावी, ध्रुव, आत्मतत्त्व - जिन्हें खोजना है, वे खोजें; जानना है, वे जानें; पाना है, वे पावें। जिन्होंने खोज लिया हो, पा लिया हो, वे उसी में जम जावें, रम जावें, समा जावें और अनन्तसुखी हों, शान्त हों। - सत्य की खोज, पृष्ठ २५२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २६ जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरिय संथुदी चेव। सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ॥२६॥ (हरिगीत ) यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन। सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा॥२६॥ अज्ञानी जीव कहता है कि यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकरों और आचार्यों की जिनागम में जो स्तुति की गई है; वह सभी मिथ्या है। इसलिए हम समझते हैं कि देह ही आत्मा है। _ पिछली गाथाओं में देह और आत्मा की भिन्नता की बात विस्तार से समझाई गई है और यह प्रेरणा भी दी गई है कि हे भाई तू कैसे भी करके मरपच के भी इस देह से एकत्व के मोह को छोड़ दे। उक्त संदर्भ में अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) का कहना यह है कि जैनशास्त्रों में देह के गुणों के आधार पर भी तीर्थंकर भगवन्तों एवं आचार्यों की स्तुति की गई है, ऐसी स्थिति में यदि देह को जीव नहीं मानेंगे तो वह स्तुति मिथ्या सिद्ध होगी। अत: भलाई इसी में है कि हम देह को ही जीव स्वीकार कर लें। _ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की आत्मख्याति टीका लिखते हुए एक छन्द के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि देह के आश्रय से तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति किसप्रकार की जाती है। वह छन्द इसप्रकार है - ( शार्दूलविक्रीड़ित ) कात्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुंधति ये। धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं । वंद्यास्तेऽष्टसहस्त्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥ २४ ॥ ( हरिगीत ) लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरे निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥ जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें I उन सहसअठ लक्षणसहित जिनसूरि को वन्दन करें ॥ २४ ॥ 266 वे तीर्थंकर और आचार्यदेव वन्दना करने योग्य हैं जो कि अपने शरीर की कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं, निर्मल करते हैं; अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिक को भी ढक देते हैं; अपने रूप से जन-जन के मन को मोह लेते हैं, हर लेते हैं; अपनी दिव्यध्वनि से भव्यजीवों के कानों में साक्षात् सुखामृत की वर्षा करते हैं तथा एक हजार आठ लक्षणों को धारण करते हैं । उक्त छन्द में लगभग सभी विशेषण तीर्थंकर अरहंत देव की मुख्यता से ही आये हैं, तथापि 'सूरयः' शब्द से आचार्य भगवन्तों को भी ग्रहण कर लिया गया है । मूल गाथा में भी 'आयरिय' शब्द हैं; किन्तु कलश में जो विशेषण दिये हैं, वे आचार्यों पर घटित नहीं होते हैं । इसीकारण कलश टीकाकार पाण्डे राजमलजी ने 'सूरयः' शब्द को तीर्थंकर अरहंतों का ही विशेषण मानकर उसका अर्थ मोक्षमार्ग के उपदेष्टा किया है। चूंकि नाटक समयसार कलशटीका को आधार बनाकर लिखा गया है; अत: उसमें भी तीर्थंकरों को ही आधार बनाया गया है । नाटक समयसार का छन्द मूलतः इसप्रकार है ( सवैया इकतीसा ) जाकी देहति सौं दसौं दिसा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवन्त रुके हैं। जाकौ रूप निरखि थकित महारूपवन्त, जाकी वपुवास सौं सुवास और लुके हैं ॥ - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 कलश २४ जाकी दिव्यधुनि सुनि श्रवण कौं सुख होत, जाके तनलच्छन अनेक आइ दुके हैं। तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुन, - निहचै निरखि सुद्ध-चेतन सौं चुके हैं। जिसके शरीर की कान्ति से दशों दिशायें पवित्र हो गई हैं, प्रकाशित हो गई हैं; जिसके शरीर के तेज से सभी तेजवंत पदार्थ अवरुद्ध हो गये हैं; जिसके शरीर के रूप को देखकर महारूपवान भी थक गये हैं, हार गये हैं; जिसके शरीर की सुगंध से सभी सुगंधियाँ छिप गई हैं; जिनकी दिव्यध्वनि को सुनकर कानों को सुख प्राप्त होता है, जिनके वचन कर्णप्रिय हैं; जिनके शरीर में अनेक शुभलक्षण प्रगट हो गये हैं; वे जिनराज हैं। ये शारीरिक गुण जिन जिनराज तीर्थंकर भगवान के व्यवहार से बताये गये हैं; यदि निश्चय से विचार करें तो ये शारीरिक गुण जिनराज के नहीं हैं, तीर्थंकर भगवान के नहीं हैं, भगवान आत्मा के नहीं हैं । ___ आचार्य जयसेन इस बात को स्पष्ट करने के लिए न तो किसी स्वतंत्र छन्द की रचना करते हैं और न आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त छन्द को ही उद्धृत करते हैं; अपितु तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति में स्तुतिसाहित्य में प्रसिद्ध छन्द और गाथा के आरंभिक अंशों को उद्धृत कर अपनी बात को स्पष्ट करते हैं । तीर्थंकरों की स्तुति के लिए जिस छन्द का आरंभिक अंश उद्धृत किया है, चौबीस तीर्थंकरों के शरीर के रंग का वर्णन करनेवाला वह छन्द मूलतः इसप्रकार है - ( शार्दूलविक्रीड़ित ) "द्वौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलौ द्वाविन्द्रनीलप्रभौ। द्वौ बन्धूकसमप्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियङ्ग प्रभौ॥ शेषाः षोडश जन्ममृत्युरहिताः संतप्तहेमप्रभा। स्ते संज्ञानदिवाकराः सुरनुताः सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः॥ १. मंगलाष्टक : ज्ञानपीठ पूजान्जली, पृष्ठ ६७ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन दो तीर्थंकर कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, बर्फ एवं मुक्ताहार के समान श्वेत वर्ण वाले हैं; दो तीर्थंकर इन्द्रनीलमणि के समान नीलवर्ण के हैं; दो तीर्थंकर बन्धूकपुष्प के समान लाल वर्णवाले हैं; दो तीर्थंकर प्रियंगु पुष्प के समान हरे रंग के हैं और शेष सोलह तीर्थंकर स्वर्ण के समान वर्णवाले हैं। 268 ये सभी तीर्थंकर जन्म-मृत्यु से रहित हैं, सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य हैं और देवों से वन्दनीय हैं। ये सभी हमें सिद्धि प्रदान करें । " उक्त छन्द का लोकप्रचलित हिन्दी भावानुवाद इसप्रकार है ( दोहा ) दो गौरे दो लाल हैं दो हरियल दो श्याम । सोलह कंचनवरण हैं बन्दों आठों याम ॥ आचार्यों की स्तुति से सम्बन्धित वह गाथा मूलतः इसप्रकार है "देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकाय संजुत्ता । तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं ॥ — - देश, कुल और जाति से शुद्ध मन, वचन और काय की विशुद्धता से संयुक्त हे आचार्यदेव ! आपके चरणकमल इस लोक में मेरे लिए नित्य मंगलमय हों । ' ― उक्त दोनों उद्धरणों में तीर्थंकर अरहंत एवं आचार्यदेव की स्तुति शरीराश्रित गुणों के आधार पर ही की गई है । और भी अनेक उद्धरण इसप्रकार के उपलब्ध होते हैं । ये सभी स्तुतियाँ भी समर्थ मुनिराजों और ज्ञानी विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं । यदि देह को ही आत्मा नहीं माना गया तो ये सभी स्तुतियाँ गलत सिद्ध होगी । अतः यह ठीक ही है कि हम यह स्वीकार कर लें कि शरीर ही आत्मा है। हमारा तो एकान्त से यही निश्चय है ऐसा अप्रतिबुद्ध का कहना है । - १. दशभक्ति : आचार्यभक्ति : धर्मध्यान दीपक; पृष्ठ ३१० ( प्रकाशकशान्तिवीरनगर, महावीरजी राजस्थान ) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 269 गाथा २६ नयविभाग से अपरिचित अप्रतिबुद्ध शिष्य ने अद्यावधि उपलब्ध स्तुति साहित्य को आधार बनाकर देह में अनादिकालीन एकत्वबुद्धि का ही पोषण किया है। नयविभाग से अपरिचित अज्ञानीजन जिनागम का अभ्यास करके भी इसीप्रकार अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व का पोषण करते हैं; इसीकारण जैन होकर भी, जैन शास्त्रों को पढ़कर भी गृहीत मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं । इन्हीं को लक्ष्य में रखकर पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में सातवाँ अधिकार लिखा है । इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें-आठवें अधिकार का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए । सौ बात की एक बात अहो ! दिगम्बर संतों का कोई भी शास्त्र लो; उसमें मूलभूत एक ही धारा चली जाती है कि तू ' सर्वत्र अपने ज्ञायक चिदानन्दस्वरूप के सन्मुख हो;' पर को बदलने की बुद्धि मिथ्या है। स्वोन्मुख होने से ही हित है, इस बात को मुख्य रखकर कोई भी बात कही हो सर्वज्ञता की बात हो या क्रमबद्धपर्याय की बात हो; छहद्रव्य, नवतत्त्व, निश्चय व्यवहार या उपादान - निमित्त की बात हो; द्रव्य-गुण-पर्याय की बात हो या बारह भावनाओं की बात हो; सभी बातों में संतों का मूल तात्पर्य तो यही बतलाना है कि हे जीव ! अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय करके उसकी ओर उन्मुख हो ! - 'मैं तो ज्ञानपिण्ड हूँ, ज्ञान के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का किंचित्मात्र कर्तृत्व मुझमें नहीं हैं; ' • जबतक जीव ऐसा निर्णय न करे तबतक हित का मार्ग हाथ नहीं आता, और दिगम्बर संतों ने क्या कहा है – इसकी भी उसे खबर नहीं पड़ती। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी वीतराग - विज्ञान, दिसम्बर - ८४ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २७ अप्रतिबुद्ध के उक्त कथन के उत्तर में आचार्य अमृतचन्द्र की लेखनी से एक ही वाक्य प्रस्फुटित होता है कि - "ऐसा नहीं है, तुम नयविभाग से अनभिज्ञ हो नयविभाग को नहीं जानते हो " इसकारण ही ऐसी बातें करते हो। मूल समस्या नयविभाग से अनभिज्ञता की ही है। नयविभाग को समझे विना देह में एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धिरूप अज्ञान का, अगृहीत मिथ्यात्व का पोषण हो जाता है | अतः नयों का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है । - 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' में तो यहाँ तक लिखा है कि " जे यदिट्टिविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धि । वत्थुसहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुंति ॥ १८९ ॥ जो व्यक्ति नयदृष्टि से विहीन हैं, उन्हें वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तु स्वरूप को नहीं जाननेवाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं?" अतः नयविभाग का जानना अत्यन्त आवश्यक हैं। वह नयविभाग क्या है ? इसके उत्तर में ही २७वीं गाथा का अवतार हुआ है, जो इसप्रकार है ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥ २७ ॥ ( हरिगीत ) - - 'देह - चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का । 'ये एक हो सकते नहीं' यह कथन है परमार्थ का ॥ २७ ॥ - - - व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 गाथा २७. उक्त कथन के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि देह के गुणों के आधार पर की गई तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति व्यवहारनय से सत्यार्थ है; क्योंकि व्यवहारनय से तो जीव और देह एक ही हैं । इसप्रकार वह स्तुति मिथ्या सिद्ध नहीं होगी । साथ ही यह बात भी है कि वह स्तुति मात्र व्यवहार से ही सत्यार्थ है । यदि कोई व्यक्ति निश्चय से भी उसे सत्य समझ ले तो वह मिथ्यादृष्टि ही रहेगा; क्योंकि फिर तो वह उसके आधार पर देह और जीव को निश्चय से भी एक ही मान लेगा और ऐसा मानने को तो जैनदर्शन में मिथ्यात्व कहा गया है। छहढाला में तो साफ-साफ कहा गया है कि - __ "देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है। - देह और जीव को एक माननेवाला जीव बहिरात्मा है, तत्त्व के बारे में मूढ़ है।" आत्मख्याति में सोने और चाँदी का उदाहरण देकर इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है__ "जिसप्रकार लोक में सोने और चाँदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है; उसीप्रकार आत्मा और शरीर की एकक्षेत्र में एक साथ रहने की अवस्था होने से एकपने का व्यवहार होता है। इसप्रकार मात्र व्यवहार से ही आत्मा और शरीर का एकपना है, परन्तु निश्चय से एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चय से तो पीले स्वभाववाला सोना और सफेद स्वभाववाली चाँदी के परस्पर अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: उनमें अनेकत्व ही है। इसीप्रकार उपयोगस्वभावी आत्मा और अनुपयोगस्वभावी शरीर में अत्यन्त भिन्नता होने से एकपदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: अनेकत्व ही है। - ऐसा यह प्रगट नयविभाग है; अत: यह सुनिश्चित ही है कि व्यवहारनय से ही शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन होता है, निश्चयनय से नहीं।" आगे की तीन गाथाओं में इसी बात को सतर्क व सोदाहरण स्पष्ट किया गया है। अतः यहाँ विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा २८-२९ इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी । मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवलीभयवं ॥२८॥ तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥२९॥ ( हरिगीत ) इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन। कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ॥२८॥ परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन॥२९॥ जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके साधु ऐसा मानते हैं कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की और वन्दना की। किन्तु वह स्तवन निश्चयनय से योग्य नहीं है; क्योंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं होते। जो केवली के गुणों की स्तुति करता है, वह परमार्थ से केवली की स्तुति करता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र २७वीं गाथा की टीका में दिये गये चांदी के संयोगवाले सोने के उदाहरण को ही आगे बढ़ाकर इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है - "यद्यपि परमार्थ से सोना तो पीला ही होता है; तथापि उसमें मिली हुई चांदी की सफेदी के कारण सोने को भी सफेद सोना कह दिया जाता है; पर यह कथन व्यवहार मात्र ही है। उसीप्रकार सफेदी और लालिमा अथवा खून का सफेद होना आदि शरीर के ही गुण हैं । उनके आधार. पर तीर्थंकर केवलीभगवान को सफेद, लाल कहकर अथवा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 273 गाथा २८ २९ सफेद खून वाला कहकर स्तुति करना, मात्र व्यवहार स्तुति ही है । परमार्थ से विचार करें तो लाल सफेद होना या सफेद खूनवाला होना तीर्थंकर केवली का स्वभाव नहीं है। इसलिए निश्चय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं होता । - I जिसप्रकार चाँदी की सफेदी का सांने में अभाव होने से निश्चय से सफेद सोना कहना उचित नहीं है, सोना तो पीला ही होता है; अतः सोने को पीला कहना ही सही है । इसीप्रकार शरीर के गुणों का केवली में अभाव होने से श्वेत- लाल कहने से अथवा सफेद खूनवाले कहने से केवली का स्तवन नहीं होता; केवली के गुणों के स्तवन करने से ही केवली का स्तवन होता है । " यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि तीर्थंकर केवली के शारीरिक गुणों के सन्दर्भ में आत्मख्याति टीका में 'शुक्ललोहित' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ टीकाकारों ने या तो सफेद और लाल रंग किया है या कि शुक्लरक्त लिखकर छोड़ दिया है । चूंकि दो तीर्थंकर सफेद रंग के हैं और दो लाल के; अत: यह अर्थ भी ठीक ही है । यद्यपि उक्त अर्थ में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है; तथापि 'शुक्ललोहित' शब्द का अर्थ सफेद खून भी होता है, जो अरहंत के ४६ गुणों में आता है, जन्म के दश अतिशयों में आता है; अतः भगवान की स्तुति के रूप में यह अर्थ अधिक वजनदार हो सकता है । एक तो यह चौबीसों ही तीर्थंकरों में घटित हो सकता है और दूसरे सफेद-लाल रंग तो अन्य सामान्य पुरुषों के भी हो सकते हैं, पर सफेद खून का होना तो तीर्थंकरों के शरीर की असाधारण विशेषता है । यह विचारकर मैंने यहाँ दोनों अर्थों को स्थान दिया है। प्रथम स्थान तो परम्परागत अर्थ को ही दिया है, पर अथवा के रूप में सफेद खून वाला अर्थ भी दिया है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 समयसार अनुशीलन गाथाओं और टीका के अध्ययन से यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाती है कि शरीर के रूपादि गुणों के आधार पर जो केवली भगवान का स्तवन शास्त्रों में पाया जाता है; वह सब असद्भूतव्यवहारनय का ही कथन है; परमार्थ से तो वह असत्यार्थ ही है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि व्यवहार असत्यार्थ है तो फिर शास्त्रों में इसप्रकार की स्तुतियाँ क्यों पाई जाती हैं? इस प्रश्न के समाधान के लिए जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा लिखित भावार्थ देखना उपयोगी रहेगा, जो इसप्रकार है - __"यहाँ कोई प्रश्न करे कि व्यवहारनय को तो असत्यार्थ कहा है और शरीर जड़ है, तब व्यवहाराश्रित स्तुति का क्या फल है? ___ उसका उत्तर यह है कि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है, उसे निश्चय को प्रधान करक असत्यार्थ कहा है। और छद्मस्थ को अपना और पर का आत्मा साक्षात् दिखाई नहीं देता है, शरीर दिखाई देता है; उसकी शान्तरूप मुद्रा देखकर अपने को भी शान्त भाव होते हैं । ऐसा उपकार समझकर शरीर के आश्रय से भी स्तुति की जाती है तथा शान्तमुद्रा को देखकर अन्तरंग में वीतरागभाव का निश्चय होता है - यह भी उपकार है।" यद्यपि यह बात सत्य है कि शरीर आत्मा नहीं है, तथापि यह भी सत्य ही है कि अरहंत अवस्था में भगवान आत्मा शरीर में ही विराजता है, एकप्रकार से वह शरीर का अधिष्ठाता ही है। देहादि संबंधी अतिशयों में भी आत्मा का पुण्योदय निमित्त होता है । अत: देहादि के आधार पर की गई स्तुति को सर्वथा नकारना संभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि भव्यजनों को अमूर्तिक आत्मा तो दिखाई देता नहीं है ; उन्हें तो उस देह के ही दर्शन होते हैं, जिसमें वह भगवान आत्मा विराजमान है। अत: व्यवहार से उस देहदर्शन को ही देवदर्शन कहते हैं। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 गाथा २८. २९ अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि से भी भव्यजीवों को धर्मलाभ होता हैं. देशना प्राप्त होती है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि आवश्यक मानी गई है। ___ अत: देवदर्शन और दिव्यध्वनिश्रवण के लाभ को ध्यान में रखकर ही देहादि को आधार बनाकर देवाधिदेव अरहंत देव की स्तुति की जाती है; पर वह है तो पराश्रित व्यवहार ही, उसे निश्चय के समान सत्यार्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता है। व्यवहार की वास्तविकता । यहाँ व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय ही को जीव कहा, सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव- पद्गल के संयोगरूप है। वहाँ निश्चय से जीवद्रव्य भिन्न है, उसही का जीव मानना। जीव के संयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा, सा कथनमात्र ही है, परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं - ऐसा ही श्रद्धान करना। तथा अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है; उस ही को जीव वस्तु मानना । संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे सो कथनमात्र ही हैं ; परमार्थ से भिन्न-भिन्न हैं नहीं, - ऐसा ही श्रद्धान करना। ___ तथा परद्रव्य का निमित्त मिटाने की अपेक्षा से व्रत-शीलसंयमादिक को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नहीं; इसलिये आत्मा जो अपने भाव रागादिक हैं उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है ; इसलिये निश्चय से वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है । वीतरागभावों के और व्रतादिक के कदाचित् कार्य-कारणपना है. इसलिये व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है ; परमार्थ से बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है – ऐसा ही श्रद्धान करना। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५२ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३० यहाँ एक प्रश्न यह भी संभव है कि जब शरीर में ही भगवान आत्मा विराजता है, एकप्रकार से जब वह शरीर का अधिष्ठाता ही है; तब निश्चय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन क्यों नहीं हो सकता? इसी प्रश्न के उत्तर में ३०वीं गाथा का जन्म हुआ है; जो इसप्रकार यरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ ३० ॥ ( हरिगीत ) वर्णन नहीं है नगरपति का नगर वर्णन जिसतरह । केवली - वन्दन नहीं है देह-वन्दन उसतरह ॥ ३० ॥ जिसप्रकार नगर का वर्णन करने पर भी, वह वर्णन राजा का वर्णन नहीं हो जाता; उसीप्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं हो जाता । उक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने विशेष कुछ नहीं लिखा है; पर नगर वर्णन और जिनेन्द्र वर्णन के सन्दर्भ में नमूने के रूप में दो आर्या छन्द अवश्य लिखे हैं और अन्त में लिख दिया है कि जिसप्रकार नगर का वर्णन करने से उसके अधिष्ठाता राजा का वर्णन नहीं हो जाता, उसीप्रकार शरीर की स्तुति करने से उसके अधिष्ठाता तीर्थंकर भगवान की स्तुति भी नहीं हो सकती है । वे छन्द मूलतः इसप्रकार हैं - ( आर्या ) प्राकारकवलितांबरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् । पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ॥ २५ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 277 कलश २५.२६ नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम् । अक्षोभमिवसमुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥२६॥ ( हरिगीत ) प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को॥ सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से। अद्भुत अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से॥२५॥ गंभीर सागर के समान महान मानस मंगमय। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंगमय ।। सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्यमय। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवरचन्द हैं ।। २६ ।। ऊँचे कोट, गहरी खाई और बाग-बगीचों से सम्पन्न इस नगर ने मानों कोट के बहाने आकाश को ग्रस लिया है, खाई के बहाने पाताल को पी लिया है और बाग-बगीचों के बहाने सम्पूर्ण भूमितल को निगल लिया है । तात्पर्य यह है कि इस नगर की सुरक्षा का साधन कोट अत्यन्त ऊँचा है और जल से लवालव भरी हुई खाई अत्यन्त गहरी है तथा सम्पूर्ण नगर मनोहारी बाग-बगीचों से परिपूर्ण है। सब कुछ मिलाकर यह नगर पूर्वतः सुरक्षित एवं मनोहारी है। जिसमें अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है, जो समुद्र की भाँति क्षोभ रहित है और जिसमें सभी अंग सदा सुस्थित और अविकारी है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उत्कृष्ट रूप सदा जयवंत वर्तता है। उक्त कलशों एवं सम्पूर्ण प्रकरण के भाव को स्पष्ट करते हुए कविवर पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं - ( सवैया इकतीसा ) ऊँचे-ऊँचे गढ़ के कंगूरे यौं विराजत हैं, मानौं नभ लोक गीलिवे कौं दांत दीयौ है। सोहै चहुँ ओर उपवन की सघनताई, घेरा करि मानौ भूमिलोक घेरि लीयौ है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन गहिरी गंभीर खाई ताकी उपमा बनाई, नीचौ करि आनन पताल जल पीयाँ है । ऐसो है नगर यामैं नृप कौ न अंग कोऊ, यही चिदानन्द सौं सरीर भिन्न कीयौ है | जामैं बालपनौ तरुनापौ वृद्धपनौ नाहिं, आयु परजंत महारूप महाबल है । विना ही जतन जाकै तन मैं अनेक गुन, अतिसं विराजमान काया निर्मल है ॥ जैसे बिनु पवन समुद्र अविचलरूप, तैसें जाकौ मन अरु आसन अचल है । ऐसौ जिनराज जयवंत होउ जगत मैं, जाकी सुभगति महा सुकृत कौ फल है । ( दोहा ) जिनपद नांहि शरीर को, जिनपद चेतन माँहि । जिनवर्णन कछु और है, यह जिनवर्णन नांहि ॥ 278 अत्यन्त ऊँचे किले के कंगूरे इसप्रकार शोभायमान हो रहे हैं कि मानों आकाश को निगलने लिए किले रूपी विकराल जानवर ने दाँत निकालकर ऊपर की ओर किये हैं और चारों और घने - घने उपवनों ने घेरा डालकर सम्पूर्ण भूमि लोक को घेर लिया है। गहरी गंभीर खाई की उपमा नीची गर्दन करके पाताल का पानी पी लेने से दी गई है । इसप्रकार यद्यपि नगर सर्वांग सुन्दर है; तथापि उसमें राजा का कोई अंग नहीं है। जिसप्रकार नगर से राजा जुदा है; उसीप्रकार देह से चिदानन्द भगवान आत्मा भिन्न ही है । जिन की देह में वालपन, जवानी और वृद्धपना नहीं है, आयु पर्यन्त सुन्दरतम रूप और महान बल रहता है; जिनमें बिना प्रयत्न के अनेक गुण और अतिशय विराजमान है और जिन की काया निर्मल है; जिसप्रकार हवा के न चलने पर समुद्र अविचल रहता है; उसीप्रकार Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 279 गाथा ३० जिनका आसन और मन अचल है; ऐसे जिनदेव जगत में जयवंत बर्ते कि जिनकी भक्ति महान पुण्य का फल है और पुण्यदायक है। शरीर का नाम जिनेश्वर नहीं है, जिनेश्वर तो चेतन का नाम है। शरीर का वर्णन जिनदेव का वर्णन नहीं है, जिनदेव का वर्णन तो कुछ और ही है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि नगर की सुन्दरता एवं सुव्यवस्था राजा का ही तो कार्य है; सुयोग्य राजा के बिना नगर का सुव्यवस्थित होना संभव नहीं है । अत: नगर की प्रशंसा एक प्रकार से राजा की ही प्रशंसा है। इसीप्रकार देह का सुन्दर होना, सुगठित होना, सुव्यवस्थित होना भी तो उसमें रहनेवाले आत्मा के पुण्योदय का सूचक है; अत: देह के आधार पर की गई स्तुति को सर्वथा अस्वीकार कैसे किया जा सकता है? __ अरे भाई, हमने सर्वथा अस्वीकार कहाँ किया है? व्यवहार से तो उसे तीर्थंकर केवली की स्तुति माना ही है। हाँ, निश्चयनय से, परमार्थ से अवश्य अस्वीकार किया है और वह सबप्रकार से ठीक ही है; क्योंकि निश्चय से तो शरीर के गुण आत्मा के गुण हो ही नहीं सकते। अत: निश्चय से शरीर के आधार पर की गई स्तुति को तीर्थंकर केवली की स्तुति कैसे माना जा सकता है? __ प्रश्न - यदि यह बात है तो फिर निश्चयस्तुति क्या है, निश्चयस्तुति का वास्तविक स्वरूप क्या है? उत्तर – इसी के उत्तर में ३१,३२ और ३३वीं गाथाएं लिखी गई हैं । अत: निश्चय स्तुति की विस्तृत चर्चा उनकी चर्चा के अवसर पर होगी ही; यहाँ तो इतना समझना ही पर्याप्त है कि देह के आधार पर की गई तीर्थंकरों की स्तुति को आधार बनाकर देह और आत्मा को निश्चय से भी एक मानना उचित नहीं है, अज्ञान है, मिथ्यात्व है। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 280 इस सम्पूर्ण प्रकरण में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रकरण भेदविज्ञान का है, देह से एकत्व के व्यामोह को छुड़ाने का है; स्तुति की चर्चा तो बीच में उदाहरण के रूप में आ गई है, शिष्य के प्रश्न के आधार पर आई है और नयविभाग के आधार पर उसका समाधान कर दिया गया है। ___ यद्यपि स्तुति साहित्य में देह को आधार बनाकर तीर्थंकर भगवान का अपरिमित गुणानुवाद किया गया है, तथापि यह बात भी हाथ पर रखे आँवले के समान स्पष्ट है कि देह और आत्मा परमार्थतः भिन्नभिन्न ही हैं। अत: देह के आधार पर की गई स्तुति मात्र उपचार ही है, व्यवहार ही है; उसके आधार पर देह और आत्मा को एक मानने की बात करना नयविभाग के अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। __ भक्तामर स्तोत्र में भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए मानतुंगाचार्य तो यहाँ तक लिखते हैं कि - ( वसंततिलका ) "यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति। हे तीनलोक में सर्वश्रेष्ठ आदिनाथ भगवान ! राग उत्पन्न करने वाले, रुचिकर जिन शान्त परमाणुओं से आपका निर्माण हुआ है; वे परमाणु सम्पूर्ण पृथ्वी में मात्र उतने ही थे। यही कारण है कि आपके समान शान्त, सुन्दर और रुचिकर रूपवाला कोई अन्य व्यक्ति दिखाई नहीं देता।" उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि आपका निर्माण शान्त, रुचिकर और रागोत्पादक सुन्दर परमाणुओं से हुआ है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 गाथा ३१ - तो क्या हम इसके आधार पर यह मान सकते हैं कि आदिनाथ भगवान पुद्गल परमाणुओं से बने थे ? अरे भाई, पुद्गल परमाणुओं से तो उनकी देह बनी थी, वे तो ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा ही हैं । यह बात बिना समझाये ही बच्चे-बच्चे की समझ में आ जाती है यही कारण है कि जब इसका हिन्दी पद्यानुवाद किया गया तो अनुवादक ने स्पष्ट लिख दिया कि 1 - " जिन जितने जैसे अणुओं से निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे अणु जग में शान्त रागमय निस्सन्देह ॥ है त्रिभुवन के शिरोभाग के अद्वितीय आभूषणरूप । इसलिए तो आप सरीखा नहीं दूसरों का है रूप ॥ संस्कृत भाषा के मूल छन्द के समान इस छन्द में यह नहीं लिखा कि भगवान परमाणुओं से बने हैं, अपितु यही लिखा है कि भगवान की देह शान्त परमाणुओं से बनी है । अरे भाई, जिनागम का प्रत्येक वाक्य नय की भाषा में ही निबद्ध हैं। अतः जिनागम का मर्म समझने के लिए नयविभाग जानना अत्यन्त आवश्यक हैं 1 यद्यपि उक्त छन्द का प्रयोजन आदिनाथ भगवान के शरीर की सुन्दरता का निरूपण ही है, उनके आत्मगुणों का निरूपण करना नहीं; तथापि देह और आत्मा के अभेद को लक्ष्य में लेकर भाषा का प्रयोग तो इसीप्रकार किया गया है कि जैसे भगवान स्वयं भी उनकी मूर्ति के समान परमाणुओं से बने हों। इसप्रकार के प्रयोग व्यवहारनय में होते हैं । अत: हमें भ्रमित नहीं होना चाहिए। इसप्रकार की जितनी भी स्तुतियाँ उपलब्ध हों, उन्हें व्यवहारनयोपजनित मानकर निशंक रहना चाहिए । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३१ अव प्रश्न उठता है कि यदि यह व्यवहारस्तुति है तो निश्चयस्तुति क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर में ३१-३२-३३वीं गाथाओं का जन्म हुआ है; जिनमें प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का स्वरूप बतानेवाली ३१वीं गाथा इसप्रकार है - जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं खलु जिदिंदियं ते भणन्ति जे णिच्छिदा साहू ॥३१॥ ( हरिगीत ) जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा॥ ३१॥ जो इन्द्रियों को जीतकर आत्मा को अन्य द्रव्यों से अधिक (भिन्न) जानते हैं; वे वस्तुत: जितेन्द्रिय हैं - ऐसा निश्चयनय में स्थित साधुजन कहते हैं। यह निश्चयस्तुति का निरूपण है। यह प्रथम निश्चयस्तुति है, जो ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होती है। ज्ञायक माने जानने-देखने के स्वभाववाला भगवान आत्मा और ज्ञेय माने जानने में आने वाले पदार्थ । जाननेवाला भगवान आत्मा अलग है और जानने में आने वाले परपदार्थ अलग हैं; पर अज्ञानीजीव उन्हें भिन्न-भिन्न न जानकर दोनों को एक ही मान लेते हैं। उनका यह मानना ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष से दूषित है। यद्यपि अपना भगवान आत्मा ज्ञायक के साथ-साथ ज्ञेय भी है; क्योंकि वह जानता भी है और जानने में भी आता है; पर यहाँ निजज्ञेय की बात नहीं है, परज्ञेयों की बात है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 प्रश्न ऐसे कौन-कौन से परज्ञेय हैं, जिन्हें ज्ञायक मान लिया जाता है ? - उत्तर - इन्द्रियाँ । इन्द्रियाँ ही ऐसे ज्ञेय हैं, जिन्हें जायक मान लिया जाता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि जो इन्द्रियों को जीतकर अपने भगवान आत्मा को अन्य द्रव्यरूप ज्ञेयों से भिन्न जानते हैं, वे जितेन्द्रियजिन हैं । गाथा ३१ आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इस गाथा का अर्थ करते हुए 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ द्रव्य इन्द्रियाँ, भाव-इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ करते हैं तथा विस्तार से स्पष्ट करते हैं कि इन तीन प्रकार की इन्द्रियों को जीतने का क्या अर्थ है और इन्हें जीतने की विधि क्या है ? - इस गाथा पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखी गई आत्मख्याति टीका का भाव मूलतः इसप्रकार है - 46 - ' अनादि अमर्याद बंध पर्याय के वश, जिनमें समस्त स्व पर का विभाग अस्त हो गया है अर्थात् जो आत्मा के साथ ऐसी एकमेक हो रही है कि भेद दिखाई नहीं देता; ऐसी शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों को निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन के बल से अपने से सर्वथा अलग करना अर्थात् सर्वथा भिन्न जानना यह तो द्रव्येन्द्रियों का जीतना हुआ । भिन्न-भिन्न अपने विषयों में व्यापार से जो विषयों को खण्डखण्ड ग्रहण करती हैं, ज्ञान को खण्ड खण्ड रूप बतलाती हैं; ऐसी भावेन्द्रियों को, प्रतीति में आती हुई अखण्ड एक चैतन्यशक्ति के द्वारा अपने से सर्वथा भिन्न करना अर्थात् भिन्न जानना यह भावेन्द्रियों का जीतना हुआ। — Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 284 ग्राह्य - ग्राहकलक्षणवाले संबंध की निकटता के कारण अपने संवेदन के साथ एक जैसे दिखाई देनेवाले भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये इन्द्रियों के विपयभूत स्पर्शादि पदार्थों को अपनी चैतन्यशक्ति से स्वयमेव अनुभव में आनेवाली असंगता के द्वारा अपने से सर्वथा अलग करना अर्थात् सर्वथा अलग जानना – यह इन्द्रियों के विषयभृत पदार्थों का जीतना हुआ। इसप्रकार द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उनके विषयभूत पदार्थों को जीतकर ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के दूर होने से; एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का जो अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितेन्द्रियजिन हैं।" इस गाथा में जितेन्द्रियजिन, ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार और निश्चय स्तुति - इन तीन बातों को एक साथ सम्मिलित किया गया है। जो इन्द्रियों को जीतता है, उसे जितेन्द्रियजिन कहते हैं और इन्द्रियों को जीतना ही प्रथम प्रकार की निश्चय स्तुति है तथा वह ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष के परिहारपूर्वक होती है। इसप्रकार ये तीनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं । इस गाथा का मर्म जानने के लिए उक्त तीनों बातों को गहराई से समझना अत्यन्त आवश्यक है। इन्द्रियों के जीतने का अर्थ सामान्यत: लोग पंचेन्द्रियों के भोगों को त्यागना मानते हैं; इसकारण जितेन्द्रिय बनने के लिए उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते हैं; पर वे यह नहीं जानते है कि यहाँ तो इन्द्रियों से भिन्न ज्ञायकस्वभावी निजभगवान आत्मा को जानना, उसमें अपनत्व स्थापित करना, आत्मानुभूति प्राप्त करना ही इन्द्रियों को जीतना है। _ 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ भी मात्र दिखाई देने वाले आँख-कान आदि नहीं हैं। स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँच तो मात्र Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 गाथा ३१ द्रव्येन्द्रियाँ हैं । ये तो शरीर के अंग हैं, इसीकारण इन्हें शरीर परिणाम को प्राप्त कहा गया है। ये तो जड़ है, जानने - देखने में असमर्थ हैं । जानने-देखने का काम तो देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा करता है । आत्मा के ज्ञान गुण की वह क्षयोपशमदशा, जो इन्द्रियों के माध्यम से जानने-देखने का काम करती है; भावेन्द्रिय कहलाती है । वह भी इन्द्रिय ही है । यह क्षयोपशमरूप भावेन्द्रिय स्पर्शन, रसना आदि द्रव्येन्द्रियों के माध्यम से जिन पदार्थों को जानती है; उन पदार्थों को भी यहाँ इन्द्रिय ही कहा गया है। ध्यान रहे यहाँ इन्द्रियों के माध्यम से दिखाई देने वाले देव, शास्त्र, गुरु; स्त्री, पुत्रादिः मकानादि - सभी पदार्थ इन्द्रिय शब्द में शामिल कर लिये गये हैं । देखो तो कैसी गजब की टीका है । गाथा तो अद्भुत् है ही, आत्मख्याति टीका भी कम नहीं है । वह गाथा के मर्म को खोलने में पूर्णत: समर्थ है। देखो, यहाँ क्या कहा जा रहा है ? आँख तो आँख है ही, पर आँखों से दिखाई देनेवाले पदार्थ भी आँख ही हैं; इसीप्रकार कान तो कान हैं ही, कानों से सुनाई देनेवाले शब्द भी कान ही हैं । इसीप्रकार स्पर्शन, रसना और घ्राण के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि यहाँ इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को भी इन्द्रिय कहा जा रहा है । है न गजब की बात? इसप्रकार यहाँ इन्द्रियों से दिखाई देनेवाले सभी पदार्थ 'इन्द्रिय' शब्द में शामिल हो गये । अरे भाई, समयसार में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का अर्थ ही कुछ अलग होता है । अतः यह समयसार ऐसे ही चलते-फिरते समझ में आनेवाला नहीं हैं। इसे समझने के लिए रुचिपूर्वक गहराई से अध्ययन Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 286 करने की आवश्यकता है, गरुगम की आवश्यकता है, सत्समागम की आवश्यकता है। ___ हाँ, तो इसप्रकार शरीर परिणाम को प्राप्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और उपचार सं मन भी- ये द्रव्येन्द्रियाँ, इनके माध्यम से जाननेवाली ज्ञान की क्षयोपशमदशा रूप भावन्द्रियाँ और इनके माध्यम से ज्ञात होनेवाले बाह्य ज्ञेय पदार्थ -- इन सभी का एक नाम 'इन्द्रिय' है। __ अज्ञानीजीव अनादि से इन इन्द्रियों को आत्मा जानता रहा है, इनमें ही अपनापन स्थापित किये रहा है, इन्हीं में जमा-रमा रहा है; यही इसकी इन्द्रियाधीनता है। ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन इन्द्रियों से अत्यन्त भिन्न है. एकत्व में टंकोत्कीर्ण है. अविनश्वर है. प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तर में प्रकाशमान है, स्वत:सिद्ध एवं परमार्थस्वरूप है – यह जानकर, अनुभवपूर्वक जानकर; उस भगवान आत्मा में ही अपनापन हो जाना, उसमें ही जम जाना, रम जाना इन्द्रियों को जीतना है। ____ इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ तो ज्ञेय हैं ही, द्रव्येन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं। यहाँ तो यह भी कहा जा रहा है कि क्षयोपशमज्ञानरूप भावेन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं । ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन सभी से भिन्न है। - यह न जानकर इन्द्रियों को ज्ञायक जानना और इन्द्रियों के विषयों को ज्ञेय जानना और ज्ञायक को जानना ही नहीं - ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का एक प्रकार तो यह है और दूसरे ज्ञायक भगवान आत्मा और इन तीनों प्रकार की इन्द्रियों को एकमेक मानना, इनमें कोई भेद नहीं कर पाना भी ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष है। ___ तीनों प्रकार की इन्द्रियों को ज्ञेय जानकर ज्ञाता भगवान आत्मा को उनसे भिन्न जानना, मानना, अनुभव करना ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार है तथा इसी को तीर्थंकर भगवान की प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति कहते हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 गाथा ३१ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यह तो भगवान आत्मा के निर्विकल्प अनुभव की बात है ; इसमें तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे हो गई ? तीर्थंकर भगवान के आत्माश्रित गुणों के माध्यम से उनके स्तवन करने का निश्चय स्तुति कहना चाहिए। जैसा कि समयसार में ही कहा गया है - तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि॥२९॥ ( हरिगीत ) परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलिगुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन॥२९ ।। उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि यदि आत्मा के गुणों के आधार पर वचनात्मक स्तुति करते तो वह गुणभेद के आधार पर की गई होने से व्यवहार स्तुति ही कहलाती । शरीर के गुणों के आधार पर की गई स्तुति असद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति है और आत्मा के गुणों के कथनपूर्वक की गई स्तुति सद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति होती। वहाँ असद्भूतव्यवहारनय के विरुद्ध सद्भूतव्यवहारनय खड़ा होता, निश्चयनय नहीं। यहाँ व्यवहार के विरुद्ध निश्चयनय खड़ा करना था; अतः निर्विकल्प-अनुभूति को निश्चय स्तुति कहा गया। प्रश्न -यह तो ठीक, पर इसे अपने आत्मा की स्तुति तो कह सकते हैं, पर तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे कह सकते हैं? उत्तर -आपकी बात तो ठीक है, पर भगवान की आज्ञा भी तो यही है कि तुम आत्मा का अनुभव करो, आत्मा में ही समा जावो; स्वयं पर्याय में भी परमात्मा बन जावो। अत: यह आत्मानुभूति भी उनकी ही आज्ञा का पालन हुआ। सच्ची भक्ति तो आज्ञा का पालन ही है। हम भगवान की आज्ञा का पालन तो नहीं करें और कोरे गुणानुवाद करें तो उसे सच्ची भक्ति कैसे कहा जा सकता है? अत: निज भगवान आत्मा का अनुभव ही सच्ची निश्चयस्तुति है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 288 प्रश्न -भले ही तीर्थंकर केवली की आज्ञा आत्मानुभव की हो. पर स्तुति तो उनके गुणानुवादरूप ही होना चाहिए। उत्तर - नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है; क्योंकि निश्चयस्तुति विकल्पात्मक नहीं होती। नियमसार में तो निश्चय से भक्ति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि सभी को आत्मानुभूति में ही समाहित कर लिया है। मुनिराजों के २८ मूलगुणों में छह आवश्यकों के रूप में स्तुति और वन्दना आते हैं, स्वाध्याय भी आता है; पर बाहुबली तो एक वर्ष तक ध्यान में ही खड़े रहे तो क्या उनके २८ मूलगुण खण्डित हो गये? क्या वे छह आवश्यक नहीं पालने के दोषी हैं? ___ नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि निर्विकल्प आत्मध्यान में निश्चय से सभी मूलगुण समाहित हो जाते हैं, सभी आवश्यक आ जाते हैं । इसप्रकार यह भगवान आत्मा का अनुभव निश्चयस्तुति भी है, जितेन्द्रियपना भी है और इसमें भगवान आत्मा को ज्ञेयों से भिन्न जाना, अनुभव किया; अतः ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार भी हो गया। इसमें इन्द्रियों के भोगों का त्याग तो आ ही गया, साथ में पर को अपना जानने-मानने का त्याग भी आ गया । अत: यह सच्चा जितेन्द्रियपना हुआ; अकेले बाह्य विषय-भोगों को बलात् त्याग कर देना वास्तविक जितेन्द्रियपना नहीं है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय एवं इनके विषयभूत पदार्थों - ज्ञेयों से भिन्न ज्ञायकभावरूप निजभगवान आत्मा का अनुभव करना ही जितेन्द्रियपना है, प्रथमप्रकार की निश्चयस्तुति है और इसमें किसी भी प्रकार का ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष भी नहीं है। _ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रव्येन्द्रियाँ प्रगटरूप से जड़ होने से, उन्हें जीतने के लिए निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव लिया; भावेन्द्रियाँ खण्ड Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 289 गाथा ३१ खण्ड रूप होने से, ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप करनेवाली होने से, उन्हें जीतने के लिए प्रतीति में आती हुई अखण्ड चैतन्यशक्ति ली और इन्द्रियों के विषयभूत परज्ञेयों रूप इन्द्रियों को जीतने के लिए स्वयं अनुभव में आनेवाला चैतन्यशक्ति का असंगपना लिया; क्योंकि ज्ञेयज्ञायक की निकटता के कारण, संग के कारण ही तो उनमें एकता का भ्रम हो जाता है। इसप्रकार यह स्पष्ट हो गया कि निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव, प्रतीति में आती हुई अखण्ड चैतन्य शक्ति और स्वयं अनुभव में आनेवाला चैतन्यशक्ति का असंगपना – ये ऐसे शस्त्र है कि जिनसे न केवल इन्द्रियों को जीता जा सकता है, अपितु ज्ञेय और ज्ञायक को भिन्न-भिन्न भी किया जा सकता है। इस युग में समयसार और आत्मख्याति का मर्म उद्घाटित करनेवाले आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी ३१वीं गाथा पर लिखी गई आत्मख्याति टीका का मर्म इसप्रकार उद्घाटित करते हैं - "जिसप्रकार द्रव्येन्द्रियों को और आत्मा को एक मानना अज्ञान है; उसीप्रकार ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप से बतानेवाली भावेन्द्रियों को और ज्ञायक को एक मानना भी मिथ्यात्व है, अज्ञान है। अलग-अलग अपने-अपने विषयों को जो खण्ड-खण्ड ग्रहण करती हैं और अखण्ड एक ज्ञायक को खण्ड-खण्ड रूप बताती हैं, उन भावेन्द्रियों की ज्ञायक आत्मा के साथ एकता स्थापित करना मिथ्यात्व है। इस गाथा में ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष के परिहार की बात है। शरीर परिणाम को प्राप्त जड़ इन्द्रियों के परज्ञेय रूप होने पर भी वे मेरी हैं' - ऐसी एकत्वबुद्धि मिथ्याभाव रूप संकरदोष है। जिसकी मान्यता १. प्रवचनरलाकर (हिन्दी) भाग – २, पृष्ठ ३५-३६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 समयसार अनुशीलन ऐसी है, उसने जड़ की पर्याय और चैतन्य की पर्याय को एक माना है। उसीप्रकार शब्द, रूप, रस आदि एक-एक विषय को जानने की योग्यतावाला क्षयोपशमभाव भावेन्द्रिय है । वह भी वस्तुतः परज्ञेय है। परज्ञेय और ज्ञायकभाव की एकताबुद्धि ही संसार है, मिथ्यात्व है। भावेन्द्रिय के विपय जो सारी दुनिया, स्त्री, कुटुम्ब, देव, शास्त्र, गुरु आदि सभी परपदार्थ हैं, वे इन्द्रियों के विषय होने से इन्द्रिय कहे जाते हैं । वे भी परज्ञेय हैं, इनसे लाभ मानना भी मिथ्याभ्रान्ति है। __द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और उनके विषय – ये तीनों जानने लायक है और ज्ञायक आत्मा स्वयं जाननेवाला है। ये तीनों ही परज्ञेयरूप से और भगवान आत्मा स्वज्ञेयरूप से जानने लायक है। चाहे भले ही भगवान सर्वज्ञ परमात्मा हों, उनकी वाणी हो या उनका समवशरण हो - वे सभी अतीन्द्रिय आत्मा की अपेक्षा इन्द्रियाँ हैं, परज्ञेय रूप जानने लायक हैं और आत्मा ग्राहक-जाननेवाला है। ऐसा होते हुए भी ग्राह्य-ग्राहक लक्षणवाले संबंध की निकटता के कारण अज्ञानी ऐसा मानता है कि वाणी से ज्ञान होता है। ज्ञेयाकाररूप ज्ञान की पर्याय ज्ञान का परिणमन है, ज्ञेय का नहीं, ज्ञेय के कारण भी नहीं; तथापि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की अतिनिकटता है; इसलिए ज्ञेय से ज्ञान हुआ – ऐसा अज्ञानी भ्रम से मानता है। देखो, द्रव्येन्द्रियों के समक्ष अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव लिया, भावेन्द्रियों के समक्ष एक अखण्ड चैतन्यशक्ति ली और यहाँ तीसरे बोल में ज्ञेय-ज्ञायकता की निकटता के समक्ष चैतन्यशक्ति का असंगपना लिया। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ३६ २. वही, पृष्ठ ३७-३८ ३. वही, पृष्ठ ३९ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 गाथा ३१ इसप्रकार जो कोई मुनि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और उनके विषयभूत पदार्थों को जीतता है, उसका सब ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष दूर हो जाता है। 'जानने योग्य वस्तु ज्ञायक की है और जाननेवाला ज्ञायक जानने योग्य वस्तु का है' – ऐसा जानना अज्ञान है. ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष है। ___ जड़ इन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ तथा भगवान और भगवान की वाणी इत्यादि इन्द्रियों के विषय पररूप होने से स्व से भिन्न है; - ऐसा होते हुए भी अज्ञानी उन्हें अपनी मानता है । कारण कि जिससे लाभ हुआ माने, उसे अपनी माने बिना रह नहीं सकता। यदि वे अज्ञानी अपने सूक्ष्म चैतन्यस्वभाव का अवलम्बन लें, अखण्ड एक ज्ञायक का आश्रय लें, असंगस्वभावी निज चैतन्य का अनुभव करें तो यह सम्पूर्ण दोष दूर हो सकता है। समझाने के लिए कथन करें तो कथन में क्रम पड़ता है, किन्तु जब आत्मा का आश्रय लिया जाता है, तब एक साथ सभी इन्द्रियाँ (द्रव्येन्द्रियाँ, भावेन्द्रियाँ और इनके विषयभूत पदार्थ) जीत ली जाती हैं । जब अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के बल से द्रव्येन्द्रियों को जीतता है, तब भावेन्द्रियों और इन्द्रियों के विषय का लक्ष्य भी छूट जाता है। इसीप्रकार जब परविषयों को जीतता है, तब भी द्रव्य का ही लक्ष्य होने से जड़-इन्द्रियाँ व भावेन्द्रियाँ जीत ली जाती हैं। ___ शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियाँ, खण्ड-खण्डज्ञानरूप भावेन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ कुटुम्ब-परिवार, देव-शास्त्र-गुरु आदि सभी परज्ञेय हैं और ज्ञायक स्वयं भगवान आत्मा स्वज्ञेय है। विषयों की आसक्ति से उन दोनों का एक जैसा अनुभव होता था, निमित्त की रुचि से ज्ञेय-ज्ञायक का एक जैसा अनुभव होता था; किन्तु १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ४० Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन जब भेदविज्ञान से भिन्नता का ज्ञान हुआ, तब ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष दूर हुआ। तब मैं तो एक अखण्ड ज्ञायक हूँ, ज्ञेय के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है ऐसा अन्दर में स्वसंवेदन ज्ञान हुआ । - इसप्रकार यह प्रथम प्रकार की स्तुति का कथन हुआ । ' स्वामीजी के उक्त कथन में सभी बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई है । मूलत: प्रकरण देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा देह से अत्यन्त भिन्न है यह चल रहा था । बीच में अप्रतिबुद्ध शिष्य ने स्तुतिसाहित्य का आधार देकर देह और आत्मा को एक बताने का प्रयास किया । इसकारण स्तुति की बात चल पड़ी। - जब आचार्यदेव ने नयविभाग द्वारा उसे समझाने का प्रयास किया तो व्यवहार स्तुति की बात स्पष्ट हुई। 292 तब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि देह के आधार पर की गई स्तुति व्यवहारस्तुति है तो फिर निश्चयस्तुति क्या है ? परिणामस्वरूप ३१,३२ एवं ३३वीं गाथा में निश्चयस्तुति का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है; जिसमें ३१वीं गाथा में प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति की बात जितेन्द्रियजिन के रूप में सामने आई । पर मूल बात दृष्टि से ओझल नहीं हो जावे; अतः ज्ञेय - ज्ञायकंसंकरदोष के परिहार की बात सामने आई और उसके माध्यम से ज्ञेय और ज्ञायक की भिन्नता की चर्चा आ गई। इसप्रकार यहाँ देह ज्ञेय के प्रतिनिधि के रूप में तथा देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा ज्ञायक के रूप में उपस्थित है । इसप्रकार यह काया और आत्मा की भिन्नता की मूल बात न केवल चल ही रही है, अपितु विस्तार से स्पष्ट हो रही है । १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ४३ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293 गाथा ३१ काया और आत्मा की भिन्नता की मूल बात के साथ-साथ इस गाथा में तीन बातें स्पष्ट हुई हैं; जो इसप्रकार हैं - (१) अपने आत्मा को शरीरपरिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों, क्षयोपशमज्ञानरूप भावेन्द्रियों एवं इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों से भिन्न जानकर उसे निजरूप अनुभव करना ही इन्द्रियों को जीतना है, जितेन्द्रियपना है। (२) द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय एवं इनके माध्यम से जाने जानेवाले पदार्थ ज्ञेय हैं और निज भगवान आत्मा ज्ञायक है। वह ज्ञायक भगवान आत्मा इन ज्ञेयों से भिन्न है - यह जानकर निज आत्मा में एकत्व का अनुभव करना ही ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष का परिहार है। (३) इसप्रकार की निर्विकल्प-आत्मानुभूति ही प्रथम प्रकार की निश्चय स्तुति है, जो सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के ही होती है। इसप्रकार इस ३१वीं गाथा में ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितेन्द्रियजिनरूप प्रथमप्रकार की निश्चयस्तुति का स्पष्टीकरण हुआ। पवित्रता प्राप्त करने का उपाय स्वभाव से तो सभी आत्माएँ परमपवित्र ही हैं, विकृति मात्र पर्याय में है। पर जब पर्याय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेती है, तो वह भी पवित्र हो जाती है। पर्याय के पवित्र होने का एकमात्र उपाय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेना है। 'पर' के आश्रय से पर्याय में अपवित्रता और 'स्व' के आश्रय से पवित्रता प्रकट होती है। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ६८ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३२-३३ अब प्रश्न उपस्थित होता है कि इसे प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति क्यों कहा जा रहा है, क्या कोई दूसर प्रकार की निश्चयस्तुति भी होती है? ___ हाँ, होती है। निश्चयस्तुति तीन प्रकार की होती है। प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का दिग्दर्शन तो ३१वीं गाथा में हो चुका है और अब ३२वीं व ३३वीं गाथा में दूसरी व तीसरी निश्चयस्तुति की बात होगी। वे गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ॥३२॥ जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि ॥ ३३॥ ( हरिगीत ) मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज-आतमा। जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक-आतमा ।। ३२॥ सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक-आतमा॥ ३३॥ जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, भिन्न जानता है ; उस मुनि को परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते हैं। जिसने मोह को जीत लिया है, ऐसे साधु के जब मोह क्षीण होकर सत्ता में से नष्ट हो, तब उस साधु को निश्चयनय के जानकार क्षीणमोह कहते हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295 गाथा ३२.३३ ___ यह दूसरी व तीसरी निश्चयस्तुति का कथन है । दृसरी स्तुति भाव्यभावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होती है और तीसरी स्तुति भाव्यभावक भाव के अभावपूर्वक होती है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का निमित्त पाकर संसारी आत्मा राग-द्वेषरूप परिणमित होते हैं। इसकारण उदय को प्राप्त चारित्रमोहनीय कर्म हुआ भावक और उसके उदयानुसार राग-द्वेषरूप परिणमित आत्मा हुआ भाव्य। ध्यान रहे, सत्ता में पड़ा हुआ सामान्य मोहनीय कर्म भावक नहीं है और न ही सामान्य राग-द्वेष भाव्य ही हैं। उदय या उदीरणा में आये हुये मोहनीय कर्म की ही भावक संज्ञा है और रागद्वेषरूप परिणमित आत्मा की भाव्य संज्ञा है। अकेले राग-द्वेष तो भाव हैं, भाव्य नहीं; उदयागत मोहकर्मरूप भावक का भाव्य तो राग-द्वेषरूप परिणमित आत्मा ही है। ये भाव्य-भावक शब्द एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। जिसप्रकार ज्ञेय-ज्ञायक शब्द परस्पर सापेक्ष हैं, उसीप्रकार ये भाव्य-भावक शब्द भी परस्पर सापेक्ष हैं। इस बात को स्पष्ट करते हुये आचार्य जयसेन लिखते हैं - "भाव्यो रागादिपरिणत आत्मा, भावको रंजक उदयागतो मोहस्तयोर्भाव्यभावकयोः शुद्धजीवेन सह संकरः संयोगः संबंध: स एव दोषः । तं दोषं स्वसंवेदनज्ञानबलेन योऽसौ परिहरति सा द्वितीया स्तुतिरिति भावार्थः। ___ रागादिरूप परिणत आत्मा भाव्य है और उदय में आया हुआ मोहकर्म भावक है, रंजक है। इन भाव्य और भावक-दोनों का शुद्धजीव के साथ जो संकर अर्थात् संयोग है, संयोग संबंध है; वह ही भाव्य-भावकसंकर दोष है। उस दोष का जो पुरुष स्वसंवेदन ज्ञान के बल से परिहार करता है; वह दूसरी स्तुति है। - यह भावार्थ है।" उक्त पंक्तियाँ समयसार की ३२वीं गाथा की आचार्य जयसेन द्वारा की गई तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका की हैं। इसीप्रकार का भाव ३३वीं गाथा की टीका में भी व्यक्त किया गया है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन आचार्य जयसेन के उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि उदयागत मोहकर्म भावक है और उसके अनुसार राग-द्वेष परिणत आत्मा भाव्य है, भावकरूप द्रव्यकर्म और भाव्यरूप राग-द्वेषमय अशुद्ध आत्मा इन दोनों का शुद्ध आत्मा के साथ संबंध या एकत्व होना ही भाव्य-भावक संकरदोष है और स्वसंवेदन ज्ञान के बल से, स्वानुभूति के बल से, शुद्धोपयोग के बल से भावकरूप द्रव्यमोह को और भाव्यरूप भावमोह को उपशमित कर देना द्वितीय निश्चयस्तुति है और क्षयकर देना तृतीय निश्चयस्तुति है । 296 ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष के परिहार में श्रद्धा संबंधी दोष तो निकल गया है, मिथ्यात्व तो चला गया है; भूमिकानुसार अनन्तानुबंधी आदि कषायें भी चली गई हैं; पर अभी भूमिकानुसार शेष राग-द्वेष होते हैं । ज्ञानस्वभाव के आश्रय से उन्हें उपशमित करना भाव्य-भावकसंकर दोष का परिहार है, जितमोहपना है, मोह को जीतना है; दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति है । भाव्य-भावक दोष के परिहार में राग-द्वेष का उपशम तो हुआ है; पर उनका पूर्णत: अभाव नहीं हुआ है, आत्यन्तिक क्षय नहीं हुआ है, जड़मूल से नाश नहीं हुआ है, उनकी सत्ता का नाश नहीं हुआ है। ज्ञानस्वभाव के अत्यन्त उग्र आश्रय से उन्हें जड़मूल से उखाड़ देना, नष्ट कर देना, क्षय कर देना भाव्य-भावक भाव का अभाव है, क्षीणमोहपना है, मोह का नाश करना है; तीसरे प्रकार की निश्चय स्तुति है । पहले प्रकार की निश्चयस्तुति को जघन्य निश्चयस्तुति, दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को मध्यम निश्चयस्तुति और तीसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को उत्कृष्ट निश्चयस्तुति भी कहते हैं । जिन तीन प्रकार के होते हैं (१) जितेन्द्रिय जिन, (२) जितमोह जिन और (३) क्षीणमोह जिन । — Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 297 गाथा ३२-३३. सम्यग्दृष्टि जितेन्द्रिय जिन हैं, उपशणश्रेणीवाले जितमोह जिन हैं और क्षपक श्रेणीवाले क्षीणमोह जिन हैं । वीतरागी सर्वज्ञ भगवान जिनवर हैं, जिनेश्वर हैं । ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितेन्द्रिय जिनरूप प्रथम निश्चयस्तुति चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान के स्वस्थान- अप्रमत्तभाग तक होती है । भाव्य- भावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितमोह जिनरूप दूसरी निश्चयस्तुति उपशमश्रेणीवालों के होती है और भाव्य-भावक भाव के अभावपूर्वक होनेवाली क्षीणमोहजिनरूप तृतीय निश्चयस्तुति क्षपक श्रेणीवालों के होती है। इसप्रकार चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक निश्चयस्तुति होती है । तेरहवाँ गुणस्थान निश्चयस्तुति का फल है । प्रश्न –जितमोह तो ग्यारहवें गुणस्थान का नाम है और क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान का नाम है । अतः जितमोहजिनरूप दूसरी स्तुति ग्यारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये और क्षीणमोहजिनरूप तीसरी स्तुति बारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये । उत्तर - तुम ठीक कहते हो, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि मोह का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और मोह का पूर्ण नाश बारहवें गुणस्थान में होता है; पर मोह की विभिन्न प्रकृतियों का उपशम और क्षय आठवें, नौवें और दशवें गुणस्थान में भी होता जाता है; अतः वहाँ भी यथास्थान जितक्रोधजिन, जितमानजिन, क्षीणक्रोधजिन, क्षीणमानजिन आदि कहा जा सकता है। चूँकि ये सभी प्रकृतियाँ मोहकर्म की ही हैं; अतः उनकी अपेक्षा जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन कहने में भी कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये । दूसरी बात यह भी तो है कि यदि चौथे से सातवें के स्वस्थानअप्रमत्तभाग तक जितेन्द्रियजिनरूप प्रथमस्तुति, ग्यारहवें गुणस्थान में जितमोह जिनरूप द्वितीयस्तुति और बारहवें गुणस्थान में Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 समयसार अनुशीलन क्षीणमोहजिनरूप तृतीयस्तुति कहेंगे तो फिर सातवें के सातिशयअप्रमत्तभाग से दशवें गुणस्थान तक कोई भी स्तुति नहीं मानी जायेगी। अतः मोटे तौर पर यही ठीक है कि चौथे से सातवें के स्वस्थानअप्रमत्तभाग तक प्रथमस्तुति, उपशम श्रेणीवालों को द्वितीयस्तुति और क्षपक श्रेणीवालों को तृतीयस्तुति कहा जाय। प्रश्न –मोह की किन-किन प्रकृतियों का किन-किन गुणस्थानों में उपशम व क्षय होता है? उत्तर –इस सम्बंध में विस्तृत कथन करणानुयोग के गोम्मटसारादि ग्रंथों से जानना चाहिये; वहाँ इन सबका विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ इस अध्यात्म के प्रकरण में उनकी विस्तृत चर्चा संभव नहीं है, उचित भी नहीं है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है - "यह स्तुति साधकभाव है और वह बारहवें गुणस्थान तक ही होती है। तेरहवें गुणस्थान में स्तुति नहीं होती; क्योंकि तेरहवाँ गुणस्थान, केवलज्ञान तो स्तुति का फल है। राग से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुभव होने पर सम्यग्दर्शन होता है - वह पहली स्तुति है। ऐसा होते हुए भी सम्यग्दृष्टि के कर्म के उदय की ओर के झुकाव से स्वयं के कारण भावकर्म के निमित्त से विकारी भाव्य होता है । यह भाव्य-भावकसंकर दोष है तथा कर्म के उदय का लक्ष्य छोड़कर अखण्ड, एक चैतन्यघन प्रभु के सन्मुख होकर उसमें अपने उपयोग का जुड़ान करने से उपशमभाव द्वारा ज्ञानी उस मोह को जीतता है । – यह दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति है। प्रथम प्रकार की स्तुति में सम्यग्दर्शन सहित आनन्द का अनुभव है और दूसरे प्रकार की निश्चय स्तुति में भावक मोहकर्म के उदय के १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ५८ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 गाथा ३२-३३ जिज्ञासु पाठकों को उक्त प्रकरण का गहराई से अध्ययन करना चाहिए । लेखक की अन्य कृति " तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ' में भी देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप पर विचार करते हुए आधुनिक भक्ति में समागत विकृतियों पर प्रकाश डाला गया हैं । जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसका अध्ययन भी उपयोगी है । - जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन के स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है " "जो मुनि फल देने की सामर्थ्य से उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होते हुए मोहकर्म के अनुसार प्रवृत्तिवाले भाव्यरूप अपने आत्मा को भेदज्ञान के बल से दूर से ही अलग करके - इसप्रकार मोह का बलपूर्वक तिरस्कार करके, समस्त भाव्य- भावकसंकर दोष दूर करके एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतः सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्यद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितमोहजिन हैं । यह दूसरी निश्चयस्तुति है । — - पूर्वोक्तविधान से आत्मा में से मोह का तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यों से भिन्न आत्मा का अनुभव करने से जो आत्मा जितमोह हुआ है; जब वही आत्मा अपने स्वभाव की भावना का भलीभाँति अवलम्बन करके मोह की संतति का ऐसा आत्यन्तिक विनाश करता है कि फिर उसका उदय ही न हो, इसप्रकार भावकरूप मोह पूर्णतः क्षीण हो; तब भाव्य-भावक भाव का अभाव होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण परमात्मा को प्राप्त हुआ। वह आत्मा क्षीणमोहजिन कहलाता है । यह तीसरी निश्चयस्तुति है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 302 गाथाओं में जहाँ 'मोह' पद का प्रयोग हुआ है, उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, शब्दों को रखकर ग्यारह-ग्यारह गाथायें बनाकर; उनका भी इसीप्रकार व्याख्यान करना तथा कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - इन पाँच इन्द्रियों को भी 'मोह' पद के स्थान पर रखकर इन्द्रियसूत्र के रूप में पाँच-पाँच गाथायें पृथक् से बनाना और उनका भी पूर्ववत् व्याख्यान करना। इसप्रकार इन गाथाओं के अनुसार १६-१६ गाथायें बनाकर विस्तार से व्याख्यान करना। इसीप्रकार इन १६-१६ सूत्रों के अलावा भी विचार कर लेना।" यहाँ आचार्यदेव ३२वीं और ३३वीं गाथा के आधार १६-१६ गाथायें बनाकर उनकी व्याख्या भी इसीप्रकार करने का आदेश दे रहे हैं, जिससे हमें जितमोहंजिन के समान जितरागजिन, जितद्वेषजिन, जितक्रोधजिन, जिनमानजिन आदि का तथा क्षीणमोहजिन के समान क्षीणरागजिन, क्षीणद्वेषजिन, क्षीणक्रोधजिन, क्षीणमानजिन आदि का स्वरूप भी ख्याल में आयेगा। ___ नमूने के रूप में गाथाओं में परिवर्तन इसप्रकार किया जा सकता है - ( हरिगीत ) राग को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितरागजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ द्वेष को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितद्वेष जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।। क्रोध को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितक्रोधजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ मान को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितमानजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 गाथा ३२-३३ उक्त गाथाएँ ३२वीं गाथा का रूपान्तरण है। ३३वीं गाथा का रूपान्तरण इसप्रकार होगा - ( हरिगीत ) | सब रागक्षय हो जाय जब जितराग सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणरागी जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ।। सब द्वेष क्षय हो जाय जब जितद्वेष सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणद्वेषी जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ सब क्रोधक्षय हो जाय जब जितक्रोध सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणक्रोधी जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा॥ सब मानक्षय हो जाय जब जितमान सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणमानी जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।। नमूने के रूप में यहाँ ३२वीं व ३३वीं गाथा के हिन्दी पद्यानुवाद की चार-चार गाथायें बनाकर बताई गई हैं। इन्हीं के अनुसार अन्य गाथाएँ भी बनाई जा सकती हैं । व्याख्या भी जिसप्रकार ३२वीं व ३३वीं गाथा की की गई है, उसीप्रकार इनकी भी की जा सकती है। अध्यात्मरुचि सम्पन्न प्रत्येक अभ्यासी को यह सब करना चाहिए, आलस्य नहीं करना चाहिए; क्योंकि इसप्रकार करने से ज्ञान में स्पष्टता होती है, विषय-वस्तु समझने में सुविधा रहती है, बात धारणा में बैठती है, परिणामों में निर्मलता होती है, आचार्यदेव की आज्ञा का पालन होता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष पूज्य श्रीकानजीस्वामी ने इन गाथाओं पर प्रवचन करते समय इनकी १६ गाथाओं के रूप में व्याख्या की है; जो मूलत: पठनीय है । नमूने के रूप में उसका संक्षिप्त सार इसप्रकार है___ "गाथा सूत्र में एक मोह का ही नाम लिया है। उसमें 'मोह' पद बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन-वचनकाय - इन पदों को रखकर ग्यारह सूत्रों का भिन्न-भिन्न रूप में व्याख्यान करना चाहिए। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 समयसार अनुशीलन यद्यपि चारित्रमोह का उदय तो कर्म में आया; किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी का आत्मा भी उसका अनुसरण करके पर्याय में राग-द्वेषरूप होने की योग्यतावाला है । इस कारण कर्म के उदय के अनुसार जो पर्याय में रागद्वेष होते हैं; वह संकरदोष है । जब ज्ञायकस्वभाव के उग्र आश्रय से ज्ञानी का कर्मोदय की ओर का झुकाव छूटकर पर से पृथकता हो जाती है और उससे राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते, बल्कि अरागी-अद्वेषीवीतरागी परिणाम प्रगट होते हैं, उसे राग-द्वेष का जीतना कहते हैं। राग व द्वेष में चारों कषायें आ जाती हैं। क्रोध तथा मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं । यद्यपि चारित्रमोह का उदय तो जड़ में आता है; तथापि समकिती व मुनि के भी चारित्रमोह के चारों ही प्रकार के कर्मोदय का अनुसरण करके कषायरूप परिणमन करने की योग्यता है । यहाँ कषाय प्रगट हुई, पश्चात् जीतकर छोड़ देता है - ऐसा नहीं समझना; परन्तु कषाय उत्पन्न ही नहीं होने देता है - यह समझना चाहिए। कषाय के उदय की ओर का लक्ष्य छोड़कर स्वभाव के लक्ष्य से स्वभाव का अनुसरण करते हुए भावक-भाव्य का भेदज्ञान होता है, इसकारण भाव्य कषाय उत्पन्न ही नहीं होती है। उसे ही कषाय का जीतना कहा है।" उक्त कथन में स्वामीजी ने मोह के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ - इन छह को रखकर इन्हें जीतने की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसीप्रकार उन्होंने आगे कर्म, नोकर्म आदि को भी स्पष्ट किया है। कर्म में आठों कर्मों के आधार पर स्पष्टीकरण किया है । पाँच इन्द्रियों की बात को भी समझाया है। । उक्त सम्पूर्ण स्पष्टीकरण से यह अच्छीतरह समझा जा सकता है कि इन गाथाओं के आधार पर १६-१६ गाथायें किसप्रकार बनाना और उनकी व्याख्या कैसे करना? १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग – २, पृष्ठ ६०.६१ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 305 गाथा ३२-३३ प्रश्न - टीका में यह कहा गया था कि इसप्रकार १६ - १६ सूत्र बनाकर व्याख्या करना चाहिये तथा और भी विचार लेना चाहिये । इस और भी विचार लेने से क्या आशय है ? क्या १६ - १६ गाथाओं से अधिक गाथायें बनाई जा सकती हैं ? यदि हाँ तो किसप्रकार ? उत्तर - हास्यादि नौ नोकषायों के आधार पर भी नौ-नौ गाथायें बनाई जा सकती हैं, वे इसप्रकार होंगी ( हरिगीत ) हास्य को जो जीत जाने ज्ञानमय निज-आतमा । जितहास्यजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक - आतमा ॥ रती को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा । जितरतीजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक - आतमा ॥ अरति को जो जीत जाने ज्ञानमय निज - आतमा | जित - अरतिजिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक - आतमा ॥ उक्त गाथायें ३२वीं गाथा का रूपान्तरण हैं । ३३वीं गाथा का रूपान्तरण इसप्रकार होगा ― ( हरिगीत ) सब हास्य क्षय हो जाय जब जितराग सम्यक् श्रमण का । तब क्षीणहास्यी जिन कहें परमार्थ ज्ञायक - आतमा ॥ सब रती क्षय हो जाय जब जितरती सम्यक् श्रमण की । तब क्षीणरती जिन कहें परमार्थ ज्ञायक - आतमा ॥ सब अरति क्षय हो जाय जब जित- अरति सम्यक् श्रमण की । तब क्षीण - अरति जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा ॥ जिसप्रकार यहाँ हास्यादि कषायों के आधार पर ये तीन-तीन गाथायें बनाई हैं, उसीप्रकार शेष छह-छह भी बना लेना चाहिये । इनके अतिरिक्त और भी गाथायें बनाई जा सकती हैं। इसप्रकार २६वीं गाथा में आरंभ हुआ स्तुति का प्रकरण निश्चयव्यवहार स्तुति की विस्तृत व्याख्या के उपरान्त समाप्त होता है । अत: Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 306 आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस प्रकरण के उपसंहाररूप में दो कलश काव्य लिखते हैं, जिनमें सम्पूर्ण वस्तु का उपसंहार करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। ( शार्दूलविक्रीडित ) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयानुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे - नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः॥२७॥ - ( हरिगीत ) इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन। परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ॥२७॥ शरीर और आत्मा के व्यवहारनय से एकत्व है, किन्तु निश्चयनय से नहीं। इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन व्यवहार से ही कहलाता है, निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से तो चेतन के स्तवन से ही चेतन का स्तवन होता है। और वह चेतन का निश्चय स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह और क्षीणमोह रूप से जैसा कहा है, वैसा ही होता है। इसप्रकार अज्ञानी ने तीर्थंकरों के व्यवहार स्तवन के आधार पर जो प्रश्न खड़ा किया था; उसका नयविभाग से इसप्रकार उत्तर दिया है; जिसके बल से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है। इस कलश की भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 कलश २७ २८ ( कवित्त ) तन चेतन विवहार एक से, निहचै भिन्न-भिन्न हैं दोड़ | तनकी थुति विवहार जीवधुति, नियतदृष्टि मिथ्याधुति सोइ ॥ जिन सो जीव जीव सो जिनवर तन जिन एक न मानै कोइ । ता कारण तन की संस्तुति सौं जिनवर की संस्तुति नहिं होइ ॥ व्यवहारनय से जड़ शरीर और चेतन आत्मा एक ही हैं; परन्तु निश्चयनय से दोनों भिन्न-भिन्न ही हैं । इसलिए शरीर के आधार पर की गई स्तुति व्यवहार स्तुति है; निश्चयनय की दृष्टि से वह स्तुति मिथ्यास्तुति है। जिनदेव जीव हैं और जीव ही जिनदेव हैं। शरीर और जिनदेव को कोई भी एक नहीं मानता है । इसकारण जिनदेव के शरीर के गुणों के आधार पर की गई स्तुति जिनदेव की स्तुति नहीं हो सकती है । इस कलश में सम्पूर्ण प्रकरण के निष्कर्ष को अत्यन्त सीधी और सपाट भाषा में प्रस्तुत कर दिया गया है कि निश्चय से आत्मा और शरीर किसी भी रूप में एक नहीं हैं; भिन्न-भिन्न ही हैं । अतः इस कलश के सन्दर्भ में कुछ भी कहना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । ( मालिनी ) इति परिचिततत्वैरात्मकायैकतायां । नयविभजनयुक्त्याऽत्यन्तमुच्छादितायाम् ॥ अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य । स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ॥ २८ ॥ ( हरिगीत ) इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से । निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ॥ यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्द्बोध हो । भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्द्बोध हो ॥ २८ ॥ जब तत्त्व से परिचित मुनिराजों ने आत्मा और शरीर के एकत्व को इसप्रकार नयविभाग की युक्ति द्वारा जड़मूल से उखाड़ फेंका है; तब Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन निंजरस के वेग से आकृष्ट हुए प्रस्फुटित किस पुरुष को वह ज्ञान तत्काल ही यथार्थपने को प्राप्त न होगा ? 308 इस कलश के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि जब सर्वज्ञदेव नं. तत्त्वमर्मज्ञ आचार्यों ने ज्ञानी धर्मात्माजनों ने नयविभाग के द्वारा शरीर और आत्मा के एकत्व को जड़मूल से ही उखाड़ फेंका है, पूरीतरह निरस्त कर दिया है तो फिर ऐसा कौन व्यक्ति है कि जिसकी समझ में देह भिन्न है और आत्मा भिन्न है, यह बात नहीं आवे । तात्पर्य यह है कि जिसे निजरस का रस है, जो निजरस के वेग से आकृष्ट है, प्रस्फुटित है, स्फुरायमान है, उत्साहित है; उसे तो यह बात अवश्य ही समझ में आ जावेगी । यह कहकर आचार्यदेव ने आत्मरसिकों पर अटूट आस्था व्यक्त की है, साथ ही यह भी कह दिया है कि जिसकी समझ में अब भी न आवे तो समझना चाहिए कि वह आत्मरसिक ही नहीं है, आत्मरस उसे आकर्षित ही नहीं करता है, आत्मा की प्राप्ति के लिए उसका वीर्य उल्लसित ही नहीं होता है, स्फुरायमान ही नहीं होता है । यह कहकर आचार्यदेव इस प्रकरण को यही समाप्त करना चाहते हैं; क्योंकि इस कलश के बाद ही आचार्य अमृतचन्द्रदेव तत्काल लिखते हैं कि " इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः - इसप्रकार अप्रतिबुद्ध ने २६वीं गाथा में जो युक्ति रखी थी, उसका निराकरण कर दिया।" इसप्रकार हम देखते हैं कि २६वीं गाथा से आरम्भ और ३३वीं गाथा पर समाप्त इस प्रकरण में निश्चय स्तुति और व्यवहार स्तुति का स्वरूप तो स्पष्ट हुआ ही है; साथ में आत्मा और शरीर की अभिन्नता और भिन्नता का स्वरूप भी भली-भाँति स्पष्ट हो गया है । उक्त प्रकरण का गहराई से मंथन करने पर आत्मा और देह के एकत्व का व्यामोह निश्चित रूप से टूटेगा और देहादि परपदार्थों में से अपनापन टूटकर निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होगा । • Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३४-३५ आत्मख्याति टीका में ३४वीं गाथा की जितनी लम्बी उत्थानिका लिखी गई है, उतनी लम्बी उत्थानिका शायद ही किसी अन्य गाथा की लिखी गई होगी। वह उत्थानिका इसप्रकार है : इसप्रकार यह अज्ञानीजीव अनादिकालीन मोह की संतान से निरूपित आत्मा और शरीर के एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था; अब वह तत्त्वज्ञानरूप ज्योति के प्रगट उदय होने से नेत्र के विकार की भाँति पटलरूप आवरणकर्मों के भलीभाँति उघड़ जाने से प्रतिबुद्ध हो गया और अपने आपको स्वयं से ही साक्षात् दृष्टा जानकर, श्रद्धानकर, उसी का आचरण करने का इच्छुक होता हुआ पूछता है कि इस आत्मा को अन्य द्रव्यों का प्रत्याख्यान क्या है?" 66 इसी प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ये (३४वीं और ३५वीं) गाथायें लिखते हैं । उक्त उत्थानिका में कहा गया है कि अनादि से तो यह आत्मा शरीर और आत्मा को एक ही मान रहा था, आत्मा और देह के अत्यन्त दृढ़ एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अज्ञानी था; पर अब इसने तत्त्वज्ञान की ज्योति के प्रभाव से आवरण हट जाने से अपने ज्ञातादृष्टा स्वभाव को जान लिया, पहिचान लिया है; अतः अब उसे आचरण में भी उतारना चाहता है । इसलिए अब यह अन्य द्रव्यों के त्याग का स्वरूप जानना चाहता है, विधि जानना चाहता है; इसकारण अत्यन्त विनयपूर्वक पूछता है कि हे प्रभो ! प्रत्याख्यान का वास्तविक स्वरूप क्या है, प्रत्याख्यान की वास्तविक विधि क्या है ? यहाँ नेत्र का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की गई है कि जिसप्रकार विकृत आँखों से रंग सही दिखाई नहीं देते; पर नेत्रविकार दूर हो जाने Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 310 पर सबकुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है ; उसीप्रकार जवतक आत्मा अप्रतिबुद्ध था, तबतक पर में अपनत्व भासित होता था, देह और आत्मा में एकत्व भासित होता था; पर अब वह प्रतिबुद्ध हो गया है; अत: सवकुछ स्पष्ट हो गया है। इसलिए अब वह पर से छुटकारा पाना चाहता है। यही कारण है कि वह प्रत्याख्यान के, त्याग के सही स्वरूप के बारे में जानना चाहता है। प्रत्याख्यान की, त्याग की विधि जानना चाहता है। __ ऐसे शिष्य की जिज्ञासा शान्त करने के लिए आचार्यदेव ३४वीं व ३५वीं गाथा में प्रत्याख्यान का स्वरूप और विधि सोदाहरण स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है : सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥३४॥ जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी ॥३५॥ ( हरिगीत ) परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करें। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है॥३४॥ जिसतरह कोई पुरुष पर जानकर पर परित्यजे। बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ॥३५॥ जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त परपदार्थों का 'वे पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है ; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है। - ऐसा नियम से जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं। जिसप्रकार लोक में कोई पुरुष परवस्तु को 'यह परवस्तु है' - ऐसा जानकर परवस्तु का त्याग करता है; उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'ये परभाव हैं' -- ऐसा जानकर छोड़ देते हैं। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 गाथा ३४-३५ इन गाथाओं में प्रत्याख्यान का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट किया गया है। प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग होता है। वास्तविक त्याग तो परपदार्थों को 'पर' जानना ही है। जब हमने यह जान लिया कि ये पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, पर हैं तो उनका त्याग हो ही गया; क्योंकि त्याग करने के लिए यह जानने के अतिरिक्त और क्या करना है? प्रश्न – क्या उन्हें छोड़ना नहीं पड़ेगा? । उत्तर -जब उनका ग्रहण ही नहीं हुआ है तो फिर छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ खड़ा होता है। उन्हें तो मात्र अपना जाना गया था, उनका ग्रहण तो संभव ही नहीं है ; क्योंकि आत्मा में एक 'त्यागोपादानशून्यत्व' नाम की शक्ति है; जिसके कारण यह भगवान आत्मा पर के ग्रहणत्याग से शून्य है। यह शक्ति बताती है कि आत्मा में ऐसा कोई स्वभाव ही नहीं है कि जिसके कारण वह परपदार्थों का ग्रहण और त्याग करे। आजतक इस आत्मा ने किसी परपदार्थ का ग्रहण किया ही नहीं है तो फिर त्याग भी किसका करे ? इसने तो अपने अज्ञान से पर को मात्र अपना जाना था, माना था। इसके इस जानने-मानने के कारण यह तो अज्ञानी हो गया, मिथ्यादृष्टि हो गया; पर कोई पदार्थ इसका हुआ नहीं, हो सकता नहीं। अत: पर के त्याग की कोई समस्या नहीं है; मात्र जिन पदार्थों को अज्ञान से अपना जाना-माना है; उन्हें अपना जाननामानना ही छोड़ना है, यही पर का त्याग है; इसकारण प्रत्याख्यान भी ज्ञान ही है, इससे अन्य कुछ नहीं। पर को अपना जानना-मानना त्यागना ही सच्चा त्याग है, प्रत्याख्यान है । यही बताना इन गाथाओं का मूल प्रतिपाद्य है। इन गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गाया "यह ज्ञाता-दृष्टा भगवान आत्मा अन्यद्रव्यों के स्वभाव से होनेवाले अन्य समस्त परभावों को, अपने स्वभावभाव से व्याप्त न होने के कारण Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन पररूप जानकर त्याग देता है; इसलिए यह सिद्ध हुआ कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; अन्य कोई त्याग करनेवाला नहीं है । इसप्रकार आत्मा में निश्चय करके प्रत्याख्यान के समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभाव की उपाधिमात्र से प्रवर्तमान त्याग के कर्तृत्त्व का नाम होने पर भी परमार्थ से देखा जाय तो परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम अपने को नहीं है; क्योंकि स्वयं तो ज्ञानस्वभाव से च्युत नहीं हुआ है । इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही है - ऐसा अनुभव करना चाहिए । । - जिसप्रकार कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी हो रहा है; किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खींचता है, उसे नंगा कर कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आ गया है; अतः मुझे दे दे' कह गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह उस वस्त्र की सर्वचिन्हों से भली-भांति परीक्षा करके 'अवश्य यह वस्त्र दूसरे का ही है' • ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है । तब बारम्बार - - 312 - इसीप्रकार आत्मा भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपना मानकर, अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है। किन्तु जब श्रीगुरु परभाव का विवेक करके, भेदज्ञान करके; उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा एक ज्ञानमात्र ही है, अन्य सब परद्रव्य के भाव हैं '; तब बारम्बार कहे गये इस आगम वाक्य को सुनता हुआ वह समस्त स्व-पर के चिन्हों से भली-भांति परीक्षा करके, 'अवश्य ये भाव परभाव ही हैं, मैं तो एक ज्ञानमात्र ही यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ सर्व परभावों को तत्काल ही छोड़ देता है ।" · Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 313 गाथा ३४-३५ यहाँ धोबी के घर से भ्रमवश भूल से लाये गये वस्त्र को अपना मानकर सोनेवाले पुरुष और उसे जगाकर वस्तुस्थिति का ज्ञान करानेवाले पुरुष का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि यह आत्मा अनादि से ही परपदार्थों को अपना मानकर स्वयं अज्ञानी हो रहा है, किन्तु जब सद्गुरु समझाते हैं कि हे भाई; ये परभाव तेरे नहीं हैं, तू तो इनसे भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा है; तब सद्गुरु के बारम्बार समझाने से सचेत हुआ यह आत्मा समस्त परपदार्थों से एकत्वबुद्धि छोड़ देता है, अपनापन तोड़ देता है, उससे मुँह मोड़ लेता है और अपने में अपनापन जोड़ लेता है । यह सम्पूर्ण क्रिया-प्रक्रिया ज्ञान में ही सम्पन्न होती है; क्योंकि परपदार्थ तो अपने कभी हुए ही नहीं है, मात्र उन्हें अपना जाना था, और अब उन्हें अपना जानना छोड़ दिया है। अतः सबकुछ ज्ञान में ही घटित हुआ है। अत: ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। इस बात को कविवर पण्डित बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं कोऊ जन गयौ धोबी कै सदन तिन, पहिर्यो परायौ वस्त्र मेरौ मानि रह्यौ है। धनी देखि कह्यौ भैया यह तौ हमारौ वस्त्र, चीन्, पहिचानत ही त्यागभाव लह्यौ है। तैसैं ही अनादि पुद्गल सौं संयोगी जीव, संग के ममत्व सौं विभावता मैं बह्यौ है। भेदज्ञान भयौ जब आपौ पर जान्यौ तब, न्यारौ परभाव सौं स्वभाव निज गह्यौ है ॥३२॥ जिसप्रकार कोई व्यक्ति धोबी के घर से दूसरे के वस्त्र को ले आया और उसे अपना मानकर पहन लिया। जब उस वस्त्र के मालिक ने कहा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 समयसार अनुशीलन कि यह वस्त्र तो मेरा है। उसके यह कहने पर चिन्हों से पहिचानते ही उसमें त्याग भाव आ जाता है । उसीप्रकार यह आत्मा अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग में है और उसे अपना मानकर विभावभावों में बह रहा है; किन्तु जब भेदज्ञान हुआ तो अपने और पराये की पहिचान हो गई और उसी समय परभाव से न्यारा हो गया और स्वभाव में आ गया। उक्त सम्पूर्ण कथन में एक बात पर विशेष बल दिया जा रहा है कि जिसप्रकार यह पता चलते ही कि 'यह वस्त्र मेरा नहीं है', तत्काल ही त्यागभाव आ जाता है; जानने, पहिचानने और त्यागभाव आने में समयभेद नहीं है, तीनों एक काल में ही होते हैं । इसीप्रकार परपदार्थों और उनके भावों को जब पररूप जानते हैं तो उसी समय उनसे अपनापन टूट जाता है और उनके त्याग का भाव आ जाता है । यह बात अलग है कि तत्काल उस वस्त्र को वह व्यक्ति छोड़ न पावे; क्योंकि जबतक दूसरे वस्त्र की व्यवस्था न हो जावे, तबतक लाज की सुरक्षा के लिए कदाचित् उसे ओढ़े रहना पड़े, तो भी उसमें से अपनापन टूट जाता है, त्यागभाव आ जाता है । उसीप्रकार रागादि भावों को पर जान लेने पर भी कुछ कालतक रागादिभावों का संयोग देखा जा सकता है, पर उनसे अपनापन पूरी तरह टूट जाता है । जब अपनापन छूट गया तो एक दिन वे भी अवश्य छूट जावेंगे । हाँ, एक बात यह भी तो है कि उनसे अपनापन टूटते ही अनन्तानुबंधी संबंधी राग भी नियम से छूट जाता है; क्योंकि मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबंधी कषाय भी जाती ही है । अत: यह सुनिश्चित ही है कि श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि एक साथ ही आरंभ होती है। इनकी पूर्णता में कालभेद हो सकता है; पर आरंभ में, उत्पत्ति में कलमंद नहीं होता । सम्यग्दर्शन चतुर्थगुणस्थान में ही पूर्ण हो जाता है, क्योंकि किन्हीं - किन्हीं को क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में ही हो जाता है। ज्ञान Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 315 भी सम्यक तो चौथे गुणस्थान में हो जाता है, पर उसकी पूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है; क्योंकि क्षायिकज्ञान की प्राप्ति केवलज्ञान की प्राप्ति, सर्वज्ञता की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में होती है। इसीप्रकार सम्यक् चारित्र की पूर्णता बारहवें गुणस्थान में होती है; क्योंकि पूर्ण वीतरागता वहीं प्रगट होती है । चारित्रमाहनीय का नाश दशवें गुणस्थान के अन्त में होता है और उसके बाद तत्काल वारहवें गुणस्थान में क्षायिकचारित्र प्रगट हो जाता है । F इसप्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनकी उत्पत्ति, इनका आरंभ तो एकसाथ होता है; पर पूर्णता में कालभेद पड़ता है। प्रश्न - यहाँ तो आप कह रहे हैं कि जानने और त्यागने में कालभेद नहीं है और आत्मख्याति में कहा था कि जो पहले जानता हैं, वही बाद में त्याग करता है। इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध क्यों है ? गाथा ३४.३५ उत्तर - कोई विरोध नहीं है; क्योंकि जिस समय पर से भिन्नता का ज्ञान होता है, उसी समय त्यागभाव भी आ जाता है । यहाँ कारणकार्य संबंध बताने के लिए ही ऐसा कहा है कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है । - - इसीप्रकार का प्रश्न उठाकर स्वामीजी उसका समाधान इसप्रकार करते हैं - "प्रश्न जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; दूसरा कोई त्यागनेवाला नहीं है । इसका क्या अर्थ है ? १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, उत्तर - ज्ञानस्वभाव में विभाव या विकल्प व्यापने योग्य नहीं है • ऐसा जाननेवाला ज्ञातापुरुष विभावरूप नहीं परिणमता, तब उसे ही राग को त्यागनेवाला कहा जाता है ।" पृष्ठ ८१ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 316 जाननेवाला ऐसा जानता है कि मैं तो स्वभाव से देखने-जाननेवाला हूँ। पुण्य-पाप के भाव मेरे स्वभाव नहीं होने से परभाव हैं । अत: उन्हें जानकर उनका त्याग करता है, अर्थात् वहाँ से हटकर स्वरूप में ठहरता है। इसीकारण जो पहले जानता है, वहीं पीछे त्याग करता है - ऐसा कहा है।" __ आत्मख्याति में जहाँ यह लिखा है कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; वहीं अन्त में निष्कर्ष के रूप में यह भी लिखा है कि ज्ञान ही प्रत्याख्यान है । जब ज्ञान ही प्रत्याख्यान है तो फिर ज्ञान और प्रत्याख्यान में, जानने और त्यागने में कालभेद कैसे हो सकता है? ___ आत्मख्याति की यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम होने पर भी परमार्थ से परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम भी नहीं है। वस्तुत: बात यह है कि आत्मा ने परभाव को जब ग्रहण ही नहीं किया है, तब त्याग की बात भी कैसे हो सकती है? अज्ञान से परवस्तु को अपनी जाना था, माना था; इसलिए पर को निज जानने-मानने का ही त्याग होता है । उसमें भी करना क्या है? मात्र यह जानना ही तो है कि परभाव मेरे नहीं है। यह जानने का नाम ही त्याग है । इसप्रकार जानना ही तो त्याग ठहरा, जानने के अतिरिक्त और क्या करना है, जिसे त्याग करना कहा जाय? इस बात को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि के जो अस्थिरता का रागरूप परिणमन है ; उस रागरूप होकर रहने का मेरा स्वरूप नहीं है - ऐसा जानकर अन्दर स्वरूप में स्थिर हुआ, तब स्वरूप स्थिरता के काल में राग की उत्पत्ति ही नहीं हुई। अत: राग का त्याग किया - ऐसा नाममात्र कथन करने में आता है। परमार्थ से राग के त्याग का कर्ता १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ८१.-८२ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 317 गाथा ३४-३५ आत्मा नहीं है अर्थात् पर भाव के त्याग के कर्तापने का नाम भी आत्मा के नहीं है। परद्रव्य को पररूप से जाना तो परभाव का ग्रहण नहीं हुआ, वही उसका त्याग है । राग की ओर उपयोग के जुड़ान से जो अस्थिरता थी; उस ज्ञानोपयोग के ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा में स्थिर होने पर अस्थिरता उत्पन्न ही नहीं हुई, बस इसे ही प्रत्याख्यान कहते हैं। इसलिए स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई भाव प्रत्याख्यान नहीं है। ज्ञायक चैतन्यसूर्य में ज्ञान का स्थिर हो जाना ही प्रत्याख्यान है।" ___ आत्मा को जानना ज्ञान है और आत्मा को ही लगातार जानते रहना प्रत्याख्यान है, त्याग है, ध्यान है। प्रत्याख्यान, त्याग और ध्यान - ये सभी चारित्रगुण के ही निर्मल परिणमन हैं; जो ज्ञान की स्थिरतारूप ही हैं । अत: यह ठीक ही कहा है कि स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। जयचन्दजी छाबड़ा ३४वीं गाथा के भावार्थ में लिखते हैं - "आत्मा को परभाव के त्याग का कर्तृत्व है, वह नाममात्र ही है। वह स्वयं तो ज्ञानस्वभावी है। परद्रव्य को पर जाना और फिर परभाव का ग्रहण नहीं करना ही त्याग है। इसप्रकार स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव नहीं है।" । आचार्य जयसेन तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि - "इसलिए निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान ही नियम से प्रत्याख्यान है - ऐसा मानना चाहिए, जानना चाहिए, अनुभव करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि परमसमाधिकाल में स्वसंवेदनज्ञान के बल से जो शुद्धात्मा का अनुभव होता है, वह स्वानुभव ही निश्चय प्रत्याख्यान है।" १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ८३ २. वही, पृष्ठ ८५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 318 अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव कलशकाव्य के रूप में कहते हैं कि दृष्टान्त द्वारा जो यह बात समझाई गई है, उसका प्रभाव क्षीण होने के पहले ही आत्मानुभव प्रगट हो जाता है, हो जाना चाहिए। उग्र पुरुषार्थ से आत्मानुभव करने की प्रेरणा देनेवाला वह कलशकाव्य इसप्रकार ( मालिनी ) अवतरित न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगा दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ॥२९ ।। ( हरिगीत ) परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती॥ व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अतिशीघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही॥२९॥ जबतक वृत्ति अत्यन्त वेग से प्रवृत्ति को प्राप्त न हो, अवतरित न हो और परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि पुरानी न पड़े, फीकी न हो जाय; उसके पहले ही सम्पूर्ण अन्यभावों से रहित आत्मा की यह अनुभूति तत्काल स्वयं ही प्रगट हो गई। परभाव का त्याग कैसे होता है, आत्मानुभूति प्रगट कैसे होती है - इस बात को आचार्यदेव ने दृष्टान्त देकर बहुत ही अच्छी तरह समझाया है। श्रोताओं और पाठकों की समझ में भी बात आ गई है, उनके हृदय में आत्मानुभूति की भावना भी जग गई है; पर यदि ऐसे में उग्र पुरुषार्थ नहीं हुआ तो थोड़े ही समय में वृत्ति में मलिनता हो सकती है, समझ भी फीकी पड़ सकती है। अत: यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्षण है, महान अवसर है; इसे चूकना योग्य नहीं है। इसलिए यहाँ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 319 कलश २९ प्रेरणा दी जा रही है कि जबतक वृत्ति मलिन नहीं हो जाती और समझ भी फीकी नहीं हो जाती, उसके पूर्व ही उग्र पुरुषार्थ करके आत्मानुभूति प्रगट कर लेना चाहिए। यहाँ भाषा तो ऐसी है कि जबतक वृत्ति मलिन न हो पाई और परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि फीकी नहीं हो पाई; उसके पहले परभाव से भिन्न आत्मा की अनुभूति प्रगट हो गई; पर यह कहकर आचार्यदेव हमें उग्र पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देना चाहते हैं। साथ में यह भी बताना चाहते हैं कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के पूर्व की भूमिका इसप्रकार की होती है। सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों के साथ लगभग प्रतिदिन ही ऐसा होता है कि जब वे स्वाध्याय करते हैं, प्रवचन सुनते हैं तो उनके परिणामों में निर्मलता आती है, वृत्ति में निर्मलता आती है और आत्मा की बात भी समझ में आती है, चित्त में बैठती है; पर वहाँ से हटते ही वृत्ति मलिन हो जाती है, ज्ञानोपयोग भी अन्यत्र भटकने लगता है। यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई ! ऐसा नहीं होना चाहिए। होना तो ऐसा चाहिए कि जबतक वृत्ति में वेग उत्पन्न न हो, परभाव के त्याग की भावना फीकी न पड़े; उसके पहले ही आत्मानुभूति प्रगट हो जाना चाहिए। इसके लिए हमें निरन्तर भेदज्ञान की भावना को भाना चाहिए, नचाना चाहिए। चिन्तन की निरन्तरता में से ही रुचि की तीव्रता होगी, भावना का प्रबल वेग स्फुरायमान होगा और आत्मानुभूति की भूमिका तैयार होगी। ___धर्म का आरम्भ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म को कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है । साधक के लिए एकमात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है । - मैं कौन हूँ, पृष्ठ १० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३६ णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ॥ ३६॥ ( हरिगीत ) मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है मोह निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ ३६॥ स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि 'मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ' - ऐसा जो जानता है, वह मोह से निर्मम है। ___ गाथा के चौथे पद में कहा है कि समय को जाननेवाले ऐसा कहते हैं। 'समय' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। समय माने आत्मा, समय माने सिद्धान्त, समय माने शास्त्र/आगम, समय माने स्व और पर के भेदों में विभाजित होनेवाले छहों द्रव्य। इनके अतिरिक्त भी अनेक अर्थ होते हैं । अत: जहाँ जैसा प्रकरण हो, वहाँ वैसा ही अर्थ करना उचित माना जाता है। चूंकि यहाँ स्व-पर के विभाग की बात चल रही है, जिनसिद्धान्त की बात चल रही है; अत: यहाँ ऐसा अर्थ किया गया है कि स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में इस गाथा की जो उत्थानिका लिखी, उसमें लिखा है कि इस अनुभूति से परभाव का भेदविज्ञान कैसे होता है - ऐसी आशंका करके पहले भावकभाव से भेदज्ञान कराते हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि ३१वीं गाथा में ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के परिहार की बात की थी और ३२वीं गाथा में भाव्य-भावकसंकर दोष के परिहार की। अब यहाँ ३६वीं गाथा में पहले भावक-भाव से Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 321 गाथा ३६ भेदविज्ञान कराते हैं और ३७वीं गाथा में ज्ञेयभावों से भेदविज्ञान करायेंगे। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए पंडित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "यह मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य है; उसका उदय कलुषभावरूप है। वह भाव भी मोहकर्म का भाव होने से पुद्गल का ही विकार है। यह भावक का भाव जब चैतन्य के उपयोग के अनुभव में आता है; तब उपयोग भी विकारी होकर रागादिरूप मलिन दिखाई देता है । जब उसका भेदज्ञान हो कि 'चैतन्य की शक्ति की व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोग मात्र है और यह कलुषता राग-द्वेष-मोहरूप है; वह द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गल द्रव्य की है' - तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोह का भाव है, उससे अवश्य भेदभाव होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्य के अनुभवरूप स्थित होता है।" उक्त भावार्थ में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि जानने-देखनेरूप परिणमन तो चैतन्यशक्ति की व्यक्तता है और राग-द्वेषरूप कलुषता भावकभाव होने से द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्य की है। जब यह कलुषता ज्ञान में ज्ञात होती है तो ज्ञान भी मलिन दिखाई देता है, पर ज्ञान मलिन हो नहीं जाता। यदि इस ज्ञान की और राग की भिन्नता जान ली जावे तो आत्मा अपने अनुभव में अवश्य स्थित होता है। इस गाथा के अभिप्राय को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "निश्चय से फलदान की सामर्थ्य से प्रगट होकर भावकरूप होनेवाले पुद्गलद्रव्य से रचित मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभाव का परमार्थ से पर के भाव द्वारा भाया जाना (भाव्यरूप करना) अशक्य है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 322 दूसरी बात यह है कि स्वयं ही निरन्तर विश्व को प्रकाशित करने में चतुर और विकासरूप शास्वत प्रताप संपत्ति सहित वह भगवान आत्मा ही चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभाव के द्वारा जानता है कि 'परमार्थ से मैं एक हूँ।' यद्यपि समस्त द्रव्यों के परस्पर साधारण अवगाह का निवारण करना अशक्य होने से मेरा आत्मा और जड़पदार्थ श्रीखण्ड की भाँति एकमेक हो रहे हैं; तथापि श्रीखण्ड की ही भांति स्पष्ट अनुभव में आनेवाले स्वादभेद के कारण 'मैं मोह के प्रति निर्मम ही हूँ'; क्योंकि सदा अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है। इसप्रकार भावक-भाव से भेदज्ञान हुआ।" __यहाँ श्रीखण्ड का उदाहरण देकर समस्त द्रव्यों का परस्पर एक क्षेत्रावगाह भी समझाया और परस्पर की भिन्नता भी स्पष्ट कर दी गई है। श्रीखण्ड दही और चीनी मिलाकर बनाया जाता है। श्रीखण्ड में दही और चीनी एक जैसे ही दिखाई देते हैं; पर चखने पर दही की खटास और चीनी की मिठास अलग-अलग जानने में आती है; इससे पता चलता है कि मिले हुए दिखाई देने पर भी वस्तुत: वे मिले हुए नहीं हैं ; क्योंकि यदि पूर्णत: मिल जाते, मिलकर एक हो जाते तो उनका भिन्न-भिन्न स्वाद आना संभव नहीं था। ___ इसीप्रकार जाननेवाली ज्ञातृता और जानने में आनेवाला मोह यद्यपि अज्ञानी को अभेद ही अनुभव में आते हैं; तथापि स्वादभेद के कारण उनकी भिन्नता जानी जा सकती है। निराकुलस्वादवाला ज्ञान और आकुलतास्वादवाला मोह ज्ञान में पृथक्-पृथक् ही भासित होते हैं। इससे ज्ञानी आत्मा निर्णय कर लेते हैं कि 'आकुलतास्वादवाला मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो निराकुलस्वादवाला ज्ञान ही हूँ ।' - इसी को ज्ञानीजन मोह से निर्ममता कहते हैं। इस गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी कहते हैं - Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32:3 गाथा ३६ ___ "यहाँ कहते हैं कि पुद्गलद्रव्य भावकरूप होकर मोह की रचना करता है । यहाँ जो मोह की बात है, वह चारित्रमोह की अपेक्षा से है: सम्यग्दर्शन के बाद की बात है, मिथ्यात्व की बात नहीं है । पर की ओर झुकनेवाला भाव (राग-द्वेष) ही मोह है । वह मोह मेरा कोई भी संबंधी नहीं है। पर की ओर सजग रहने का जो भाव है, वह मेरा नहीं है। परन्तु अपने स्वभाव की ओर सजग रहने का भाव मेरा है । भावकरूप मोहकर्म और उसकी ओर झुकनेवाले भावों के साथ मेरा कोई भी संबंध नहीं है; क्योंकि एक चैतन्यधातु ज्ञायकस्वभाव का परमार्थ से परभावरूप होना या भाव्यरूप होना अशक्य है। जिसप्रकार कर्म भावकरूप होता है, तब मोह होता है; उसीप्रकार मैं ज्ञानदर्शन-उपयोगस्वभावी तत्त्व हूँ, जिससे मेरी पर्याय में ज्ञानदर्शन शक्ति की व्यक्तता होती है । यह व्यक्ततारूप उपयोग मेरी चीज है; किन्तु मोह मेरी चीज नहीं है। कर्म के निमित्त से हुआ राग-द्वेष का परिणाम जो उपयोग में झलकता है, वह मैं नहीं हूँ; क्योंकि एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक- स्वभावभावरूप शुद्धचैतन्य उपयोगस्वभावी वस्तु का विकाररूप (भाव्यपने) होना अशक्य है। ___ मैं तो चैतन्यशक्ति स्वभाववाला तत्त्व हूँ, इसलिए मेरा जो विकास होता है, वह भी जानने-देखने के परिणामरूप से ही होता है । भावकर्म के निमित्त से जो विकार होता है, वह भी मेरा विकास नहीं है। पर्याय में भी विकार न हो - ऐसा मेरा स्वरूप है। शक्तिरूप से तो आत्मा ज्ञायक है ही, किन्तु उसकी जो व्यक्तता/प्रगटता होती है, वह भी ज्ञानदर्शन उपयोगस्वरूप ही होती है।" आचार्य जयसेन कहते हैं कि एक विशेष बात यह है कि पूर्व गाथा में जिस स्व-संवेदनज्ञान को प्रत्याख्यान कहा था, उसे ही यहाँ निर्ममत्व या निर्मोहत्व कहते हैं। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १०७ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १०८ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन जिसप्रकार जितमोह और क्षीणमोह में मोह पद के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि पद रखकर १६ - १६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करने की बात कही थी; उसीप्रकार यहाँ भी १६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करने की बात आचार्य अमृतचन्द्र व जयसेन दोनों कहते हैं । वे गाथायें इसप्रकार बनाई जा सकती हैं । C ( हरिगीत ) रागादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है राग निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ द्वेषादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है द्वेष निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ क्रोधादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है क्रोध निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ इसीप्रकार अन्य गाथायें भी बना लेना चाहिए । — 324 इनकी व्याख्या भी इसप्रकार की जा सकती है कि कर्म भावक हैं और राग उसका भाव्य है । वह राग मैं नहीं हूँ; क्योंकि मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ । यद्यपि वह राग मेरे ज्ञान में ज्ञात होने योग्य है; तथापि वह राग मेरे ज्ञान में तद्रूप हो जावे ऐसा मेरा स्वभाव नहीं है इसीप्रकार द्वेष, क्रोध, मानादि पर भी लगा लेना चाहिए। 1 प्रश्न – यहाँ सोलह गाथायें ही बनानी हैं या और भी बनाई जा सकती हैं ? उत्तर - हाँ, हाँ; और भी बनाई जा सकती हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का ऐसा ही आदेश है । आचार्य जयसेन तो यहाँ तक कहते हैं कि विभावभाव असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः असंख्यात गाथायें बनाई जा सकती हैं; पर असंख्यात बनाना तो सम्भव नहीं है । अतः जितनी आपकी सामर्थ्य है, उतनी तो बनाई ही जानी चाहिये । प्रश्न – दो-चार गाथायें बनाकर बताइये न ? Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 कलश ३० उत्तर -जिसप्रकार पहले हास्यादि नोकषायों के आधार पर गाथायें बनाई थी; उसीप्रकार यहाँ भी बनाई जा सकती हैं। ( हरिगीत ) हास्यादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है हास्य निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय॥ रति आदि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है रती निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय। अरति आदि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है अरति निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।। शोकादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है शोक निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ इसीप्रकार और भी बना लेना चाहिये। अब इसी भावना को पुष्ट करनेवाला कलशकाव्य लिखते हैं : ( स्वागता ) सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्। नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ ( हरिगीत ) सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ॥ यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ॥३०॥ इस लोक में मैं स्वयं ही अपने एक आत्मस्वरूप का अनुभव करता हूँ, जो चारों ओर से अपने चैतन्यरस से भरपूर है । यह मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो शुद्ध चैतन्य के समूहरूप तेजपुंज का निधान हूँ। इस छन्द का भावानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 326 ( अडिल्ल ) कहैं विचच्छन पुरुष सदा मैं एक हौं। अपने रस सौं भर्यो आपनी टेक हौं। मोहकर्म मम नांहि नांहि भ्रमकूप है। सुद्धचेतना सिन्धु हमारौ रूप है॥ ३३॥ ज्ञानी जीव कहते हैं कि मैं सदा एक ही हूँ और अपने अतीन्द्रिय आनन्द के रस से सरावोर हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं है। मोहकर्म और उसके उदय में होने वाले भाव किसी भी रूप में मेरे नहीं है, उन्हें अपना मानना भ्रम के कुयें में पड़ना है और मेरा स्वरूप शुद्ध ज्ञान-दर्शन चेतना का सागर है। कलश में 'नास्ति' शब्द दो बार आया है। जब कोई शब्द दो बार आता है तो उसका अर्थ मात्र दो बार ही नहीं होता, अनेक बार होता है। जैसे कोई कहे कि 'तू बार-बार यही बात करता है ' तो इसका अर्थ दो बार नहीं होता, अपितु अनेक बार होता है। आचार्य कहते हैं कि भाई तुम बारंबार यह विचार करो कि मोह मेरा कुछ भी नहीं है। दो बार 'नास्ति' शब्द का प्रयोग करके आचार्यदेव इस बात पर वजन डालना चाहते हैं । वे यह कहना चाहते हैं कि चाहे एकबार कहो या हजारबार कहो; बात तो यही है कि मोहादि विकारीभाव और परपदार्थ मेरे कुछ भी नहीं हैं। __ प्रश्न -गाथा और कलश में तो अकेले मोह के बारे में ही कहा है और आपने उसके साथ परपदार्थ भी जोड़ दिये? उत्तर –अरे भाई, आचार्यदेव ने 'मोह' पद बदलकर उसके स्थान पर राग आदि १६ पद जोड़कर १६ गाथायें बनाने का आदेश दिया है न । उनमें कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय और पाँच इन्द्रियाँ भी आ गई हैं न। ये सब परपदार्थ ही तो हैं । अत: ये सभी मेरे कुछ भी नहीं हैं, मैं तो एक शुद्धचिद्घन की महानिधि हूँ, ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ, Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 कलश ३० अपने अतीन्द्रिय आनन्द के रस से भरा हुआ हूँ। मैं तो अपने में ही अपनापन अनुभव करता हूँ, इन मोहादि में मेरा रंचमात्र भी अपनापन नहीं है। कलश में तो 'चिद्घन' शब्द ही है, पर इसका विस्तार इसप्रकार किया जा सकता है कि मैं ज्ञानघन हूँ, दर्शनघन हूँ, आनंदघन हूँ, शक्तिघन हूँ। इसीप्रकार और भी अनेक गुणों का घनपिण्ड मैं हूँ; क्योंकि मैं तो अनन्तगुणों का घनपिण्ड हूँ और मोहादि विकारीभाव और शरीरादि परपदार्थ मेरे में रंचमात्र भी नहीं हैं। - ऐसी भावना तबतक भाना, जबतक कि इस चिद्घन आत्मा का अनुभव न हो जाय, हमारा उपयोग भी चिद्घनमय न हो जाय। बन्धन क्या है ? बन्धन तभी तक बन्धन है, जबतक बन्धन की अनुभूति है। यद्यपि पर्याय में बन्धन है, तथापि आत्मा तो अबन्धस्वभावी ही है। अनादिकाल से यह अज्ञानी प्राणी अबन्धस्वभावी आत्मा को भूलकर बन्धन पर केन्द्रित हो रहा है । वस्तुत: बन्धन की अनुभूति ही बन्धन है। वास्तव में मैं बँधा हूँ' – इस विकल्प से यह जीव बँधा है। ____ लौकिक बन्धन से विकल्प का बन्धन अधिक मजबूत है, विकल्प का बन्धन टूट जावे तथा अबन्ध की अनुभूति सघन हो जावे तो बाह्यबन्धन भी सहज टूट जाते हैं। __ बन्धन के विकल्प से, स्मरण से, मनन से दीनता-हीनता का विकास होता है। अबन्ध की अनुभूति से, मनन से, चिन्तन से शौर्य का विकास होता है; पुरुषार्थ सहज जागृत होता है। पुरुषार्थ की जागृति में बन्धन कहाँ ? – तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ५७ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३७ णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्य वियाणया बेंति ॥ ३७॥ ( हरिगीत ) धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है धर्मनिर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ ३७॥ स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि ये धर्म आदि द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ;ऐसा जो जानता है, वह धर्म आदि द्रव्यों से निर्मम है। __ ३६वीं गाथा में भावकभाव से भेदज्ञान की बात की थी। अब इस ३७वीं गाथा में ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान कराते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अपने आत्मा को छोड़कर अन्य सभी जीव, जिनमें अरहंत, सिद्ध आदि पंचपरमेष्ठी भी आ जाते हैं, शेष संसारीजीव तो हैं ही; - ये सभी ज्ञेय हैं । हमारे शरीर, मन, वाणी भी ज्ञेय ही हैं। इन सभी से मेरा भगवान आत्मा भिन्न है, उपयोगमय है। वह उपयोगमय निजभगवान आत्मा ही मैं हूँ और धर्मादि पदार्थ मेरे कुछ भी नहीं हैं। यह परमसत्य बात उन लोगों ने ही बताई है, जो आत्मा के अनुभवी हैं, सिद्धान्त के पारगामी, स्वमत और परमत के विशेषज्ञ हैं अथवा सर्वज्ञ परमात्मा हैं। इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "निजरस से प्रगट, अनिवार्य विस्तार और समस्त पदार्थों को ग्रसित करने के स्वभाववाली, प्रचण्ड चिन्मात्र शक्ति के द्वारा कवलित (ग्रासीभूत) किये जाने से मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों, ज्ञान में Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 329 पुद्गल और अन्य जीव इसप्रकार आत्मा में प्रकाशमान ये तदाकार होकर डूब रहे हों धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये समस्त परद्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्व से परमार्थत: अन्तरंग तत्त्व तो मैं हूँ और वे परद्रव्य मेरे स्वभाव से भिन्न स्वभाववाले होने से परमार्थत: बाह्यतत्त्वरूपता को छोड़ने में पूर्णतः असमर्थ हैं। गाथा ३७ - 66 -- दूसरे चैतन्य में स्वयं ही नित्य उपयुक्त और परमार्थ से एक अनाकुल आत्मा का अनुभव करता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि मैं प्रगट निश्चय से एक ही हूँ; इसलिए ज्ञेय - ज्ञायक भावमात्र से उत्पन्न परद्रव्य के साथ परस्पर मिले होने पर भी, प्रगट स्वाद में आते हुए स्वभाव के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवों के प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता । - इसप्रकार ज्ञेयभावों से भेदज्ञान हुआ।" । आत्मख्याति के भाव को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं 'चैतन्य की परिणति ऐसी प्रकाशमय है कि उसका फैलाव विस्तार किसी से रोका नहीं जा सकता । समस्त पदार्थों को ग्रसने का अर्थात् जानने का इसका स्वभाव है; चाहे वह शरीर हो, भगवान हो, मूर्ति हो, गुरु हो, शास्त्र हो, सभी ज्ञेयों को अपने स्वभाव से ही जानने का उसका स्वभाव है । ग्रसने का स्वभाव है अर्थात् ज्ञान में जान लेने का स्वभाव है। ज्ञान का स्वभाव समस्त पदार्थों को जानने का है, तथापि ज्ञान का परिणमन ज्ञेय के कारण नहीं होता । - - जैसे दर्पण में परवस्तु का जो प्रतिबिम्ब ज्ञात होता है, वह परवस्तु नहीं; दर्पण में वह परवस्तु आई भी नहीं है । तथा दर्पण में जो प्रतिबिम्ब पड़ा है, वह भी पर के कारण नहीं, किन्तु दर्पण की स्वच्छता के कारण है। परवस्तु मानो दर्पण में आ गई हो – ऐसा मालूम पड़ता है; तथापि Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन वह दर्पण की स्वच्छता की ही दशा है, वह कोई परवस्तु नहीं है । तथा सामने परवस्तु है, उसके कारण दर्पण की स्वच्छता की परिणति हुई है ऐसा भी नहीं है । — उसीतरह इस ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा का अपनी दशा में परवस्तु को जानने का, ग्रहण करने का, ग्रसने का, प्रवेश करने का स्वभाव है । समस्त पदार्थों को जानने का ज्ञान परिणति का स्वभाव है। चाहे सर्वज्ञ परमेश्वर हो, समवशरण हो या मन्दिर हो इन सभी को अपने चैतन्य प्रकाश की सामर्थ्य से जानने का स्वभाव है । ऐसी प्रचण्ड चिन्मात्रशक्ति से ग्रासीभूत होने से मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हैं • इसप्रकार समस्त पदार्थ आत्मा में प्रकाशमान हैं । 330 — I धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय पदार्थ हैं । ये जगत की वस्तुएं हैं । इन्हें केवली भगवान ने प्रत्यक्ष देखा जाना है। सर्वज्ञ परमेश्वर के सिवाय इन्हें अन्य किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा । १ समयसार गाथा ३२० में तो यहाँ तक आता है कि भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप है, वह बंध को भी जानता है, मोक्ष को भी जानता है, उदय को भी जानता है, निर्जरा को भी जानता है; वह तो मात्र जानता है । लो अब क्या बाकी रहा? स्वयं ज्ञानस्वभावी प्रभु है न? उसके लिए उदय भी परज्ञेय, बन्ध भी परज्ञेय, निर्जरा भी परज्ञेय और कर्म का छूटना भी परज्ञेय है; इसलिए आत्मा उदय, बन्ध, निर्जरा व मोक्ष को मात्र जानता है, करता नहीं । २ १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ११८-११९ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग- २, पृष्ठ १२१ अनादि से आत्मा का स्वभाव स्वपरप्रकाशक की सामर्थ्यवाला है | इसकारण जो ज्ञान पर को प्रकाशित करता है, वह पर के अस्तित्व के Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 गाथा ३७ कारण प्रकाशित नहीं करता। वास्तव में तो परसंबंधी अपना जो ज्ञान है, उसे ही वह प्रकाशित करता है। ____ भाई! चैतन्य की स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य को जिसने जाना नहीं, जिसने अनुभव में उसकी सत्ता को स्वीकार किया नहीं, उसे धर्म भी कहाँ से हो, कैसे हो? प्रश्न –यहाँ 'ज्ञेयज्ञायकभावमात्र से' - ऐसा जो कहा, उसका क्या तात्पर्य है? उत्तर – तात्पर्य यह है कि 'मैं ज्ञायक हूँ और ये परज्ञेय हैं' - यह तो कहनेमात्र का संबंध है। ऐसा ज्ञेय-ज्ञायक संबंध होने से परद्रव्यों का जैसा स्वरूप है, वैसा ज्ञान होता है । परन्तु प्रगट स्वाद में आने पर स्वभावभेद के कारण 'वे मुझसे भिन्न हैं' - ऐसा ज्ञान भी होता है। मेरी आत्मा का स्वाद अतीन्द्रिय आनन्द है, जबकि धर्मास्तिकाय आदि परज्ञेय मुझसे भिन्न हैं। अहाहा! भगवान के द्वारा देखे-जाने गये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश, काल, अन्यजीव व कर्म आदि पुद्गलद्रव्य - ये सब परज्ञेय हैं और मैं तो ज्ञानस्वभाव में स्थित ज्ञायक अतीन्द्रिय आनन्द से भरा हुआ भगवान हूँ ।" वस्तुत: बात यह है कि आत्मा स्वभाव से ही स्व-परप्रकाशक है। अत: वह स्वभाव से ही स्व को भी जानता है और पर को भी जानता है। वह पर को पर के कारण नहीं जानता है, अपितु अपने स्वभाव के कारण ही जानता है। ऐसा होने पर भी जो पर पदार्थ सहजभाव से ज्ञान में ज्ञात होते हैं, अज्ञानी जीव उन्हें अपना मान लेता है, उनमें अपनत्व स्थापित कर लेता है, उनमें ममत्व कर लेता है; वह उनसे निर्ममत्व नहीं रह पाता है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२१ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२३ ३. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १२५ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन किन्तु ज्ञानी धर्मात्मा यह अच्छी तरह जानते हैं कि ये धर्मादिद्रव्यरूप परपदार्थ मेरे नहीं हैं; क्योंकि ये मेरे स्वभाव से भिन्न हैं। मैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी हूँ, स्वयं के लिए अन्तरंगतत्त्व हूँ और ये मुझसे भिन्न बहिरंगतत्त्व हैं । आचार्यदेव कहते हैं कि भले ही ये ज्ञान में तदाकार होकर डूब रहे हों, अत्यन्त अर्न्तमग्न हो रहे हों, तथापि ये मेरे नहीं हैं । 332 दूसरी बात यह है कि यद्यपि स्व और पर दोनों एकसमय ही ज्ञान में ज्ञात हो रहे हैं; तथापि दोनों का स्वाद भिन्न-भिन्न है । भिन्न-भिन्न स्वाद के कारण मैं धर्मादि अजीवद्रव्यों एवं मेरे से भिन्न जीव द्रव्यों के प्रति पूर्णत: निर्मम हूँ; क्योंकि मैं एकत्व को प्राप्त होने से सदा ही ज्यों का त्यों स्थिर रहता हूँ। अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता । पर में से अपनापन टूटना, एकत्व टूटना और अपने में अपनापन आना, एकत्व आना ही ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान होना है । परपदार्थ के पास जाये बिना और परपदार्थ भी पास में आये बिना ही ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का है । पर इस जानने का पर के साथ कोई संबंध नहीं है; क्योंकि पर को जानना भी तो आत्मा का स्वयं का ही स्वभाव है । प्रश्न – यह क्या बात हुई, जब हमने पर को जाना और परपदार्थ हमारे जानने में आया तो ज्ञेय-ज्ञायक संबंध तो हो ही गया। आप इस ज्ञेय - ज्ञायक संबंध से क्यों इन्कार करते हो? उत्तर – भाई, समझने की कोशिश करो! यद्यपि इसे ज्ञेय - ज्ञायक संबंध कहा जाता है; पर इसमें संबंध की क्या बात है ? ज्ञेय ज्ञेय में रहा, ज्ञान ज्ञान में रहा; ज्ञान ज्ञेय में नहीं गया और ज्ञेय ज्ञान में नहीं आया । जब दोनों पूर्ण स्वतंत्र ही रहे तो फिर किस बात का संबंध? केवली भगवान का लोकालोक से क्या संबंध है? यही न कि लोकालोक केवलज्ञान में झलकते हैं और केवलज्ञान लोकालोक को जानता है; पर इतने मात्र से केवली भगवान किसी के संबंधी तो नहीं हो जाते; Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 कलश ३१ वे तो जगत से पूर्णत: असंबंधित ही रहते हैं; उन्हें जगत से असंयुक्त ही माना जाता है । केवली के समान सभी ज्ञानी जगत से असंयुक्त ही हैं । यद्यपि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को संबंध कहा जाता है, पर यह कोई संबंध नहीं है; क्योंकि इसमें कोई बन्धन नहीं है। ज्ञेय भिन्न हैं और ज्ञान भिन्न हैं - यह जानना ही ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान है । बस यही भाव इस गाथा का मूल प्रतिपाद्य है। ___ अब ३६वीं एवं ३७वीं गाथा की विषयवस्तु को समेटते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( मालिनी ) इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्। प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः ।। कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः॥३१॥ ( हरिगीत ) बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता। तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया। प्रकटित हुआ परमार्थ अर दृग ज्ञान वृत परिणत हुआ। तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा।।३१ ।। इसप्रकार भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता भासित हुई, विवेक जागृत हुआ; तब यह उपयोग स्वयं ही एक अपने आत्मा को ही धारण करता हुआ, दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप से परिणत होता हुआ, परमार्थ को प्रकट करता हुआ अपने आत्माराम में ही प्रवृत्ति करता है, आत्मारूपी बाग में ही रमण करता है, अन्यत्र नहीं भटकता। इस कलश का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 334 "सर्व परद्रव्यों से तथा उनसे उत्पन्न हुए भावों से जब भेद जाना; तव उपयोग के रमण के लिए अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ एकरूप हुआ वह आत्मा में ही रमण करता है - ऐसा जानना।" यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव यह कहना चाहते हैं कि जब भावकभावों और ज्ञेयपदार्थों से आत्मा की भिन्नता भली-भाँति भासित हो गई; तब उपयोग को अन्यत्र भटकने का अवकाश ही नहीं रहा। इसकारण उपयोग अपने आप ही अपने में स्थिर हो गया। पर-पदार्थों से अपनापन टूट गया, अपने में अपनापन आ गया और उपयोग अपने में ही समा गया। इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट हो गया, भगवान आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत हो गया। ___३४ व ३५वीं गाथा में प्रत्याख्यान (त्याग) का स्वरूप सोहादरण स्पष्ट किया था। उसके बाद ३६ व ३७वीं गाथा में भावकभावों और ज्ञेयभावों से भिन्नता की भावना को भरपूर नचाया। परिणामस्वरूप परमार्थ प्रगट हो गया, आत्मा दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो गया; स्वयं को जानकर, स्वयं में ही अपनापन स्थापित कर, स्वयं में ही समा गया; आत्माराम में ही प्रवृत्त हो गया। - यह बात इस कलश में स्पष्ट कर दी गई है। __ अब आगामी गाथा में यह स्पष्ट करेंगे कि इसप्रकार दर्शन-ज्ञानचारित्र-रूप परिणमित ज्ञानी धर्मात्मा अपने आत्मा के सन्दर्भ में क्या सोचता है, क्या विचारता है? ___ अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है; यही कारण है कि अपने अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा अधर्म है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ ४६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३८ अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसप्रकार दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणत आत्मा को स्वरूपसंचेतन कैसा होता है? तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त आत्मा, मोक्षमार्ग में स्थित आत्मा स्वयं के सम्बन्ध में क्या सोचता है, अपने आत्मा के बारे में क्या सोचता है; उसकी चिन्तन-प्रक्रिया कैसी होती है? इसी प्रश्न के उत्तर में ३८वीं गाथा का जन्म हुआ है, जो इसप्रकार है - अहमेक्को खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि॥३८॥ ( हरिगीत ) मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥ ३८॥ दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय से मैं सदा ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ और अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं, परमाणुमात्र भी मेरे नहीं हैं। ज्ञानी आत्मा के इसप्रकार के निरन्तर चिन्तन से उपशमित मोह के पुन: उत्पन्न होने के अवसर समाप्त हो जाते हैं । इस बात को जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "आत्मा अनादिकाल से मोह के उदय से अज्ञानी था, वह श्रीगुरुओं के उपदेश से और स्वकाललब्धि से ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूप को परमार्थ से जाना कि मैं एक हूँ, शूद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ। ऐसा जानने से मोह का समूल नाश हो गया, भावकभाव और ज्ञेयभाव Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 समयसार अनुशीलन से भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसम्पदा अनुभव में आई; तब फिर पुनः मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है?" इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "जिसप्रकार कोई पुरुष अपनी मुट्ठी में रखे सोने को भूल गया हो, पर किसी के ध्यान दिलाने पर या स्वयं स्मरण आ जाने पर उसे देखे और आनन्दित हो; उसीप्रकार (उसी न्याय से) अनादि मोहरूप अज्ञान से उन्मत्तता के कारण जो आत्मा अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अपने परमेश्वर आत्मा को भूल गया था; विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने पर, किसीप्रकार समझकर, सावधान होकर; अपने आत्मा को जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके, उसमें तन्मय होकर, जो सम्यक्प्रकार एक आत्माराम हुआ, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हुआ; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त हुआ; वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि – मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूँ और मेरे अनुभव से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता हूँ। ___ मैं एक हूँ; क्योंकि चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता। ___ मैं शुद्ध हूँ; क्योंकि नर, नारकादि जीव के विशेष और अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष स्वरूप व्यवहारिक नवतत्वों से टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावरूप भाव के द्वारा अत्यन्त भिन्न हूँ। ___ मैं दर्शन-ज्ञानमय हूँ; क्योंकि चिन्मात्र होने से सामान्य-विशेष उपयोगात्मकता का उल्लंघन नहीं करता। मैं परमार्थ से सदा ही अरूपी हूँ; क्योंकि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिसके निमित्त हैं - ऐसे संवेदनरूप परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं होता। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 337 • इसप्रकार सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं - प्रतापवन्त हूँ । गाथा ३८ इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए मुझमें मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा के द्वारा यद्यपि बाह्य समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं ; तथापि मुझे कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो भावकरूप और ज्ञेयरूप से मेरे साथ होकर मुझमें पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरस से ही मोह को पुनः अंकुरित न हो - इसप्रकार मूल से ही उखाड़कर, नाश करके; महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है । " यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव उत्तमपुरुष में बात करते हैं । सो ठीक ही है; क्योंकि मूल गाथा में भी उत्तमपुरुष में ही बात की गई है । 'इसप्रकार सबसे भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त हूँ । निजरस से ही मोह को मूल से उखाड़कर महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है । " वाक्यों का प्रयोग तो देखो, भाषा का जोर तो देखो। कितने आत्मविश्वास से भरे हुए वाक्य हैं और कितनी जोरदार प्रस्तुति है । उक्त कथन में प्रबल आत्मविश्वास भरा हुआ है। ज्ञानी जानता है कि अनन्त बाह्य पदार्थ मेरे ज्ञान में झलकते हैं तो इसमें क्या है? यह तो मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा है, इससे मुझे कोई भय नहीं है, इससे मुझे इन्कार भी नहीं; क्योंकि यह तो मेरे स्वभाव की ही विचित्रता है; इसमें कुछ भी ऐसा नहीं, जो मेरे लिए अहितकारी हो । मेरी स्वरूपसम्पदा में झलकने वाले परपदार्थ मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ते । हाँ, जब मैं उनमें अपनापन करता हूँ, उन्हें अपना जानता हूँ; तभी मोह उत्पन्न होता है; परन्तु मुझे तो ज्ञानप्रकाश प्रगट हो गया है; अतः मुझमें झलकते हुए भी वे पदार्थ मुझे मुझरूप भासित नहीं होते । अतः मुझमें मोह भी उत्पन्न नहीं करते । - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 338 परपदार्थों को जानने मात्र से उनसे मोह उत्पन्न नहीं होता, मोह तो उन्हें अपना जानने से; उन्हें अपना मानने से, उनमें जमने-रमने से उत्पन्न होता है। किन्तु मैंने पर में, ज्ञेयभावों में, भावकभावों में अपनेपन की मान्यता को निजरस के बल से जड़मूल से उखाड़ फेंका है और महान ज्ञानप्रकाश प्रगट किया है । अत: इस ज्ञानप्रकाश के रहते मुझे मोह के पुनः उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं है। इसप्रकार मैं सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ प्रतापवन्त हूँ। "विचित्रस्वरूपसम्पदा" पद को बाह्य समस्त पदार्थों का विशेषण भी बनाया जा सकता है। ऐसा करने पर यह अर्थ होगा कि समस्त बाह्य पदार्थ अपनी विचित्रस्वरूपसम्पदा के साथ मेरे ज्ञानदर्शन में स्फुरायमान हैं; तथापि कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझ रूप नहीं भासते कि जो भावकरूप और ज्ञेयरूप होकर मुझमें पुन: मोह उत्पन्न करें। इस अर्थ में भी वही भाव प्रतिफलित होता है। भले ही उनकी स्वरूप सम्पदा विचित्र हो, अनेक प्रकार की हो, अद्भुत हो और मुझे भासित भी हो रही हो; तथापि जब वे पदार्थ मुझे मुझरूप भासित नहीं होते, 'वे मेरे हैं ' मुझे ऐसा नहीं लगता; तब वे मुझमें मोह उत्पन्न कैसे कर सकते हैं? । दूसरी बात यह है कि उनमें प्रमेयत्व नाम का गुण है, जिनके कारण वे हमारे ज्ञान के ज्ञेय बनते हैं। यह उनकी स्वरूपसम्पदा है। वे अपनी इस स्वरूपसंपदा के कारण हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनते हैं और सबको जानना हमारी स्वरूपसंपदा है, जिसके कारण हम उन्हें जानते हैं। ऐसा होने पर भी वे हमारे नहीं हैं - इस महासत्य का ज्ञान हमें प्रगट हुआ है; इसकारण वे रंचमात्र भी हमें हमारे भासित नहीं होते। यही कारण है कि अब हमें उनके प्रति मोह पुनः अंकुरित नहीं होगा। स्वामीजी इस बात को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 339 गाथा ३८ "जगत के समस्त परद्रव्य-पुद्गलादि पदार्थ व रागादि आस्रव अपने स्वरूप की संपदा से प्रगट हैं, परन्तु ये समस्त परद्रव्य-अनन्त पुद्गल रजकण, अनन्त आत्माएं व रागादि भाव मुझे निजरूप भासित नहीं होते। परमाणु मात्र भी परद्रव्य अर्थात् पुद्गल का एक रजकण या राग का एक अंश भी मेरा है – ऐसा मुझे भासित नहीं होता।" ___ तात्पर्य यह है कि वे समस्त परद्रव्य अपनी स्वरूपसंपदा से शोभित हैं और मैं अपनी स्वरूपसंपदा से शोभायमान हूँ। मुझमें भासित होने पर भी निजरूप भासित न होने से वे मुझमें मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं; यही कारण है कि मैं उन सबसे भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ प्रतापवन्त हूँ। मुट्ठी में रखे हुए सोने को भूल जाने और कारण पाकर स्मरण आने पर प्राप्त करने का उदाहरण देकर आचार्यदेव यह समझाना चाहते हैं कि सोना है तो अपने पास ही, अपनी मुट्ठी में ही; उसे प्राप्त करने के लिए कहीं जाना नहीं है, बस मुट्ठी खोलकर देखना ही है, उसे प्राप्त करने में मुट्ठी खोलकर देखने भर की देर है । इसीप्रकार आत्मा भी है तो अपने पास ही, पास ही क्या हम स्वयं आत्मा ही तो हैं; अत: उसे जानने के लिए, खोजने के लिए कहीं जाना नहीं है; बस परपदार्थों पर से दृष्टि हटाकर निज को निहारना ही है। विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने का आशय यह नहीं है कि गुरु शिष्यों को निरन्तर समझाते ही रहेंगे; क्योंकि उन्हें अपना काम भी करना है, अपने आत्मा का ध्यान भी करना है ; वे निठल्ले नहीं हैं जो निरन्तर समझाते ही रहेंगे। उन्होंने एकबार, दोबार, तीन-चारबार अच्छी तरह समझा दिया और शिष्य के हृदय में बात बैठ गई, समझ में आ गई और आत्मा को प्राप्त करने की लगन लग गई तो फिर शिष्य उसी बात का निरन्तर घोलन करते हैं, चिन्तन-मनन करते हैं, परस्पर १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ-१४४-४५ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 340 चर्चा-वार्ता करते हैं; उससे उनके ज्ञान में निर्मलता बढ़ती है, उनका ज्ञान आत्मसम्मुख होता है और उन्हें आत्मोपलब्धि हो जाती है। -इसी का नाम गुरु के द्वारा निरन्तर समझाया जाना है। गुरु के समझाने की बात तो है ही, पर उससे भी आवश्यक उनकी बताई बात को धारणा में लेने की है, चिन्तन-मनन करने की है, मंथन करके निर्णय पर पहुँचने की है, शिष्यों के आभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की है, अन्तरलगनी की है। गुरु तो निमित्त मात्र हैं, कार्य तो अन्तर के पुरुषार्थ से होता है। इसप्रकार रत्नत्रयरूप परिणत ज्ञानी आत्मा सोचता है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा ही अरूपी. हूँ और परपदार्थ किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं। मैं तो चैतन्यज्योतिरूप आत्मा हूँ और आत्मानुभव से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता हूँ। यहाँ 'एक' का अर्थ करते हुए कहा गया है कि चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यावहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता, इसलिए मैं एक हूँ। उक्त पंक्ति का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "नरकगति, मोक्षगति इत्यादि गतियाँ क्रम से होती हैं, एक के बाद एक होती हैं; इससे उन्हें क्रमरूप भाव कहा गया है। तथा पर्याय में कषाय, लेश्या, ज्ञान का उघाड़ वगैरह एकसाथ होते हैं, इसकारण उन्हें यहाँ अक्रमरूप भाव कहा गया है। यहाँ क्रम माने पर्याय और अक्रम माने गुण - ऐसा नहीं समझना; किन्तु एक के बाद एक होनेवाली गति के भावों को क्रमरूप व उदय के रागादिभाव, लेश्या के भाव व ज्ञान की एक समय की पर्याय के भाव इत्यादि एक समय होते हैं, उन्हें अक्रमरूप लिया है। ये क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तते हुए व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होने से मैं एक हूँ; क्योंकि मैं तो अभेद, अखण्ड, आनन्दकंद प्रभु, एक चिन्मात्र वस्तु हूँ।" १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १३९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341 गाथा ३८ स्वामीजी ने जो भाव स्पष्ट किया है, वह तो बढ़िया है ही; तथापि दूसरे अर्थ के रूप में इसप्रकार भी समझ सकते हैं। चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणायें जीव के व्यावहारिकभाव हैं; अत: निश्चयनय से चिन्मात्र आत्मा में उनका अभाव है। चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों में विभक्त होने से आत्मा एकरूप नहीं रहता, अनेकरूप हो जाता है । यही कारण है कि चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणाएँ व्यावहारिक भाव हैं। चौदह गुणस्थानों में से आत्मा के एक समय में एक ही गुणस्थान होता है; अत: वे आत्मा के क्रमिक भाव हैं । परन्तु चौदह मार्गणायें प्रत्येक जीव में एकसाथ ही होती हैं; अतः वे जीव के अक्रमिक भाव हैं। क्रमिक और अक्रमिक - इन दोनों भावों से भिन्न होने से भगवान आत्मा एक है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय का विषयभूत चिन्मात्र आत्मा गुणस्थानरूप क्रमिक भावों से और मार्गणास्थानरूप अक्रमिक भावों से भेदा नहीं जाता, भेद को प्राप्त नहीं होता; अतः वह एक है। प्रश्न -आपने कहा कि मार्गणाएँ प्रत्येक जीव के एकसाथ चौदह होती हैं । कृपया इस बात को घटाकर बताइये, विशेष स्पष्ट कीजिए। उत्तर -हम गतिमार्गणा की अपेक्षा मनुष्य हैं, इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय हैं, कायमार्गणा की अपेक्षां औदारिक, तैजस और कार्माणकायवाले हैं। इसीप्रकार चौदहों मार्गणाएँ घटित की जा सकती हैं। गुणस्थानों का एक समय में एक ही होना और चौदह मार्गणाओं का एक साथ होना तो करणानुयोग का प्रसिद्ध सिद्धान्त है। इसमें शंका-आशंका के लिए कोई स्थान नहीं है। इस विषय की विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड का अध्ययन किया जाना चाहिए। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 342 इसप्रकार इस व्याख्या के अनुसार चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होता – इसकारण एक हूँ का आशय यह हुआ कि मैं गुणस्थान और मार्गणास्थानरूप व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होता; इसकारण एक हूँ। तात्पर्य यह है कि दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा गुणस्थानातीत है, मार्गणास्थानातीत है। एक शब्द की व्याख्या में आचार्य जयसेन तो मात्र इतना ही लिखते "यद्यपि व्यवहारनय से नरनारकादि अनेक पर्यायरूप हूँ, तो भी शुद्ध निश्चयनय से टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाववाला होने से एक हूँ।" प्रश्न - शब्दों के अर्थ करने में आचार्यों में इसप्रकार की विभिन्नता क्यों पाई जाती है? क्या आचार्यों में परस्पर मतभेद है? उत्तर - ऐसी कोई बात नहीं है। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, हो सकते हैं; अत: इसप्रकार की संभावनायें रहती ही हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है । आचार्यों द्वारा किये गये विभिन्न अर्थ जबतक एक ही प्रयोजन को पुष्ट करते हों, तबतक तो कुछ सोचने की बात ही नहीं है; यदि प्रयोजन भी अलग-अलग भासित हो तो उनकी अपेक्षा को समझने का प्रयास करना चाहिए। शुद्ध शब्द का अर्थ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र शुद्धता का कारण व्यावहारिक नवतत्वों से भिन्नता को बताते हैं । उनके अनुसार नवतत्त्वों में छुपी हुई आत्मज्योति नवतत्त्वों से भिन्न है; इसलिए शुद्ध है । उसका नवतत्त्वरूप होना ही अशुद्धता है और नवतत्त्वों से भिन्नता ही शुद्धता है। ___आचार्य जयसेन नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता स्वीकार करते हुए भी अथवा के रूप में रागादिभाव से भिन्नता की बात भी करते हैं। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 गाथा ३८ स्वामीजी नवतत्त्वों से भिन्नता को स्पष्टं करते हुए कहते हैं " भिन्नता के तीन प्रकार हैं - १. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अत्यन्त भिन्न है । २. पुण्य-पाप के विकारी भावों से भगवान आत्मा भिन्न है । ३. निर्मल पर्याय से भी भगवान आत्मा भिन्न है । पहले प्रकार में स्वद्रव्य - परद्रव्य की भिन्नता, दूसरे प्रकार में विकारभाव व स्वभाव की भिन्नता तथा तीसरे प्रकार में द्रव्य व निर्मलपर्याय की भिन्नता बताई है। पुद्गलमय शरीर वगैरह परद्रव्य भगवान आत्मा को नहीं छूते, अन्दर पर्याय में वर्तते हुए विकारीभाव भी भगवान चैतन्यस्वभाव को नहीं छूते; यह तो ठीक, किन्तु भगवान ज्ञायकस्वभावी ध्रुव आत्मा के आश्रय से प्रगट हुई निर्मलपर्याय भी द्रव्य का स्पर्श नहीं करती । " " - उक्त तीनों प्रकारों में अपने आत्मा से भिन्न नवतत्त्व आ जाते हैं । तात्पर्य यह है कि दृष्टि के विषयभूत, ध्यान के ध्येय, परमशुद्धनय के विषयरूप निज आत्मा को जिनसे भिन्न जानना है; नवतत्त्व में वे सभी पदार्थ आ जाते हैं । इसप्रकार एकता में गुणस्थान और मार्गणास्थानों से भिन्नता और शुद्धता में नवतत्त्वों से भिन्नता की बात आ गई । प्रश्न – ७३वीं गाथा में भी भगवान आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए एक, शुद्ध और ज्ञान दर्शनमय विशेषण आये हैं। वहाँ इन शब्दों का अर्थ उसप्रकार नहीं किया, जिसप्रकार यहाँ किया जा रहा है। विभिन्न आचार्य भिन्न-भिन्न अर्थ करें तो कदाचित् ठीक भी मानलें; परन्तु जब एक ही आचार्य एक स्थान पर एक शब्द का कुछ अर्थ करें और दूसरे स्थान पर कुछ; तो चित्त में प्रश्न खड़ा होता ही है । १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन उत्तर - यदि आपके चित्त में प्रश्न खड़ा होता है तो कोई चिन्ता की बात नहीं है । यह तो आपकी जागरुकता का प्रतीक है कि आप यह ध्यान रखते हैं कि यह शब्द वहाँ भी आया है और वहाँ इसका अलग अर्थ किया गया है। 344 यदि एक ही आचार्य ने एक ही शब्द का विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अर्थ किया है तो उसके रहस्य को समझने का प्रयत्न और भी अधिक गहराई से किया जाना चाहिए; क्योंकि उसमें उनका कोई विशेष आशय हो सकता है । ३८वीं गाथा में व्यावहारिक नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता कहा गया है और ७३वीं गाथा में सकलकारकचक्र की प्रक्रिया से पार को प्राप्त निर्मल अनुभूतिमात्र को शुद्धता का आधार बनाया है । बात एकदम स्पष्ट है कि यहाँ पर से भिन्नता बताने के लिए पर से एकत्व और पर के प्रति होनेवाले ममत्व का निषेध है और कर्त्ता - कर्म अधिकार में पर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निषेध है। यही कारण है कि ३८वीं गाथा में व्यावहारिक नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता का आधार बनाया है और कर्ता-कर्म अधिकार की गाथा होने से ७३वीं गाथा में कर्ता, कर्म आदि कारकचक्र की प्रक्रिया से पार को प्राप्त निर्मल अनुभूतिमात्र को शुद्धता का आधार बनाया गया है। एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कहना भी व्यवहार है और एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता कहना भी व्यवहार ही है । व्यवहार अशुद्धि है और निश्चय शुद्धि । दोनों ही स्थानों में व्यावहारिक भावों का निषेध है; अत: बात तो एक ही है, परन्तु अर्थ में जो अन्तर आया है, वह तो अधिकार परिवर्तन के कारण आया है । इसीप्रकार एक के संबंध में भी समझना चाहिए। ज्ञान-दर्शनमय में तो कोई अन्तर है ही नहीं । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345 प्रश्न –यह तो ठीक, पर यहाँ व्यावहारिक नवतत्त्वों से ज्ञायकभाव को अत्यन्त भिन्न कहा है; उसमें जीवतत्त्व का स्पष्टीकरण करते हुए नर-नारकादि जीव के विशेष ऐसा क्यों कहा? गाथा ३८ - उत्तर – यह आत्मा स्वयं जीव तत्त्व है । अत: प्रश्न उपस्थित होता है कि इससे भिन्न ऐसा कौनसा जीवतत्त्व है, जिससे इस आत्मारूप जीवतत्त्व को भिन्न जानना है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा जा रहा है कि यह भगवान आत्मा तो निश्चयजीव है; इसे व्यवहारजीव से भिन्न जानना है और व्यवहारजीव नर-नारकादि पर्यायों सहित जीव को कहते हैं । अतः नरनारकादि पर्यायों वाले व्यवहारजीव से तथा अजीवादि पदार्थों से भिन्नता को शुद्धता कहा है । प्रश्न - व्यवहारजीव में अपने आत्मा से भिन्न परजीवों के ले लें तो क्या दिक्कत है? उत्तर – दिक्कत है; क्योंकि परजीव व्यवहारजीव नहीं हैं। उन्हें तो यहाँ अपने चेतनत्व से भिन्न होने से अचेतन मानकर अजीव में. लिया गया है; क्योंकि जिनमें अपनी चेतना नहीं है, अपने ज्ञान - दर्शन नहीं हैं; वे सब अपनी अपेक्षा, अपने लिए अजीववत् ही हैं, अजीव ही हैं । अध्यात्म में इसप्रकार की अपेक्षा प्रचलित ही है । - 'मैं दर्शन - ज्ञानमय हूँ' इस तीसरे विशेषण का जो अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र ने किया है; उसे स्पष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं — - — यह समझना "चिन्मात्र कहने से 'मैं चैतन्यस्वभावमात्र हूँ' चाहिए। दया, दान, व्रतादि के विकल्परूप मैं नहीं हूँ, अल्पज्ञतारूप भी मैं नहीं हूँ तथा 'मैं दर्शन ज्ञानवाला हूँ' • ऐसा भेद भी मैं नहीं हूँ । मैं तो चिन्मात्र होने से दर्शन ज्ञानमय हूँ। यहाँ चैतन्यसामान्य दर्शन है व चैतन्यविशेष ज्ञान है। चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा का सामान्य - Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन विशेष उपयोगात्मकपने का उल्लंघन नहीं होने से मैं दर्शन - ज्ञानमय हूँ । त्रिकाली वस्तुपने ऐसा हूँ । ' "" तत्वार्थसूत्र में उपयोग को जीव का लक्षण कहा है। वहाँ भी उपयोग को ज्ञान - दर्शनरूप ही कहा है और ज्ञानोपयोग के आठ तथा दर्शनोपयोग के चार भेद बताये हैं । यहाँ उपयोग के विशेष भेदों को न लेकर सामान्यरूप से ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को लिया है और दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्यज्ञानमय और सामान्यदर्शनमय कहा है । 346 प्रश्न - एक ओर तो आप दर्शन को सामान्य और ज्ञान को विशेष कहते हैं और दूसरी ओर यहाँ दर्शन और ज्ञान - दोनों को ही सामान्यरूप से लेने की बात कर रहे हैं ? उत्तर – जहाँ दर्शन को सामान्य और ज्ञान को विशेष कहा जाता है, वहाँ उनके स्वरूप की बात होती है; क्योंकि दर्शन निराकार - निर्विकल्प होने से सामान्य कहा जाता है और ज्ञान साकार - सविकल्प होने से विशेष कहा जाता है और जहाँ यह कहा जाता है कि सामान्य दर्शन - ज्ञान लेना, उसका तात्पर्य यह होता है कि दर्शन- ज्ञान के भेदप्रभेदों को नहीं लेना, अपितु सामान्यरूप से ज्ञान दर्शन को ही लेना । " 'अरूपी' विशेषण के साथ 'सदा' शब्द भी लगा है; जिसका आशय है कि आत्मा सदा ही अरूपी है। इस 'सदा' शब्द को अन्तदीपक मानकर सभी विशेषणों के साथ भी लगाया जा सकता है; जो इसप्रकार होगा मैं (भगवान आत्मा) सदा ही एक हूँ, सदा ही शुद्ध हूँ, सदा ही ज्ञान - दर्शनमय हूँ और सदा ही अरूपी हूँ । - इस अरूपी विशेषण में विशेष जानने की बात यह है कि आत्मा रूप, रस, गंध एवं स्पर्श को जानता है, उनके जाननेरूप परिणमित होता १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४३ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 — है; परन्तु उनरूप परिणमित नहीं होता; इसकारण अरूपी है। ध्यान - इसमें रूपादि को जानने का निषेध नहीं किया, अपितु उन्हें जानने की तो स्थापना की है; निषेध तो उनरूप परिणमित होने का रहे किया है। गाथा ३८ — इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं "देखो! स्पर्श, रस आदि का जो ज्ञान होता है, वह मेरे स्वयं से होता है, निमित्त से नहीं होता तथा स्पर्शादि निमित्त का अस्तित्व है, इसलिए मुझे ज्ञान होता है - ऐसा भी नहीं है । तत्संबंधी ज्ञानरूप से परिणमने की योग्यता मुझमें सहज स्वभाव से ही है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि को जानते हुए भी वे स्पर्शादि मुझमें आते नहीं है और मैं भी स्पर्शादिरूप से परिणमित नहीं होता। मेरा ज्ञान व स्पर्शादि भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। ऐसा होने से मैं परमार्थ से सदा ही अरूपी हूँ ।" इसप्रकार ज्ञानी विचारता है कि मैं क्रम और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता, इसलिए एक हूँ; व्यवहारिक नवतत्त्वों से भिन्न हूँ, इसलिए शुद्ध हूँ; सामान्य- विशेष उपयोगात्मक होने से ज्ञान-दर्शनमय हूँ और स्पर्शादिक को जानते हुए भी उनरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए अरूपी हूँ तथा कोई भी परपदार्थ किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं। इसप्रकार सभी परपदार्थों से भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त वर्तता हूँ । आचार्यदेव स्वयं तो ज्ञानसागर आत्मा में डुबकी लगा ही रहे हैं । अब आगामी कलश के माध्यम से सम्पूर्ण जगत को भी आमंत्रण दे रहे हैं, प्रेरणा दे रहे हैं कि हे जगत के जीवो! तुम भी इस ज्ञानसागर १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग- २, पृष्ठ १४३ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 348 में डुबकी लगावो और अतीन्द्रिय-आनन्द को प्राप्त कर अनन्तसुखी हो जावो। ( वसन्ततिलका ) मन्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका। आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः ।। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करणी भरेण। प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।।३२ ।। ( हरिगीत ) सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा। हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ नहाइये। अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ॥३२॥ यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डुबोकर, दूरकर, हटाकर स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है, पूर्णतया प्रगट हो गया है। अतः अब हे लोक के समस्त लोगों! लोकपर्यन्त उछलते हुए उसके शान्तरस में सब एकसाथ ही मग्न हो जावो। उक्त छन्द का भाव स्पष्ट करते हुए भावार्थ में पंडित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "जैसे समुद्र के आड़े कुछ आ जावे तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह आड़ दूर हो जाती है, तब जल प्रगट होता है । वह प्रगट होनेपर लोगों को प्रेरणा योग्य होता है कि 'इस जल में सभी लोग स्नान करो।' इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रम से आच्छादित था, तब उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था; अब विभ्रम दूर हो जाने से यथास्वरूप (ज्यों का त्यों) प्रगट हो गया। इसलिए अब उसके वीतराग-विज्ञानरूप शान्तरस में एक ही साथ सर्व लोक मग्न होओ - इसप्रकार आचार्यदेव ने प्रेरणा की है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 349 कलश ३२ अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब आत्मा का अज्ञान दूर होता है, तब केवलज्ञान प्रगट होता है और केवलज्ञान प्रगट होनेपर समस्त लोक में रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञान में झलकते हैं; उसे समस्त लोक देखो ।" स्वामीजी इस कलश का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " जैसे अपने सामने बड़ा भारी समुद्र हो, किन्तु आँख व समुद्र के बीच चार हाथ की चादर हो तो समुद्र दिखाई नहीं देता । उसीप्रकार राग व पुण्यादिभाव मेरे हैं, इनमें ही मेरा अस्तित्व है; जबतक ऐसी मिथ्यात्वरूपी चादर की आड़ है, तबतक ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा दिखाई नहीं देता। चैतन्यस्वरूप से विपरीत राग, वह मेरा व एक समय की पर्याय वह मैं अबतक ऐसी जो पर्यायबुद्धि थी, वही विभ्रम था । जब भेदज्ञान से उस विभ्रम की चादर को दूर कर दिया, हटा दिया, विभ्रम का नाश कर दिया; तब भगवान आत्मा स्वयं सर्वांग प्रगट हो गया । - वस्तु तो ध्रुव है । ध्रुव प्रगट नहीं होता, वह तो प्रगट ही है । ध्रुव पर दृष्टि जाते ही मिथ्यात्व दशा का नाश हुआ और जैसा इसका शुद्धस्वरूप है, वैसा पर्याय में प्रगट हुआ अर्थात् शान्ति व अतीन्द्रिय आनन्द की निर्मल दशा प्रगट हुई । अन्दर पूर्णानन्द का नाथ चैतन्यभगवान ज्ञान व आनन्द से भरा हुआ है, उसकी दृष्टि होने पर सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पर्याय प्रगट परिणमित हुई । ' आचार्यदेव ने सबको चूल का न्योता (आमंत्रण) दिया है। वे कहते हैं कि यह चैतन्यसिन्धु प्रगट हुआ है; इसलिए समस्त लोक अर्थात् सभी जीव उस आनन्दसागर में निमग्न हो जावो । तुम अतीन्द्रिय आनन्दगर्भित शान्त रस में अर्थात् वीतराग रस में एक ही साथ अत्यन्त मग्न हो जावो। ऐसे मग्न होवो कि फिर कभी इस आनन्द से बाहर निकलना होवे ही नहीं । १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग- २, पृष्ठ १४८ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन - देखो तो सही, कैसी अचूक रामबाण वाणी है। नहीं पा सकोगे या थोड़ी सी ही प्राप्त कर सकोगे • ऐसी निराशाजनक बात नहीं की । आचार्यदेव ने स्वयं आनन्दरस प्राप्त कर लिया है; अतः वे चाहते हैं कि सभी जीव इस अतीन्द्रिय आनन्दरस को प्राप्त करें ।" पण्डित राजमलजी कलश टीका में इस कलश का अर्थ करते हुए 'सिन्धु' शब्द का अर्थ पात्र (अभिनेता) करते हैं । इस कलश का अर्थ नाटक के रूपक के रूप में करते हुए वे कहते हैं कि जिसप्रकार अखाड़े (नाटक-नाट्यशाला - रंगमंच) में पात्र (अभिनेता) नाचता है; उसीप्रकार यहाँ भी आत्मा का शुद्धस्वरूप प्रगट होता है। भावार्थ इसप्रकार है कि अखाड़े में प्रथम ही अन्तर्जवनिका कपड़े की होती है । उसे दूर कर शुद्धांग नाचता है । यहाँ भी अनादिकाल से मिथ्यात्व परिणति है; उसके छूटने पर शुद्धस्वरूप परिणमता है। जिसप्रकार अखाड़े में जो शुद्धांग दिखता है; वहाँ जितने भी देखनेवाले हैं; वे सब एक ही साथ मग्न होकर देखते हैं; उसीप्रकार जीव का शुद्धस्वरूप सभी जीवों द्वारा अनुभव करने योग्य है । पण्डित राजमलजी के उक्त अर्थ को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने काव्य के रूप में इसप्रकार प्रस्तुत किया है ( सवैया इकतीसा ) जैसैं कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आभरन, आवति अखारे निसि आड़ौ पट करिकैं । दुहूँ ओर दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरिकै ॥ तैसैं ग्यान सागर मिथ्याति ग्रन्थि भेदि करि, उमग्यो प्रगट रह्यौ तिहूँ लोक भरिकैं । ऐसौ उपदेस सुनि चाहिए जगतजीव, 350 सुद्धता संभारै जगजालसौं निसरिकै ॥ ३५ ॥ १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४८- १४९ — Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 351 कलश ३२ जिसप्रकार नटी (पातुर) रात्रि में वस्त्राभूषणों से सजकर नाट्यशाला में परदे की ओट में खड़ी हो जाती है तो किसी को भी दिखाई नहीं देती; किन्तु जब दोनों ओर के शमादान (दीपक) ठीक करके पर्दा हटाया जाता है तो सम्पूर्ण सभा के लोगों को साफ-साफ दिखाई देती है। उसीप्रकार ज्ञान का समुद्र आत्मा जो मिथ्यात्व के परदे में ढंक रहा था, वह प्रगट होकर तीन लोक को जानता-देखता है, त्रैलोक्य का ज्ञायक होता है। श्रीगुरु कहते हैं कि हे जगवासी जीवो! ऐसा उपदेश सुनकर तुम्हें जगत के जाल से निकलकर अपनी शुद्धात्मा संभालना चाहिए। इसप्रकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ, पाण्डे राजमलजी की कलश टीका एवं बनारसीदासजी के नाटक समयसार के उक्त छन्द का मंथन करने पर ३२वें कलश के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं । वे दोनों अर्थ सीधी, सरल और सपाट भाषा में इसप्रकार होंगे :__ (१) यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी परदे को हटाकर सर्वांग प्रगट हो गया है। अत: हे जगत के जीवों! लोकपर्यन्त उछलते हुए इस ज्ञानसागर के शान्त रस में सब एक साथ ही डुबकी लगावो, मग्न हो जावो। (२) जिसप्रकार नाटक के रंगमंच पर नाचने के लिए तैयार सुसज्जित अभिनेता खड़ा हो, नाच रहा हो; पर अंधकार और परदे की ओट होने से सभाजनों को कुछ भी दिखाई नहीं देता; किन्तु पर्याप्त प्रकाश होने और परदा हट जाने पर सभी को सबकुछ दिखाई देने लगता है। उसीप्रकार ज्ञानसागर भगवान आत्मा मिथ्यात्व के अंधकार और विभ्रम के परदे में छुपा हुआ है। मिथ्यात्व का अंधकार और विभ्रम का परदा हटने पर सबकुछ साफ हो जाता है, साफ-साफ दिखाई देने लगता है। अत: जगत के समस्त जीवों को चाहिए कि वे मिथ्यात्व का अंधकार दूर कर विभ्रम की चादर को हटाकर भगवान Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 352 आत्मा के दर्शन करें, उसके ज्ञानसागर में डुबकी लगावें, उसके आनन्दरस में मग्न हो जावें। एक तीसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान के केवलज्ञान में समस्त पदार्थ झलकते हैं । अत: हे जगत के प्राणियों, तुम उसे देखो; अर्थात् केवलज्ञान की श्रद्धा करो और उसके माध्यम से अपने आत्मा और जगत के स्वरूप को जानो। __ जो भी हो, पूर्वरंग प्रकरण का अन्तिम कलश होने से इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने अपने शिष्यों को, पाठकों को ज्ञान और आनन्द से लबालब भरे हुए इस भगवान आत्मा को देखने-जानने और इसी में जमने-रमने का आदेश दिया है, उपदेश दिया है, आशीर्वाद दिया है, आमंत्रण दिया है, प्रेरणा दी है; वह सब कुछ दिया है, जो उनके पास अपने शिष्यों को, पाठकों को देने के लिए था। ____ आचार्य अमृतचन्द्र उक्त ३८ गाथाओं के प्रकरण को पूर्वरंग कहते हैं। इसके आगे ३९वीं गाथा से ६८वीं गाथा तक के प्रकरण का नाम वे जीवाजीवाधिकार रखते हैं। इस तरह उनके अनुसार यहाँ पूर्वरंग समाप्त होता है। _आचार्य जयसेन आरंभ की १४ गाथाओं को पीठिका कहते हैं । उन १४ गाथाओं में अमृतचन्द्र की टीका की १२ गाथायें ही आती हैं। उसके बाद की गाथा जो आत्मख्याति की १३वीं गाथा है और तात्पर्यवृत्ति की १५वीं गाथा है - उसमें नौ तत्त्वों के नाम आते हैं। अतः उसके बाद की गाथा से आचार्य जयसेन जीवाधिकार मानते हैं; जो यहाँ तक चलता है। इसके बाद के प्रकरण को वे अजीवाधिकार कहते हैं; जो कर्ताकर्म अधिकार के आरंभ होने तक चलता है। ___ आचार्य जयसेन ने नौ तत्त्वों के नाम वाली गाथा को न तो पीठिका में ही रखा है और न जीवाधिकार में ही। ऐसा क्यों किया गया - इसके बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 है? यद्यपि कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति टीका में समागत कलशों और उनकी राजमलीय बालबोधनी टीका को आधार बनाकर समयसार नाटक की रचना की तथापि अधिकारों के विभाजन में उन्होंने आचार्य जयसेन का ये दो अनुकरण किया है। जीवाधिकार और अजीवाधिकार अधिकार अलग-अलग रखे हैं, जबकि आचार्य अमृतचन्द्र ने जीवाजीवाधिकार ऐसा एक अधिकार ही रखा है। समयसार नाटक के निम्नांकित दोहे से यह बात स्पष्ट होती है ( दोहा ) " जीवतत्व अधिकार यह कह्यौ प्रगट समुझाय । अब अधिकार अजीव कौ सुनहु चतुर चित लाय ॥ " अधिकारों के नामकरण के सन्दर्भ में एक बात विचारणीय है कि आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में अधिकारों के लिए 'अंक' शब्द का उपयोग करते हैं । यद्यपि आत्मख्याति की प्रकाशित प्रतियों में अंकों के आरंभिक शीर्षकों में अधिकार शब्द का प्रयोग किया है; तथापि अमृतचन्द्र को अधिकार शब्द इष्ट प्रतीत नहीं होता; क्योंकि वे इसे नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हैं और नाटकों में अंक हुआ करते हैं, अधिकार नहीं। आत्मख्याति के अंकों की समाप्ति पर जो पंक्तियाँ उपलब्ध होती हैं, उनमें अंक शब्द का स्पष्ट उल्लेख है । जैसे - कलश ३२ १. समयसार नाटक : अजीवद्वार, छन्द १ — - - "समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः । समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ कर्तृकर्मप्ररूपकः द्वितीयोऽङ्कः ॥ " आत्मख्याति की प्रकाशित प्रतियों में अधिकार लिखने की परम्परा कब से और क्यों चल पड़ी, कैसे चल पड़ी यह एक शोध का विषय है । - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 354 आचार्य जयसेन अपनी तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में यद्यपि 'अधिकार' शब्द का प्रयोग करते हैं तथापि साथ में 'रंग' शब्द का प्रयोग भी करते हैं। जैसा कि निम्नांकित कथन से स्पष्ट है - "जीवाधिकारः समाप्तः। इति प्रथमरंगः।" एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि 'इति प्रथमरंगः' यह वाक्य मात्र प्रथमाधिकार के अन्त में ही प्राप्त होता है, आगे के अधिकारों में नहीं। अत: यही प्रतीत होता है कि जयसेन को मूलत: अधिकार शब्द ही इष्ट है। कविवर बनारसीदास कृत नाटक समयसार में 'द्वार' और 'अधिकार' - इन दोनों शब्दों का खुलकर प्रयोग किया गया है । यहाँ तक कि अध्याय के आरंभिक शीर्षकों में भी कहीं 'द्वार' और कहीं 'अधिकार' शब्द का प्रयोग है। जैसे - जीवद्वार, अजीवद्वार, कर्ताकर्म-क्रियाद्वार, पुण्य-पाप एकत्वद्वार। पर आगे आस्रव अधिकार, गुणस्थानाधिकार शब्द के प्रयोग भी हैं । प्रकाशित प्रतियों में यह सब असावधानी से हो गया हो - यदि यह भी मान लें, तो भी छन्दों में भी इसप्रकार के दुहरे प्रयोग मिलते हैं। ऊपर दिये गये दोहे में स्पष्टरूप से अधिकार शब्द का प्रयोग किया गया है। और भी अनेक कथन इसप्रकार के उपलब्ध हैं। जैसे - ( दोहा ) "यह अजीव अधिकार को प्रगट बखानौ मर्म। अब सुनु जीव-अजीव के करता किरिया कर्म ॥१ करता किरिया करम कौ प्रगट बखान्यौ मूल। अब बरनौं अधिकार यह पाप पुन्न समतूल ॥२ १. समयसार नाटक : कर्ता-कर्म-क्रियाद्वार-छन्द-१ २. समयसार नाटक : पुण्य-पाप एकत्वद्वार-छन्द-१ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 कलश ३२ पाप पुन्न की एकता वरनी अगम अनृप। अब आस्रव अधिकार कछु कहौं अध्यातम रूप ॥" लगभग सभी अधिकारों के आरंभिक छन्दों में इसप्रकार का प्रयोग पाया जाता है। लेकिन ग्रन्थ के आरंभ में जहाँ बारह अधिकारों के नाम गिनाये गये हैं; वहाँ द्वार शब्द का प्रयोग है; जो इसप्रकार है - ( सवैया इकतीसा ) जीव निरजीव करता-करम पुन्न-पाप । आस्रव संवर निरजरा बंध मोष है। सरवविसुद्धि स्याद्वाद साध्य-साधक। दुवादस दुवार धरे ससार कोष है ॥२ ग्रन्थ के अन्त में भी इसीप्रकार का उल्लेख है: ( दोहा ) नाम साध्य-साधक कह्यौ, द्वार द्वादसम ठीक। समयसार नाटक सकल, पूरन भयो सटीक॥ यदि यह मान लें कि छन्दों में छन्दानुरोध से यथावकाश द्वार और अधिकार शब्दों का प्रयोग किया गया होगा; परन्तु इससे यह तो प्रतीत होता ही है कि उन्हें दोनों ही शब्द अभीष्ट हैं, किसी से भी परहेज नहीं है; तथापि प्रकाशकों द्वारा यह ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए था कि कम से कम शीर्षकों में एकरूपता रहे । दोनों में से जो भी शीर्षक उन्हें अच्छे लगें, रखें; पर एकरूपता होना चाहिए। लगता है, इस ओर उनका ध्यान ही नहीं जा पाया है। उक्त मंथन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हम इस समयसार अनुशीलन में अध्यायों के विभाजन को अधिकार शब्द से ३. समयसार नाटक : आस्रव अधिकार, छन्द-१ ४. समयसार नाटक : उत्थानिका- छन्द-५१ ५. समयसार नाटक : साध्य-साधक द्वार, छन्द-५३ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 356 ही सम्बोधित करेंगे; क्योंकि एक तो यह शब्द अब पूरी तरह प्रचलन में आ गया है, दृसर यह अनुशीलन अकेली आत्मख्याति के आधार पर ही नहीं हो रहा है । यद्यपि इसका मूल आधार आत्मख्याति ही है, तथापि अन्य आधारों का भी भरपूर उपयोग हो रहा है। अतः हमें अधिकार शब्द का प्रयोग ही उपयुक्त लग रहा है। __ आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार यह ग्रन्थ नाटक है और यहाँ पूर्वरंग समाप्त हुआ है । अत: पूर्वरंग एवं ग्रन्थ की नाटकीयता को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "यहाँ टीकाकार का यह आशय है कि इस ग्रन्थ को अलंकार से नाटक रूप में वर्णन किया है। नाटक में पहले रंगभूमि रची जाती है। वहाँ देखनेवाले, नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाट्य, नाटक) करनेवाले होते हैं, जो विविधप्रकार के स्वांग रखते हैं तथा श्रृंगारादिक आठ रसों का रूप दिखलाते हैं । वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत- ये आठ रस लौकिक रस हैं; नाटक में इन्हीं का अधिकार है। नवाँ शान्तरस है, जो कि अलौकिक है; नृत्य में उसका अधिकार नहीं है। इन रसों के स्थायीभाव, सात्विकभाव, अनुभावीभाव, व्यभिचारीभाव और उनकी दृष्टि आदि का वर्णन रसग्रन्थों में है, वहाँ से जान लेना। सामान्यतया रस का यह स्वरूप है कि ज्ञान में ज्ञेय आया, उसमें ज्ञान तदाकार हुआ, उसमें पुरुष का भाव लीन हो जाये और अन्य ज्ञेय की इच्छा नहीं रहे, सो रस है। उन आठ रसों का रूप नृत्य में नृत्यकार बतलाते हैं और उनका वर्णन करते हुए कवीश्वर जब अन्यरस को अन्यरस के समान भी वर्णन करते हैं, तब अन्यरस का अन्यरस अंगभूत होने से अन्यभाव रसों का अंग होने से, रसवत् आदि अलंकार से उसे नृत्यरूप में वर्णन किया जाता है। यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा। वहाँ देखनेवाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 गाथा ३८ हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषों की सभा है, उनको नृत्य दिखलाते हैं। नृत्य करनेवाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और दोनों का एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं। उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं, आट रसरूप होकर परिणमन करते हैं; सो वह नृत्य है। वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीव के भिन्न स्वरूप को जानता है; वह तो इन सब स्वांगों को कर्मकृत जानकर शान्तरस में ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीव में भेद नहीं जानते, इसलिए वे इन स्वांगों को ही यथार्थ जानकर उसमें लीन हो जाते हैं । उन्हें सम्यग्दृष्टि यथार्थस्वरूप बतलाकर, उनका भ्रम मिटाकर, उन्हें शान्तरस में लीन करके सम्यग्दृष्टि बनाता है। उसकी सूचनारूप में रंगभूमि के अन्त में आचार्य ने 'मज्जंतु ... इत्यादि' - इस श्लोक की रचना की है, वह अब जीव-अजीव के स्वांग का वर्णन करेंगे, इसका सूचक है; ऐसा आशय प्रगट होता है। इसप्रकार यहाँ तक रंगभूमि का वर्णन किया है।" आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने नाटकीय तत्त्व देखे। इसकारण उन्होंने आत्मख्याति टीका में उसे नाटक के रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस नाटकीय प्रस्तुतीकरण को आचार्य जयसेन ने भी स्वीकार किया। पण्डित राजमलजी ने तो अपनी कलश टीका में इसे और भी अधिक उजागर किया। उन्हीं से प्रेरणा पाकर कविवर बनारसीदासजी ने समयसार की विषयवस्तु के आधार पर रचित अपने ग्रन्थ का नाम ही समयसार नाटक रखा है । पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी उसे उभारा है। उक्त सम्पूर्ण विवेचन में जो नाट्यशास्त्रों की परम्परागत पद्धति का अनुसरण किया गया है ; वह तत्कालीन होने से आज के संदर्भ में पुरानी पड़ गई है; अत: आज के लोगों को सहज पकड़ में नहीं आती। समयसार और आत्मख्याति की नाटकीयता को समझने के लिए हमें Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 समयसार अनुशीलन प्राचीन नाटक पद्धति का थोड़ा-बहुत परिचय अवश्य होना चाहिए। अध्यात्म का अधिकार होने से हम यहाँ उसके विस्तार में जाना उचित नहीं समझते हैं । अत: जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो, उन्हें तत्संबंधी साहित्य के अध्ययन से अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहिए। इसप्रकार यह पूर्वरंग समाप्त होता है और अब जीवाजीवाधिकार आरंभ होगा। आत्मानुभूति क्या है? आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यान रूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्ततः यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है । जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसीसमय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसीसमय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एकनाम आत्मानुभूति है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ २२१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार इस अधिकार की विषयवस्तु स्पष्ट करते हुए कलश टीकाकार पाण्डे राजमलजी लिखते हैं - "अबतक विधिरूप से शुद्धाङ्ग तत्त्वरूप जीव का निरूपण किया, अब आगे उसी जीव का प्रतिषेधरूप निरूपण करते हैं । उसका विवरण - जीव शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण है, चिद्रूप है – ऐसा कहना विधि कही जाती है। जीव का स्वरूप गुणस्थान नहीं है, कर्म-नोकर्म जीव के नहीं हैं, भावकर्म जीव का नहीं है; - ऐसा कहना प्रतिषेध कहलाता है।" __उक्त कथन से स्पष्ट है कि इस अधिकार में यह स्पष्ट करनेवाले हैं कि अज्ञानी जीव अपने अज्ञान के कारण किन-किन पदार्थों को जीव मानते आ रहे हैं और वे वास्तविक जीव क्यों नहीं हैं? प्रश्न –पूर्वरंग में सभी कथन विधिपरक ही हों – ऐसी बात तो नहीं हैं ; क्योंकि उसमें भी अनेक बातें प्रतिषेधरूप हैं । जैसे - आत्मा प्रमत्त नहीं हैं, अप्रमत्त भी नहीं है, एक ज्ञायकभावरूप ही है । तथा इस जीवाजीवाधिकार में भी कुछ कथन विधिपरक पाये जाते हैं । जैसे - आत्मा चेतनागुणवाला है। अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि पूर्वरंग में सभी कथन विधिपरक हैं और जीवाजीवाधिकार में प्रतिषेधपरक? उत्तर ---अरे, भाई! यह कथन मुख्यता की अपेक्षा है । पूर्वरंग में मुख्यरूप से विधिपरक कथन है और जीवाजीवाधिकार में मुख्यरूप से निषेधपरक कथन है। उक्त कथन का यही आशय समझना चाहिए। १. समयसार कलश, कलश ३३वें की टीका Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 समयसार अनुशीलन __यह तो स्पष्ट किया ही जा चुका है कि समयसार को यहाँ नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है । अत: अधिकार के आरंभ में ही आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि 'अब जीव और अजीव - ये दोनों द्रव्य एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं।' यद्यपि जीव और अजीव हैं तो भिन्न-भिन्न ही, तथापि वे अनादि से एक साथ हैं, एकक्षेत्रावगाही हैं ; अत: अज्ञानीजनों को एक ही लगते हैं । इस बात को ही यहाँ नाटक के रूप में - इस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानों वे दोनों एक होने का स्वांग बनाकर रंगमंच (स्टेज) पर आये हैं। इस अधिकार में मूल गाथाएँ आरंभ करने के पूर्व आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र मंगलाचरण के रूप में एक छन्द लिखते हैं; जिसमें वे उस ज्ञान की महिमा गाते हैं; जो ज्ञान जीव और अजीव के इस भेद को जान लेता है। उक्त बात को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा मंगलाचरण के छन्द के भावार्थ में लिखते हैं - "यह ज्ञान की महिमा कही। जीव-अजीव एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं, उन्हें यह ज्ञान ही भिन्न जानता है। जैसे नृत्य में कोई स्वांग धरकर आये और उसे जो यथार्थरूप में जान ले, पहिचान ले तो वह स्वांगकर्ता उसे नमस्कार करके अपने रूप को जैसा का तैसा ही कर लेता है ; उसीप्रकार यहाँ समझना। ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषों को होता है, मिथ्यादृष्टि इस भेद को नहीं जानते।" मंगलाचरण का वह छन्द इसप्रकार है : ( शार्दूलविक्रीड़ित ) जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदान्। आसंसारनिबद्धबंधन विधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत्॥ आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं । धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनोह्लादयत्॥३३॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 कलश ३३ ( सवैया इकतीसा ) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, __ ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता। अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और, दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता। जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे, विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता। ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में, स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।। ३३ ।। इस नाटक के रंगमंच पर उदित यह ज्ञान मन को आनंदित करता हुआ सुशोभित हो रहा है। यह ज्ञान जीव और अजीव के बीच भेदविज्ञान करानेवाली उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि से जीव और अजीव की भिन्नता को स्वयं भी भली-भाँति जानता है और इस नाटक को देखनेवाले सभासदों को भी दिखाता है, उन्हें इनकी भिन्नता की प्रतीति उत्पन्न कराता है। ___ अनादि संसार से दृढ़ बंधन में बंधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करके जो विशुद्ध हुआ है, स्फुट हुआ है, कली के समान विकसित हुआ है और जो सदा अपने आत्मारूपी बाग में, वन में ही रमण करता है; यमपि उसमें अनन्त ज्ञेयों के आकार झलकते हैं, तथापि जो उनमें नहीं रमता, अपने स्वरूप में ही रमता है, उस ज्ञान का प्रकाश अनन्त है और वह प्रत्यक्ष तेज से नित्य उदयरूप है। वह ज्ञान धीर है, उदात्त है, धीरोदात्त है, अनाकुल है और मन को आनंदित करता हुआ सुशोभित है, विलास कर रहा है। - इस नाटक समयसार का खलनायक मोह है, मिथ्यात्व है, अज्ञान है और उस मोह को, मिथ्यात्व को, अज्ञान को नाश करनेवाला ज्ञान, सम्यग्ज्ञान, केवलज्ञान धीरोदात्त नायक है; जो नित्य उदयरूप है और Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 समयसार अनुशीलन अनाकुल है। यही कारण है कि इस मंगलाचरण के छन्द में उसे ही स्मरण किया गया है। प्रश्न -आपने कहा कि ज्ञान धीरोदात्त नायक है। यह धीरोदात्त नायक क्या होता है, कैसा होता है? नायक कितने प्रकार के होते हैं और कौन-कौन से? उत्तर - भाई, यह सब काव्यशास्त्र का विषय है। इन बातों को विस्तार से जानने के लिए काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। प्रश्न -यह तो ठीक, पर प्रत्येक आत्मार्थी तो काव्यशास्त्र का अध्ययन कर नहीं सकता है। अत: संक्षेप में यहाँ भी समझाइये न, जिससे हम समयसार की नाटकीयता को भी थोड़ी-बहुत समझ सकें। उत्तर – काव्यशास्त्र के प्रतिष्ठित आचार्य विश्वनाथ के प्रसिद्ध ग्रन्थराज साहित्यदर्पण में नायक के स्वरूप व भेदों को इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "त्यागी कृती कुलीनः सुश्रीको रूपयौवनोत्साही। दक्षोऽनुरक्तलोकस्तेजो वैदग्ध्यशीलवान नेता॥ धीरोदात्तो धीरोद्धतस्तथा धीरललितश्च । धीरप्रशान्त इत्ययमुक्तः प्रथमश्चतुर्भेदः।। अविकत्थनः क्षमावानतिगम्भीरो महासत्त्वः। स्थेयानिगूढमानो धीरोदात्तो दृढ़व्रतः कथितः॥ मायापरः प्रचण्डश्चपलोऽहंकारदर्पभूयिष्ठः । आत्मश्लाघानिरतो धीरेधीरोद्धतः कथितः।। निश्चिन्तो मृदुरनिशं कलापरो धीरललितः स्यात् । सामान्यगुणैर्भूयान्द्विजादिको धीरशान्तः स्यात्॥ १. महाकवि विश्वनाथ : साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, श्लोक - ३० से ३४ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 363 कलश ३३ ___ त्यागी, कृतज्ञ, कुलीन. लक्ष्मीवान, लोगों के अनुराग का पात्र; रूप, यौवन और उत्साह से युक्त; तेजस्वी, चतुर और शीलवान पुरुष काव्यों और नाटकों का नायक होता है। धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त – ये नायक के प्रथम चार भेद हैं। क्षमाशील, अतिगंभीर स्वभाववाला, अपनी प्रशंसा नहीं करनेवाला, महासत्त्व अर्थात् हर्ष-शोकादि से अपने स्वभाव को नहीं बदलनेवाला, स्थिरप्रकृति, विनय से युक्त गौरववान, दृढव्रती, अपनी बात का पक्का और आन-वानवाला पुरुष धीरोदात्त नायक कहलाता है। जैसे कि श्रीराम, युधिष्ठिर आदि। ___ मायावी, प्रचण्ड, चपल, घमण्डी, शूर, अपनी प्रशंसा के पुल बांधनेवाला पुरुष धीरोद्धत्त नायक कहलाता है। जैसे - रावण, भीमसेन आदि। निश्चित, अतिकोमलस्वभाववाला, सदा नृत्य-गीतादि कलाओं में लीन पुरुष धीरललित नायक कहलाता है। जैसे - रत्नावली नाटिका में वत्सराज आदि। त्यागी, कृतज्ञ, कुलीन, सम्पन्न लोगों से सम्मान्य, तेजस्वी, चतुर और शीलवान संस्कारों से सम्पन्न द्विजादिक पुरुष धीरप्रशान्त नायक कहे जाते हैं। जैसे - भगवान महावीर, बुद्ध आदि।" इसीप्रकार के भाव महाकवि धनन्जय विरचित दशरूपक के द्वितीय प्रकाश में भी प्राप्त होते हैं । नायक के उक्त प्रकारों में धीरोदात्त नायक ही सर्वश्रेष्ठ नायक होता है । यद्यपि धीरप्रशान्त भी अच्छा ही होता है; पर उसकी प्रशान्तता उसे संघर्ष में प्रवृत्त नहीं होने देती। जब किसी संघर्ष में विजय प्राप्त करना हो तो वहाँ धीरोदात्तता ही बलवती सिद्ध होती है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 364 धीर विशेषण तो चारों प्रकार के नायकों में सभी में पाया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि धीरता के बिना तो नायकपना संभव ही नहीं है। धैर्य तो अत्यन्त आवश्यक है; पर जिसमें धैर्य के साथ-साथ उदात्तता भी हो, उदारता भी हो; तो फिर उसका कहना ही क्या ? यहाँ जिस ज्ञान का स्मरण किया गया है, वह ज्ञान इसीप्रकार का धीरोदात्त नायक है, वह धैर्य का धनी तो है ही और उदार भी है ; क्योंकि अनन्त ज्ञेयों को जानने की उदारता और धैर्य उसमें है; पर वह उनमें अपनापन स्थापित नहीं करता, उनका स्वामी नहीं बनता। जिसप्रकार कोई राजा शत्रु के आक्रमण को धैर्य से झेले और उसे पराजित करके भी उसका राज्य उदारतापूर्वक उसे ही लौटा दे, उसे मित्र बना ले तो वह धीरता और उदारता दोनों का ही परिचय देता है। ऐसा नायक धीरोदात्त कहलाता है । ज्ञान अनंत ज्ञेयों को बड़े धैर्य से देखता-जानता है; पर उनमें जमता-रमता नहीं, उनका स्वामी नहीं बनता, उन्हें अपनी सम्पत्ति नहीं मानता। यह उसकी उदारता है। अनन्त ज्ञेयों को जानने पर भी उसे कोई आकुलता नहीं होती। अतः वह अनाकुल भी है । वह तो सदा ही अपने आत्मारूपी बाग में ही रमण करता रहता है; क्योंकि उसने अपनी वीरता से धीरता से सभी शत्रुओं को पराजित कर उन्हें भी अनुकूल बना लिया है। अतः अब उसे आकुलता का कोई कारण शेष नहीं रहा है। __ जो आक्रमण करने में सक्षम होता है, उसे वीर कहते हैं और जो आक्रमण झेलने में समर्थ होता है, उसे धीर कहते हैं । आक्रमण करने से अधिक आवश्यकता आक्रमण झेलने की है; क्योंकि यदि आक्रमण को झेलने की क्षमता न हो तो आक्रमण करने का अवसर ही प्राप्त न हो सकेगा। अतः प्रत्येक नायक वीर तो होता ही है, उसका धीर होना भी अत्यन्त आवश्यक है । जिसमें धीरता नहीं होगी, वह अनाकुल नहीं रह सकता। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 365 कलश ३३ वीरता और धीरता के साथ जब उदारता भी होती है तो फिर सोने में सुगंधी जैसी बात हो जाती है । इस समयसार नाटक का नायक ज्ञान धीर है, वीर है, अनाकुल है और उदार भी है; अतः सर्वश्रेष्ठ है, धीरोदात्त है । न केवल इसी अधिकार में, अपितु प्रत्येक अधिकार के आरम्भ में आत्मख्यातिकार अमृतचन्द्र ने धीर-वीर ज्ञान की महिमा गा कर ही मंगलाचरण किया है । अन्तर मात्र इतना ही होगा कि यहाँ जीवाजीवाधिकार होने से जीव और अजीव में भेद बतानेवाले ज्ञान को स्मरण किया गया है तो अन्य अधिकारों में तत्संबंधी अज्ञान का नाश करनेवाले ज्ञान को स्मरण किया जायगा । ज्ञान तो वही है, मात्र विशेषणों का अन्तर पड़ेगा । 1 कविवर पंडित बनारसीदासजी समयसार नाटक में मंगलचारण के रूप इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं ( सवैया इकतीसा ) — "परम प्रतीति उपजाय गनधर की सी, अंतर - अनादि की विभावता विदारी है । भेदग्यान दृष्टि सौं विवेक की सकति साधि, चेतन-अचेतन की दसा निरवारी है ॥ करम कौ नास करि अनुभौ अभ्यास धरि, हिय मैं हरखि निज सुद्धता संभारी है। अन्तराय नास भयो सुद्ध परकास भयो, ग्यान कौ विलास ताकौं वंदना हमारी है ॥ जिस ज्ञान के विलास ने, उल्लास ने, परिणमन ने; गणधरदेव के समान उत्कृष्ट श्रद्धान उत्पन्न करके अनादिकालीन आन्तरिक विभावभाव को विदीर्ण किया है, मिथ्यात्व का नाश किया है; भेदज्ञान की दृष्टि से विवेक की शक्ति को साधकर चेतन और अचेतन में हुई अनादिकालीन Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 366 एकत्व की दशा का निवारण किया है, उन्हें भिन्न-भिन्न जाना है; उसके बाद अनुभव के अभ्यास द्वारा कर्मों का नाश करके हर्षित हृदय से अपनी शुद्धता की संभाल की है; जिससे अन्तरायकर्म का नाश हुआ, शुद्ध आत्मा का प्रकाश हुआ अर्थात् केवलज्ञान हुआ, अतीन्द्रिय आनन्द का विलास हुआ; ज्ञान के उस विलास को, ज्ञान के उस उल्लास को, उल्लसित परिणमन को मेरा बारम्बार नमस्कार हो।" इसप्रकार ज्ञान को नमस्कार कर, स्मरण कर अब जीव और अजीव किसप्रकार एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं - इस बात को गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं । तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जीव किसप्रकार आत्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानकर परपुद्गल को ही आत्मा मान लेते हैं - यह बात पाँच गाथाओं द्वारा बता रहे हैं। ज्ञान का कमाल ज्ञान सर्वसमाधान कारक है, उसका सर्वत्र ही अबाध प्रवेश है। वस्तुविज्ञान का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है, जहाँ ज्ञान का प्रवेश न हो? ____ आज जगत में जो भी वैज्ञानिक चमत्कार दिखाई देते हैं, वे सब ज्ञान के ही कमाल हैं। यदि यही ज्ञान निज भगवान आत्मा में समर्पित हो जावे, उसकी ही शोध-खोज में लग जावे तो इससे भी अधिक चमत्कृत करेगा। जड़पदार्थों में लगे इस परोन्मुखी ज्ञान ने दैनिक-जीवन के लिए सुविधायें तो भरपूर जुटा दी, पर वह सुख और शान्ति नहीं जुटा सका। यदि हमें सच्चा सुख और शान्ति प्राप्त करनी है तो जड़पदार्थों की शोध-खोज में संलग्न अपने इस ज्ञान को वहाँ से हटाकर निज भगवान आत्मा की शोध-खोज में लगाना होगा। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ ६३ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ३९ से ४३ अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई । जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति ॥ ३९॥ अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ॥ ४० ॥ कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति । तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ॥ ४१ ॥ जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ॥ ४२ ॥ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति ते ण परमट्टवादी णिच्छयवादीहिं दुम्मेहा । णिद्दिट्ठा ॥ ४३ ॥ ( हरिगीत ) परात्मवादी मूढ़जन निज आतमा जाने नहीं । अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें ॥ ३९॥ अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही मन्द अथवा तीव्रतम जो वह जीव है या कर्म का द्रव कर्म का अर जीव का अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को परमार्थवादी वे नहीं परमार्थवादी यह आतम बस जीव है ॥ ४० ॥ कर्म का अनुभाग है। जो उदय है वह जीव है ॥ ४१ ॥ सम्मिलन ही बस जीव है । बस जीव है ॥ ४२ ॥ कहें । कहें ॥ ४३ ॥ आत्मा को नहीं जाननेवाले पर को ही आत्मा माननेवाले कई मूढ़ लोग तो अध्यवसान को और कर्म को जीव कहते हैं । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन अन्य कोई लोग तीव्र - मन्द अनुभागगत अध्यवसानों को जीव मानते हैं; दूसरे कोई नोकर्म को जीव मानते हैं । अन्य कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं और कोई तीव्रमंदतारूप गुणों से भेद को प्राप्त कर्म के अनुभाग को जीव इच्छते हैं, मानते हैं । अन्य कोई जीव और कर्म दोनों के मिले रूप को जीव मानते हैं और कोई अन्य कर्म के संयोग को ही जीव मानते हैं। 368 - - इसप्रकार के तथा अन्य भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि, मिथ्यादृष्टि जीव पर को आत्मा कहते हैं । वे सभी परमार्थवादी, सत्यार्थवादी, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं ऐसा निश्चयवादियों ने सत्यार्थवादियों ने, सत्य बोलनेवालों ने कहा है । तात्पर्य यह है कि अध्यवसान, कर्म ( भावकर्म), अध्यवसानसंतति, शरीर, शुभाशुभभाव, सुख-दुःखादि कर्मविपाक, आत्मकर्मोभय और कर्मसंयोग को जीव कहनेवाले परमार्थवादी नहीं है; क्योंकि इनमें से कोई भी जीव नहीं हैं। — उक्त गाथाओं के भाव को पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट कहते हैं " जीव- अजीव दोनों अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाहसंयोगरूप से मिले हुए हैं और अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग से जीव की अनेक विकारसहित अवस्थायें हो रही हैं । परमार्थदृष्टि से देखने पर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावों को नहीं छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व आदि को नहीं छोड़ता । परन्तु जो परमार्थ को नहीं जानते, वे संयोग से हुये भावों को ही जीव कहते हैं, क्योंकि पुद्गल से भिन्न परमार्थ से जीव का स्वरूप सर्वज्ञ को दिखाई देता है तथा सर्वज्ञ की परम्परा के आगम से जाना जा सकता है । इसलिये जिनके मत में सर्वज्ञ नहीं है, वे अपनी बुद्धि से अनेक कल्पनायें करके कहते हैं । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 369 गाथा ३९-४३ उनमें से वेदान्ती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतों के आशय लेकर आठ प्रकार तो प्रगट कहे हैं और अन्य भी अपनी-अपनी बुद्धि से अनेक कल्पनायें करके अनेक प्रकार से कहते हैं तो उन्हें कहां तक कहा जाये?" ___ भारतवर्ष में मुख्यरूप से नौ दर्शन प्रसिद्ध हैं, उनमें आठ दर्शन तो वे ही हैं, जिनकी चर्चा जयचंदजी ने भावार्थ में की है और नौवाँ दर्शन जैनदर्शन है । उक्त आठ दर्शनों में जो जीव का स्वरूप बताया गया है, वह ठीक नहीं है - यही बात स्पष्ट करने का प्रयास उक्त गाथाओं में किया गया है। __यदि ऐसा है तो फिर जीव का वास्तविक स्वरूप क्या है अथवा जैनदर्शन में जीव का वास्तविक स्वरूप कैसा बताया गया है? - यह बात आगामी गाथाओं में यथावसर स्पष्ट करेंगे। जिन आठ प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख उक्त गाथाओं में किया गया है.; उनमें से कौन-सी मान्यता किस मत की है अथवा किस मत के अनुकूल है, नजदीक है; इस बात को सहजानन्दजी (मनोहरलालजी) वर्णी अपनी सप्तदशांगी टीका की इसी गाथा के तथ्यप्रकाश शीर्षक में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "(१) वेदान्तादिसम्मत जैसा नैसर्गिक राग-द्वेष कलुषित अध्यवसान जीव नहीं है। (२) मीमांसकादिसम्मत जैसा संसरणक्रियाविलसित कर्म जीव नहीं है। (३) सांख्यादिसम्मत जैसा अध्यवसानसंतान जीव नहीं है। (४) वैशेषिकादिसम्मत जैसा नवीन-नवीन दशा में प्रवर्तमान शरीर ही जीव हो - ऐसा नहीं है। (५) बौद्धादिसम्मत जैसा क्षणिक शुभ-अशुभभाव ही जीव हो - ऐसा नहीं है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन (६) योगादिसम्मत जैसा सुख-दुख मात्र ही जीव हो नहीं है। (७) नैयायिकादिसम्मत जैसा आत्मकर्मोभय जीव हो नहीं है। (८) चार्वाकादिसम्मत जैसा कर्मादि के संयोगमात्र जीव हो ऐसा नहीं है । " ― 370 — ऐसा ऐसा - जयचंदजी के भावार्थ एवं वर्णीजी के तथ्यप्रकाश में जिन आठ मतों का उल्लेख है; उनका स्पष्ट उल्लेख न तो मूल गाथाओं में है और न आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका में ही है। आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति में भी मात्र चार्वाक का उल्लेख है, अन्य किसी का उल्लेख नहीं है । उक्त बात की ओर ध्यान दिलाने का आशय यह कदापि नहीं है कि उक्त बात में दम नहीं है; क्योंकि मतार्थ की दृष्टि से अर्थ करने पर उक्त अर्थ प्रतिफलित होते ही हैं और अर्थ करने की पाँच विधियों में एक मतार्थ भी है । इस बात की ओर ध्यान दिलाने का मूल प्रयोजन तो मात्र यह है कि हम जैनों में भी उक्त प्रकार की मान्यताओं की ओर झुकाववाले लोग पाये जाते हैं । इसप्रकार के शिष्यों को समझाने के लिए ही आचार्यदेव ने ये गाथाएं लिखी हैं । अतः यदि हमारे अभिप्राय में भी इसप्रकार की कोई मान्यता छुपी हो तो हमें भी इन गाथाओं के माध्यम से उसका परिमार्जन कर लेना चाहिए। ये बातें तो अन्य मत के खण्डन के लिए हैं - ऐसा सोचकर इनकी उपेक्षा करना उचित नहीं है । प्रश्न – आपने कहा कि अर्थ करने की पाँच विधियाँ हैं । वे कौनकौन-सी हैं ? उनको भी संक्षेप में समझाइये न ? इनकी चर्चा कहीं आगम में भी आती है क्या? Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 371 उत्तर - शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ - ये अर्थ करने की पाँच विधियाँ हैं । इनमें शब्दों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ करना शब्दार्थ है, यह किस नय का कथन है यह स्पष्ट करना नयार्थ है, यह कथन किस मत को लक्ष्य में रखकर किया गया है यह मतार्थ है, यह कथन आगमानुकूल है, आगम के इस कथन से सिद्ध है ऐसा प्रतिपादन करना आगमार्थ है और कथन का तात्पर्य स्पष्ट करना भावार्थ है । - गाथा ३९-४३ — परमात्मप्रकाश की बृह्मदेवकृत संस्कृतवृत्ति में मंगलाचरण की पहली गाथा का अर्थ पाँचों विधियों से करने के उपरान्त अन्त में जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है, उससे इनका आशय स्पष्ट हो जाता है । वह निष्कर्ष मूलतः इसप्रकार है " एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः नयविभागकथनरूपेण नयार्थी भणितः बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः अत्र नित्यनिरंजन ज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्यगुणादेयमिति भावार्थ: । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यः इति । इसप्रकार पदखण्डनारूप शब्दार्थ कहा और नयविभागरूप नयार्थ भी कहा तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मत के कथन करने से मतार्थ कहा; इसप्रकार अनन्तगुणात्मक सिद्ध परमेष्ठी संसार से मुक्त हुए हैं यह सिद्धान्त का अर्थ प्रसिद्ध ही है, यही आगमार्थ है; और नित्य, निरंजन, ज्ञानमयी परमात्मद्रव्य उपादेय है यह भावार्थ है । -- - - व्याख्यान के अवसर पर यथासंभव सर्वत्र ही इसीप्रकार शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ जान लेना चाहिए।" इसीप्रकार का भाव पंचास्तिकाय के मंगलाचरण की पहली गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन ने भी व्यक्त किया है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 समयसार अनुशीलन समयसार की इन ३९ से ४३ तक की गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - ___ "इस लोक में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंसकता से, पुरुषार्थहीनता से अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्विक आत्मा को न जाननेवाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से पर को ही आत्मा कहते हैं, बकते हैं। उनमें कुछ मुख्य इसप्रकार हैं - (१) कोई तो ऐसा कहते हैं कि नैसर्गिक (स्वयं से ही उत्पन्न हुए - स्वाभाविक) राग-द्वेष द्वारा मलिन अध्यवसान (मिथ्या-अभिप्राय सहित विभाव परिणाम) ही जीव है; क्योंकि जिसप्रकार कालेपन से भिन्न कोई कोयला दिखाई नहीं देता, उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता। (२) कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है – ऐसी एक संसरण (भ्रमण) रूप जो क्रिया है, उस रूप से क्रीड़ा करता हुआ कर्म ही जीव है; क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता। ___ (३) कोई कहते हैं कि तीव्र-मंद अनुभव से भेदरूप होते हुए, दुरन्त (जिसका अन्त दूर है - ऐसे) रागरूप रस से भरे हुए अध्यवसानों की संतति ही जीव है; क्योंकि उससे भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता। (४) कोई कहता है कि नई एवं पुरानी अवस्था आदि भाव से प्रवर्तमान नोकर्म (शरीर) ही जीव है; क्योंकि शरीर से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। (५) कोई कहते हैं कि समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्म का विपाक ही जीव है; क्योंकि शुभाशुभ भाव से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 373 गाथा ३९-४३ (६) कोई कहते हैं कि साता-असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्रमंदत्वगुणों से भेदरूप होने वाला कर्म का अनुभव ही जीव है; क्योंकि सुख-दुःख से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। (७) कोई कहते हैं कि श्रीखण्ड की भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म – दोनों ही मिलकर जीव है; क्योंकि सम्पूर्णत: कर्मों से भिन्न कोई जीव दिखाई नहीं देता। (८) कोई कहते हैं कि अर्थक्रिया (प्रयोजनभूत क्रिया) में समर्थ कर्मसंयोग ही जीव है; क्योंकि जिसप्रकार आठ लकड़ियों के संयोग से भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार कर्मों के संयोग से भिन्न अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। - इसप्रकार आठ प्रकार तो यहाँ कहे ही हैं; परन्तु पर को आत्मा माननेवाले दुर्बुद्धि मात्र इतने ही नहीं हैं; और भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि जगत में हैं, जो पर को ही आत्मा मानते हैं; किन्तु वे सब परमार्थवादी नहीं हैं, सत्यार्थवादी नहीं हैं, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं - ऐसा परमार्थवादी कहते हैं, निश्चयनय के जानकर कहते हैं, सर्वज्ञ परमात्मा कहते हैं।" ___ उक्त कथन में जिन आठ प्रकार के पदार्थों या भावों को जीव कहा गया है; उन्हें जीव मानने में एक ही तर्क दिया गया है कि उनसे भिन्न अन्य कोई जीव उन्हें दिखाई नहीं देता; और यह तर्क भी उनके स्वयं के अनुभव के आधार पर ही प्रतिष्ठित है। ___ आगामी गाथा में उनकी इस मान्यता पर सतर्क विचार किया जायेगा। उपदेश कोई दवा तो है नहीं, जो व्यक्तिगत दी जावे। ___ - सत्य को खोज, पृष्ठ ३९ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४४ ३९ से ४३वीं गाथा तक जिन आठ प्रकार के मिथ्यावादियों की चर्चा की गई है, वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं; उनके द्वारा माना गया आत्मा का स्वरूप सच्चा क्यों नहीं है ? इस प्रश्न के उत्तर में ४४वीं गाथा का जन्म हुआ है; क्योंकि उक्त गाथाओं में परात्मवादियों की मान्यता पर तो प्रकाश डाला गया है और यह भी कहा गया है कि वे सत्यार्थवादी नहीं हैं, पर यह नहीं बताया गया है कि वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं ? अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है । इसी प्रश्न का समाधान यह ४४वीं गाथा करती है, जो इसप्रकार हैएदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चति ॥ ( हरिगीत ) ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं । यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं' कैसे कहें? पूर्वकथित अध्यवसान आदि सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं ऐसा केवली भगवान ने कहा है; अत: उन्हें जीव कैसे कहा जा सकता है? - उक्त गाथा में सर्वज्ञ परमात्मा की दुहाई देकर यह बात कही गई है कि जिन्हें सर्वज्ञ भगवान और उनका आगम पौद्गलिक कहता है; अतः उन्हें जीव कैसे माना जा सकता है ? गाथा में तो मात्र सर्वज्ञ कथित आगम की बात कही है, पर आचार्य अमृतचन्द्र आगम के साथ युक्ति और अनुभव की बात भी करते हैं । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375 गाथा ४४ वे कहते हैं कि इन्हें जीव मानना न केवल आगम से ही बाधित है, अपितु युक्ति और अनुभव से भी यह बात सिद्ध होती है कि उक्त आठों प्रकार की मान्यतायें असत्य हैं । वे अपनी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है "विश्व के समस्त पदार्थों को साक्षात् देखनेवाले वीतरागी सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा द्वारा ये समस्त अध्यवसानादिभाव पुद्गलद्रव्य के परिणाममय कहे गये हैं । अतः वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होने में समर्थ नहीं हैं। चूँकि जीवद्रव्य को चैतन्यस्वभाव से शून्य पुद्गलद्रव्य से भिन्न कहा गया है; इसलिए जो इन अध्यवसानादि को जीव कहते हैं; वे वस्तुतः परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि उनका पक्ष आगम, युक्ति और स्वानुभव से बाधित है । ? 'वे जीव नहीं हैं • ऐसा जो सर्वज्ञ का वचन, वह तो आगम है और यह (निम्नांकित ) स्वानुभवगर्भित युक्ति है । - (१) नैसर्गिक (स्वयं से ही उत्पन्न हुए - स्वाभाविक ) राग-द्वेष से मलिन अध्यवसान जीव नहीं हैं; क्योंकि जिसप्रकार कालेपन से भिन्न सुवर्ण सभी को दिखाई देता है; उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (२) अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है - ऐसी एक संसरणरूप क्रिया के रूप में क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (३) तीव्र - मंद अनुभव से भेदरूप होते हुए, दुरन्त रागरूप रस से भरे हुए अध्यवसानों की संतति भी जीव नहीं है; क्योंकि उस संतति Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । 376 (४) नई पुरानी अवस्थादिक के भेद से प्रवर्तमान नोकर्म जीव नहीं है; क्योंकि शरीर से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। (५) समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्मविपाक भी जीव नहीं है; क्योंकि शुभाशुभभाव से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (६) साता-असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्रता - मंदतारूप गुणों के द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्म का अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुखदुःख से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । (७) श्रीखण्ड की भाँति उभयात्मकरूप से मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों मिलकर भी जीव नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण कर्मों से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । - (८) अर्थक्रिया में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि आठ लकड़ियों के संयोग से बने पलंग से भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुष की भाँति, कर्मसंयोग से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । " · इसप्रकार आठ प्रकार की गलत मान्यताओं के निराकरण की बात - तो यहाँ स्वानुभवगर्भित युक्ति से कही है। इसीप्रकार की अन्य कोई Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 377 गाथा ४४ मान्यतायें हों तो उनका भी निराकरण इसीप्रकार किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सर्व परभावों से भिन्न चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर है, अत: अज्ञानियों द्वारा कल्पित मान्यतायें ठीक नहीं हैं। प्रश्न -आपने तो कहा था कि यह स्वानुभवगर्भित युक्ति है; पर यहाँ तो आपने आठ युक्तियाँ दे डाली। यदि आठ युक्तियाँ ही देनी थीं तो एक वचन का प्रयोग क्यों किया? बहुवचन का प्रयोग करना चाहिए था, ऐसा लिखना चाहिए था कि ये स्वानुभवगर्भित युक्तियाँ हैं। उत्तर -अरे, भाई ! युक्ति तो एक ही दी है; पर उससे आठ प्रकार की उल्टी मान्यताओं का निराकरण किया जाने से उसे ही आठ बार देना पड़ा है। आठों को एकसाथ मिलाकर बात करने पर एकबार कहने से भी काम चल सकता था। प्रश्न -यदि ऐसा है तो ऐसा ही क्यों नहीं किया? उत्तरं —ऐसा करने पर लम्बा वाक्य हो जाने से समझने में कठिनाई होती है। सरलता से समझ में आ जावे; इसलिए इतना विस्तार किया है, पुनरावृत्ति की है, एक ही बात को आठ बार दुहराया है। प्रश्न –यदि पुनरावृत्ति नहीं करते तो वाक्य कैसा बनता? बनाकर बताइये न? उत्तर - हाँ, हाँ; क्यों नहीं, बताते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए राग-द्वेषरूप अध्यवसान जीव नहीं हैं, अनादिअनंत संसरणरूप क्रिया में क्रीड़ा करता हुआ कर्म जीव नहीं है, रागरस से भरे हुए अध्यवसानों की संतति जीव नहीं है, नोकर्मरूप शरीर जीव नहीं है, शुभाशुभभावरूप कर्मविपाक जीव नहीं है, तीव्रता-मंदता और सुख-दुःखरूप कर्म का अनुभव जीव नहीं है, आत्मा और कर्म की Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 समयसार अनुशीलन मिलावट जीव नहीं है और अर्थक्रिया करने में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि इन सबसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। प्रश्न -एक ही युक्ति से आठों प्रकार की गलत मान्यताओं का निराकरण कैसे हो गया? उत्तर -क्योंकि सभी लोगों ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए आखिर एक ही युक्ति तो दी थी कि अध्यवसान ही जीव है, क्योंकि अध्यवसान से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता; कर्म ही जीव है, क्योंकि कर्म से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता; नोकर्म (शरीर) ही जीव है, क्योंकि शरीर से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता। इसीप्रकार आठों पर घटित करके देख सकते हैं । दिखाई नहीं देने' की एक ही युक्ति सभी ने दी तो 'भेदज्ञानियों को प्रत्यक्ष अनुभव में आता है, दिखाई देता है' - इस एक ही युक्ति से सभी धराशायी हो गये। सीधी-सच्ची बात यह है कि इन समस्त परपदार्थों से भिन्न भगवान आत्मा भेदज्ञानियों के अनुभव में आता है और सर्वज्ञ भगवान की वाणी में भी आया है। अतः सर्वप्रकार के विवादों से परे होकर उसका सही स्वरूप समझकर उसी का अनुभव करने का प्रयास किया जाना चाहिए। प्रश्न -'आठ प्रकार के भाव जीव नहीं हैं' - यह सिद्ध करने के लिए आपने भी स्वानुभवगर्भित युक्ति दी है और उन्होंने भी उन भावों को जीव सिद्ध करने में स्वानुभवगर्भित युक्ति दी है। दोनों में ऐसा क्या अन्तर है कि आपकी स्वानुभवगर्भित युक्ति तो स्वीकार की जावे और उनकी नहीं? Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 गाथा ४४ उत्तर -अरे, भाई! आचार्यदेव ने तो भेदज्ञानियों के अनुभव को आधार बनाया है और साथ में सर्वज्ञभगवान की भी साक्षी दी है, आगम को आधार बनाया है। क्या अज्ञानियों के अनुभव और भेदज्ञानियों के अनुभव को एक श्रेणी में रखा जा सकता है? इसीप्रकार क्या सर्वज्ञकथित आगम की उपेक्षा की जा सकती है ? _ दूसरी बात यह है कि 'दिखाई नहीं देनेवाली' युक्ति से 'दिखाई देनेवाली' युक्ति अधिक प्रवल होती है; क्योंकि ऐसा तो संभव है कि कोई वस्तु हो और वह हमें दिखाई न दे, पर ऐसा संभव नहीं होता कि कोई वस्तु न हो और वह दिखाई दे जावे। ___ अत: अब तो आपको ही निर्णय करना है कि सर्वज्ञ की वाणीरूप आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव को प्रमाण मानना कि अन्य अज्ञानियों के अनुभव को प्रमाण मानना। प्रश्न – ये आठ प्रकार की मान्यतायें तो अन्य मतवालों की हैं। वे लोग न आपके सर्वज्ञकथित आगम को ही मानते हैं और न आपके द्वारा माने गये भेदज्ञानियों के अनुभव को ही स्वीकार करते हैं। अत: उनके सामने अपने आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव की दुहाई देने से क्या लाभ है? उत्तर - अरे, भाई! यह बात तो हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि मतार्थ की दृष्टि से भले ही इस कथन से अन्यमतकल्पित मान्यताओं का खण्डन हो जाता है; पर आचार्यदेव ने यह कथन किसी अन्य मत के खण्डन के लिए नहीं किया है ; उनका मूल उद्देश्य तो अपने शिष्यों में पाई जाने वाली इसप्रकार की भूलों का परिमार्जन करना ही रहा है। यही कारण है कि वे सर्वज्ञकथित आगम और भेदज्ञानियों के अनुभव से गर्भित युक्ति का सहारा लेते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि ये शिष्यगण सर्वज्ञकथित आगम को भी प्रमाण मानते हैं और इन्हें Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 380 भेदज्ञानियों के अनुभव पर भी पूरा भरोसा है। उनके इस प्रतिपादन की विधि से ही यह स्पष्ट है कि वे इस कथन के माध्यम से अपने शिष्यों को ही सुधारना चाहते हैं, अन्यमतवालों को नहीं। । अत: अन्य विकल्पों से विराम लेकर सर्वज्ञकथित और भेदज्ञानियों द्वारा अनुभूत आत्मा को जानकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिए। उक्त आठ प्रकार की मान्यताओं में जिन्हें जीव माना जाता है, उनमें मुख्यरूप से द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ही आते हैं; क्योंकि इन तीनों में पुद्गलमय शरीर, पौद्गलिक कर्म और उनके उदय में होनेवाले सभी औदयिकभाव – शुभाशुभभाव, सांसारिक सुख-दुःख, जीव और कर्म का संयोग आदि सभी आ जाते हैं। यद्यपि इन सभी को परमागमरूप अध्यात्म में पुद्गल ही. कहा है; तथापि अज्ञानीजन इनमें से ही किसी न किसी को जीव मान लेते हैं; क्योंकि इनसे भिन्न कोई ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा उन्हें दिखाई नहीं देता और न वे उसे सर्वज्ञकथित आगम के आधार पर ही स्वीकार कर पाते हैं। यही कारण है कि इस ४४वीं गाथा में उन्हें सर्वज्ञकथित आगम और भेदज्ञानियों के स्वानुभव से गर्भित प्रबलयुक्ति के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। पुद्गल से भिन्न आत्मा की उपलब्धि के प्रति विवाद करनेवालों, विरोध करनेवालों, पुद्गल को ही आत्मा माननेवालों को सर्वज्ञवचनरूप आगम और स्वानुभवगर्भित युक्तियों से समझाकर अब समताभाव से मिठासपूर्वक समझाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आगामी कलश में कहते हैं कि अब इस तर्क-वितर्क के जाल से विराम लेकर, इस अकार्य कोलाहल से विराम लेकर छहमाह तक पुद्गल से भिन्न निज भगवान आत्मा को प्राप्त करने का उद्यम करो तो तुम्हें भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 कलश ३४ आत्मानुभव की प्रेरणा देनेवाला वह कलश मूलत: इसप्रकार है ( मालिनी ) विरम किमपरेणाकार्य कोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः ॥ ३४ ॥ ( हरिगीत ) हे भव्यजन ! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से । अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से ॥ यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना । तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना ॥ ३४॥ हे भव्य ! हे भाई !! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है ? अत: हे भाई! तू इस अकार्य कोलाहल से विराम ले, इसे बन्द करदे और जगत से निवृत्त होकर एक चैतन्यमात्र वस्तु को निश्चल होकर देख । ऐसा छहमास तक करके तो देख । तुझे अपने ही हृदय सरोवर में पुद्गल से भिन्न तेजवंत प्रकाशपुंज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं? तात्पर्य यह है कि ऐसा करने से तुझे भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी । 1 - समयसार नाटक में कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने उक्त छन्द के भाव को बड़े ही मार्मिक एवं प्रेरणास्पद शब्दों में प्रस्तुत किया है, जो इसप्रकार है ― ( सवैया इकतीसा ) " 'भैया जगवासी तू उदासी ह्वैकैं जगत सौं, एक छ महीना उपदेश मेरौ मानु रे । और संकलप विकलप के विकार तजि, बैठिकैं एकन्त मन एक ठौरु आनु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल ताकौ, तू ही मधुकर ह्वै सुवास पहिचानु रे । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन प्रापति न वै है कछु ऐसौ तू विचारतु है, सही ह्वै है प्रापति सरूप यौं ही जानु रे । ' हे जगत के वासी भाइयो! मेरा यह एक उपदेश तुम अवश्य ही स्वीकार करलो कि तुम जगत से उदास होकर एक छह महिने तक और सभी प्रकार के संकल्प - विकल्प छोड़कर, संकल्प-विकल्प के विकारों को छोड़कर, एकान्त में बैठकर अपने मन को एक आत्मा में लगा दो । मानो तुम्हारा यह शरीर ही तालाब है, शरीररूपी तालाब में तुम स्वयं कमल के स्थान पर हो और अब तुम ही मधुकर ( भौंरा ) बनकर, उस कमल की सुगंध को पहिचान लो । 382 यदि तुम ऐसा सोचते हो कि इसप्रकार करने पर भी आत्मा की प्राप्ति नहीं होगी तो तुम्हारा यह विचारना सही नहीं है; क्योंकि वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । अत: ऐसा उद्यम करने पर तुझे आत्मा की प्राप्ति अवश्य ही होगी । " आचार्य अमृतचन्द्र एवं कविवर बनारसीदासजी की बात को और अधिक बल प्रदान करते हुए पण्डित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "यदि अपने स्वरूप का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है; यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती। अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है। - यहाँ छहमास के अभ्यास की बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा। उसकी प्राप्ति तो अन्तर्मुहूर्त मात्र में ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्य को बहुत कठिन मालूम होता हो तो उसका निषेध किया है। १. समयसार नाटक, अजीवद्वार, छन्द ३ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 383 कलश ३४ यदि समझने में अधिक काल लगे तो छहमास से अधिक नहीं लगेगा। इसलिए यहाँ यह उपदेश दिया है कि अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल का त्याग करके इसमें लग जाने से शीघ्र ही स्वरूप की प्राप्ति हो जावेगी - ऐसा उपदेश है।" 'अभ्यास' शब्द का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं - "चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है। अन्तर्मुख होने का पुरुषार्थ करे और प्राप्ति न हो - ऐसा तीनकाल में भी नहीं हो सकता। यहाँ अभ्यास का अर्थ अकेला शास्त्रों को पढ़ना व सुनना मात्र नहीं है; किन्तु अभ्यास अर्थात् निज शुद्ध चैतन्य में एकाग्रता करने के पुरुषार्थ की बात है। भाई! तू अपनी श्रद्धा में तो ले कि वस्तु ऐसी ही है। श्रद्धा में दूसरा कुछ लेगा तो आत्मा हाथ नहीं आयेगा, पुरुषार्थ अन्दर की ओर नहीं ढलेगा। __ जिसने राग की रुचि छोड़ी और स्वभाव की रुचि की, उसे स्वभाव की प्राप्ति न हो - ऐसा होता ही नहीं है। जो स्वरूप प्राप्त न हुआ हो तो यह समझना चाहिए कि अभी स्वभाव की तरफ के पुरुषार्थ में कुछ कमी है, त्रुटि है। ___ हाँ, परवस्तु के प्रयत्न में – पुरुषार्थ में परवस्तु की प्राप्ति न हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि पर में तो पुरुषार्थ चलता ही नहीं है; परन्तु स्वरूप में पुरुषार्थपूर्वक अनुभव का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती ही है। आत्मा में वीर्य नाम का गुण है, उसका कार्य स्वरूप की ही रचना करना है। इसकारण अंतर्मुख होकर आत्मा में पुरुषार्थ करने पर स्वरूप की रचना निर्मल होती ही है, इसमें किंचित् भी सन्देह नहीं करना। भगवान! तू है कि नहीं? यदि है तो 'है' की प्राप्ति क्यों नहीं होगी? परन्तु भाई! मैं हूँ' ऐसे अपने अस्तित्व को अबतक अनंतकाल में स्वीकार ही नहीं किया; एक समय की पर्याय व राग की स्वीकृति में ही अनंतकाल चला गया है, परन्तु अन्दर आत्मवस्तु चैतन्यघन महाप्रभु जो एक समय Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 समयसार अनुशीलन की पर्यायमात्र नहीं है तथा जो पर्याय में ज्ञात हुए बिना भी नहीं रहता - ऐसे शुद्धात्मा को तूने पूर्व में कभी जाना नहीं, पहिचाना नहीं और उसके अस्तित्व को स्वीकार किया नहीं; इसलिए कठिन लगता है।" वस्तुत: निज आत्मा की प्राप्ति उतनी कठिन है नहीं, जितनी समझ ली गई है; क्योंकि वह भगवान आत्मा तू स्वयं ही है और उसे जानना भी स्वयं को ही है । अत: यह क्रिया पूर्णतः स्वाधीन है, इसमें रंचमात्र भी पराधीनता नहीं है। यदि आपको एक कप चाय पीना हो तो उसमें अनंत पराधीनता है; क्योंकि एक कप चाय बनाने के लिए चाय की पत्ती चाहिए, दूध चाहिए, चीनी चाहिए, पानी चाहिए, तपेली चाहिए, ढक्कन चाहिए, अग्नि चाहिए, ईंधन चाहिए, जलाने के लिए माचिस चाहिए, चलनी चाहिए, कप-बसी चाहिए; न मालूम क्या-क्या चाहिए। इतनी सब सामग्री जुट जाय, तब कहीं जाकर एक कप चाय पीने को मिलेगी; पर आत्मा को जानने के लिए परपदार्थों की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वयं को, स्वयं के द्वारा स्वयं ही जानना है। ज्ञानज्ञाता-ज्ञेय - सब तू स्वयं ही है; अत: पर की ओर झांकने की भी आवश्यकता नहीं है। अतः यहाँ यह कहा गया है कि इस अकार्य कोलाहल से विराम लेकर छहमास तक एकाग्रचित्त होकर लगातार देहदेवल में विराजमान, परन्तु देह से भिन्न निज भगवान आत्मा को जानने-पहिचानने और उसी का अनुभव करने का प्रयास कर । ऐसा करने पर तुझे आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी; क्योंकि आत्मा की प्राप्ति का स्वरूप ऐसा ही है, विधि ऐसी ही है, प्रक्रिया ऐसी ही है। __ अकार्यकोलाहल माने व्यर्थ का हल्ला-गुल्ला, व्यर्थ का बकवाद। जिस वचनालाप से, तर्क-वितर्क से कोई लाभ न हो, अपने मूल १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १९६ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 कलश ३४ प्रयोजन की सिद्धि न हो; उस वचनालाप को, तर्क-वितर्क को अकार्यकोलाहल कहते हैं। यहाँ आत्मा संबंधी चर्चा को भी अकार्यकोलाहल कहकर निषेध किया गया है; क्योंकि भगवान आत्मा की प्राप्ति तो प्रत्यक्षानुभव से ही होती है। ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ आत्मा संबंधी व्यर्थ के तर्क-वितर्क का ही निषेध किया है; अनावश्यक बौद्धिकव्यायाम का ही निषेध किया है; देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि में होनेवाले तत्त्वमंथन, चर्चा-वार्ता का निषेध नहीं समझना; क्योंकि यदि आत्मा संबंधी चर्चावार्ता एवं तत्त्वविचार नहीं करंगा, आगम और युक्तियों से तत्त्वनिर्णय नहीं करेगा, तो फिर छह माह तक आखिर करेगा क्या? देखो भाई, छह महीने तक अभ्यास करने की जो बात है, वह निर्विकल्प आत्मसन्मुखता की तो हो ही नहीं सकती; क्योंकि निर्विकल्प आत्मसन्मुखता तो यदि एक अन्तर्मुहूर्त भी रहे तो केवलज्ञान हो जायगा। यदि यह नहीं तो फिर छह महीने तक क्या अभ्यास करना? यही न कि आत्मा के लक्ष्य से वाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, पाठ और पठन-पाठन करना है और साथ ही यथासाध्य आत्मसन्मुख होने का सहज पुरुषार्थ करना है। जिनवाणी के प्रत्येक कथन का अर्थ 'कहाँ क्या संभव है' - के आधार पर खूब सोच-विचार कर करना चाहिए। सभी प्रकार के संकल्प-विकल्पों का निषेध और वह भी छह महीने तक - यह सब कैसे संभव है? जैसा कि ऊपर कहा गया है कि संकल्प-विकल्पों का पूर्णत: अभाव यदि अन्तर्मुहूर्त तक भी हो जावे तो केवलज्ञान हो जाता है और यहाँ छह महीने तक करने को कह रहे हैं। इसका तात्पर्य यही है कि यहाँ व्यर्थ के संकल्प-विकल्पों में वाद-विवादों में उलझने का ही निषेध है; विकल्पात्मक तत्त्वमंथन का नहीं, अति-आवश्यक तत्त्वचर्चा का भी नहीं। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४५ "अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं, इनसे भिन्न चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा ही जीव है'' -- बार-बार आप ऐसा कहते हैं; परन्तु ये अध्यवसानादिभाव भी तो कथंचित् चैतन्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले प्रतिभासित होते हैं। ये भाव जड़ में होते भी दिखाई नहीं देते; तो भी आप उन्हें जड़ कहते हैं, पुद्गल कहते हैं; - इसका क्या कारण है? इस प्रश्न के उत्तर में ही इस ४५वीं गाथा का उद्भव हुआ है, जो इसप्रकार है - अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति। जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स॥ ४५ ॥ ( हरिगीत ) अष्टविध सब कर्म पुद्गलमय कहे जिनदेव ने। सब कर्म का परिणाम दुखमय यह कहा जिनदेव ने ।। ४५ ।। जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि आठों प्रकार के सभी कर्म पुद्गलमय हैं और उनके पकने पर उदय में आनेवाले कर्मों का फल दुःख कहा गया है। उक्त गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "अध्यवसानादि समस्त भावों को उत्पन्न करनेवाले जो आठों प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्म हैं; वे सभी पुद्गलमय हैं - ऐसा सर्वज्ञ का वचन है। विपाक की मर्यादा को प्राप्त कर्म के फलरूप जीव की जो भी विकारी अवस्था होती है, वह अनाकुलता लक्षणवाले सुखस्वभाव से Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 विपरीत होने से दुःख ही है । आकुलता लक्षणवाले होने से सभी अध्यवसानादिभाव उसी दुःख में समाहित हो जाते हैं । इसप्रकार सभी अध्यवसानों को एक दुःख नाम से भी अभिहित किया जा सकता है । यद्यपि इन अध्यवसानों का चैतन्य के साथ अन्वय होने का भ्रम उत्पन्न होता है; तथापि ये हैं तो पुद्गलस्वभावी ही । " गाथा ४५ आचार्य जयसेन भी लिखते हैं कि शुद्धनिश्चयनय से ये अध्यवसानादिभाव पौद्गलिक हैं । पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इनकी पौद्गलिकता सरल-सुबोध शब्दों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - " जब कर्मोदय आता है, तब यह आत्मा दुःखरूप परिणमित होता है और दुःखरूप भाव अध्यवसान हैं । इसलिए दुःखरूप भावों में चेतनता का भ्रम उत्पन्न होता है । परमार्थ से दुःखरूप भाव चेतन नहीं हैं, कर्मजन्य हैं; इसलिए जड़ हैं । " इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अज्ञानीजन जिन अध्यवसानादिभावों को जीव मानते हैं; वे वस्तुत: जड़ हैं, निश्चय से पौद्गलिक हैं; उन्हें किसी भी स्थिति में जीव नहीं माना जा सकता । - मार्गदर्शन की उपयोगिता ज्ञानी गुरुओं के संरक्षण और मार्गदर्शन में ही आत्मा की खोज का पुरुषार्थ प्रारंभ होता है। यदि गुरुओं का संरक्षण न मिले तो यह आत्मा कुगुरुओं के चक्कर में फंसकर जीवन बर्बाद कर सकता है। तथा यदि गुरुओं का सही दिशा-निर्देश न मिले तो अप्रयोजनभूत बातों में ही जीवन बर्बाद हो जाता है । अत: आत्मोपलब्धि में गुरुओं के संरक्षण एवं मार्गदर्शन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १६७ - Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४६ अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब अध्यवसानादिभाव पौद्गलिक हैं, पुद्गल स्वभावी हैं तो फिर जिनागम में ही इन्हें जीवरूप क्यों कहा गया है? आगम में अनेक स्थानों पर इन्हें जीव कहा है। इसप्रकार एक ही आगम में इन्हें कहीं जीवरूप और कहीं पुद्गलरूप क्यों कहा है? इस समस्या के समाधान के लिए ही ४६वीं गाथा रची गई है, जिसमें इस समस्या का समाधान सयुक्ति प्रस्तुत किया गया है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥४६॥ ( हरिगीत ) ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने। व्यवहारनय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ॥ ४६॥ 'ये सब अध्यवसानादिभाव जीव हैं' - इसप्रकार जो जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है, वह व्यवहारनय दिखाया है। उक्त गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "ये सब अध्यवसानादिभाव जीव हैं - भगवान सर्वज्ञदेव ने यह कहकर अभूतार्थ होने पर भी व्यवहारनय को भी बताया है; क्योंकि म्लेच्छों के लिए म्लेच्छभाषा के समान व्यवहारनय भी व्यवहारीजनों के लिए परमार्थ का प्रतिपादक है, परमार्थ को बतानेवाला है। ____ अपरमार्थभूत होने पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए व्यवहारनय का दिखाया जाना भी न्यायसंगत ही है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 गाथा ४६ व्यवहारनय के नहीं बताये जाने पर और परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताये जाने पर, जिसप्रकार भस्म को मसल देने पर भी हिंसा नहीं होती; उसीप्रकार त्रस - स्थावर जीवों को निशंकतया मसल देने पर भी, कुचल देने पर भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इसीकारण बंध का भी अभाव सिद्ध होगा । दूसरी बात यह है कि परमार्थ से जीव को राग-द्वेष- मोह से भिन्न बताये जाने पर 'रागी-द्वेषी-मोही जीव कर्म से बंधता है, अतः उसे छुड़ाना' इसप्रकार के मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जाने से मोक्ष का भी अभाव हो जावेगा । ― इसप्रकार यदि व्यवहारनय नहीं बताया जाय तो बंध और मोक्ष दोनों का अभाव ठहरता है । " - आत्मख्याति में प्रतिपादित उक्त विषयवस्तु को सरस- सुबोध भाषा में स्पष्ट करते हए भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं " परमार्थनय तो जीव को शरीर तथा राग-द्वेष- मोह से भिन्न कहता है । यदि इसी का एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा राग-द्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे तो फिर पुद्गल का घात करने से हिंसा नहीं होगी तथा राग-द्वेष- मोह से बन्ध नहीं होगा। इसप्रकार परमार्थ से जो संसार - मोक्ष दोनों का अभाव कहा है, एकान्त से यह ही ठहरेगा; किन्तु ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है । अवस्तु का श्रद्धान- ज्ञानआचरण अवस्तुरूप ही है, इसलिए व्यवहारनय का उपदेश न्यायप्राप्त है। इसप्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध मिटाकर श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है । " गाथा, आत्मख्याति और जयचन्दजी के भावार्थ सभी में अध्यवसानादिभावों को व्यवहार से जीव कहने की आवश्यकता और उपयोगिता पर जो भी प्रकाश डाला गया है; उसमें दो बातें स्पष्ट होती हैं — Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 - समयसार अनुशीलन (१) यदि नोकर्मरूप शरीर को व्यवहार से भी जीव नहीं माना गया तो त्रस व स्थावर जीवों के घात में हिंसा सिद्ध नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि द्रव्यहिंसा हिंसा ही नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में जिसप्रकार निर्जीव भस्म के मसल देने में कोई दोष नहीं है, बन्ध नहीं होता; उसीप्रकार त्रस और स्थावर जीवों के मसल देने में, घात कर देने में भी कोई दोष नहीं होगा; बन्ध नहीं होगा। इसप्रकार देह को जीव कहनेवाले असद्भूतव्यवहारनय की सर्वथा अस्वीकृति में बंध का सद्भाव सिद्ध नहीं होगा। (२) यदि राग-द्वेष-मोहरूप भावकर्म या अध्यवसान को व्यवहार से भी जीव नहीं माना गया तो इनसे मुक्त होने का नाम ही मोक्ष होने से मोक्ष का भी अभाव सिद्ध होगा। इसप्रकार रागादि को जीव कहने वाले सद्भूतव्यवहारनय की अस्वीकृति में मोक्ष का सद्भाव सिद्ध नहीं होगा। अत: बन्ध और मोक्ष की सिद्धि के लिए सद्भूत और असद्भूत - दोनों व्यवहारनयों का उपदेश न्यायप्राप्त है। इसी गाथा की आत्मख्याति टीका में व्यवहारनय म्लेच्छभाषा के समान परमार्थ का प्रतिपादक है - यह आया है, परन्तु इसके विषय में विशेष स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस प्रकरण पर आठवीं से बारहवीं गाथा तक के अनुशीलन में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है। चारों प्रकार के व्यवहारनयों की क्या उपयोगिता है और उनकी अस्वीकृति में क्या-क्या आपत्तियाँ आती हैं - यदि इस बात की विशेष जिज्ञासा हो तो लेखक की अन्य कृति 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' के व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर' नामक प्रकरण में दूसरे प्रश्न से छठवें प्रश्न तक के प्रकरण का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 391 गाथा ४६ प्रश्न –अध्यवसानों में तो राग-द्वेष-मोहादि ही आते हैं। आप यहाँ यह कैसे कह रहे हैं कि नोकर्मरूप शरीर को यदि जीवं नहीं माना तो बन्ध का अभाव ठहरेगा। उत्तर – यहाँ अकेले अध्यवसानों की बात नहीं है, अपितु अध्यवसानादि भावों की बात है। 'आदि' शब्द में ३९ से ४३वीं गाथाओं में कहे गये आठ प्रकार के सभी भाव आ जाते हैं। उनमें नोकर्मरूप शरीर की भी बात आई है। अत: यहाँ शरीर को जीव नहीं मानने की बात करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है। इसप्रकार इस गाथा में अध्यवसानादि भावों को व्यवहार से जीव कहने की उपयोगिता सिद्ध कर दी गई है। "णविएहिं जं णविजई झाइजइ झाइएहिं अणवरयं। .थुत्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ।। - अष्ट पाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १०३ हे भव्यजीवो! जिनको सारी दुनिया नमस्कार करती है, वे भी जिनको नमस्कार करें; जिनकी सारी दुनिया स्तुति करती है, वे भी जिनकी स्तुति करें एवं जिनका सारी दुनिया ध्यान करती है, वे भी जिनका ध्यान करें;- ऐसे इस देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा को जानो।" वंदनीय पुरुषों द्वारा भी वंदनीय, स्तुति योग्य पुरुषों द्वारा भी स्तुत्य एवं जगत के योग्यपुरुषों द्वारा भी ध्येय पुरुषों का भी ध्येय यह भगवान आत्मा ही शरण में जाने योग्य है - यह जानकर ही आत्मा की शरण में जाने की बात कही गई है। पंचपरमेष्ठी भगवन्तों ने भी जिसकी शरण को ग्रहण कर रखा है और रत्नत्रय धर्म भी जिसकी शरण का ही परिणाम है ; उस भगवान आत्मा को ही जानने की प्रेरणा दी गई है इस गाथा में । उसे ही जानने-पहिचानने का आदेश दिया है आचार्य भगवन्त ने और उसी में जम जाने, रम जाने का उपदेश आता है तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १९९ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४७-४८ आचार्यदेव ने ४६वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने की उपयोगिता बताकर शिष्यों को सन्तुष्ट तो कर दिया, पर अब शिष्य यह जानना चाहते हैं कि वह कौन-सा व्यवहार है, किसप्रकार का व्यवहार है कि जिसका यहाँ दिखाया जाना इतना आवश्यक था ? शिष्य किसी सरल - सुबोध उदाहरण के माध्यम से यह बात जानना चाहते हैं । ऐसा विचार कर इस बात को आचार्यदेव निम्नांकित गाथाओं द्वारा सोदाहरण समझाते हैं - राया हु णिग्गदो त्तिय एसो बलसमुदयस्स आदेसो । ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥ ४७ ॥ एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ॥ ४८ ॥ ( हरिगीत ) सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें । यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है ॥ ४७ ॥ बस उस तरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को । जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है ॥ ४८ ॥ सेना सहित राजा के निकलने पर जो यह कहा जाता है कि 'यह राजा निकला' वह व्यवहार से ही कहा जाता है; क्योंकि उस सेना में वस्तुतः राजा तो एक ही होता है। उसीप्रकार अध्यवसानादि अन्य भावों को 'ये जीव हैं ' इसप्रकार जो सूत्र (आगम) में कहा गया है, तो व्यवहार से ही कहा गया है । यदि निश्चय से विचार किया जाय तो उसमें जीव तो एक ही है । - Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393 गाथा ४७-४८ उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार ‘यह राजा पाँच योजन के विस्तार में निकल रहा है' - यह कहना व्यवहारीजनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है; क्योंकि एक राजा का पाँच योजन में फैलना अशक्य है। अत: परमार्थ से राजा तो एक ही है, सेना राजा नहीं है। इसीप्रकार यह जीव समग्र रागग्राम में व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है' - यह कहना व्यवहारीजनों का अध्यवसानादि भावों में जीव कहने का व्यवहार है; क्योंकि एक जीव का समग्र रागग्राम में व्याप्त होना अशक्य है। अत: परमार्थ से जीव तो एक ही है, अध्यवसानादि भाव जीव नहीं है।" ४६वीं गाथा में व्यवहारनय की उपयोगिता बताई गई है और ४७वीं व ४८वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने के सन्दर्भ में व्यवहारनय की प्रवृत्ति किसप्रकार होती है - यह बात सेनासहित राजा के गमन का उदाहरण देकर समझाई गई है। अध्यवसानादि भावों को जिनागम में जीव कहा है और यहाँ उन्हें पुद्गल कहा जा रहा है - इसका क्या कारण है? – इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ने कहा था कि अध्यवसानादि भावों को पुद्गल कहना परमार्थ कथन है और उन्हें जीव कहना या जीव का कहना व्यवहार कथन है। उक्त सन्दर्भ में शिष्य का कहना यह है कि व्यवहार तो अनेक प्रकार का होता है – सद्भुत, असद्भूत, उपचरित, अनुपचरित। घी का संयोग देखकर मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना भी व्यवहार है और आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है - यह कहना भी व्यवहार है। अध्यवसानादि भावों को जीव का कहना इनमें से कौन-सा व्यवहार है, किसप्रकार का व्यवहार है? Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 394 इस प्रश्न का उत्तर आचार्यदेव नयों का नाम बताकर नहीं देते हैं, अपितु उदाहरण देकर ही वे अपनी बात को स्पष्ट करते हैं । यहाँ ही नहीं, आचार्य कुन्दकुन्ददेव की सर्वत्र यही शैली रही है, वे सभी जगह इसीप्रकार उदाहरण देकर ही समझाते हैं । इस समयसार में भी अनेकों स्थल ऐसे हैं, जहाँ उन्होंने इसीप्रकार के उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट की है। वे ऐसा भी कह सकते थे कि यह कथन उपचरित-असद्भूत व्यवहारनय का या उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का है; परन्तु ऐसा न कहकर वे सेना सहित राजा के निकलने का उदाहरण देकर समझाते हैं कि अध्यवसानादि भावों को जीव कहना उसीप्रकार का व्यवहार है कि जिसप्रकार सेनासहित राजा के निकलने पर यह कहा जाता है कि राजा निकल रहा है अथवा राजा पाँच योजन के विस्तार में निकल रहा है। प्रश्न -आचार्यदेव ऐसा क्यों करते हैं? सीधा-सच्चा रास्ता तो यही था कि वे व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों में से व्यवहारनय के उस भेद का नाम बता देते, जिस भेद का विषय इसप्रकार के कथन बनते हैं। उत्तर - अरे, भाई! आचार्य भगवान की करुणा अपार है। वे अच्छी तरह जानते थे कि उनके सभी पाठक या श्रोता नयों के विशेषज्ञ नहीं हैं, जो नय का नाम मात्र बता देने से ही समझ जायेंगे; सामान्य श्रोताओं को उदाहरण देकर समझाना ही श्रेयस्कर रहता है। यही कारण है कि आचार्यदेव सर्वत्र उदाहरण देकर ही अपनी बात स्पष्ट करते हैं। प्रश्न – यह तो ठीक है, अच्छी बात है; पर साथ में नय का नाम भी बता देते तो नयों के जानकारों को भी सुविधा हो जाती। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 395 गाथा ४७-४८ उत्तर - क्या बात करते हो? नयों के जानकारों को इतनी छोटी बात बताने की आवश्यकता नहीं रहती । वे तो नयों का नाम बिना बताये ही यह जान लेते हैं कि यह किस नय का कथन है । यहाँ यह जिज्ञासा तो साधारण पाठकों की ही है कि वह कौनसा व्यवहार हैं, किसप्रकार का व्यवहार है ? यही कारण है कि आचार्यदेव उदाहरण देकर समझा रहे हैं । यह बात भी तो है कि विशेषज्ञों को उदाहरणों की आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणों से साधारण जिज्ञासु ही समझते हैं, समझाये जाते हैं । यही कारण है कि जैनदर्शन ने अनुमान के अंगों में उदाहरण को स्थान नहीं दिया है । आचार्य माणिक्यनंदी परीक्षामुख सूत्र में लिखते हैं "एतद् द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणम् दो अंग ही अनुमान के हैं, उदाहरण नहीं ।" जब आचार्यदेव सामान्य शिष्यों को समझाना चाहते हैं, तभी उदाहरणों का उपयोग करते हैं । चूंकि यहाँ उन्होंने उदाहरण के माध्यम से ही समझाया है; अत: यहाँ उनकी दृष्टि में मुख्यरूप से वे ही शिष्य हैं, जिन्हें उदाहरण से समझाने की आवश्यकता होती है । - ― पक्ष और हेतु ये - दूसरे सेना सहित राजा का उदाहरण देकर वे उक्त कथन के वजन को स्पष्ट करना चाहते हैं । मूल राजा को राजा कहने और सेना सहित राजा को राजा कहने में सत्यार्थता और असत्यार्थता के वजन का जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर ज्ञायकभाव को जीव कहने और अध्यवसानादि भावों सहित जीव को जीव कहने में है । इसप्रकार ४६वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने की उपयोगिता बताने से पाठकों की दृष्टि में इस नय का जो अनपेक्षित वजन बढ़ गया था, इस उदाहरण से उस वजन को संतुलित किया गया है । १. परीक्षामुख तृतीय परिच्छेद, सूत्र ३३ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 396 जिस नय के कथन का जितना वजन होता है, उसकी अपेक्षा समझकर हमारी दृष्टि में उस नय का ठीक उतना ही वजन आना चाहिए, तभी हमारी दृष्टि निर्मल होगी; समझ व्यवस्थित होगी, सही होगी। प्रश्न - यह वजन क्या है? क्या नयों में भी वजन होता है? उत्तर –होता है, क्यों नहीं होता? जब हमारी बात में वजन होता है तो नयों का कथन भी तो बात ही है, उसमें वजन क्यों नहीं होगा? ___ जब वक्ता की प्रामाणिकता के आधार पर उनकी बात में वजन होता है, छोटे-बड़े वक्ता की बात में वजन का अन्तर होता है तो नयों की बात में भी वजन का अन्तर क्यों नहीं होगा? यदि वजन की बात को विशेष समझना है तो परमभावप्रकाशक नयचक्र के पृष्ठ १२२ से १२५ तक देखना चाहिए। - इसप्रकार उक्त सम्पूर्ण प्रकरण से एक बात सिद्ध हो गई कि जिन्हें व्यवहार से जीव कहा गया है, वे अध्यवसानादि आठ प्रकार के भाव परमार्थजीव नहीं है। ___ अब सहज ही प्रश्न उठता है कि यदि अध्यवसानादि भाव परमार्थजीव नहीं है तो फिर परमार्थजीव क्या है? इस प्रश्न का उत्तर अगली गाथा में दिया जाएगा। इन देहादिपरपदार्थों से भिन्न निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होना ही एक अभूतपूर्व अद्भुत क्रान्ति है, धर्म का आरम्भ है, सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है, साक्षात् मोक्ष का मार्ग है, भगवान बनने, समस्त दु:खों को दूर करने और अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है । - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ ५१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ४९ 'यद्यपि अध्यवसानादि भावों को जिनागम में भी विभिन्न अपेक्षाओं से जीव कहा गया है; तथापि वे पारमार्थिक जीव नहीं है' - यह बात जीवाजीवाधिकार के आरम्भ से ही कहते आ रहे हैं। अत: अब शिष्य पूछता है कि यदि अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो फिर एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव कैसा है, उसका स्वरूप क्या है? इसी प्रश्न का उत्तर ४९वीं गाथा में दिया गया है, जो इसप्रकार है अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं ।। ४९॥ ( हरिगीत ) चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।। ४९ ।। हे भव्य ! तुम जीव को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अनिर्दिष्टसंस्थान, अलिंगग्रहण और चेतनागुणवाला जानो। यह गाथा भगवान आत्मा का पारमार्थिक स्वरूप बतानेवाली होने से समयसार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथाओं में से एक गाथा है । यह गाथा न केवल समयसार में ही है, अपितु आचार्य कुन्दकुन्द कृत पाँचों ही परमागमों में पाई जाती है। प्रवचनसार में १७२वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं एवं अष्टपाहुड के भावपाहुड में ६४वीं गाथा है और समयसार में यह ४९वीं गाथा है ही। __आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है और पद्मनन्दी पंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह गाथा उचूत की गई है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 398 इसप्रकार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करनेवाली यह गाथा जिनागम की सर्वाधिक लोकप्रिय गाथा है। इस गाथा में अरस, अरूप आदि आठ विशेषणों के माध्यम से दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप समझाया गया है। यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार पर आत्मख्याति, प्रवचनसार पर तत्त्वप्रदीपिका एवं पंचास्तिकाय पर समयव्याख्या नामक टीकाएँ लिखी हैं। उन्होंने अपनी तीनों टीकाओं में इस गाथा का अलग-अलग प्रकार से अर्थ किया है, जो अपने-आप में अद्भुत है; मूलत: पठनीय है, गहराई से अध्ययन करने योग्य है, मननीय है। आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र ने भगवान आत्मा के इन विशेषणों के एक-एक के अनेक-अनेक अर्थ किए हैं । अरस, अरूप, अगंध, अशब्द और अव्यक्त विशेषण के छह-छह अर्थ किये हैं तथा अनिर्दिष्टसंस्थान के चार अर्थ किए हैं। पुद्गल के चार गुणों में रस, रूप और गंध - ये तीन गुणों के अभावरूप अरस, अरूप, अगंध विशेषण तो मूल गाथा में है; पर पुद्गल के स्पर्श गुण का निषेध करनेवाला अस्पर्श विशेषण नहीं है। अत: प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में तो आचार्य अमृतचन्द्र ने अव्यक्त विशेषण का ही अर्थ अस्पर्श किया है और वे आचार्य अमृतचन्द्र ही यहाँ अव्यक्त के उससे भिन्न चार अर्थ करते हैं और अस्पर्श विशेषण को गाथा में छन्दानुरोधवश अनुक्त मानकर वैसे ही ऊपर से ले लेते हैं और अरस, अरूप, अगंध के समान उसके भी छह अर्थ करते हैं। इसप्रकार इस आत्मख्याति में भगवान आत्मा के आठ विशेषणों के स्थान पर नौ विशेषण हो गये हैं और अरस के छह, अरूप के छह, अगंध के छह, अस्पर्श के छह, अशब्द के छह, अव्यक्त के छह, Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 399 अनिर्दिष्ट के चार, अलिंगग्रहण और चेतनागुणवाला का एक-एक - इसप्रकार कुल मिलाकर ब्यालीस विशेषण हो जाते हैं; जो सभी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के स्वरूप को ही गहराई से स्पष्ट करते हैं । गाथा ४९ प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका में अलिंगग्रहण को छोड़कर शेष सभी विशेषणों का एक-एक अर्थ ही किया है; परन्तु अलिंगग्रहण के सामान्यार्थ के अतिरिक्त बीस अर्थ अलग से किये हैं, जो अपने-आप में अद्भुत हैं, गहराई से समझने योग्य हैं, मंथन करने योग्य हैं। यदि उनके सम्बन्ध में गहरी जिज्ञासा हो तो आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी के तत्संबंधी प्रवचनों का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। वे प्रवचन 'अलिंगग्रहण' नाम से पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुए हैं। उनके सम्बन्ध में अभी यहाँ विस्तृत प्रकाश नहीं डाला जायेगा; क्योंकि जब प्रवचनसार का अनुशीलन करेंगे, तब ही उन पर प्रकाश डालना उचित प्रतीत होता है । यहाँ तो आत्मख्याति में समागत अर्थों का अनुशीलन ही अपेक्षित है। आत्मख्याति में इस गाथा का जो भाव स्पष्ट किया गया है, वह इसप्रकार है - " (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में रसगुण नहीं है; अतः जीव अरस है । (२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी रसगुण नहीं है; अतः जीव अरस है । (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रस नहीं चखता; अतः अरस है । १. अलिंगग्रहण : प्रकाशक - ब्र. दुलीचंद जैन ग्रंथमाला सोनगढ़ (सौराष्ट्र ) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 400 (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रस नहीं चखता; अतः अरस है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक रसवेदना परिणाम को पाकर रस नहीं चखता; अत: अरस है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरस है। - इसप्रकार छह प्रकार के रस के निषेध से आत्मा अरस है। (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में रूपगुण नहीं है; अत: जीव अरूप है। (२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी रूपगुण नहीं है; अत: जीव अरूप है। (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रूप नहीं देखता; अतः अरूप है। (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रूप नहीं देखता, अत: अरूप है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल रूपवेदना परिणाम को पाकर रूप नहीं देखता; अत: अरूप है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रूप के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रूपरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरूप है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 गाथा ४९ - इसप्रकार छह प्रकार से रूप के निषेध से आत्मा अरूप है । (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में गंधगुण नहीं है; अतः जीव अगंध है। (२) पुदगलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी गंधगुण नहीं है; अत: जीव अगंध है। (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से गंध नहीं सूंघता; अत: अगंध है। (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी गंध नहीं सूंघता; अत: अगंध है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक गंधवेदना परिणाम को पाकर गंध नहीं सूंघता; अत: अगंध है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से गंध के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं गंधरूप परिणमित नहीं होता; अतः अगंध है। - इसप्रकार छह प्रकार से गंध के निषेध से आत्मा अगंध है। (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में स्पर्शगुण नहीं है; अत: जीव अस्पर्श है। (२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी स्पर्शगुण नहीं है; अत: जीव अस्पर्श है। (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से स्पर्श को नहीं स्पर्शता; अत: अस्पर्श है। (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी स्पर्श को नहीं स्पर्शता; अत: अस्पर्श है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 समयसार अनुशीलन (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक स्पर्शवेदना परिणाम को पाकर स्पर्श को नहीं स्पर्शता; अत: अस्पर्श है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से स्पर्श के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं स्पर्शरूप परिणमित नहीं होता; अत: अस्पर्श है। - इसप्रकार छह प्रकार से स्पर्श के निषेध से आत्मा अस्पर्श है। (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में शब्दपर्याय नहीं है; अत: जीव अशब्द है। (२) पुद्गलद्रव्य की पर्यायों से भी भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी शब्दपर्याय नहीं है; अत: जीव अशब्द है। (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से शब्द नहीं सुनता; अत: अशब्द है। (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी शब्द नहीं सुनता; अत: अशब्द है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक शब्द संवेदना परिणाम को पाकर शब्द नहीं सुनता; अत: अशब्द है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से शब्द के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं शब्दरूप परिणमित नहीं होता; अतः अशब्द है। - इसप्रकार छह प्रकार से शब्दपर्याय के निषेध से आत्मा अशब्द (१) पुद्गलद्रव्य से रचित शरीर के संस्थान (आकार) से जीव को संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 403 गाथा ४९ (२) अपने नियतस्वभाव से अनियतसंस्थानवाले अनन्त शरीरों में रहता है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। (३) संस्थान नामक नामकर्म का विपाक (फल) पुद्गलों में ही कहा जाता है, जीव में नहीं; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। (४) भिन्न-भिन्न संस्थानरूप से परिणमित समस्त वस्तुओं के स्वरूप के साथ स्वाभाविक संवेदन शक्ति से संबंधित होने पर भी जीव समस्त लोक के मिलाप से रहित है; अत: जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। - इसप्रकार चार प्रकार से संस्थान के निषेध से अथवा संस्थान के कथन के निषेध से भगवान आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान है। (१) षड्द्रव्यात्मक लोक ज्ञेय है, अत: व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अतः अव्यक्त है। (२) कषायचक्ररूप भावकभाव व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है; अत: अव्यक्त है। (३) चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है। (४) क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं होने से जीव अव्यक्त है। (५) व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूप से प्रतिभासित होने पर भी वह केवल व्यक्तता को स्पर्श नहीं करता; अत: जीव अव्यक्त है। (६) स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभव में आने पर भी व्यक्तता के प्रति उदासीन रूप से प्रकाशमान है; अत: जीव अव्यक्त है। - इसप्रकार छह प्रकार से व्यक्तता के निषेध से भगवान आत्मा अव्यक्त है । - इसप्रकार जीव में रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी वह स्वसंवेदन ज्ञान के बल से स्वयं Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन सदा प्रत्यक्ष होने से अकेले अनुमान से ही नहीं जाना जाता; अलिंगग्रहण है। अतः 404 जीव जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानियों को सौंप दिया है; जो समस्त लोकालोक को ग्रासीभूत करके अत्यन्त तृप्ति से मंथर हो गया है, उपशान्त हो गया है, अत्यन्त स्वरूप सौख्य से तृप्त होने के कारण बाहर निकलने को अनुद्यमी हो गया है; अत: कभी भी किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और जीव से भिन्न अन्यद्रव्यों में नहीं पाये जाने के कारण स्वभावभूत है ऐसा चेतनागुण समस्त विवादों को नाश करनेवाला है । सदा अपने अनुभव में आनेवाले ऐसे इस चेतनागुण के द्वारा जीव सदा प्रकाशमान है; अतः जीव चेतनागुणवाला है। - इसप्रकार इन नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यरूप, निर्मल प्रकाशवाला, एक भगवान आत्मा परमार्थस्वरूप जीव है, जो इसलोक में भिन्नज्योतिस्वरूप टंकोत्कीर्ण विराजमान है ।" रस, रूप, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गल के गुण हैं और शब्द पुद्गल की पर्याय है । ये पाँचों पाँच इन्द्रियों के विषय हैं । यहाँ इन पाँचों के निषेधरूप पाँच विशेषण आरंभ में ही लिए गये हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि परमार्थ जीव इन्द्रियों का विषय नहीं है, अतः इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता। विशेषकर 'अशब्द' विशेषण से यह संकेत मिलता है; क्योंकि पुद्गल के चार गुणों की बात तो ठीक, परन्तु पर्याय में पुद्गल की 'शब्द' पर्याय को ही क्यों लिया गया; रूप, रस आदि गुणों की पर्यायों को भी लिया जा सकता था । कर्ण इन्द्रिय का विषय होने से ही शब्द को लिया गया है; क्योंकि चार इन्द्रियों के विषय तो स्पर्श, रस, गंध और रूप के रूप में आ ही गये थे; कर्ण इन्द्रिय का विषय ही शेष रहा था, जो शब्द को लेने से आ गया। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 गाथा ४९ आत्मख्याति टीका में अरस आदि पाँच विशेषणों के छह-छह अर्थ किये गये हैं; जो लगभग सभी के एक से ही हैं । अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श के अर्थ तो एकदम एक से ही हैं, अशब्द में थोड़ा-सा अन्तर पड़ता है। अत: यहाँ अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श – इन चार विशेषणों के विभिन्न अर्थों पर एक साथ ही विचार किया जा रहा है। अरसादि चार विशेषणों के प्रथम अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण, आत्मा में पुद्गल के रस, रूप, गंध और स्पर्श गुण भी नहीं है; अत: आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। दूसरे अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने के कारण आत्मा स्वयं भी रसगुण नहीं है, रूपगुण नहीं है, गंधगुण नहीं है और स्पर्शगुण नहीं है; अत: आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। ___ पहले अर्थ में आत्मा को पुद्गलद्रव्य से भिन्न बताया गया है और दूसरे अर्थ में उसके रूप, रस आदि गुणों से भिन्न बताया गया है। अब तीसरे अर्थ में पुद्गलद्रव्य की द्रव्य-इन्द्रियरूप पर्याय से भिन्नता की बात करते हुए पुद्गल के स्वामित्व का निषेध करते हैं। पहले और दूसरे अर्थ में पुद्गल से एकत्व का निषेध किया था और अब तीसरे अर्थ में पुद्गल के स्वामित्व का निषेध करते हैं; क्योंकि पर पुद्गल में ममत्वबुद्धि भी एकत्वबुद्धि के समान ही मिथ्यात्व है। यही कारण है कि इस तीसरे अर्थ में कहते हैं कि परमार्थ से आत्मा पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रस को नहीं चखता, रूप को नहीं देखता, गंध को नहीं ढूंघता और स्पर्श को नहीं छूता; अत: वह अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 406 यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि एकत्वबुद्धि को अहंबुद्धि और स्वामित्वबुद्धि को ममत्वबुद्धि भी कहते हैं तथा पूर्वरंग और जीवाजीवाधिकार का मुख्य प्रयोजन पुद्गलमय शरीरादि परपदार्थों से एकत्व और ममत्' जुड़ाना रहा है; क्योंकि पर का कर्तृत्व और भोक्तृत्व तो आगे चलकर कर्ताकर्म-अधिकार में छुड़ायेंगे। उक्त तीन अर्थों में मुख्यरूप से पाँच द्रव्येन्द्रियरूप शरीर से अथवा पुद्गल के द्रव्य, गुण व पर्याय से एकत्व-ममत्व छुड़ाया गया है। ___ अब चौथे अर्थ में भगवान आत्मा को क्षयोपशमभावरूप भावेन्द्रिय से भी भिन्न बताना चाहते हैं । अत: कहते हैं कि स्वभावदृष्टि से देखा जाय तो भगवान आत्मा क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है ; इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रस को नहीं चखता, रूप को नहीं देखता, गंध को नहीं सूंघता और स्पर्श को नहीं छूता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। इस चौथे अर्थ में क्षयोपशमभावरूप भावेन्द्रियों से भी एकत्वममत्व छुड़ाना चाहते हैं; क्योंकि इनके भी कर्तृत्व और भोक्तृत्व को कर्ताकर्म-अधिकार में ही छुड़ायेंगे। यह चौथा अर्थ तीन अर्थों से अधिक सूक्ष्म है; क्योंकि इसमें अपनी ही विकारी पर्यायों को रसादिरूप कहकर उनसे भिन्नता बताई गई है। इस अर्थ के सम्बन्ध में स्वामीजी कहते हैं - "यह चतुर्थ बोल तीसरे बोल से अधिक सूक्ष्म है। अपने स्वभाव की दृष्टि से अर्थात् त्रिकाली शुद्ध ज्ञायकभाव की दृष्टि से देखें तो आत्मा में क्षयोपशमभाव का भी अभाव है। __ रस को जानने का वर्तमान ज्ञान का विकास, रस को जानने की वर्तमान ज्ञानशक्ति, रस को जानने में अटकनेवाला ज्ञान, एक रस में १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 गाथा ४९ प्रवृत्त होनेवाला ज्ञान – ये सब क्षायोपशमिकभाव हैं; इनका भी परमार्थदृष्टि से आत्मा में अभाव है; क्योंकि आत्मा का स्वरूप परिपूर्ण ज्ञान है। इस स्वभाव की दृष्टि से देखा जाय तो अल्पज्ञान का इसमें अभाव है। चैतन्य आत्मा पूर्णज्ञान की मूर्ति है, अत: अपूर्णज्ञान भी उसका नहीं है।" पाँचवें अर्थ को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "आत्मा अखण्ड ज्ञायकभावरूप वस्तु है, वह पाँचों इन्द्रियों के विषयों को अखण्डरूप से जाननेवाला है; मात्र एक इन्द्रिय के विषय का वेदन करना अथवा उसे जानना आत्मा का स्वभाव नहीं है । पाँचों इन्द्रियों के ज्ञान का संवेदन एकसाथ आत्मा को हो'- यह आत्मा का स्वभाव है। इस कारण वह एक रसवेदना परिणाम को पाकर अर्थात् मात्र एक रस के ही ज्ञान को प्राप्त करके रस को नहीं चखता, अत: आत्मा अरस है।" __इस पाँचवें अर्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा अकेले रस को या अकेले रूप को या अकेली गंध को या अकेले स्पर्श को ही नहीं जानता है; वह तो सबको जानता है, सभी को जानना उसका स्वभाव है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जानना उसका स्वभाव है। यही कारण है कि यहाँ कहा गया है कि समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक रसवेदना परिणाम को पाकर रस नहीं चखता, केवल रूपवेदना परिणाम को पाकर रूप नहीं देखता, केवल गंधवेदना परिणाम को पाकर गंध नहीं सूंघता और केवल स्पर्शवेदना परिणाम को पाकर स्पर्श को नहीं छूता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५ ३. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५-२६ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 408 इसीप्रकार छठवें अर्थ में यह कहा गया है कि यद्यपि आत्मा को समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है; तथापि ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता, रूप के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रूपरूप परिणमित नहीं होता, गंध के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं गंधरूप परिणमित नहीं होता और स्पर्श के ज्ञानरूप परिणमितं होने पर भी स्वयं स्पर्शरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। छठवें अर्थ को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "देखो, सम्पूर्ण विश्व ज्ञेय है और भगवान आत्मा ज्ञायक है। सभी ज्ञेयों को जानने की भगवान आत्मा की सामर्थ्य है। इसलिए ज्ञेय-ज्ञायक संबंध का व्यवहार होने पर भी ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य अर्थात् एकत्व का निषेध तो है ही। ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञायक ज्ञेयरूप नहीं होता। रस तो ज्ञेय है और आत्मा उसे जाननेवाला ज्ञायक है। रसरूप ज्ञेय को जानते हुए भी आत्मा का ज्ञान ज्ञेयरूप या रसरूप नहीं होता। ज्ञान ज्ञानरूप रहता है और रस रसरूप रहता है। रस का ज्ञान ज्ञान का ही परिणमन है; वह ज्ञान के ही कारण है, रस के कारण नहीं।" ___ पाँचवाँ और छठवाँ - ये दोनों अर्थ रस, रूप आदि को जानने संबंधी हैं। पाँचवें अर्थ में यह कहा गया है कि अकेले रस को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अरस है; अकेले रूप को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अरूप है; अकेली गंध को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अगंध है और अकेले स्पर्श को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अस्पर्श है। छठवें अर्थ में कहा गया है कि भगवान आत्मा रस, रूप, गंध और स्पर्श को जानता तो है, उनके ज्ञानरूप तो परिणमित होता है; परन्तु १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२६ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409 गाथा 49 उनरूप परिणमित नहीं होता। इसकारण वह अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श है। इसप्रकार इन छह अर्थों में आरम्भ के दो अर्थ पुद्गलद्रव्य और उसके रस, रूप, गंध और स्पर्श गुणों से आत्मा के भिन्न होने रूप हैं: बीच के दो अर्थ रस, रूप, गंध और स्पर्श को द्रव्येन्द्रियों और भावेन्द्रियों के माध्यम से नहीं जानने संबंधी है और अन्त के दो अर्थ जाननेरूप तो हैं, पर उनमें से पहला अकेले को न जानकर सभी को जाननेरूप है और दूसरा जाननेरूप परिणमित होने पर भी उनरूप परिणमित नहीं होनेरूप है। निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि इन छह अर्थों में आत्मा का पुद्गल के रसादि गुणों के साथ सभी प्रकार के संबंधों का बड़ी ही निर्दयता से निषेध कर दिया गया है; मात्र एक ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को स्वीकार किया गया है, वह भी इस शर्त के साथ कि वह किसी एक के साथ ही ज्ञेय-ज्ञायक रूप से संबंधित नहीं है, अपितु समानरूप से सभी को जानता है; जानता तो है, जाननेरूप परिणमित तो होता है; पर रसादिरूप परिणमित कभी भी नहीं होता। प्रश्न - अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श का सीधा-सच्चा अर्थ यह है कि आत्मा में खट्टा, मीठा, चरपरा, कषायला और कड़वा - ये पाँच रस नहीं हैं, अत: अरस है; काला, पीला, हरा, लाल और सफेद - ये पाँच रंग नहीं हैं, अत: अरूप है; सुगंध और दुर्गन्ध - ये दो गंध नहीं हैं, अत: अगंध है और रूखा, चिकना, कड़ा, नर्म, ठंढा, गर्म, हल्का और भारी - से आठ स्पर्श नहीं हैं, अत: अस्पर्श है। यहाँ यह अर्थ तो नहीं किया और न मालूम कहाँ-कहाँ से कैसेकैसे अर्थ निकाले हैं ? मान लो कि जो अर्थ निकाले हैं, वे भी ठीक हैं; पर साथ में यह अर्थ भी तो करना चाहिए था? Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 410 उत्तर - अरे भाई! इतना उत्तेजित क्यों होते हो? यह अर्थ भी करेंगे। जरा धैर्य रखो, आगामी गाथाओं में यही अर्थ किया गया है। आगामी पाँच गाथाओं में इसी बात को विस्तार से कहा गया है; वहाँ भी आत्मा को रस, रूप, गंध और स्पर्श से रहित बताया है। आपने प्रश्न में जैसा सरल-सहज अर्थ बताया, वैसा ही अर्थ वहाँ दिया गया है। उसे भी यहाँ ही दे देते तो फिर वहाँ क्या करते? यहाँ जो गंभीर अर्थ किये हैं, वे भेदज्ञान की विशेष सिद्धि के लिए ही किए गए हैं; क्योंकि यह अज्ञानी जीव ऐसा जानकर भी कि आत्मा में रसादि नहीं हैं; उनसे किसी न किसी प्रकार अपनत्व, एकत्व, ममत्व स्थापित कर लेता है और कुछ नहीं तो सामान्य ज्ञेय-ज्ञायक संबंध के आधार पर ही उन्हें अपना जानने-मानने लगता है। अत: यहाँ उन सभी संभावनाओं को सयुक्ति नकारा गया है। अतः इन गंभीर अर्थों को पढ़कर अरुचि से नाक-भों नहीं सिकोड़ना चाहिए, अपितु उन्हें गहराई से समझकर अपने आत्मा का सही स्वरूप जानकर, उसमें ही एकत्व-ममत्व स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। अब अशब्द के छह अर्थों पर विचार करते हैं / अशब्द के छह अर्थ भी रूपादि के छह अर्थों के समान ही करना है; परन्तु इतना अन्तर तो अवश्य होगा कि जहाँ रूपादि गुण होने से उनके साथ गुण शब्द का प्रयोग किया गया था, शब्द के पर्याय होने से यहाँ पर्याय शब्द का उपयोग होगा। __ अशब्द विशेषण के प्रथम अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण आत्मा में पुद्गल की भाषावर्गणा की पर्यायरूप शब्द भी नहीं है; अतः आत्मा अशब्द है। दूसरे अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य की पर्यायों से भिन्न होने के कारण आत्मा स्वयं भी शब्दपर्याय नहीं है; अत: अशब्द है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 411 गाथा 49 तीसरे अर्थ में कहते हैं कि परमार्थ से आत्मा पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है; इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से भी शब्द को नहीं सुनता; अत: अशब्द है। ___ चौथे अर्थ में कहते हैं कि स्वभावदृष्टि से देखा जाय तो भगवान आत्मा क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसकारण वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है। ___ पाँचवें अर्थ में यह कहा गया है कि आत्मा अकेले शब्द को नहीं जानता; क्योंकि उसका स्वभाव तो सभी को जानना है, पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जानना है। अतः वह केवल शब्दवेदना परिणाम को पाकर शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है। छठवें अर्थ में कहा गया है कि भगवान आत्मा शब्दों को जानता तो है, उनके ज्ञानरूप तो परिणमित होता है, पर शब्दरूप परिणमित नहीं होता; अतः अशब्द है। इसप्रकार ये छह अशब्द विशेषण के अर्थ हैं / इसके सन्दर्भ में भी वे सभी बातें लगा लेनी चाहिए, जो अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श के बारे में कही गई हैं। अब अनिर्दिष्टसंस्थान विशेषण पर विचार करते हैं। निर्दिष्ट माने कहा जाना और संस्थान माने आकार। जिसके आकार के बारे में कुछ भी कहा जाना संभव नहीं हो, उसे अनिर्दिष्टसंस्थान कहते हैं। ___ यह असंख्यातप्रदेशी भगवान आत्मा संसारावस्था में जिस शरीर में रहता है, उसी के आकार में परिणमित हो जाता है। आत्मा का कोई आकार तो सुनिश्चत है नहीं, इसकारण उसके आकार के बारे में यही कहा गया है कि वह निश्चय से असंख्यातप्रदेशी है और व्यवहार से स्वदेहप्रमाण है। अत: निश्चय से उसके आकार के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। यही कारण है कि उसे यहाँ अनिर्दिष्टसंस्थान कहा गया है। 2 हा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 412 जिसप्रकार हाथ की पाँच अंगुलियों में चार के नाम तो अपने आकार-प्रकार, स्थिरता और कार्य के कारण सुनिश्चित हैं, पर एक अंगुली में कोई विशेष विशेषता न होने से उसका सार्थक नाम रखना संभव नहीं हुआ तो उसे अनामिका नाम से ही पुकारने लगे। अनामिका माने बिना नाम की। विना नाम की - यह भी एक नाम हो गया। ___ अंगूठे को बलिष्ठ होने से अंगुष्ठ कहते हैं, उसके पास की अंगुली को धमकी देने के काम में आने से तर्जनी कहते हैं, बीच की अंगुली को बीच में होने से मध्यमा कहते हैं और अन्तिम अंगुली सबसे छोटी होने से कनिष्ठा कही जाती है; पर कनिष्ठा के पास की अंगुली को क्या कहें? कुछ समझ में नहीं आया तो उसे अनामिका ही कहने लगे। इसीप्रकार जिसके मौलिक आकार के बारे में कुछ कहना संभव न हो, उसे अनिर्दिष्टसंस्थान कहते हैं / आत्मा के पारमार्थिक आकार के बारे में कुछ कहना संभव नहीं है / अतः उसे यहाँ अनिर्दिष्टसंस्थान कहा गया है। अनिर्दिष्टसंस्थान के जो चार अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र ने किए हैं, उनसे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। पहले ही अर्थ में वे साफसाफ लिखते हैं कि पुद्गलद्रव्य से रचित शरीर के संस्थान के कारण जीव को संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता; इसकारण जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। अनन्त शरीरों के अनन्त संस्थान (आकार) होते हैं। एक-एक शरीर भी अनेक आकारों में परिवर्तित होता रहता है। अत: उनके आधार पर आत्मा के सुनिश्चित आकार को कहना संभव नहीं है। देह के अनियत संस्थानों के आधार पर असंख्यातप्रदेशी नियत संस्थानवाले आत्मा के संस्थान (आकार) को कहना संभव नहीं है। अतः आत्मा को अनिर्दिष्टसंस्थान कहा गया है। - यह अनिर्दिष्टसंस्थान का आचार्य अमृतचन्द्रकृत दूसरा अर्थ है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 413 गाथा 49 इसके सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है - "भगवान आत्मा नित्य असंख्यातप्रदेशी है - ऐसा उसका नियतस्वभाव है। शरीर के भिन्न-भिन्न आकार अर्थात् एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पाँच-इन्द्रिय आदि के आकार अनियत हैं। ऐसे अनियत-आकारोंवाले अनन्त शरीरों में आत्मा रहता है; इसलिए यह नियतसंस्थानवाला नहीं कहा जा सकता, अत: अनिर्दिष्टसंस्थान है।" तीसरे अर्थ में यह बताया गया है कि संस्थान नामक नामकर्म का विपाक (फल) तो पुद्गलों में ही होता है, शरीर में ही होता है। अत: उसके कारण भी आत्मा को किसी आकारवाला नहीं कहा जा सकता; अत: आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान है। चौथे अर्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि लोक में विभिन्न आकारोंवाली अनेकानेक वस्तुएं हैं / यद्यपि यह भगवान आत्मा उन्हें जानता है; पर उनसे इसका कोई मिलाप नहीं है; अतः यह अनिर्दिष्टसंस्थान है। इसके बारे में स्वामीजी कहते हैं - "दाल-भात-रोटी, शरीर, मकान आदि अनेक आकारवाली वस्तुओं को जानते हुए भी आत्मा उनके आकाररूप नहीं होता, उनके आकाररूप नहीं परिणमता है। पर के आकाररूप नहीं परिणमित होने से ही आत्मा संस्थानरहित है अर्थात् अनिर्दिष्टसंस्थान है।" उक्त चार अपेक्षाओं से भगवान आत्मा को अनिर्दिष्टसंस्थान कहा गया है। 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 230 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 230 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 समयसार अनुशीलन प्रश्न - शास्त्रों में समचतुरस्त्र आदि छह संस्थानों की चर्चा है। वे छह संस्थान आत्मा में नहीं हैं, इसलिए जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है; आचार्य अमृतचन्द्र ने ऐसा अर्थ क्यों नहीं किया? उत्तर - ऐसा अर्थ आगे ५०वीं गाथा में किया गया है। प्रश्न -वहाँ ही क्यों किया; यहाँ क्यों नहीं किया? उत्तर –क्योंकि वहाँ यह कहा गया है कि आत्मा में संस्थान नहीं है; अत: वहाँ आत्मा में समचतुरस्र आदि छह संस्थानों का निषेध किया गया है। वहाँ असंस्थान की बात है और यहाँ अनिर्दिष्टसंस्थान की बात है। वहाँ संस्थानों के निषेध.की बात है और यहाँ संस्थान के बारे में कहे जाने के निषेध की बात है। - इस अन्तर को हमें समझना चाहिए। प्रश्न - आचार्य जयसेन ने तो इसी गाथा में 'समचतुरस्रादिषट्संस्थानरहितं' - ऐसा अर्थ किया है। उत्तर -किया है तो अच्छा ही किया है; पर उन्होंने आगामी ५०वीं गाथा में असंस्थान का भी यही अर्थ किया है। जयसेन ने असंस्थान और अनिर्दिष्टसंस्थान दोनों का एक ही अर्थ किया है और अमृतचन्द्र ने दोनों के अलग-अलग अर्थ किए हैं। प्रश्न -आप दोनों में से किस अर्थ को प्रमाण मानते हैं? उत्तर -हम दोनों ही अर्थों को प्रमाण मानते हैं; क्योंकि दोनों ही अर्थों के प्रयोजन में कोई अन्तर नहीं है। प्रश्न -फिर भी आप दोनों में अच्छा अर्थ किसे समझते हैं? उत्तर -आचार्यों की वाणी में अच्छे-बुरे का भेद हमें भासित नहीं होता। हमारा काम तो दोनों के ही कथनों से आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी के मर्म को समझना-समझाना है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 गाथा 49 प्रश्न -आप इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते; अत: चतुराई से टाल रहे हैं? उत्तर -अरे भाई ! इसमें चतुराई की क्या बात है ? हम भावलिंगी संतों में ऐसा भेद कैसे कर सकते हैं? हमारा काम तो इतना ही है कि विभिन्न विशेषणों के जो विभिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं; उन्हें पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दें। जबतक उनमें कोई ऐसा अन्तर न हो कि जिससे सैद्धान्तिक मतभेद खड़ा होता हो, तबतक उनको सन्दर्भ में कुछ भी टिप्पणी करना अनावश्यक ही नहीं; अनर्गल चेष्टा है। ___ अब अव्यक्त विशेषण के सम्बन्ध में विचार करते हैं। आत्मख्याति में अव्यक्त विशेषण के भी छह अर्थ किए गये हैं। __ पहले अर्थ में ज्ञेयभावों से एवं दूसरे अर्थ में भावकभावों से भिन्नता बताई गई है। अत: कहा गया है कि छहद्रव्यमयी लोक व्यक्त है, कषायचक्ररूप भावकभाव व्यक्त है और उनसे भिन्न होने के कारण भगवान आत्मा अव्यक्त है / यहाँ ज्ञेयभावों और भावकभावों को व्यक्त कहकर, उनसे भिन्न होने के कारण आत्मा को अव्यक्त कहा गया है। ज्ञेय पदार्थों और रागादि भावकभावों से भिन्नता की बात विगत गाथाओं में विस्तार से स्पष्ट हो चुकी हैं / अतः अब यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। __ अव्यक्त के तीसरे अर्थ के सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार द्रष्टव्य हैं, जो इसप्रकार हैं - ___ "चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त पर्यायें निमग्न हैं। जो पर्यायें भविष्य में होनेवाली हैं और जो पर्यायें भूतकाल में हो गई हैं; वे सभी पर्यायें चैतन्य सामान्य में अन्तर्लीन हैं। वर्तमान पर्याय चैतन्य में लीन नहीं है। यदि वर्तमान पर्याय भी उसमें निमग्न हो तो जानने का काम कौन करेगा? वर्तमान पर्याय के अलावा भूत-भविष्य की समस्त पर्यायें चैतन्य में अन्तर्लीन हैं; इसलिए गाथा में 'जाण' शब्द का प्रयोग किया Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 416 गया है। तात्पर्य यह है कि जाननेवाली वर्तमान पर्याय तो चित्सामान्य से बाहर ही रही और इसी वर्तमान व्यक्त पर्याय में अव्यक्त ज्ञायक वस्तु को जान - ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। जिसप्रकार पानी की तरंग पानी में समा जाती है; उसीप्रकार व्यक्त होनेवाली पर्याय द्रव्यरूप ही हो जाती है। इसीतरह जब निर्मलपर्याय प्रगट होती है। तब क्षयोपशम, क्षायिक या उपशमभावरूप होती है; परन्तु जब अन्दर द्रव्य में ही व्यय होकर समा जाती है, तब वह पारिणामिकभावरूप ही हो जाती है, अर्थात् उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमभावरूप नहीं रहती।" प्रश्न -स्वामीजी ने स्पष्टीकरण तो बहुत अच्छा किया है, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने तो लिखा है कि चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है और स्वामीजी ने भूत-भविष्य की पर्यायों को तो निमग्न माना, परन्तु वर्तमान व्यक्त पर्याय को अलग रख लिया - ऐसा क्यों किया? उत्तर - अव्यक्त विशेषण में व्यक्त पर्याय को कैसे शामिल किया जा सकता है? भूत व भविष्य की पर्यायें भी पर्यायरूप में शामिल नहीं की गई हैं, अपितु पारिणामिकभाव के रूप में शामिल की हैं; क्योंकि दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा में क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और औदयिक भावों को तो शामिल किया ही नहीं जा सकता। आत्मा को जाननेवाली वर्तमान पर्याय क्षायोपशमिकभावरूप है। अत: उसे दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा में शामिल करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। प्रश्न - तीन कालों में भूत और भविष्य की पर्यायें तो पारिणामिकभावरूप से शामिल हो गई और वर्तमान पर्याय अलग रह गई तो फिर आत्मा त्रिकाली कैसे रहा? 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 234-35 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 417 गाथा 49 उत्तर -अरे, भाई ! पारिणामिकभाव पर्यायरूप नहीं है, द्रव्यरूप है; अत: वह सदा त्रिकाली ही होता है। भूत- भविष्य की पर्यायें पारिणामिकभावरूप हो गईं का अर्थ ही यह है कि वे द्रव्यरूप हो गईं। पर्यायें द्रव्य में से ही प्रगट होती हैं और द्रव्य में ही समा जाती हैं / अत: दृष्टि का विषय तो द्रव्य ही रहा। इसी कारण इस दृष्टि को द्रव्यदृष्टि भी कहते हैं। प्रश्न -आप कुछ भी कहो, परन्तु जब वर्तमान पर्याय अलग रह गई तो फिर द्रव्य त्रिकाली कैसे रहा? अखण्डित कैसे रहा? - यह समझ में नहीं आता। उत्तर -हम कुछ भी क्यों कहें? हम तो वही कहेंगे, जो वस्तु का स्वरूप है, आगमानुकूल है, तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है। वर्तमान के दो रूप हैं - एक व्यक्त पर्यायरूप और दूसरा त्रिकाली का वह अव्यक्तरूप, जो भूत-भविष्य के बीच की कड़ी है एवं भूत और भविष्य को अखण्ड रखता है; भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों में अखण्ड रहता है और जिसे काल की अखण्ता कहा जाता है, नित्यता कहा जाता है। यह तो आप जानते ही हैं कि 'है' क्रिया का प्रयोग वर्तमान के अर्थ में भी होता है और त्रिकाल के अर्थ में भी होता है। जैसे - 'आत्मा नित्य है' - इस वाक्य में 'है' क्रिया का प्रयोग त्रिकाली के अर्थ में हुआ है। यह बात सातवीं गाथा के अनुशीलन में विस्तार से समझाई जा चुकी है / आप उसका एक बार गहराई से अध्ययन करें तो सब समझ में आ जायगा। __ अरे भाई! आप एक ओर भूत-भविष्य की पर्यायों को द्रव्य में पारिणामिकभावरूप से अन्तर्मग्न मान रहे हैं और दूसरी ओर उन्हें काल से खण्डित भी कर रहे हैं। आप यह क्यों भूल जाते हैं कि पारिणामिकभाव द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सभी ओर से अखण्डित ही Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 418 होता है और यहाँ भी वह अखण्डित ही है। यही कारण है कि यहाँ चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव को अव्यक्त कहा गया है। __चौथे अर्थ में कहा गया है कि भगवान आत्मा क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है; अत: अव्यक्त है / इसका भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "तीसरे बोल में सर्व व्यक्तियों की सामान्य बात कही थी, परन्तु यहाँ चौथे बोल में क्षणिकव्यक्ति अर्थात् एक समय की मात्र वर्तमान पर्याय की बात की गई है। आत्मा क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है; अत: अव्यक्त है। एक समय की पर्याय व्यक्त है, वह क्षणिक है। जब आत्मा शुद्ध चैतन्य सामान्य त्रिकाल है तो क्षणिक व्यक्तिमात्र प्रगट पर्याय के बराबर कैसे हो सकता है ? ...... इस बोल का तात्पर्य यह है कि पर्याय एक समय मात्र का सत् होने से दृष्टि करने योग्य और आश्रय करने योग्य नहीं है। अत: अनंतकाल में जिसका आश्रय नहीं किया है - ऐसे एक शुद्ध त्रिकाली अव्यक्त आत्मस्वभाव का आश्रय करना योग्य है।" इस चौथे अर्थ से भी उस आशंका का निराकरण होता है कि जो तीसरे अर्थ के समझने से हो सकती है। चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियों के अन्तर्गभित होने से यह आशंका उत्पन्न होती है कि जव सभी व्यक्तियाँ त्रिकालीध्रुवरूप ज्ञेय में ही शामिल हो गईं तो अब उसे जानने का कार्य कौन करेगा? - इस चौथे अर्थ में क्षणिक व्यक्ति को अलग रखकर अव्यक्त को जानने की समस्या का समाधान कर दिया गया है। अरसादि विशेषणों के समान अव्यक्त विशेषण का भी पाँचवाँछठवाँ अर्थ जानने सम्बन्धी है / इनमें व्यक्तता और अव्यक्तता - दोनों 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ट 235 ------ -- - ------ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 419 गाथा 49 को जानने की बात होने पर भी पाँचवें अर्थ में तो यह बताया गया है कि वह अकेली व्यक्तता को नहीं जानता; दोनों को ही मिश्रितरूप से जानता है; अत: अव्यक्त है और छठवें अर्थ में यह बताया गया है कि जानते हुए भी वह व्यक्तता के प्रति उदासीन रहता है; अत: अव्यक्त है। आचार्य जयसेन अव्यक्त का अर्थ मनोगत काम-क्रोधादि विकल्पों से रहित होने से अव्यक्त है, सूक्ष्म है - ऐसा करते हैं। ___ अब अलिंगग्रहण विशेषण का अर्थ करते हैं। प्रवचनसार में तो अलिंगग्रहण के बीस अर्थ किए हैं; पर यहाँ तो मात्र यही कहा है कि वह स्वसंवेदन ज्ञान के बल से प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनता है; अतः उसे अकेले अनुमान का विषय नहीं माना जा सकता है; अतः अलिंगग्रहण है। ___ आत्मा अनुभव में प्रत्यक्ष ज्ञात होता है - इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - ___ "आनन्द के वेदन की अपेक्षा से यहाँ प्रत्यक्ष कहा है। अतीन्द्रिय आनन्द को आत्मा सीधे वेदन करता है; अत: उसके जोर में प्रत्यक्ष कहा गया है। आत्मा के आनन्द के स्वाद में श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी में अन्तर नहीं है / आत्मा के गुण और उसके आकार, केवलज्ञानी को जिसप्रकार प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसप्रकार श्रुतज्ञानी के प्रत्यक्ष नहीं होते; परन्तु स्वानुभूति में आनन्द का वेदन तो श्रुतज्ञानी को भी प्रत्यक्ष ही है। जिसप्रकार अन्धा पुरुष शक्कर खावे या देखनेवाला पुरुष शक्कर खावे; तो इससे उसके मिठास के वेदन में कोई अन्तर नहीं है। अंधा पुरुष शक्कर को प्रत्यक्ष नहीं देखता, परन्तु उसे शक्कर की मिठास के स्वाद में कोई कमी नहीं है; उसीप्रकार आत्मा के आनन्द के वेदन में तो श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी में कोई अन्तर नहीं है।" 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 239 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 240 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 420 यहाँ अलिंगग्रहण का अर्थ शब्दार्थ के रूप में ऐसा समझना कि लिंग माने अनुमान, ग्रहण माने जानना और अ माने नहीं। तात्पर्य ऐसा है कि भगवान आत्मा प्रत्यक्षानुभूति का विषय होने से अकेले अनुमान से ही नहीं जाना जाता; अत: अलिंगग्रहण है। __ अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श, अशब्द, अव्यक्त, अनिर्दिष्टसंस्थान और अलिंगग्रहण - ये आठ विशेषण तो निषेधपरक हैं; परन्तु चेतनागुणवाला - यह नौवाँ विशेषण विधिपरक है। चेतनागुण आत्मा का मूलस्वभाव है। अत: आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में इसकी महिमा बतानेवाले अनेक विशेषण लगाये हैं; जो आत्मख्याति के अर्थ में दिये ही जा चुके हैं। अत: उनके बारे में कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि चेतनागुण आत्मा का असाधारण स्वभाव होने से वह समस्त विवादों का नाश करनेवाला है। 39 से ४३वीं गाथा तक जो आठ प्रकार से मिथ्यावादियों की चर्चा की गई है और उनके द्वारा कथित आत्मा के स्वरूप की असत्यार्थता ४४वीं गाथा में बताई गई है और अब यहाँ आत्मा को चेतनागुणवाला कहकर सब विवादों को निरस्त कर दिया है। ___टीका के अन्त में कहा गया है कि इन अरसादि नौ विशेषणों से युक्त, चैतन्यस्वरूप, निर्मल प्रकाशवाला, "एक भगवान आत्मा ही परमार्थस्वरूप जीव है, जो इस लोक में पर से भिन्न ज्योतिस्वरूप टंकोत्कीर्ण विराजमान है। - इसप्रकार ४९वीं गाथा समाप्त हुई। अब ४९वीं गाथा में कहे गये भगवान आत्मा के अनुभव की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 421 कलश 35 ( मालिनी ) सकलमपि विहायालाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् / इममुपरि चरंतं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंतम् // 35 // ( हरिगीत ) चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर॥ है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा। अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा॥ 35 // हे भव्यात्माओ! चैतन्यशक्ति से रहित अन्य समस्त भावों को छोड़कर और अपने चैतन्यशक्तिमात्र भाव को प्रगटरूप से अवगाहन करके लोक के समस्त सुन्दरतम पदार्थों के ऊपर तैरनेवाले अर्थात् पर से पृथक् एवं सर्वश्रेष्ठ इस एकमात्र अविनाशी आत्मा को अपने आत्मा में ही देखो, अपने-आप में ही साक्षात्कार करो, साक्षात् अनुभव करो। ४९वीं गाथा में आत्मा के अरसादि विशेषणों में अन्तिम विशेषण के रूप में चेतनागुण विशेषण आया है और उसे समस्त विवादों को नाश करनेवाला बताया गया है। वह चेतनागुण भगवान आत्मा का असाधारण स्वभाव होने से आत्मा की पहिचान का चिन्ह है, लक्षण है। इसीकारण वह समस्त विवादों का नाश करनेवाला भी है। उसके साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाले अनन्तगुण भी अभेदरूप से उसमें समाहित हैं। उसे यहाँ चित्शक्तिमात्र नाम से कहा गया है, उसे ज्ञानमात्र नाम से भी कहा जाता है। ___ वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त जितने भी भाव हैं, जिन्हें आगामी गाथाओं में स्पष्टरूप से पौद्गलिक घोषित करनेवाले हैं; वे सभी भाव उस चित्शक्तिमात्र आत्मा से भिन्न हैं / उन सभी भावों से अपने उपयोग Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 422 को हटाकर, अनन्तगुणों के अखण्डपिण्ड चित्शक्तिमात्र अविनाशी एक उसी भगवान आत्मा का अनुभव करने की प्रेरणा इस कलश में दी गई है। अब आगामी गाथाओं की उत्थानिका स्वरूप कलश लिखते हैं - ( अनुष्टभ् ) चित्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्। अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी॥३६॥ ( दोहा ) चित् शक्ति सर्वस्व जिन केवल वे हैं जीव / उन्हें छोड़कर और सब पुद्गलमयी अजीव / / 36 // जिसका सर्वस्व, जिसका सार चैतन्यशक्ति से व्याप्त है; वह जीव मात्र इतना ही है; क्योंकि इस चैतन्यशक्ति से शून्य जो भी अन्यभाव हैं, वे सभी पौद्गलिक हैं, पुद्गलजन्य हैं, पुद्गलमय हैं, पुद्गल ही हैं। इस छन्द का भाव अत्यन्त स्पष्ट है / अत: इसके सन्दर्भ में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। इस छन्द का भाव नाटक समयसार में इसप्रकार व्यक्त किया है - "चेतनबंत अनंत गुन सहित सु आतम राम। यातें अनमिल और सब पुद्गल के परिणाम॥" भगवान आत्मा अनंत गुण सम्पन्न चैतन्यमूर्ति है। चैतनता से मेल न रखनेवाले 29 प्रकार के जो भी भाव हैं; वे सब पुद्गल के परिणमन हैं। यदि हम भगवान आत्मा को न समझ सके, इसका अनुभव न कर सके तो सबकुछ समझकर भी नासमझ ही है, सबकुछ पढ़कर भी अपढ़ हैं, सबकुछ अनुभव करके भी अनुभवहीन ही हैं, सबकुछ पाकर भी अभी कुछ भी नहीं पाया है - यही समझना। - गागर में सागर, पृष्ठ 45 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा 50 से 55 जीव तो चैतन्यशक्तिमात्र ही है, चित् शक्ति ही जीव का सर्वस्व है, सबकुछ है। चित् शक्ति के अतिरिक्त जो भी भाव हैं; वे सभी पौद्गलिक हैं, पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं - यह भाव है ३६वें कलश का और यही भाव आगामी गाथाओं में भी व्यक्त किया गया है। वे गाथाएं मूलत: इसप्रकार हैं - जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं // 50 // जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो व विजदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि / / 51 / / जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभागठाणाणि / / 52 / / जीवस्स पत्थि के ई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई॥५३॥ णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा॥५४॥ णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा // 55 // ( हरिगीत ) शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना। यह देह ना जड़रूप ना संस्थान ना संहनन ना / / 50 // ना राग है ना द्वेष है ना मोह है इस जीव के। प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के // 51 // ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं। अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी॥५२॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 424 योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना। उदय के स्थान नहिं अर मार्गणास्थान ना॥५३ / / थिति बंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना। संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान ना // 54 // जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना। क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं / / 55 // जीव के वर्ण नहीं है, गंध भी नहीं है, रस और स्पर्श भी नहीं है; रूप भी नहीं है, शरीर भी नहीं है, संस्थान और संहनन भी नहीं है। जीव के राग नहीं है, द्वेष नहीं है और मोह भी विद्यमान नहीं है; प्रत्यय नहीं है, कर्म भी नहीं है और नोकर्म भी नहीं है। जीव के वर्ग नहीं है, वर्गणा नहीं है और कोई स्पर्धक भी नहीं है; अध्यात्मस्थान और अनुभागस्थान भी नहीं है। जीव के कोई योगस्थान नहीं है, बंधस्थान नहीं है, उदयस्थान नहीं है और कोई मार्गणास्थान भी नहीं है। जीव के स्थितिबंधस्थान नहीं है, संक्लेशस्थान भी नहीं है, विशुद्धिस्थान भी नहीं है और संयमलब्धिस्थान भी नहीं है। जीव के जीवस्थान नहीं है और गुणस्थान भी नहीं है; क्योंकि ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं। उक्त गाथाओं की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में उक्त 29 प्रकारों के भावों के भेद-प्रभेद गिनाते हुए भगवान आत्मा में उनके होने का निषेध करते हैं / जहाँ आवश्यकता समझते हैं ; वहाँ उनका स्वरूप भी संक्षेप में स्पष्ट करते जाते हैं। सभी भावों के निषेध में वे एक ही तर्क देते हैं, एक ही युक्ति प्रस्तुत करते हैं कि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं, अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा से भित्र हैं। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425 गाथा 50-.55 इन गाथाओं पर लिखी गई आत्मख्याति टीका का संक्षिप्त सार इसप्रकार है - "(1) काला, हरा, पीला, लाल और सफेद - ये पाँच प्रकार के वर्ण जीव नहीं हैं ; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (2) सुगंध और दुर्गंध - ये दो प्रकार की गंध जीव नहीं है; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (3) कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा - ये पाँच प्रकार के रस जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (4) चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, हल्का, भारी, कोमल और कठोर - ये आठ प्रकार के स्पर्श जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (5) स्पर्शादि चारों भावरूप सामान्य परिणाम मात्र रूप भी जीव नहीं है, क्योंकि यह रूप पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (6) औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण - ये पाँच प्रकार के शरीर भी जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (7) समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुंडक - ये छह प्रकार के संस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (8) वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिका और असंप्राप्तासृपाटिका - ये छह प्रकार के संहनन भी जीव नहीं Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 426 है; क्योंकि ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (9) प्रीतिरूप राग भी जीव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (10) अप्रीतिरूप द्वेष भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (11) यथार्थतत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप (मिथ्यात्वरूप) मोह भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (12) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं - ऐसे प्रत्यय (आस्रव) भी जीव नहीं हैं ; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (13) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय - ये आठों कर्म जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (14) छह पर्याप्तियों और तीन शरीरों के योग्य पुद्गलस्कंधरूप नोकर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (15) कर्म के रस की शक्तियों अर्थात् अविभागप्रतिच्छेदों का समूहरूप वर्ग भी जीव नहीं है। क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (16) वर्गों के समूहरूप वर्गणा भी जीव नहीं है; क्योंकि वर्गणा भी पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (17) मन्द-तीव्र रसवाले कर्मसमूह के विशिष्ट न्यास (जमाव) रूप अर्थात् वर्गणा के समूह रूप स्पर्धक भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (18) स्व-पर के एकत्व के अध्यास होने पर, विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्नरूप है लक्षण जिनका, ऐसे अध्यात्मस्थान भी Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 427 गाथा 50-55 जीव नहीं हैं ; क्योंकि वे भी पुद्गल के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (19) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के रस के परिणाम हैं लक्षण जिनके, वे अनुभागस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। __(20) काय, वचन और मनोवर्गणा के कम्पनरूप योगस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (21) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के परिणाम लक्षणवाले बंधस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (22) अपने फल को उत्पन्न करने में समर्थ कर्म-अवस्थारूप उदयस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (23) गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार - ये चौदह मार्गणास्थान भी जीव नहीं है; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (24) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का सुनिश्चित काल तक साथ रहना है लक्षण जिनका - ऐसे स्थितिबंधस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। ____ (25) कषायों के विपाक का उद्रेक है लक्षण जिनका - ऐसे संक्लेशस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (26) कषायों के विपाक के अनुद्रेक लक्षणवाले विशुद्धिस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 428 (27) चारित्रमोह के विपाक की क्रमशः निवृत्ति लक्षणवाले संयमलब्धिस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (28) पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे बादर-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय लक्षणवाले जीवस्थान भी जीव नहीं हैं ; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। __(29) मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत-सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण - उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय - उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय - उपशमक तथा क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली भेदवाले गुणस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। इसप्रकार ये 29 प्रकार के भाव सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से जीव नहीं हैं।" आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त टीका में 'वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं' - यह वाक्य 29 बार दुहराया गया है / यह हेतु वाक्य है, जो उक्त भावों में जीवत्व के निषेध करने के लिए लिखा गया है। __ वैसे सम्पूर्ण टीका अत्यन्त स्पष्ट है, सुलभ है; अतः इसके बिन्दु ऐसे हैं, जिनका स्पष्टीकरण अपेक्षित है। ___ (क) यद्यपि रूप और वर्ण - ये दोनों शब्द पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होते हैं; पर यहाँ पाँच प्रकार के रंगों को वर्ण कहा गया है और वर्ण, रस, गंध और स्पर्श.- इन चारों के मिले हुए रूप को रूप कहा गया है। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 429 कलश 37 29 बोलों में पहला बोल वर्ण का है और पाँचवाँ बोल रूप का है। इन दोनों को ध्यान से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। (ख) अध्यात्म' शब्द आत्मज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है / अधि माने जानना और आत्म माने आत्मा को। इसप्रकार आत्मा को जानना अध्यात्म है, अत: आत्मज्ञान ही अध्यात्म है; पर यहाँ स्व और पर में एकत्व के अध्यास को अध्यात्मस्थान कहा गया है और उसे विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्न बताया गया है। यह बात आप १८वें बोल के प्रकरण में देख सकते हैं। इन 29 प्रकार के भावों का विशेष स्वरूप गोम्मटसारादि ग्रन्थों में विस्तार से स्पष्ट किया गया है / अत: इनका स्वरूप विस्तार से जानने के लिए गोम्मटसारादि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। इनका विशेष स्वरूप स्पष्ट करना यहाँ अभीष्ट नहीं; क्योंकि यहाँ तो मात्र इतना बताना ही अभीष्ट है कि ये सभी भाव दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा में नहीं हैं। इन गाथाओं की टीका समाप्त करते हुए उपसंहार के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( शालिनी ) वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् // 37 // . ( दोहा ) वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न / अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य // 37 // वर्णादिक व राग-द्वेष-मोहादिक सभी 29 प्रकार के भाव इस भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं / इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने पर भगवान आत्मा में ये सभी भाव दिखाई नहीं देते; किन्तु इन सबसे भिन्न एवं सर्वोपरि भगवान आत्मा ही एकमात्र दिखाई देता है। 1. छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द आठ का पूर्वार्द्ध Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 430 इस छन्द का पद्यानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार दिया गया (दोहा) वरनादिक रागादि यह रूप हमारौ नाहिं। एक ब्रह्म नहिं दूसरो दीसै अनुभव मांहि // वर्णादि एवं रागादिरूप सभी 29 प्रकार के भाव हमारा स्वरूप नहीं है, ब्रह्मस्वरूप भगवान आत्मा इनसे भिन्न ही है। यही कारण है कि अनुभव में इन सभी भावों से भिन्न एक भगवान आत्मा ही दिखाई देता है। ___ यद्यपि यहाँ वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त सभी 29 प्रकार के भावों को पौद्गलिक कहा गया है; तथापि उन्हें स्पष्टरूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है / एक तो वे, जो स्पष्टरूप से पुद्गल हैं और जिनमें वर्ण, रस, गंध और स्पर्श पाये जाते हैं तथा दूसरे वे औपाधिकभाव, जो पुद्गलकर्म के उदय से आत्मा में उत्पन्न होते हैं। इस ३७वें कलश में उन 29 प्रकार के पौद्गलिकभावों को वर्णादि और रागादि कहकर इसीप्रकार के दो भेदों में विभाजित किया गया है। इसी कलश की छाया छहढाला की निम्नांकित पंक्तियों में झलकती है - जिन परमपैनी सुबुधि छैनी डार अन्तर भेदिया। वर्णादि अरु रागादि से निजभाव को न्यारा किया। यहाँ वर्णादि में परभाव और रागादि में विकारीभाव लिए गये हैं। विकारीभावों को विभावभाव भी कहते हैं / इसप्रकार यहाँ परभाव और विभाव भावों से भिन्न निज भगवान आत्मा की आराधना की बात कही गई है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा 56-57 "वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो 29 प्रकार के भाव कहे हैं, वे जीव नहीं हैं''- ऐसा आप बार-बार कह रहे हैं; परन्तु सिद्धान्तग्रन्थों में तो इन्हें भी जीव के बताया गया है। तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के पहले सूत्र में औदयिकादि भावों को जीव का स्वतत्त्व कहा है। शिष्य की इस उलझन को मिटाने के लिए आगामी गाथाओं में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें व्यवहार से जीव के कहा है, पर वे निश्चय से जीव के नहीं हैं; क्योंकि उनमें जीव का असाधारण लक्षण उपयोग नहीं पाया जाता। वे गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स॥५६॥ एदेहि य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्यो। ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा॥५७॥ ( हरिगीत ) वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के। परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के // 56 // ध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना। उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं।। 57 // ये वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे हैं, वे व्यवहारनय से तो जीव के हैं; किन्तु निश्चयनय से उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं। यद्यपि इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का दृध और पानी की तरह एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध है; तथापि वे जीव के नहीं हैं; Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 समयसार अनुशीलन क्योंकि जीव उनसे उपयोग गुण से अधिक है / - ऐसा जानना चाहिए। उक्त गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते "सफेद रुई से बने हुए एवं कुसुम्बी (लाल) रंग से रंगे हुए वस्त्र के लाल रंगरूप औपाधिक भावों की भाँति पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है - ऐसे जीव के औपाधिक भावों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तित होता हुआ व्यवहारनय पर्यायाश्रित होने से दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है और निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भावों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तित होता हुआ दूसरे के भाव को किंचित् मात्र भी दूसरे का नहीं कहता अर्थात् दूसरे के भाव को दूसरे का कहने का निषेध करता है। इसलिए वर्ण से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो 29 प्रकार के भाव हैं, वे व्यवहारनय से जीव के हैं और निश्चयनय से जीव के नहीं हैं - ऐसा कथन योग्य है। __ जिसप्रकार जलमिश्रित दूध का जल के साथ परस्पर अवगाहरूप संबंध होने पर भी स्वलक्षणभूत दुग्धत्वगुण के द्वारा व्याप्त होने से दूध जल से भिन्न प्रतीत होता है। इसलिए अग्नि का उष्णता के साथ जिसप्रकार का तादात्म्यरूप संबंध है, जल के साथ दूध का उसप्रकार का संबंध न होने से निश्चय से जल दूध का नहीं है। इसीप्रकार वर्णादिरूप पुद्गलद्रव्य के परिणामों के साथ मिश्रित इस . आत्मा का पुद्गल द्रव्य के साथ परस्पर अवगाहरूप संबंध होने पर भी स्वलक्षणभूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से भिन्न प्रतीत होता है ; इसलिए अग्नि का उष्णता के साथ जिसप्रकार Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 433 गाथा 56-57 का तादात्म्यरूप संबंध है, वर्णादिक के साथ आत्मा का उसप्रकार का संबंध नहीं है। इसलिए वर्णादिरूप पुद्गल के परिणाम निश्चय से आत्मा के नहीं हैं।" आत्मख्याति के उक्त कथन में व्यवहारनय को पर्यायाश्रित और निश्चयनय को द्रव्याश्रित बताया गया है और साथ में यह भी कहा गया है कि पर्यायाश्रित होने से व्यवहारनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहता है तथा निश्चयनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे का नहीं कहता, अपितु एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहने का निषेध करता है, वह तो केवल स्वाभाविक भावों का आलम्बन लेकर ही प्रवर्तित होता है। उक्त नियम के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त के सभी भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं। अब प्रश्न यह शेष रह जाता है कि वर्णादिभाव निश्चय से जीव के क्यों नहीं हैं? इसके समाधान के लिए दूध और पानी तथा अग्नि और उष्णता का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि जिसप्रकार दूध और जल का एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध है, उसीप्रकार का आत्मा का वर्णादि के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध तो है और इसीकारण उन्हें व्यवहार से जीव का कहा जाता है; किन्तु जीव और वर्णादि का अग्नि और उष्णता के समान तादात्म्यसंबंध नहीं है; अत: उन्हें निश्चयनय से जीव का नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जीव का तादात्म्य संबंध तो अपने ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग गुण से है। इसलिए जीव अपने उपयोग गुण के कारण वर्णादिभावों से भिन्न ही भासित होता है और यही परमार्थ है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 समयसार अनुशीलन उक्त सम्पूर्ण कथन में सबसे अधिक खटकनेवाली बात यह लगती है कि यहाँ वर्णादि के समान रागादि का भी, यहाँ तक कि गुणस्थानों का भी आत्मा के साथ दूध और जल के समान संयोग संबंध बताया गया है और उन्हें व्यवहार कहकर, वर्णादि के समान ही परद्रव्य में डाल दिया है। __ परद्रव्य के साथ संबंध बतानेवाले नय को नयचक्रादि ग्रन्थों में तो असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। तो क्या आचार्यदेव रागादिभावों एवं गुणस्थान आदि को भी असद्भूत व्यवहारनय का विषय बताना चाहते हैं। समझ में नहीं आता यहाँ ऐसा क्यों किया गया है, जबकि अन्य ग्रन्थों में, और इसी ग्रन्थ में भी अन्यत्र रागादिभावों को निश्चय से आत्मा का कहा गया है। आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयों के इस असमंजस को आचार्य जयसेन ने गहराई से अनुभव किया था। यही कारण है कि वे इन गाथाओं की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में स्वयं इसप्रकार की शंका उपस्थित कर उसका समाधान करते हैं; जो इसप्रकार है - "ननु वर्णादयो बहिरंङ्गास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् संश्लेषसंबंधों भवतु न चाभ्यंतराणां रागादीनां तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति। नैवं, द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थ रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः / शंका - वर्णादि तो बहिरंग हैं; अत: उनके साथ आत्मा का दूध और पानी की तरह संश्लेष संबंध भले ही हो; किन्तु जो अन्तरंग है, ऐसे रागादि के साथ तो आत्मा का संश्लेष संबंध नहीं है, क्षणिक तादात्म्य है; अत: यहाँ तो अशुद्धनिश्चयनय कहना चाहिए; व्यवहार क्यों कहा जा रहा है? Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 435 समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि द्रव्यकर्म का जीव के साथ जो संबंध है, वह असद्भूतव्यवहारनय से है। उसकी अपेक्षा तारतम्य दिखाने के लिए, उससे भिन्न दिखाने के लिए रागादिभावों को अशुद्धनिश्चयनय में लिया है; परन्तु वास्तव में तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही है / - उक्त कथन का यही भाव है, भावार्थ है।" उक्त सम्पूर्ण स्थिति को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यहाँ दो प्रकार के सम्बन्ध की बात की है - (1) अवगाह संबंध और (2) तादात्म्य संबंध / भगवान आत्मा का रागादि के साथ अवगाह संबंध है अर्थात् आत्मा का जैसा ज्ञानगुण के साथ तादात्म्य संबंध है, वैसा रागादि के साथ संबंध नहीं है। दूसरे प्रकार से कहें तो आत्मा की रागादि के साथ एकरूपता नहीं है; अर्थात् दोनों के बीच साँध है, सन्धि है, दरार है। इसकारण ज्ञान की पर्याय को स्वभाव में झुकाने पर दोनों जुदे पड़ जाते हैं। __यह जो व्यवहाररत्नत्रय का राग है, इसके साथ आत्मा का अवगाह संबंध है, तादात्म्य संबंध नहीं है। इसकारण स्वलक्षणभूत ज्ञानगुण से देखने पर आत्मा वर्णादि और व्यवहाररत्नत्रय के राग से अधिक अर्थात् भिन्न ज्ञात होता है / पर्याय जब स्वभाव की ओर ढलती है, तब स्वभाव का गुणस्थान आदि भेदों से भिन्नपना भासित होता है / इसप्रकार रागादि के साथ आत्मा का तादात्म्यपना नहीं होने से निश्चय से सर्व रागादि पुद्गल के परिणाम हैं, आत्मा के परिणाम नहीं।२ जिसतरह दृष्टान्त में 'स्वलक्षणभूत दुग्धत्व गुण' लिया था; उसीतरह सिद्धान्त में स्वलक्षणभूत उपयोग गुण' लिया है / आत्मा और 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 306-307 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 306 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 436 पुण्य-- पाप, गुणस्थान आदि भाव एक अवगाहना में व्याप्त होते हुए भी स्वलक्षणभूत उपयोग गुण से देखने पर अर्थात् परिणति के अन्तरंग में ढलने पर वे आत्मा से भिन्न ज्ञात होते हैं / इसकारण ये सभी अन्यभाव पर्याय में होते हुए भी द्रव्य में नहीं हैं - ऐसा कहते हैं। इसप्रकार आत्मा सर्व द्रव्यों और सर्व भावों से अधिकपनेभिन्नरूप से प्रतीत होता है। इसप्रकार इन दो गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि ये 29 प्रकार के भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं। . 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 305 विश्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवान आत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यक् चारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही वास्तविक धर्म घोषित करता है। ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करनेवाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक यह दर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्बन को ही बताता है। __यद्यपि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा ही है; तथापि वह अपने परमात्मस्वभाव को भूलकर स्वयं पामर बन रहा है। पर्यायगत पामरता को समाप्त कर स्वभावगत प्रभुता को पर्याय में प्रगट करने का एकमात्र उपाय पर्याय में स्वभावगत प्रभुता की स्वीकृति ही है, अनुभूति ही है। - बारहभावना : एक अनुशीलन, पृ. 173 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा 58-59-60 जब यह कहा जाता है कि ये भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं; तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि फिर तो व्यवहारनय निश्चयनय का विरोधी ही हुआ, उसे अविरोधक कैसे कहा जा सकता है? इसी प्रश्न का उत्तर आगामी तीन गाथाओं में दिया गया है, जो इसप्रकार है - पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई॥५८॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्य एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो॥५९॥ गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। / सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति॥६०॥ (हरिगीत ) पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें / / 58 // उस ही तरह रंग देखकर जड़ कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का॥ 59 // इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के। व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को॥६०॥ जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को लुटता हुआ देखकर व्यवहारीजन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; किन्तु परमार्थ से विचार किया जाय तो कोई मार्ग तो लुटता नहीं है, अपितु मार्ग में चलता हुआ पथिक ही लुटता है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 438 इसीप्रकार जीव में कर्मों और नोकर्मों का वर्ण देखकर जिनेन्द्र भगवान व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि यह वर्ण जीव का है। जिसप्रकार वर्ण के बारे में कहा गया है ; उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, देह, संस्थान आदि के बारे में भी समझना चाहिए कि ये सब भाव भी व्यवहार से ही जीव के हैं - ऐसा निश्चयनय के देखनेवाले या निश्चयनय के जानकार कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार मार्ग में जाते हुए किसी संघ को लुटता देखकर, मार्ग में संघ की स्थिति होने से, उसका उपचार करके व्यवहारीजन यद्यपि ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है; तथापि निश्चय से देखा जाये तो आकाश के अमुक भागस्वरूप मार्ग कभी भी नहीं लुटता; क्योंकि उसका लुटना संभव ही नहीं है। इसीप्रकार जीव में बंधपर्यायरूप से अवस्थित कर्म और नोकर्म का वर्ण देखकर, कर्म और नोकर्म की जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके यद्यपि अरिहंतदेव भी व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि जीव का यह वर्ण है; तथापि उपयोग गुण द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से अमूर्तस्वभावी जीव का निश्चय से कोई भी वर्ण नहीं है, रंग नहीं है। जिसप्रकार वर्ण के बारे में, रंग के बारे में समझा है; उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान के बारे में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि इन सभी को अरिहंत भगवान व्यवहार से जीव के कहते हैं ; तथापि उपयोग गुण द्वारा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 439 गाथा ५८.-६० अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से इन भावों में से कोई भी निश्चय से जीव का नहीं है ; क्योंकि इनका जीव के साथ तादात्म्य संबंध नहीं है।" देखो, गाथा में तो ऐसा कहा था कि निश्चयनय के जानकार ऐसा कहते हैं; पर आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में लिखते हैं कि अरिहंत भगवान ऐसा कहते हैं। अरे भाई ! यह अरिहंत भगवान की कही हुई बात है। अरिहंत भगवान भी इन २९ प्रकार के भावों को व्यवहार से आत्मा के बताते हैं, परन्तु साथ में यह भी कहते हैं कि ये निश्चयनय से आत्मा में नहीं हैं। निश्चय और व्यवहार – दोनों नयों की बात अरिहंतभगवान की वाणी में आई है, उनकी वाणी भी स्याद्वादमयी है न। अत: उसमें भी दोनों नयों की बात आती है। इसलिए दोनों नयों के कथन का भाव समझकर, उनके प्रयोजन को जानकर अपने हित में लगना चाहिए। देखो, आचार्यदेव ने कितना अच्छा उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है। आचार्यदेव कहते हैं कि मार्ग थोड़े ही लुटता है, लुटता तो संघ है; पर संघ को लुटता देखकर व्यवहार से कह दिया जाता है कि मार्ग लुटता है। मार्ग लुटता है - ऐसा कहने पर भी राहगीर यही समझते हैं कि राह (मार्ग) नहीं, राहगीर (पथिक) ही लुटते हैं और फिर वे उस राह (मार्ग) से नहीं जाते । इसप्रकार व्यवहार कथन से भी उनका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वे लुटने से बच जाते हैं । इसप्रकार व्यवहार भी अपने प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला है । पर व्यवहार के इस कथन को सुनकर कोई उसे ही परमार्थ मान ले और यही समझले कि लुटता तो मार्ग है, हमें क्या डर है। - ऐसा विचार कर निशंकभाव से उस मार्ग में विचरण करे तो लुटेगा ही। इसीप्रकार विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए व्यवहार से वर्णादि को जीव कहा है और वह अपने प्रयोजन की सिद्धि करने में पूर्ण सफल Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 समयसार अनुशीलन भी है; पर कोई नासमझ 'यह तो अरिहंत भगवान के वचन हैं ' - ऐसा मानकर जीव को परमार्थ से भी वर्णादिवाला मान ले तो हानि ही उठायेगा। व्यवहार की जो स्थिति है, जो उपयोगिता है, जो प्रयोजन है; उसे भलीभाँति समझकर आत्महित में उसका भी उपयोग करना चाहिए; उसे सर्वथा सत्यार्थ या सर्वथा असत्यार्थ मानकर दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए। __इसी बात को ध्यान में रखकर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "ये वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव सिद्धान्त में जीव के कहे हैं - वे व्यवहारनय से कहे हैं, निश्चयनय से वे जीव के नहीं हैं; क्योंकि जीव तो परमार्थ से उपयोगस्वरूप है। यहाँ ऐसा जानना कि पहले व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा था, सो वहाँ ऐसा न समझना कि वह सर्वथा असत्यार्थ है; किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना; क्योंकि जब एक द्रव्य को (परद्रव्य से) भिन्न, पर्यायों से अभेदरूप, उसके असाधारणगुण मात्र को प्रधान करके कहा जाता है; तब परस्पर द्रव्यों का निमित्त-नैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होनेवाली पर्यायें - वे सब गौण हो जाते हैं । वे एक अभेदद्रव्य की दृष्टि में प्रतिभासित नहीं होते, इसलिये वे सब उस द्रव्य में नहीं हैं; इसप्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है । यदि उन भावों को उस द्रव्य के कहा जाये तो वह व्यवहारनय से कहा जा सकता है - ऐसा नयविभाग है। ___ यहाँ शुद्धनय की दृष्टि से कथन है, इसलिये ऐसा सिद्ध किया है कि जो ये समस्त भाव सिद्धान्त में जीव के कहे गये हैं, सो व्यवहार से कहे गये हैं। यदि निमित्त-नैमित्तिक भाव की दृष्टि से देखा जाये तो वह व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा । इसलिये Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 गाथा ५८-६० जिनेन्द्रदेव का उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्यक्ज्ञान है और सर्वथा-एकान्त, वह मिथ्यात्व है।" पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं। "जब जीव को सिद्ध करना हो तो उसका असाधारण लक्षण त्रिकाली उपयोगस्वरूप ज्ञानगुण को मुख्य करके कथन किया जाता है। उससमय परस्पर द्रव्यों का निमित्त-नैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होनेवाली सर्व पर्यायें गौण हो जाती हैं। पर्यायों का अभाव नहीं होता, बल्कि गौण होती हैं। अभेद वस्तु की दृष्टि में, एक समय की पर्याय या भेद दिखाई नहीं देते। पहले सातवीं गाथा में विशेष स्पष्टीकरण आ चुका है कि अभेद में भेद दिखाई नहीं देते। यदि भेद देखने लगे तो अभेद पर दृष्टि नहीं रहती। अत: अभेदवस्तु की दृष्टि से वस्तु में भेद नहीं है - ऐसा कहा है। ___ संसारपर्याय की दृष्टि से देखने पर संसार है, उदयभाव है। संसार नहीं है - ऐसा जो कहा है, वह तो त्रिकाली ध्रुवद्रव्य की अपेक्षा से कहा है । त्रिकाली स्वभाव को अभेददृष्टि से देखने पर अर्थात् वर्तमान पर्याय को अभेद की ओर ढालने पर, अभेद में भेद दिखाई नहीं देता। इसकारण त्रिकाली द्रव्य में जीव के भेद नहीं है - ऐसा कहा है; परन्तु पर्याय में है – इसकारण कथंचित् (व्यवहार सें) सत् है । तत्वार्थसूत्र में भी उदयभाव को जीवतत्व कहा है। पर्यायनय से राग, पुण्य आदि को जीवतत्त्व कहते हैं; परन्तु त्रिकाली द्रव्य की दृष्टि में पर्याय गौण हो जाती है। यदि कोई कहे कि संसार है ही नहीं, पर्याय में अशुद्धता है ही नहीं, तो भ्रान्ति है। प्रश्न -'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' - ऐसा किस अपेक्षा से है? उत्तर – पर्याय को गौण करके अभेद में दृष्टि करने पर वे भेद, अभेद __ में दिखाई नहीं देते – इस अपेक्षा से 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' कहो तो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 समयसार अनुशीलन कोई आपत्ति नहीं है। यदि पर्याय, पर्याय की अपेक्षा से भी न हो तो संसार ही नहीं रहेगा और जब संसार की ही सिद्धि नहीं होगी तो संसारपूर्वक जो मोक्ष होता है, उसका भी अभाव सिद्ध होगा। इसप्रकार किसी भी पर्याय की सिद्धि नहीं होगी, वस्तु-व्यवस्था ही नहीं बनेगी । परमात्मप्रकाश के ४३ व ६८वें दोहे में आता है कि जीव के बन्धमोक्ष नहीं है तथा जीव के उत्पाद-व्यय नहीं है । वहाँ दोहा ४३ की टीका में लिखा है कि यद्यपि पर्यायार्थिकनय से उत्पाद - व्ययसहित है; तथापि द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद - व्ययरहित है, सदा ध्रुव ही है । वही परमात्मा निर्विकल्पसमाधि के बल से तीर्थंकरदेवों ने देह में भी देख लिया है। देखो ! व्यवहारनय से जीव उत्पाद - व्ययसहित है । वर्तमान पर्याय की दृष्टि से देखें तो उत्पाद - व्यय है, संसार है, उदयभाव है; परन्तु द्रव्यार्थिकनय से देखें तो वस्तु में उत्पाद - व्यय नहीं है। त्रिकालीध्रुव द्रव्यस्वभाव में उत्पाद - व्यय नहीं है, किन्तु वर्तमान पर्याय में भी कोई उत्पाद - व्यय का निषेध करने लगे तो यह ठीक नहीं है । दोहा ६८ की टीका में लिखा है कि ' यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूति के अभाव होने पर शुभ-अशुभ उपयोगरूप परिणमन करके शुभ-अशुभ कर्मबन्ध को करता है और शुद्धात्मानुभूति के प्रगट होने पर शुद्धोपयोग से परिमित होकर कर्मबन्ध का अभाव करके मोक्षदशा को प्रगट करता . है, तथापि शुद्धपारिणामिक परमभावग्राहक - शुद्धद्रव्यार्थिकनय से न बन्ध का कर्ता है और न मोक्ष का कर्ता है । ' तब शिष्य ने प्रश्न किया कि 'हे प्रभो ! शुद्धद्रव्यार्थिकस्वरूप शुद्धनिश्चयनय से मोक्ष का भी कर्ता नहीं है तो क्या इस कथन से ऐसा समझें कि शुद्धनय से मोक्ष ही नहीं है और जब मोक्ष ही नहीं है तो उसके लिये प्रयत्न करना भी निरर्थक ही है ?' Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 443 गाथा ५८ -६० शिष्य का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं - 'मोक्ष बन्धपूर्वक होता है और बन्ध शुद्धनिश्चयनय से होता ही नहीं है, इसकारण बन्ध के अभावरूप मोक्ष भी शुद्धनिश्चयनय से नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय से बन्ध हो तो सदैव बन्ध ही रहे, कभी बन्ध का अभाव नहीं हो।' देखो, व्यवहारनय से - अशुद्धनय से पर्याय में बन्ध है और बन्ध के अभावपूर्वक मोक्ष का मार्ग तथा मोक्ष भी है, किन्तु यह सब व्यवहारनय से है; निश्चयनय से बन्ध या मोक्ष नहीं है तथा बन्ध व मोक्ष के कारण भी नहीं हैं। अहा! जैनदर्शन बहुत सूक्ष्म है। पर्याय में बन्ध है तथा बन्ध के नाश का उपाय भी है; परन्तु वह सब व्यवहार है, मोक्षमार्ग की पर्याय भी व्यवहार है। व्यवहाररत्नत्रय के शुभभावरूप विकल्प को उपचार से व्यवहार-मोक्षमार्ग कहा जाता है, उस शुभभावरूप व्यवहाररत्नत्रय की यहाँ बात नहीं है, बल्कि निर्मल आनन्दस्वरूप भगवान आत्मा की परिणति में जो शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की दशा होती है, वह भी पर्याय होने से व्यवहार ही है। ___ 'व्यवहार से बन्ध है तथा व्यवहार से ही मोक्ष व मोक्षमार्ग होता है' - यही बात आगे दोहा ६८ की टीका में दृष्टान्त देकर समझाई है - ___ कोई एक पुरुष जेल में सांकल से बंधा है और कोई दूसरा पुरुष बन्धरहित है, कभी जेल गया ही नहीं; उनमें से जो पहले बंधा था, उसका मुक्त कहना तो उचित लगता है; किन्तु जो बंधा ही नहीं था, कभी जेल गया ही नहीं था, उससे कहा जाय कि आप जेल से कब छूट गये? तो ऐसा कहना क्या उचित है? क्या वह इस बात को सुनकर क्रोध नहीं करेगा कि मैं जेल गया ही कब, जो छूटने की पूछते हो? बन्धपूर्वक मोक्ष तो ठीक है, पर जब बन्ध ही नहीं, तो मोक्ष कहना कैसे ठीक होगा? Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 समयसार अनुशीलन इसीप्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनय से बंधा ही नहीं है, अत: मुक्त कहना भी ठीक नहीं है। अत: बन्ध भी व्यवहार से व मोक्ष भी व्यवहार से ही है। शुद्धनिश्चयनय से न बन्ध है, न मोक्ष है। अशुद्धनिश्चयनय से बंध है, इसलिए बन्ध के नाश का यत्न भी अवश्य करना चाहिए। इसलिये पर्याय में बन्ध व बन्ध के नाश का उपाय तथा मोक्ष व मोक्षमार्ग - ये सब व्यवहारनय से हैं, परन्तु त्रिकाली द्रव्यस्वभाव में ये नहीं हैं। इसप्रकार अपेक्षा से यथार्थ समझना चाहिए। ___ इस कथन से ऐसा नहीं समझना कि व्यवहार की सत्ता है, इसलिये वह निश्चय का कारण भी है अर्थात् ऐसा नहीं मान लेना कि बन्धमार्ग की पर्याय मोक्षमार्ग को प्रगट करती है । यहाँ यह सिद्ध नहीं करना है कि 'व्यवहार निश्चय का कारण है ' बल्कि यहाँ तो यह सिद्ध किया है कि 'व्यवहार है अर्थात् पर्याय है'। जिसतरह बन्ध की पर्याय है; उसीतरह मोक्ष व मोक्षमार्ग की पर्याय भी है। ___ यहाँ कहते हैं कि पहले जो व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा है, उसका अर्थ यह है कि पर्याय, संसार या मोक्ष - द्रव्य स्वभाव में नहीं है। द्रव्य की अपेक्षा से व्यवहारनय को असत्य कहा है। इसकारण से वह सर्वथा है ही नहीं, ऐसा महीं समझना । वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से तो वह व्यवहारनय है, इसकारण यह कथंचित् सत्यार्थ है। संसार है, उदयभाव है; इसप्रकार जो भाव २९ बोल द्वारा कहे हैं, वे सभी पर्याय की अपेक्षा हैं । एक समय के सम्बन्धवाली पर्याय अस्तिरूप से है, परन्तु आनन्दकन्द नित्यानन्द ध्रुव प्रभु जो अनादि-अनन्त चैतन्यप्रवाहरूप है; उसकी दृष्टि में भेद प्रतिभासित नहीं होते, इसकारण वे भेद द्रव्य में नहीं हैं - इसप्रकार कथंचित् निषेध किये गये हैं। यदि उन पर्याय के भेदरूप भावों को द्रव्य के कहना चाहें तो व्यवहारनय से कह सकते हैं; पर निश्चय से वे द्रव्य में नहीं हैं । ऐसा निश्चय-व्यवहार का कथन यथार्थ समझना चाहिए। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 445 प्रश्न - व्यवहार सत्य है या नहीं? यदि व्यवहार सत्य है तो व्यवहार-मोक्षमार्ग सत्य है या नहीं? और यदि व्यवहार-मोक्षमार्ग सत्य है तो वह निश्चय-मोक्षमार्ग का कारण है या नहीं? उत्तर -भाई ! पर्याय में जो एकसमय मात्र का बन्ध है, वह सत्य है। जो परमस्वभावभावरूप वस्तु है, उसकी एक समय की दशा में ये सब भेद हैं, इसलिए हैं' - ऐसा कहा है; परन्तु ये भेद त्रिकाली ध्रुव की दृष्टि में नहीं आते, इसकारण द्रव्यदृष्टि कराने के लिए वे नहीं हैं' - इसप्रकार उनका निषेध किया है। वे त्रिकाली सत्य नहीं हैं; तथापि व्यवहारनय से वे सत्य हैं; क्योंकि उनका वर्तमान पर्याय में अस्तित्व है। भाई! यदि व्यवहारनय है तो उसका विषय भी है। इसीकारण तो कहा है कि व्यवहार को भी छोड़ना नहीं अर्थात् व्यवहारनय नहीं है - ऐसा नहीं मान लेना। ___ यदि व्यवहार को नहीं मानेंगे तो चौथा, पाँचवाँ आदि गुणस्थान ही नहीं बनेंगे, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि व्यवहार से निश्चय होता है । इस व्यवहार के कारण (व्यवहार के आश्रय से) तीर्थ अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होता है - ऐसा नहीं है। यहाँ कहते हैं कि ये भेदरूप भाव त्रिकाली ध्रुवद्रव्य में नहीं हैं - यह निश्चय है; परन्तु उसकी एकसमय की पर्याय में है, इसकारण द्रव्य में हैं, – ऐसा कहा जाए तो व्यवहार से कह सकते हैं। भाई! ऐसा ही नयविभाग है।" इसप्रकार आचार्य अमृतचन्द्र की टीका, पण्डित जयचंदजी छाबड़ा के भावार्थ और स्वामीजी के स्पष्टीकरण से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि व्यवहारनय निश्चयनय का विरोधी नहीं है; अपितु अविरोधक ही है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३१४ से ३१७ तक Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ६१-६४ "वर्णादि भावों का जीव के साथ तादात्म्य संबंध न होने से वे निश्चय से जीव नहीं हैं' अबतक पूरा वजन देकर इस बात को कहते आ रहे हैं; अतः शिष्य का प्रश्न यह है कि वर्णादिभावों का जीव के साथ तादात्म्य संबंध क्यों नहीं है ? शिष्य की इस आशंका का समाधान आगामी चार गाथाओं में अनेक युक्तियों से किया जा रहा है । तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी । संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ॥ ६१ ॥ जीवो चेव हि दे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥ ६२ ॥ अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥ ६३ ॥ एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ॥ ६४ ॥ ( हरिगीत ) जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहे। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ॥ ६१ ॥ वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह । तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ? ।। ६२ ।। मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में । तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे ॥ ६३॥ यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी । बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ॥ ६४ ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447 गाथा ६१ ६४ वर्णादिभाव संसारी जीवों के ही होते हैं, मुक्त जीवों के नहीं। यदि तुम ऐसा मानोगे कि ये वर्णादिभाव जीव ही हैं तो तुम्हारे मत में जीव और अजीव का कोई अन्तर ही न रहेगा। यदि तुम ऐसा मानो कि संसारी जीव के ही वर्णादिक होते हैं; इसकारण संसारी जीव तो रूपी हो ही गये। किन्तु रूपित्व लक्षण तो पुद्गलद्रव्य का है। अतः हे मूढ़मति पुद्गलद्रव्य ही जीव कहलाया। अकेले संसारावस्था में ही नहीं, अपितु निर्वाण प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हुआ। उक्त युक्तियों से आचार्यदेव यह बताना चाहते हैं कि वर्णादि का जीव के साथ तादात्म्य नहीं है; इसलिए वे निश्चय से जीव नहीं हो सकते। ___ जयचन्दजी छाबड़ा ने उक्त गाथाओं के भावार्थ में गाथाओं के भाव को अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत कर दिया है । अत: सर्वप्रथम उसका अवलोकन कर लेना ही उपयुक्त है; जो इसप्रकार है - __ "द्रव्य की सर्व अवस्थाओं में द्रव्य के जो भाव व्याप्त होते हैं, उन भावों के साथ द्रव्य का तादात्म्यसम्बन्ध कहलाता है। पुद्गल की सर्व अवस्थाओं में (पुद्गल में) वर्णादि भाव व्याप्त हैं, इसलिये वर्णादिभावों के साथ पुद्गल का तादात्म्यसम्बन्ध है । संसारावस्था में जीव में वर्णादि भाव किसीप्रकार से कहे भी जा सकते हैं, किन्तु मोक्ष-अवस्था में तो जीव में वर्णादि भाव सर्वथा नहीं हैं; इसलिये जीव का वर्णादि भावों के साथ तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है, यह बात न्यायप्राप्त है। ___ जिसप्रकार वर्णादिकभाव पुद्गलद्रव्य के साथ तादात्म्यस्वरूप हैं; उसीप्रकार जीव के साथ तादात्म्यस्वरूप हों तो जीव-पुद्गल में कोई भी भेद न रहे और ऐसा होने से जीव का ही अभाव हो जाये – यह महादोष आता है। यदि ऐसा माना जाय कि संसार-अवस्था में जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्यसम्बन्ध है तो जीव मूर्तिक हुआ; और मूर्तिकत्व तो पुद्गलद्रव्य का लक्षण है; इसलिये पुद्गलद्रव्य ही जीवद्रव्य सिद्ध हुआ, उसके Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 448 अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा। और मोक्ष होने पर भी उन पुद्गलों का ही मोक्ष हुआ; इसलिये मोक्ष में भी पुद्गल ही जीव ठहरे, अन्य कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा। इसप्रकार संसार तथा मोक्ष में पुद्गल से भिन्न ऐसा कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य न रहने से जीव का ही अभाव हो गया। इसलिये मात्र संसार-अवस्था में ही वर्णादि भाव जीव के हैं - ऐसा मानने से भी जीव का अभाव ही होता है।" जयचन्दजी छाबड़ा के उक्त भावार्थ में आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति टीका का पूरा भाव आ गया है। अब जो थोड़ी-बहुत अस्पष्टता रह जाती है, वह स्वामीजी के निम्नांकित कथन से स्पष्ट हो जाती है - "जो निश्चय से सभी अवस्थाओं में स्वरूपपने से व्याप्त हो तथा उस स्वरूपपने की व्याप्ति से रहित नहीं हो, उनका तादात्म्यलक्षण संबंध होता है। जिसप्रकार ज्ञान के साथ आत्मा का तादात्म्यलक्षणसंबंध है; क्योंकि आत्मा की सर्व अवस्थाओं में वह ज्ञान स्वरूपपने व्याप्त रहता है और आत्मा कभी भी ज्ञानस्वरूपपने की व्याप्ति से रहित नहीं होता। रागादिरूप उदयभाव के साथ आत्मा का तादात्म्यलक्षण संबंध नहीं है; क्योंकि आत्मा सर्व अवस्थाओं में उदयभाव के साथ व्याप्त नहीं रहता। संसार अवस्था में तो उदयभाव है, परन्तु मोक्ष अवस्था में नहीं है।' पुद्गल की सभी अवस्थाओं में वे वर्णादिभाव व्याप्त रहते हैं तथा पुद्गल उन वर्णादि की व्याप्ति से कभी भी रहित नहीं होता; इसलिए वर्णादिभावों का पुद्गल के साथ तादात्म्यसंबंध है, किन्तु आत्मा के साथ नहीं है। . वे वर्णादि व रागादि आत्मा के साथ संसार-अवस्था में कथंचित् व्याप्त रहते हैं; तथापि मोक्ष अवस्था में उनकी व्याप्ति बिल्कुल नहीं है। इसलिए उनका जीव के साथ तादात्म्यलक्षणसंबंध नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३२३ २. वही, पृष्ठ ३२४ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 449 गाथा ६१-६४ वर्ण से लेकर गुणस्थान तक के सभी भावों का जिसप्रकार पुद्गल के साथ तादात्म्य-संबंध है, उसीप्रकार जीव के साथ भी तादात्म्यपना हो तो जीव व पुद्गल में कोई भेद नहीं रहेगा और ऐसा होने पर जीव का ही अभाव ठहरेगा। जिसका अभिप्राय या श्रद्धान ऐसा है कि भले ही मोक्ष-अवस्था में रागादि का जीव के साथ तादात्म्यसंबंध न हो; परन्तु संसार अवस्था में तो जीव का रागादिभावों के साथ संबंध है। उनसे कहते हैं कि हे भाई! यदि संसारावस्था में भी ज्ञान का वर्णादि भावों के साथ संबंध हो तो संसारावस्था के काल में तेरे मत के अनुसार जीव अवश्य ही रूपित्व को प्राप्त होगा। ..... ___ यहाँ ऐसा कहते हैं कि संसारावस्था में भी रागादिभाव आत्मा के नहीं हैं। संसार-अवस्था में जीव का रंग, राग व भेदभावों के साथ तादात्म्यसंबंध नहीं है; तथापि यदि तेरा अभिप्राय ऐसा ही हो कि . ज्ञानानन्दस्वभावी जीव के संसारावस्था में रंग, राग व भेद के भावों से तादात्म्य है तो आत्मा अवश्य ही रूपीपने को प्राप्त होगा। भाई! रंग-राग-भेद से तो पुद्गल को ही तन्मयपना है। यदि संसार-अवस्था में आत्मा को इससे तन्मयपना मानेंगे तो आत्मा रूपीपुद्गल ही हो जायेगा, फिर संसार-अवस्था से पलटकर जब मोक्ष होगा तो किसका मोक्ष होगा? पुद्गल का ही मोक्ष होगा अर्थात् मोक्ष में पुद्गल ही रहेगा, जीव नहीं रहेगा। एक अवस्था में यदि रंग-रागभेद जीव से तन्मय हों तो दूसरी अवस्था में भी वे जीव से तन्मय अर्थात् एकमेक ही रहेंगे। अतः जब संसार-अवस्था में जीव पुद्गल से तन्मय है तो मोक्ष-अवस्था में भी पुद्गल से तन्मय ही रहेगा अर्थात् पुद्गल का ही मोक्ष होगा। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३३३ २. वही, पृष्ठ ३३६ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 समयसार अनुशीलन अहो ! दिगम्बर सन्तों ने गजब वस्तुस्वरूप बताया है।" उक्त सम्पूर्ण कथन से यही स्पष्ट होता है कि जीव का वर्णादि २९ प्रकार के भावों के साथ न मोक्ष अवस्था में तादात्म्यसंबंध है और न संसारावस्था में । अत: ये सभी पुद्गलरूप भाव निश्चय से जीव से भिन्न ही हैं। ध्यान रहे - यहाँ जिस जीव की बात चल रही है, वह जीव परमार्थ जीव है, दृष्टि का विषयभूत जीव है, ध्यान का ध्येय और परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेयरूप जीव है, परमपारिणामिकभावरूप जीव है। इस जीव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होती है। अपने इस जीव में अपनापन स्थापित करने का नाम ही सम्यग्दर्शन है, इसे निज जानने का नाम ही सम्यग्ज्ञान है और इसमें ही जमने-रमने का नाम सम्यक्चारित्र है। यही जिनागम का सर्वस्व है, परमागम का सर्वस्व है। ____ अरे भाई, अधिक क्या कहें? आत्मार्थी के लिए तो यही सब कुछ है; जो कुछ है, सो यही है। यही एकमात्र धर्म का आधार है । अतः इसे जानना ही जानना है और सब तो बस यों ही है, भार झोकना ही है। अतः आत्मार्थियों को इसे जानने में ही जीवन लगा देना चाहिए, इसका अनुभव करने में ही सम्पूर्णत: समर्पित हो जाना चाहिए; व्यर्थ के विवादों से उपयोग को हटाकर इसमें समर्पित हो जाना ही उपयोग का सदुपयोग है, मानवजीवन की सार्थकता है। यही कारण है आचार्यदेव यहाँ उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए पूरी शक्ति लगा रहे हैं, इतना विस्तार कर रहे हैं। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३४० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ६५-६६ "ये २९ प्रकार के भाव जीव नहीं हैं" - यह सिद्ध करने के उपरान्त अब आचार्यदेव इस विषय के उपसंहार की ओर बढ़ते हुए कहते हैं - एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ॥६५॥ एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो॥६६ ।। ( हरिगीत ) एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ॥६५॥ इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं' - जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी॥६६ ।। एक-इन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पांच-इन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त – ये नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। इन पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों से करणरूप होकर रचित जीवस्थानों को जीव कैसे कहा जा सकता है? ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त गाथाओं की उत्थानिका में ही लिखते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से जब ये चौदह जीवस्थान (जीवसमास) भी जीव का स्वरूप नहीं है तो फिर देहगत वर्णादिक जीव का स्वरूप कैसे हो सकते हैं? . यद्यपि गाथा में अकेले जीवस्थान की बात कही है, तथापि गाथा का तात्पर्य यही है कि नामकर्म के उदय से होनेवाले वर्णादिक सभी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 452 भाव जीव नहीं हैं । इसी बात को आचार्य जयसेन ने उत्थानिका में स्पष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को सोदाहरण इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ "निश्चयनय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो भाव जिससे किया जाता है, वह वही होता है। इस नियम के अनुसार जिसप्रकार सोने का पत्र (वर्क) सोने से निर्मित होने से सोना ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों के किये जाने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। नामकर्म की प्रकृतियों की पुद्गलमयता तो आगम में प्रसिद्ध ही है और अनुमान से भी जानी जा सकती है। क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले शरीरादि मूर्तिकभाव कर्मप्रकृतियों के कार्य हैं; इसलिए कर्म प्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं। - ऐसा अनुमान किया जा सकता है। जिसप्रकार यहाँ जीवस्थानों को पौद्गलिक सिद्ध किया है, उसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गल से अभिन्न हैं । अत: मात्र जीवस्थानों को ही पुद्गल कहे जाने पर भी इन सभी को पुद्गलमय कहा गया समझ लेना चाहिए। अत: यह निश्चय सिद्धान्त है, अटल सिद्धान्त है कि वर्णादिक जीव नहीं हैं।" ध्यान रहे २९ भावों में से यहाँ वे ही भाव लिए हैं, जो नामकर्म के उदय से होते हैं; क्योंकि मोहकर्म के उदय से होनेवाले भावों को ६८वीं गाथा में लेंगे। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो बात टीका में स्पष्ट की है, उसी को वे इसी टीका में समागत दो कलशों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 453 कलश ३८.३९ ( उपजाति ) निर्वय॑ते येन यदत्र किंचित् तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् । रुक्मेण निवृत्तमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथंचनासिम्॥ ३८॥ वर्णादिसामग्र्यमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य। ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः॥३९ ।। ( दोहा ) जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य। स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य॥३८॥ वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गलजन्य। एक शुद्ध विज्ञानघन आतम इनसे भिन्न ॥३९॥ जिस वस्तु से जो भाव बनता है, वह भाव वह वस्तु ही है; किसी भी प्रकार अन्य वस्तु नहीं है। क्योंकि स्वर्ण निर्मित म्यान को लोग स्वर्ण के रूप में ही देखते हैं, तलवार के रूप में नहीं। ____ अतः हे ज्ञानीजनो! इन वर्णादिक से लेकर गुणस्थान पर्यन्त भावों को एक पुद्गल की ही रचना जानो, पुद्गल ही जानो; ये भाव पुद्गल ही हों, आत्मा न हों; क्योंकि आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञान का पुंज है; इसलिए इन भावों से भिन्न है। ___टीका और कलश में एक-सा भाव होने पर भी उदाहरण में थोड़ासा अन्तर है। टीका में स्वर्णपत्र लिया है जबकि कलश में स्वर्ण की म्यान ली है। इसीप्रकार टीका में सोने के लिए 'कनक' शब्द का उपयोग किया गया है और कलश में 'रुक्म' शब्द का प्रयोग है। ___ 'रुक्म' शब्द का अर्थ परमाध्यात्मतरंगिणी में आचार्य शुभचन्द्र ने, समयसार वचनिका में जयचन्दजी ने, सप्तदशांगीटीका में सहजानन्दजी वर्णी ने एवं अध्यात्म-अमृत कलश में पण्डित जगन्मोहनलालजी ने स्वर्ण ही किया है; किन्तु पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में रुक्म शब्द का अर्थ चाँदी किया है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 454 पाण्डे राजमलजी की कलशटीका के आधार पर निर्मित होने पर भी कविवर पण्डित बनारसीदासजी कनक (स्वर्ण) शब्द का ही प्रयोग करते हैं, चाँदी का नहीं; जो इसप्रकार है। (दोहा ) "खांडो कहिये कनक को कनक-म्यान संयोग। न्यारौ निरखत म्यान सौं लोह कहे सब लोग। वरनादि पुद्गल दसा धरै जीव बहुरूप। वस्तु विचारत करमसौं भिन्न एक चिद्रूप॥ जिसप्रकार सोने की म्यान में रखी हुई तलवार को यद्यपि सभी लोग सोने की तलवार कहते हैं; परन्तु म्यान से न्यारी देखने पर सभी लोग उसे लोह की ही कहते हैं। __ उसीप्रकार यद्यपि पौद्गलिक वर्णादिक के संयोग से जीव अनेक रूप धारण करता है, तथापि वस्तुस्वरूप का विचार करने पर भगवान आत्मा तो कर्मों से भिन्न एक चैतन्यस्वरूप तत्व ही है।" _ 'रुक्म' शब्द का अर्थ चाँदी करो या सोना, उससे मूल प्रतिपाद्य में तो कोई अन्तर नहीं आता है; क्योंकि इसे तो दृष्टान्त के रूप में रखा गया है, दृष्टान्त में तो कोई अन्तर है ही नहीं। आचार्य जयसेन ने स्वर्णपत्र और सोने की म्यान के सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र की टीका का अनुकरण न करके टीका में ही समागत कलश का अनुकरण किया है। तात्पर्य यह हैं कि उन्होंने उदाहरण के रूप में स्वर्णपत्र न लेकर स्वर्ण का असिकोश (म्यान) लिया है। उदाहरण कुछ भी दिये गये हों, पर इन गाथाओं में मूल बात तो यही कही गई है कि वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन और जीवस्थान निश्चय से जीव नहीं हैं, अजीव ही हैं, पुद्गल ही हैं। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ६७ मूल बात तो यह है कि नामकर्म के उदय से होनेवाले वर्णादिभाव निश्चय से जीव नहीं; उन्हें जो जीव कहा जाता है, वह मात्र व्यवहारकथन ही है । इसी बात को अब इस ६७वीं गाथा में कह रहे हैं । पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ ६७॥ ( हरिगीत ) पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥ ६७ ॥ शास्त्रों में देह के पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सूक्ष्म, वादर आदि जितने भी नाम जीवरूप में दिये गये हैं; वे सभी व्यवहारनय से ही दिये गये हैं । यद्यपि यह भगवान आत्मा ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकंद है, ज्ञानानन्दस्वभावी है; तथापि शास्त्रों में भी इस आत्मा को पर्याप्तकजीव, अपर्याप्तकजीव, सूक्ष्मजीव, वादरजीव, एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव, संज्ञीजीव, असंज्ञीजीव आदि नामों से अभिहित किया जाता है। शास्त्रों का यह कथन परमार्थकथन नहीं है, मात्र व्यवहारकथन ही है । इस कथन को परमार्थकथन के समान सत्यार्थ मानकर इन्हें सत्यार्थ जीव नहीं मान लिया जाय इस गाथा में इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कर विशेष सावधान किया गया है । — आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति और कलश दोनों में ही घी के घड़े का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है; जो इसप्रकार है ― Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनशीलन 456 "बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त – इन शारीरिक संज्ञाओं को सूत्र में जो जीव संज्ञा के रूप में कहा गया है, वह पर की प्रसिद्धि के कारण घी के घड़े की भाँति व्यवहार है और वह अप्रयोजनार्थ है। जिसप्रकार किसी पुरुष के जन्म से ही मात्र घी का घड़ा ही प्रसिद्ध हो, उससे भिन्न अन्य घड़े को वह जानता ही न हो; ऐसे पुरुष को समझाने के लिए 'जो यह घी का घड़ा है, सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं' - इसप्रकार घड़े में घी के घड़े का व्यवहार किया जाता है; क्योंकि उस पुरुष को घी का घड़ा ही प्रसिद्ध है। इसीप्रकार इस अज्ञानी लोक को अनादि संसार से एक अशुद्धजीव ही प्रसिद्ध है, वह शुद्ध जीव को जानता ही नहीं है; उसे समझाने के लिए 'जो यह वर्णादिमान जीव है, वह ज्ञानमय है, वर्णादिमय नहीं' - इसप्रकार जीव में वर्णादिमयपने का व्यवहार किया गया है; क्योंकि अज्ञानी लोक को वर्णादिमान जीव ही प्रसिद्ध है।" टीका में समागत कलश इसप्रकार है - ( अनुष्टभ् ) "घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत्। जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः॥४०॥ ( दोहा ) कहने से घी का घड़ा, घड़ा न धीमय होय। कहने से वर्णादिमय जीवन तन्मय होय॥४०॥ जिसप्रकार 'घी का घड़ा' कहे जाने पर भी घड़ा घीमय नहीं हो जाता; उसीप्रकार वर्णादिमान जीव' कहे जाने पर भी जीव वर्णादिमय नहीं हो जाता। समयसार नाटक में इस कलश का भावानुवाद इसप्रकार किया गया है - Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 गाथा ६७ "ज्यौं घट कहिये घीव को घट कौ रूप न घीव । त्यौं वरनादिक नाम सौं जड़ता लहै न जीव॥" यद्यपि 'घी का घड़ा' कहा जाता है; तथापि घट घीरूप कभी नहीं होता; इसीप्रकार जीव वर्णादिवाला कहा जाता है; तथापि वह जड़ नहीं हो जाता। __ पुराने जमाने में घी भी मिट्टी के घड़ों में ही रखा जाता था। इसके लिए घड़े को विशेष रूप से तैयार किया जाता था। मिट्टी का होने से वह स्वयं बहुत घी सोख लेता था। अत: कीमती भी हो जाता था। उसमें पहले कुछ दिन पानी भरा जाता था। उसके बाद छाछ भरी जाती थी, जिससे वह छाछ की चिकनाई सोख ले। उसके बाद घी रखने के काम लिया जाता था। ऐसे घड़े पीड़ी-दरपीड़ी चलते थे और उन्हें घर में घी का घड़ा के नाम से ही अभिहित किया जाता था। अत: बहुत से लोग उसे जन्म से घी के घड़े के रूप में ही जानते थे, घी के घड़े के नाम से ही जानते थे। यहाँ इसीप्रकार का घड़ा और उसे जन्म से ही घी के घड़े के रूप में जाननेवाले व्यक्ति को उदाहरण के रूप में लिया गया है। ___यदि कोई ऐसा व्यक्ति यह मानले कि जिसे घी का घड़ा कहा जाता है, वह घी से ही बना होगा, घीमय होगा; तो उसे समझाते हैं कि जो यह घी का घड़ा है वह घी से नहीं बना है, घीमये नहीं है; अपितु मिट्टी से ही बना है, मिट्टीमय ही है। ___ इसीप्रकार इस अज्ञानी लोक को अनादिकाल से एक अशुद्धजीव ही प्रसिद्ध है, वर्णादिमय जीव ही प्रसिद्ध है; रागादिमय जीव ही प्रसिद्ध है; वह शुद्धजीव को जानता ही नहीं है, वर्णादिरहित जीव को जानता ही नहीं है ; रागादिरहित जीव को जानता ही नहीं है; अत: उसे समझाते हुए कहते हैं कि जो यह वर्णादिमान जीव है, वह वर्णादिमय नहीं है, अपितु ज्ञानमय ही है; जो यह रागादिमान जीव है, वह रागादिमय नहीं, ज्ञानमय ही है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 समयसार अनुशीलन 'जो यह वर्णादिमान जीव है' - ऐसा कहकर व्यवहार की स्थापना की है, व्यवहार का ज्ञान कराया है; और वह वर्णादिमय नहीं, ज्ञानमय है' - ऐसा कहकर व्यवहार का निषेध किया, निश्चय की स्थापना की है। ___ वर्ण के साथ लगे आदि शब्द से २९ भावों में वर्ण को छोड़कर शेष २८ भाव भी ले लेना चाहिए और उक्त कथन वर्ण के समान ही उन पर भी घटित करना चाहिए। प्रश्न -किसप्रकार घटित करें; कुछ घटाकर बताइये न? उत्तर -जो यह रसवाला जीव है, वह रसमय नहीं, ज्ञानमय है; जो यह रागवाला जीव है, वह रागमय नहीं, ज्ञानमय है; जो गुणस्थानवाला जीव है, वह गुणस्थानमय नहीं, ज्ञानमय है; जो जीवस्थानवाला, जीव है, वह जीवस्थानमय नहीं, ज्ञानमय है। - इसीप्रकार सभी २९ भावों पर घटित करना चाहिए। इनके प्रभेदों पर भी इसीप्रकार घटित करना चाहिए। इस ६७वीं गाथा में जीवस्थान के प्रभेदों पर इस बात को ही घटित किया गया है; क्योंकि सूक्ष्म, वादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक भेद जीवस्थान अर्थात् जीवसमास के ही हैं। प्रश्न -इसे चौदह जीव स्थानों पर किसप्रकार घटित करें? उत्तर -इसे १४ जीवसमासों या जीवस्थानों पर इसप्रकार घटित करना चाहिए - जो यह वादरेकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव है, वह वादरेकेन्द्रिय पर्याप्तकमय नहीं है, ज्ञानमय है; जो यह सूक्ष्मेकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव है, वह सूक्ष्मेकेन्द्रिय पर्याप्तकमय नहीं है, ज्ञानमय है; जो द्वीन्द्रियपर्याप्तक जीव है, वह द्वीन्द्रिय पर्याप्तकमय नहीं; ज्ञानमय है। इसीप्रकार १४ भंग बनाने चाहिए। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 गाथा ६७ इसीप्रकार गुणस्थानों पर भी घटित करना चाहिए। जैसे - जो यह मिथ्यात्व गुणस्थानवाला जीव है, वह मिथ्यात्वगुणस्थानमय नहीं है, ज्ञानमय है। इसप्रकार १४ भंग गुणस्थान के भी बन जावेंगे। चौदह मार्गणाओं पर घटित करने पर और भी अधिक विस्तार हो जायेगा; क्योंकि जब गतिमार्गणा पर घटित करेंगे तो उसके भेदों पर भी घटित करना होगा। जैसे - जो देवजीव है, वह देवगतिमय नहीं है, ज्ञानमय है; यह मनुष्यजीव है, वह मनुष्यगतिमय नहीं है, ज्ञानमय है। इसीप्रकार अन्य मार्गणाओं पर भी घटित होगा । इसीप्रकार २९ बोलों के सभी भेद-प्रभेदों पर घटित करके समझना चाहिए। उन भेद-प्रभेदों पर विशेषरूप से ध्यान देना चाहिए कि जिनमें हमारे सहज ही एकत्व के विकल्प चलते हैं। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने व्यवहार को अप्रयोजनार्थ कहा है। जयचन्दजी छाबड़ा आदि लगभग सभी ने इसका अर्थ अप्रयोजनभूत ही किया है। स्वामीजी ने इसपर विस्तार से प्रकाश डाला है, जो इसप्रकार है - "घी के घड़े की भाँति व्यवहार से समझाया है, परन्तु यह व्यवहार अप्रयोजनभूत है। 'राग आत्मा है' - यह कहना अप्रयोजनभूत है, क्योंकि इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसीप्रकार गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में आत्मा तन्मय नहीं है, इसलिए उसको जीव का कहना अप्रयोजनार्थ है, असत्यार्थ है; क्योंकि इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। __कलशटीका में ३९वें कलश में कहा है कि 'कोई आशंका करता है कि कहने में तो ऐसा ही कहा जाता है - एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव इत्यादि; देवजीव, मनुष्यजीव इत्यादि; रागीजीव, द्वेषीजीव इत्यादि। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 460 उत्तर इसप्रकार है कि कहने में तो व्यवहार से ऐसा ही कहा जाता है, किन्तु निश्चय से ऐसा कहना झूठा है। ___ तथा कलशटीका में ही ४०वें कलश में भी यही दृढ़ किया है कि आगम में गुणस्थानों का स्वरूप कहा है, वहाँ देवजीव, मनुष्यजीव, रागीजीव, द्वेषजीव इत्यादि बहुत प्रकार से कहा है, सो यह सब ही कथन व्यवहारमात्र से है, द्रव्यस्वरूप देखने पर ऐसा कहना झूठा है। प्रश्न -प्रवचनसार की गाथा १८९ में ऐसा आता है कि निश्चय से आत्मा शुभाशुभभावों का, पुण्य-पाप के भावों का कर्ता और भोक्ता है तथा प्रवचनसार गाथा ८ में ऐसा कहा है कि शुभ, अशुभ या शुद्धरूप से परिणत जीव उन्हीं से तन्मय है? इन कथनों का क्या अभिप्राय है? उत्तर -भाई! वहाँ तो पर्याय शुभाशुभभावों से एकरूप है, मात्र इतना बताना है। इसलिए त्रिकाली द्रव्य शुभाशुभभावों में तन्मय नहीं हो गया है। प्रवचनसार के उस प्रकरण में वर्तमान पर्याय के बराबर ही वस्तु की स्थिति सिद्ध की है। यहाँ तो अकेले त्रिकाली द्रव्य की सिद्धि करना है। त्रिकाली आत्मद्रव्य तो शुद्ध विज्ञानघन भगवान ही है, वह कभी शुभाशुभभावरूप हुआ ही नहीं है । समयसार की ६वीं गाथा में भी आता है कि ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा कभी भी शुभाशुभभावरूप नहीं हुआ है, तथापि 'शुभाशुभरूप हुआ है' - ऐसा कहना व्यवहार है। यदि भगवान आत्मा शुभाशुभभाव के स्वभावरूप से परिणमित हो जाय तो वह जड़-अचेतन हो जाय । भाई! भक्ति व महाव्रतादि के जो शुभभाव हैं, वे जड-अचेतन हैं; क्योंकि इनमें चैतन्य की किरण नहीं है। वहाँ प्रवचनसार में पर्याय की अपेक्षा से आत्मा शुभाशुभभाव से तन्मय है - ऐसा कहा है, परन्तु यहाँ द्रव्य की अपेक्षा से कथन है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३६२-३६३ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 461 द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा शुभाशुभभाव से तन्मय नहीं है - ऐसा सिद्ध किया है। प्रवचनसार की १८९वीं गाथा में जो ऐसा कहा है कि निश्चय से आत्मा राग का कर्ता व भोक्ता है; वहाँ यह अभिप्राय है कि राग आत्मा की परिणति है, आत्मा स्वतः राग का कर्ता है तथा स्वत: भोक्ता है। पर की परिणति को जीव की कहना व्यवहारनय है तथा जीव की परिणति को जीव की कहना निश्चयनय है इस अपेक्षा से आत्मा राग का कर्ता है ऐसा उक्त कथन का अर्थ है । प्रश्न – फिर जीव राग का कर्ता है या नहीं क्या है ? - - गाथा ६७ - दोनों में सत्य - उत्तर • अपेक्षा से दोनों ही बातें सत्य हैं । प्रवचनसार के ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन में वस्तु की पर्याय सिद्ध की है, जबकि यहाँ द्रव्य सिद्ध करना है । द्रव्यदृष्टि से देखने पर वस्तु जो ज्ञायकमात्र है, उसमें राग है ही नहीं १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३६३-३६४ २ . वही, पृष्ठ ३६८ प्रवचनसार में पर्याय के परिणमन की बात है और यहाँ द्रव्यस्वभाव की बात है । दोनों की अपेक्षा जुदी - जुदी है। प्रवचनसार में यह बताने का प्रयोजन है कि राग पर्याय में होता है, वह कहीं अन्यत्र या अधर में (आकाश में) नहीं होता; अपनी ही पर्याय में होता है । तथा यहाँ शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है, जीव को अजीव से भिन्न बताना है । प्रवचनसार की गाथा १८९ में ऐसा आता है कि शुद्धनय से आत्मा विकार का कर्ता स्वत: है । पंचास्तिकाय की गाथा ६२ में भी कहा है कि आत्मा की विकारी पर्याय का परिणमन अपने षट्कारकों से स्वत: है तथा अन्य कारकों से निरपेक्ष है । अर्थात् जीव की पर्याय में जो विकार का परिणमन होता है, उसे कर्म के उदय की अपेक्षा नहीं Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 462 है। परन्तु यहाँ अपेक्षा भिन्न है। यहाँ तो यह कहते हैं कि पर्याय में जो विकार होता है, वह स्वभाव में नहीं है। अत: पर्याय के विकार और जड़कर्म – दोनों को एक मानकर विकार कर्मप्रकृति के उदयपूर्वक होता है - ऐसा कहा है। प्रकृति जड़/अचेतन है, इसकारण विकार भी अचेतन है - ऐसा कहा है।" प्रश्न -आप व्यवहार को अप्रयोजनभूत कहते हैं, यह तो ठीक नहीं है? उत्तर - अरे भाई! हम कहते हैं कि आचार्यदेव कह रहे हैं। आत्मख्याति में मूल में ही 'अप्रयोजनार्थ' शब्द पड़ा है। प्रश्न - तो क्या वह सर्वथा अप्रयोजनभूत है? उत्तर -कौन कहता है कि सर्वथा अप्रयोजनभूत है। पर यहाँ निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य के निरूपण के प्रकरण में अप्रयोजनभूत है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। यही आशय आचार्य अमृतचन्द्र. का है और इसीप्रकार का स्पष्टीकरण लगभग सभी ने किया है। स्वामीजी ने भी इसीप्रकार का स्पष्टीकरण किया है। प्रश्न -नञ् समास का प्रयोग ईषद् अर्थ में भी तो होता है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में प्रथम अध्याय के १४वें सूत्र की व्याख्या में अनुदराकन्या का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है। अनुदराकन्या का अर्थ होता है बिना पेट की कन्या, पर बिना पेट की कन्या होना संभव नहीं है । जो अर्थ संभव हो, वही करना चाहिए। अतः यहाँ पेट की स्थूलता का अभाव ही अभीष्ट है, पेट का अभाव नहीं। इसीप्रकार यहाँ भी नञ् समास का प्रयोग होने से मूलभूत प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला नहीं है - यह अर्थ भी किया जा सकता है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३७३ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 463 उत्तर –हाँ, किया जा सकता है; क्योंकि मुख्य प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला न होने से ही यहाँ व्यवहार को अप्रयोजनार्थ कहा है। साथ में यह भी कहा है कि वह व्यवहार परप्रसिद्धि का ही कारण है । निमित्त का ज्ञान करानेवाला होने से, संयोग का ज्ञान करानेवाला होने से उसे परप्रसिद्धि का कारण कहा है और असंयोगी आत्मतत्त्व के ज्ञान कराने में असमर्थ होने से अप्रयोजनभूत कहा है। प्रश्न – उन दोनों अर्थों में कौन-सा अर्थ उत्तम है? उत्तर -दोनों ही उत्तम हैं; क्योंकि दोनों में कोई अन्तर ही नहीं है। दोनों अर्थों में आखिर एक ही बात तो स्पष्ट की है कि संयोग का ज्ञान करानेवाला व्यवहार, आत्मा को वर्णादि और रागादिमान कहनेवाला व्यवहार वर्णादि और रागादि से रहित असंयोगी आत्मतत्त्व का ज्ञान कराने में अप्रयोजनभूत है, परतत्त्व की प्रसिद्धि करनेवाला व्यवहार निजात्मतत्त्व की प्रसिद्धि, अनुभूति कराने में असमर्थ है; अतः अप्रयोजनार्थ है। इसप्रकार इस गाथा में यह बताया कि वर्णादिभाव जीव नहीं हैं और आगामी गाथा में यह स्पष्ट करेंगे कि रागादिभाव भी जीव नहीं हैं। अथवा इस गाथा में यह बताया कि जीवस्थान जीव नहीं है और आगामी गाथा में यह बतायेंगे कि गुणस्थान भी जीव नहीं हैं। . जैनियों के भगवान विषय-कषाय और उसकी पोषक सामग्री तो देते ही नहीं, वे तो अलौकिक सुख और शान्ति भी नहीं देते; मात्र सच्ची सुख-शान्ति प्राप्त करने का उपाय बता देते हैं। यह भी एक अद्भुत बात है कि जैनियों के भगवान भगवान बनने का उपाय बताते हैं। जगत में ऐसा कोई अन्य दर्शन हो तो बताओ कि जिसमें भगवान अपने अनुयायियों को स्वयं के समान ही भगवान बनने का मार्ग बताते हों। भगवान में लीन हो जाने की बात, उनकी कृपा प्राप्त करने की बात तो सभी करते हैं, पर तुम स्वभाव से तो स्वयं भगवान हो ही और पर्याय में भी भगवान बन सकते हो- यह बात मात्र जैनियों के भगवान ही कहते हैं; साथ में वे भगवान बनने की विधि भी बताते हैं। -आत्मा ही है शरण, पृष्ठ २१७ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गाथा ६८ मोहणकम्मस्सुदया दु वणिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता॥ ६८॥ ( हरिगीत ) मोहन-करम के उदय से गुणस्थान जो जिनवर कहे । वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहे ॥ ६८॥ मोहकर्म के उदय से होनेवाले गुणस्थान सदा ही अचेतन हैं - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है; अत: वे जीव कैसे हो सकते हैं? यद्यपि ६५, ६६ एवं ६७वीं गाथाओं में यह कहा गया था कि जीवस्थान जीव नहीं है और इस ६८वीं गाथा में यह कहा जा रहा है कि गुणस्थान जीव नहीं हैं; तथापि आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में ६५ व६६वीं गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि वर्णादिकभाव जीव नहीं हैं और ६८वीं गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि रागादिभाव जीव नहीं हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र वर्ण के साथ लगे आदि शब्द में नामकर्म के उदय से होनेवाले जीवस्थान, रूप, रस, गंध, स्पर्श, शरीर, संस्थान और संहनन को लेते हैं और रागादि में लगे हुए आदि शब्द में मोहकर्म के उदय में होनेवाले द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान और गुणस्थानों के लेते हैं। वे जीवस्थान को वर्णादि के प्रतिनिधि और गुणस्थान को रागादि के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण करते हैं। इसप्रकार वे वर्णादि व रागादि में अथवा जीवस्थान और गुणस्थानों में मिलाकर पूर्वोक्त सभी २९ भावों को समाहित कर लेते हैं। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 465 गाथा ६८ ये २९ प्रकार के भाव निश्चय से जीव नहीं हैं। यदि इन्हें आगम या परमागम में कहीं जीव कहा है तो वह घी के घड़े की भाँति व्यवहारकथन है। यह बात ६७वीं गाथा में स्पष्ट की गई है। ___ आत्मख्याति में ६८वीं गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया "जिसप्रकार जौपूर्वक जौ ही होते हैं; उसीप्रकार पुद्गल पुद्गलपूर्वक ही होते हैं, अचेतन अचेतनपूर्वक ही होते हैं। – इस नियम के अनुसार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक अचेतन मोहकर्म की प्रकृति के उदयपूर्वक होने से सदा पुद्गल ही हैं, अचेतन ही हैं; चेतन नहीं हैं, जीव नहीं हैं। गुणस्थानों का नित्य-अचेतनत्व आगम से सिद्ध है और वे गुणस्थान भेदज्ञानियों को चैतन्यस्वभावी आत्मा से सदा ही भिन्न उपलब्ध हैं; इसलिए भी उनका सदा अचेतनत्व सिद्ध होता है। इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होने से, इसकारण सदा ही अचेतन होने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं। ऐसा स्वतः सिद्ध हो गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव जीव नहीं हैं।" इसी बात को जयचंदजी छावड़ा ने भावार्थ में सरल-सुबोध भाषा में इसप्रकार व्यक्त किया है - "शुद्धद्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में चैतन्य अभेद है और उसके परिणाम भी स्वाभाविक ज्ञान-दर्शन हैं। परनिमित्त से होनेवाले चैतन्य के विकार, यद्यपि चैतन्य जैसे दिखाई देते हैं; तथापि चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्यापक न होने से चैतन्य शून्य हैं, जड़ हैं और आगम Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन में भी उन्हें अचेतन कहा है। भेदज्ञानी भी उन्हें चैतन्य से भिन्नरूप अनुभव करते हैं; इसलिए भी वे अचेतन हैं, चेतन नहीं। प्रश्न – यदि वे चेतन नहीं हैं तो क्या हैं - पुद्गल या कुछ और ? उत्तर – वे पुद्गलकर्मपूर्वक होते हैं, इसलिए निश्चय से पुद्गल ही है; क्योंकि कारण जैसा ही कार्य होता है। 466 इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से होनेवाले चैतन्य के विकार भी जीव नहीं, पुद्गल हैं ।" उक्त सम्पूर्ण कथन पर ध्यान देने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ पुण्य-पापरूप सभी शुभाशुभ भावों को आत्मा से भिन्न अचेतन कहा जा रहा है, जड़ कहा जा रहा है, पुद्गल कहा जा रहा है । अरे भाई ! इनसे धर्म कैसे हो सकता है ? जब विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी जड़ हैं; तो फिर कौन-सा शुभभाव शेष रहा, जिसे धर्म कहा जाय ? चेतन का धर्म तो चेतन के आश्रय से होता है । जब ये चेतन ही नहीं, जीव ही नहीं; तो इनके आश्रय धर्म भी कैसे हो सकता है ? यहाँ एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि आप एक ओर तो रागादिभावों को पुद्गल की रचना कहते हैं और दूसरी ओर जीव की विकारी पर्याय बताते हैं इससे भ्रम उत्पन्न होता है । - अरे भाई ! विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अपेक्षाओं से कथन होता है । जबतक हम उन अपेक्षाओं को अच्छी तरह नहीं समझेंगे, तबतक भ्रमित ही होते रहेंगे । ― आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी इन अपेक्षाओं को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यहाँ कहते हैं कि ये वर्णादि सभी भाव पुद्गल के ही हैं, इन्हें पुद्गल की ही रचना जानो! यह कथन किस अपेक्षा से किया है ? Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 467 गाथा ६८ ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि राग की रचना तो पर्याय में अपने विपरीत पुरुषार्थ से होती है; इसलिए राग का परिणमन स्वयं जीव का है, उसमें कर्म निमित्त है। कर्म निमित्त है अवश्य, किन्तु निमित्त से राग नहीं हुआ – यह भी एक सिद्धान्त है; किन्तु यहाँ दूसर सिद्धान्त की अपेक्षा से कहा है कि राग का कर्ता आत्मा नहीं है । आत्मा में अकर्ता नाम का एक गुण है, इसकारण राग करने का उसका स्वभाव ही नहीं है; इसलिए राग की रचना पुद्गल द्रव्य से होती है - ऐसा कहा है। पुद्गल कारण है तथा राग उसका कार्य है; क्योंकि वे दोनों अभिन्न हैं। यहाँ वस्तु के स्वभाव अर्थात् चिदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा की दृष्टि कराना है। यहाँ जीव उसे कहा है कि जो अखण्ड अभेद एकरूप चैतन्यघनस्वरूप है । इस चैतन्यघनस्वरूप आत्मा की दृष्टि करने से ही सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्म का प्रथम सोपान प्रगट होता है । ऐसे शुद्ध जीव की दृष्टि कराने के लिए यहाँ रंग, राग व भेद के भावों को पुद्गल की ही रचना है – ऐसा कहा है। ___ यहाँ तो आत्मद्रव्य का पूर्णस्वभाव बताना है; परन्तु जब पर्याय की बात हो, तब पर्याय में जीव स्वयं राग करता है और पुद्गल तो इसमें निमित्तमात्र है - ऐसा कहने में आता है। निमित्त से राग होता है - ऐसा नहीं है। विकार के परिणमन में परकारक की भी अपेक्षा नहीं है। इसप्रकार पंचास्तिकाय में पर्याय की अस्ति सिद्ध की है तथा जब राग होता है, तब निमित्त भी होता ही है - ऐसा प्रमाणज्ञान कराने के लिए राग स्वयं से होता है – ऐसा निश्चय का ज्ञान रखकर 'राग निमित्त से हुआ है' - ऐसा निमित्त का ज्ञान कराया जाता है। निश्चय को उड़ाकर निमित्त का ज्ञान नहीं कराया जाता। भाई! यहाँ तो प्रमाण व व्यवहार - दोनों को गौण किया है। भगवान आत्मा चैतन्यसूर्य है, १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३५८ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 468 इस चैतन्यसूर्य का प्रकाश चैतन्यमय ही होता है, इसमें राग का अन्धकार कहाँ से हो? यह तो अचेतन-पुद्गल का ही कार्य है। प्रश्न – राग व द्वेष के परिणामों को पुद्गल का क्यों कहा? उत्तर -एक तो वे परिणाम निकल जाते हैं और दूसरे वे जीव के स्वभावमय नहीं हैं, इसलिए उन्हें पुद्गल का कहा है। एकसमय की पर्याय में जो रागादि व भेदादिभाव होते हैं; वे पुद्गल के ही कार्य हैं, क्योंकि वे चैतन्यस्वरूप वस्तु में नहीं हैं। वस्तु तो त्रिकाली शुद्ध चैतन्यघन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान है। वह विकार व भेद का कारण कैसे हो सकती है? इसकारण निमित्त के आधीन हुए राग व भेदादिभाव पुद्गल की ही रचना है - ऐसा जानो! ऐसा ही अनुभव करो।" __ अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब ये भाव जीव नहीं हैं तो जीव क्या है, जीव कैसा है, जीव कौन है? – इसी प्रश्न के उत्तर में आगामी कलश लिखा गया है; जो इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) अनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्। जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते॥ ४१॥ (दोहा) स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त। स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त॥ जो अनादि है, अनन्त है, अचल है, स्वसंवेद्य है, प्रगट है, चैतन्यस्वरूप है और अत्यन्त प्रकाशमान है, वही जीव है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३५८-३५९ २. वही, पृष्ठ ३६० ३. वही, पृष्ठ ३६० Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 469 कलश ४१ इस कलश का पद्यानुवाद समयसार नाटक में इसप्रकार दिया गया है - ( दोहा ) निराबाध चेतन अलख जाने सहज स्वकीव। अचल अनादि अनंत नित प्रगट जगत में जीव ।। इन्द्रियों से दिखाई नहीं देने वाला यह अलख चेतन आत्मा निराबाध है, अचल है, अनादि है, अनंत है, नित्य है और सहजभाव से स्वयं से ही जानने योग्य है - यह बात जगत प्रसिद्ध ही है। उपर्युक्त २९ भावों से रहित यह भगवान आत्मा अनादि है, अनन्त है, अचल है । न तो कभी इसका आरंभ हुआ है और न कभी अन्त ही होनेवाला है। यह जन्म-मरण से रहित है, क्योंकि लोक में जन्म आदि का और मरण अन्त का सूचक है। जब यह आत्मा अनादिअनन्त है तो इसके जन्म-मरण कैसे हो सकते हैं? इसे किसी ने बनाया भी नहीं है और न इसका कोई नाश ही कर सकता है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त-अचल तत्त्व है। ___ अपने स्वभाव में अटलरूप से स्थित होने से यह अचल है। किसी भी स्थिति में यह अपने ज्ञानानन्दस्वभाव से चलायमान नहीं होता। अतः अपने में पूर्ण सुरक्षित है। इसे अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। इसका निर्माणकर्ता, विनाशकर्ता और रक्षणकर्ता कोई नहीं है; क्योंकि यह स्वयं अनादि-अनन्त और अचलतत्त्व है। यह ज्ञानदर्शनस्वभावी होने से चैतन्य है; अपने चैतन्यस्वभाव से सदा प्रगट है और यह स्वयं जगमगाती हुई जलहलज्योति है, प्रकाशमान ज्योति है। यह कोई छुपा हुआ पदार्थ नहीं है, अपितु यह प्रकाशमान जलहलज्योति, सूर्य के समान स्वयं प्रकाशित हो रही है और जगत को प्रकाशित करने में भी पूर्ण समर्थ है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन ऐसा यह ज्ञान - दर्शनस्वभावी अनादि - अनन्त अचल आत्मतत्त्व स्वसंवेद्य है, स्वानुभूति से जाना जा सकता है। 'नहीं जाना जा सकता' । ऐसा भी नहीं है और वर्णादि व रागादि से जाना जावे ऐसा भी नहीं है, व्रत - शील- संयम से जाना जावे ऐसा भी नहीं है । यह - — एकमात्र स्वानुभूति से ही जाना जा सकता है। कहा भी है कि " आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व मैं ज्ञानानंदस्वभावी 470 ऐसा यह भगवान आत्मा मैं ही हूँ । इसमें ही अपनापन सम्यग्दर्शन है, इसे ही निजरूप में जानना सम्यग्ज्ञान है और इसमें ही जमना - रमना सम्यक्चारित्र है । यही धर्म है, मुक्ति का मार्ग है, सन्मार्ग है, सुखी होने का उपाय है । अब आगामी कलश में यह स्पष्ट करते हैं कि जीव का लक्षण चेतनत्व ही क्यों है । ( शार्दूलविक्रीडित ) वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो । नामूर्तत्त्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ॥ इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा । व्यक्तं व्यंजित जीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालंब्यताम् ॥ ४२ ॥ ( सवैया इकतीसा ) मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार, इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके । सोचकर विचारकर भलीभांति ज्ञानियों ने, कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके ॥ अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित, चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का । अतः अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही, क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का ॥ ४२ ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 कलश ४२ इसप्रकार वर्णादि सहित मूर्तिक और वर्णादि रहित अमूर्तिक अजीव दो प्रकार का है। इसलिए अमूर्तत्व के आधार पर अर्थात् अमूर्तत्व को जीव का लक्षण मानकर जीव के स्वरूप को यथार्थ नहीं जाना जा सकता। अतः वस्तुस्वरूप के विवेचक भेदज्ञानियों ने अच्छी तरह परीक्षा करके, अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से रहित जीव का लक्षण चेतनत्व को कहा है। वह चेतनत्व लक्षण स्वयं प्रगट है और जीव के यथार्थ स्वरूप को प्रगट करने में पूर्ण समर्थ है । अत: हे जगत के जीवो! इस अचल एक चैतन्यलक्षण का ही अवलम्बन करो । उपयोग लक्षण को आत्मा का निर्दोष लक्षण सिद्ध करने वाले इस छन्द का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं * - ( सवैया इकतीसा ) रूप- रसवंत मूरतीक एक पुदगल, रूप बिनु औरु यौं अजीव दर्व दुधा है। चारि हैं अमूरतीक जीव भी अमूरतीक, याही तैं अमूरतीक - वस्तु ध्यान मुधा है । और सौं न कबहूं प्रगट आप आपुही सौं, ऐसौ थिर चेतन - सुभाउ सुद्ध सुधा है । चेतन को अनुभौ अराधें जग तेई जीव, जिन्हकौं अखंड रस चाखिवे की छुधा है ॥ ११ ॥ रूपरसवाला पुद्गल एकमात्र ही मूर्तिक है और शेष सभी पाँच द्रव्य अरूपी अमूर्तिक हैं । इसप्रकार अजीव द्रव्य मूर्तिक और अमूर्तिक के भेद से दो प्रकार का है। अजीव द्रव्यों में भी पुद्गल को छोड़कर चार द्रव्य अमूर्तिक हैं और जीव भी अमूर्तिक है। इसकारण अमूर्तिक पदार्थ ध्यान के ध्येय नहीं बन सकते । अपने में स्थिर चेतनस्वभावरूपी अमृत अपने आप से ही प्रगट है । अतः जिनकों आत्मा के अखण्ड अतीन्द्रिय रस चखने की भूख हो; वे चेतन आत्मा का अनुभव करें, आत्मा की आराधना करें । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन 472 यद्यपि भगवान आत्मा अमूर्तिक महापदार्थ है, तथापि अमूर्तत्व को भगवान आत्मा की पहिचान का चिन्ह नहीं माना जा सकता है, उसे आत्मा का लक्षण नहीं बनाया जा सकता है; क्योंकि लक्षण वह होता है, जिसमें अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभव दोष न हो। जिस लक्षण की उपस्थिति लक्ष्य में संभव ही न हो, उस लक्षण को असंभव दोष से युक्त लक्षण कहते हैं अथवा असंभव दोष से युक्त लक्षणाभास कहते हैं। जो लक्षण पूरे लक्ष्य में व्याप्त न हो, उसे अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं और जो लक्षण अलक्ष्य में भी पाया जाय, उसे अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । सही लक्षण तो वही होता है, जो पूरे लक्ष्य में प्राप्त हो और अलक्ष्य में प्राप्त न हो तथा लक्ष्य में जिसकी उपस्थिति असंभव न हो। उक्त कसौटी के आधार पर अब अमूर्तत्व लक्षण की निर्दोषता पर विचार करते हैं। द्रव्य छह प्रकार के होते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अजीवद्रव्य कहे जाते हैं । इन छहों द्रव्यों में अकेला एक पुद्गल ही मूर्तिक है, शेष पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं । यदि जीव का लक्षण अमूर्तिक माना जाय तो असंभव दोष तो नहीं होगा; क्योंकि जीव अमूर्तिक है; किन्तु अव्याप्त और अतिव्याप्त दोष अवश्य होंगे। यह अमूर्तत्व लक्षण जीव के अलावा आकाश, काल, धर्म और अधर्म - इन चार अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है। अत: अलक्ष्य में चला जाने से यह अतिव्याप्त दोष से दूषित है। __ जीव दो प्रकार के हैं – संसारी और मुक्त। यह अमूर्तत्व लक्षण सिद्धों में तो पाया जाता है; क्योंकि बे किसी भी नय से मूर्तिक नहीं हैं; परन्तु संसारी जीव यद्यपि निश्चय से अमूर्तिक हैं, तथापि व्यवहारनय से जिनागम में उन्हें मूर्तिक भी कहा गया है; अत: यह Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 473 कलश ४२ लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है; क्योंकि यह लक्षण संसारी जीवों में व्याप्त नहीं रहा। इसप्रकार यह अमूर्तत्व लक्षण जीव का निर्दोष लक्षण नहीं बन सकता है; परन्तु ज्ञानदर्शनमय चैतन्य-उपयोग ही जीव का ऐसा लक्षण है जो संसारी और मुक्त सभी जीवों में पाया जाता है और जीव के अतिरिक्त किसी भी अजीव द्रव्य में नहीं पाया जाता; अत: न इसमें अव्याप्त दोष है और न अतिव्याप्त तथा असंभव दोष तो है ही नहीं। अत: यह लक्षण सर्वथा निर्दोष लक्षण है। ___ अत: यदि हमें निज भगवान आत्मा को जानना है, पहिचानना है, पाना है, अपनाना है; तो इस एक चैतन्य लक्षण का ही अवलम्बन करना होगा। विशेष जानने की बात यह है कि यहाँ वर्णादि में सभी २९ प्रकार के भाव आ जाते हैं । अत: न केवल रूप, रस आदि ही मूर्तिक हैं; अपितु राग-द्वेष आदि विकारी भाव भी मूर्तिक ही हैं। अधिक क्या कहें; क्योंकि २९ भावों में संयमलब्धिस्थान जैसे भाव भी आते हैं, जिन्हें यहाँ पौद्गलिक कहकर मूर्तिक कहा गया है। अत: ये सभी भाव जीव के लक्षण नहीं बन सकते, जीव की पहिचान के चिन्ह नहीं बन सकते। जीव की पहिचान का असली चिन्ह तो उपयोग ही है, ज्ञानदर्शनमय उपयोग ही है। अत: आचार्यदेव आदेश देते हैं, उपदेश देते हैं, आग्रह करते हैं, अनुरोध करते हैं कि हे जगत के जीवो! तुम एक इस चैतन्य लक्षण का ही अवलम्बन लो, आश्रय करो; क्योंकि इस चैतन्य लक्षण से ही भगवान आत्मा की पहिचान होगी। यह चैतन्य लक्षण स्वयं प्रगट है और त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को प्रगट करने में पूर्ण समर्थ है तथा अचल है; इसकारण कभी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहें - यह चैतन्यलक्षण जीव का जीवन ही है। अत: इस लक्षण के आधार पर ही आत्मा की पहिचान Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन हो सकती है, साधना और आराधना हो सकती है; क्योंकि आत्मा तो स्वलक्षण से स्वयं प्रगट ही है । अब आचार्यदेव आगामी कलश में आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब बात इतनी स्पष्ट है अर्थात् जीव स्वलक्षण से प्रगट ही है तो फिर अज्ञानियों की समझ में क्यों नहीं आता ? ( वसंततिलका ) जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं, ज्ञानीजनोऽनुभवति स्वयमुल्लसंतम् । अज्ञानिनो निरवधि प्रविजृम्भितोऽयं, 474 मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ॥ ४३ ॥ ( हरिगीत ) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को । जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन-भिन्न ही हैं जानते ॥ जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह । अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ॥ ४३ ॥ आचार्यदेव खेद और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कह रहे हैं कि जब जीव और अजीव अपने सुनिश्चित लक्षणों से स्वयं ही उल्लसित होते हुए भिन्न-भिन्न प्रकाशमान हैं और ज्ञानीजन उन्हें भिन्न-भिन्न जानते हैं, पहिचानते हैं, अनुभव करते हैं; तब भी अज्ञानियों में पर में एकत्व का अनादि - अमर्यादित यह व्यामोह न जाने क्यों व्यापता है, यह मोह न जाने क्यों नाचता है ? यह बहुत ही आश्चर्य और खेद की बात है । यह तो अज्ञान की ही महिमा है, पर में एकत्व के मोह की ही महिमा है, मिथ्यात्व की ही महिमा है कि इतनी स्थूल बात भी अज्ञानी की समझ में नहीं आती। - इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया है - - Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 475 कलश ४३-४४ ( सवैया तेईसा ) चेतन जीव अजीव अचेतन, लच्छन-भेद उभै पद न्यारे । सम्यक्दृष्टि-उदोत विचच्छन, भिन्न लखै लखिमैं निरवारे । जे जगमांहि अनादि अखंडित, मोह महामद के मतवारे। ते जड़ चेतन एक कहैं, तिन्हकी फिरि टेक टरै नहि टारे॥ जीव चेतन है और अजीव अचेतन है - इसप्रकार दोनों में लक्षण भेद होने से दोनों न्यारे-न्यारे हैं । सम्यग्दृष्टि विचक्षण पुरुष हैं; अतः वे इन्हें भिन्न-भिन्न जानकर स्वयं को पर से जुदा कर लेते हैं। किन्तु जो लोग इस जगत में अनादिकालीन अखण्डित मिथ्यात्व के मद से पागल जैसे हो रहे हैं, वे जड़ और चेतन को एक कहते हैं, एक मानते हैं; उनकी टेक टाले नहीं टलती। तात्पर्य यह है कि वे पर में एकत्वबुद्धि को छोड़ ही नहीं पाते। ___ इस कलश में आश्चर्य और खेद व्यक्त करने के उपरान्त अगले कलश की भूमिका बांधते हुए आचार्य गद्य में लिखते हैं कि यदि मोह नाचता है तो नाचे, इससे हमें क्या प्रयोजन है; क्योंकि यह सम्पूर्ण नृत्य आखिर है तो पुद्गल का ही। यह नाचनेवाला मोह भी तो पुद्गल ही है। ( वसंततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये, वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादि पुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।। ४४ ॥ ( हरिगीत ) अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में । बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृग-ज्ञानमय चैतन्य है ॥४४॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 समयसार अनुशीलन इस अनादिकालीन महा-अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; क्योंकि यह जीव तो रागादिक पुद्गल विकारों से विलक्षण शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है। इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया है - ( सवैया तेईसा ) या घट मैं भ्रमरूप अनादि, विसाल महा अविवेक अखारौ। तामहि और स्वरूप न दीसत, पुग्गल नृत्य करै अति भारौ॥ फेरत भेख दिखावत कौतुक, सौंजि लियें वरनादि पसारौ। मोह सौं भिन्न जुदौ जड़ सौं, चिनमूरति नाटक देखनहारौ। इस हृदयरूपी लोक में अनादिकाल से भ्रमरूप अविवेक की एक विशाल नाट्यशाला है। उस नाट्यशाला में आत्मा का शुद्धस्वरूप तो दिखाई नहीं देता; एकमात्र पुदगल ही बड़ा भारी नृत्य कर रहा है। वह अनेक भेष बदलता है, अनेक प्रकार के कौतुक दिखाता है । यह सब पुदगल के वर्णादि गुणों का ही विस्तार है। तात्पर्य यह है कि जो भी हमें इन चर्मचक्षुओं से दिखाई दे रहा है, वह सब पुद्गल का ही विस्तार है, कार्य है, परिणमन है, खेल है। __ पुद्गलादि जड़ पदार्थों और मोह-राग-द्वेष आदि भावों से भिन्न चिन्मूर्ति भगवान आत्मा तो उक्त नाटक का दर्शकमात्र है, देखने-जानने वाला ही है, करने-धरने वाला नहीं। _४३वें कलश में कहा था कि अज्ञानी मोह में नाचता है, अथवा मोह नाचता है और इस कलश में कह रहे हैं कि पुद्गल नाचता है और चैतन्य मूर्ति आत्मा अर्थात् ज्ञानी तो उस नृत्य को मात्र देखते-जानते ही है। वर्णादिक से लेकर गुणस्थानपर्यन्त २९ प्रकार के जो पौद्गलिक भाव हैं; उन्हें जीव मानना ही मोह में नाचना है। दृष्टि का विषयभूत Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 477 कलश ४४ एवं ध्यान का ध्येय भगवान आत्मा तो शुद्ध चैतन्यमात्र है, एक है, अभेद है; इन २९ प्रकार के भावरूप वह नहीं है। ये २९ प्रकार के भाव तो पुद्गल ही हैं, इनमें तो एक पुद्गल ही नाचता है; जीव नहीं। अज्ञानी यह नहीं समझता; अत: इनमें अपनापन स्थापित करता है। उसका यह अपनापन स्थापित करना ही मोह में नाचना है। यद्यपि इन २९ प्रकार के भावरूप होना पुद्गल का ही परिणमन है ; तथापि अज्ञानी इसे अपना परिणमन मानता है; अत: उसकी चित्त की भूमि में इनके प्रति अपनत्व का व्यामोह नाचता है। ____ अत: आचार्यदेव कहते हैं कि यदि अज्ञानी का व्यामोह नाचता है तो नाचे, हम क्या करें? हम तो अपने में जाते हैं। अरे भाई! यह तो पुद्गल का नृत्य है, अज्ञान का नृत्य है; इसमें मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ और मेरा परिणमन तो ज्ञानदर्शन-उपयोगमय है; इंन २९ भावों रूप नहीं है। ___ मैं इन २९ प्रकार के भावों से पकड़ने में आनेवाला नहीं हूँ, पहिचानने में आनेवाला नहीं हूँ; मैं तो अपने चैतन्यलक्षण से ही लक्षित होनेवाला पदार्थ हूँ। मैं अपने चैतन्य लक्षण से ही पहिचाना जाऊँगा और मेरा चैतन्य का परिणमन ही पहिचानने का कार्य करेगा। न तो मैं रागादिभावों से पहिचाना जाऊँगा और न रागादिभाव पहिचानने का काम ही करेंगे; क्योंकि ये मेरे हैं ही नहीं, ये मुझमें हैं ही नहीं; ये तो मुझसे भिन्न पदार्थ हैं, पुद्गल हैं, अचेतन हैं, जड़ हैं । पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इस बात को भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "रागादि चिद्विकार को देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं; क्योंकि यदि ये चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्याप्त हों तो चैतन्य के कहलायें। रागादि विकार सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते, मोक्ष अवस्था में उनका अभाव है और उनका अनुभव भी Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन आकुलतामय दुःखरूप है । इसलिए वे चेतन नहीं, जड़ हैं। चैतन्य का अनुभव निराकुल है, वही जीव का स्वभाव है ऐसा जानना । " रागादिभाव चैतन्य से भिन्न हैं; क्योंकि वे चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते । अत: उनके माध्यम से भगवान आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ? अरे भाई ! उनसे तो भिन्नता करनी है। जिनसे भिन्नता करनी है, उनसे ही आत्मा को पहिचानने की बात करना कहाँ की समझदारी हैं ? उनसे तो भेदज्ञान की भावना को नचाना है; क्योंकि इस भेदज्ञान की भावना को अनवरत रूप से नचाने से ही आगे का मार्ग निकलता है; भेदज्ञान की तीव्र भावना में से ही अभेद आत्मा के अनुभव का मार्ग प्रशस्त होता है | - 478 अत: आगामी कलश में आचार्यदेव कहते हैं कि इसतरह भेदज्ञान की भावना को धारावाही रूप से नचाते - नचाते जीव और अजीव का प्रकट विघटन हुआ नहीं कि भगवान आत्मा अनुभव में प्रकाशित हो उठा, अनुभव में प्रतिष्ठित हो गया । ( मन्दाक्रान्ता ) इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा, जीवाजीवौ स्फुटबिघटनं नैव यावत्प्रयातः । विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या, ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ॥ ४५ ॥ ( हरिगीत ) जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन हो चला ॥ अब जबतलक हों भिन्न जीव अजीव उसके पूर्व ही । यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा ॥ ४५ ॥ इसप्रकार ज्ञानरूपी करवत (आरा) के निरन्तर चलाये जाने पर जबतक जीव और अजीव दोनों ही प्रकटरूप से अलग-अलग नहीं Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 479 कलश ४५ हो पाये कि यह ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा अत्यन्त विकसित अपनी चैतन्यशक्ति से विश्वव्यापी होता हुआ अतिवेग से अपने आप ही प्रकट प्रकाशित हो उठा। इस कलश के आशय को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - "इस कलश का आशय दो प्रकार का है - (१) उपर्युक्त ज्ञान का अभ्यास करते-करते जहाँ जीव और अजीव - दोनों स्पष्ट भिन्न समझ में आये कि तत्काल ही आत्मा का निर्विकल्प अनुभव हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ। – एक आशय तो इसप्रकार है। (२) दूसरा आशय इसप्रकार है कि जीव-अजीव का अनादिकालीन संयोग पूर्णत: अलग-अलग होने से पूर्व अर्थात् जीव का मोक्ष होने के पूर्व, भेदज्ञान के भाते-भाते अमुकदशा होने पर निर्विकल्प धारा जगी, जिसमें केवल आत्मा का अनुभव रहा और वह श्रेणी अत्यन्त वेग से आगे बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ और फिर अघातिकर्मों का नाश होने पर जीवद्रव्य अजीव से पूर्णतः भिन्न हुआ। जीव और अजीव के भिन्न होने की यही रीति है।" ज्ञायकभाव प्रकाशित हो उठा का एक तो यह अर्थ है कि आत्मज्ञान हो गया, आत्मानुभूति हो गई, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो गया तथा दूसरा अर्थ यह है कि केवलज्ञान हो गया। पहले अर्थ में मिथ्याज्ञान के अभाव की बात है और दूसरे अर्थ में अल्पज्ञान के अभाव की बात है; पहले अर्थ में सम्यग्ज्ञानी होने की बात है और दूसरे अर्थ में केवलज्ञानी होने की बात है। ___ पहले अर्थ में यह स्पष्ट होता है कि ज्ञायकभाव हमारे ज्ञान का ज्ञेय बन गया और दूसरे अर्थ में यह स्पष्ट है कि सर्वज्ञस्वभावी ज्ञायकभाव का सर्वज्ञस्वभाव पर्याय में प्रगट हो गया, सर्वज्ञता प्रगट हो गई। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 समयसार अनुशीलन दोनों अर्थों में से जो भी अर्थ किया जायगा, छन्द में समागत सम्पूर्ण विशेषणों को उसी अर्थ के अनुरूप समायोजित किया जायगा । पहले अर्थ में दर्शनमोह के नाश के लिए करणलब्धि में होनेवाले तीन करणों की बात है और दूसरे अर्थ में चारित्रमोह के नाश के लिए क्षपक श्रेणी में होनेवाले तीन करणों की बात है। पहले अर्थ में दर्शनमोह के अभावपूर्वक मोक्षमार्ग आरंभ करने की बात है और दूसरे अर्थ में चारित्रमोह के नाशपूर्वक पूर्णत: निर्मोह होने की बात है, मोक्षमार्ग की पूर्णता प्राप्त करने की बात है । पहले अर्थ में मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी पर कदम रखने की बात है और दूसरे अर्थ में मोक्षमहल में प्रवेश करने की बात है । कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस कलश का भावानुवाद करते समय दोनों ही अर्थों को समेट लेते हैं । उनका वह भावानुवाद इसप्रकार है - ( सवैया इकतीसा ) जैसैं करवत एक काठ बीच खंड करै, जैसैं राजहंस निरवारै दूध जल कौं । तैसैं भेदग्यान निज भेदक-सकति सेती, भिन्न-भिन्न करै चिदानंद पुदगल कौं । अवधि कौं धावै मनपर्यो की अवस्था पावै, उमगि कैं आवै परमावधि के थल कौं । याही भांति पूरन सरूप को उदोत धेरै, करै प्रतिबिंबित पदारथ सकल कौं ॥ १४ ॥ जिसप्रकार करवत (आरा) एक काष्ठ में दो खण्ड कर देता है और जिसप्रकार राजहंस दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है; उसीप्रकार आत्मा भेदविज्ञान की भेदक शक्ति से चिदानन्द आत्मा और पुद्गल को अलग-अलग कर देता है, अलग-अलग जान लेता है । पुद्गल से भिन्न आत्मा को जानकर उसमें ही अपनापन कर, उसमें ही Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 481 कलश ४५ जमकर, रमकर सम्यग्ज्ञानी होकर अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, मनः पर्यायज्ञान को पा लेता है और उमंग के साथ परमावधि की भूमि को प्राप्त कर लेता है। इसीप्रकार वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानते हुए केवलज्ञान को प्राप्तकर सम्पूर्ण पदार्थों को स्वयं में प्रतिविम्बित कर लेता है। अस्तु जो भी हो . . . दोनों ही अर्थों में भेदज्ञान की अनवरत प्रबल भावना के वेग की बात है। अत: प्रत्येक आत्मा को एकक्षेत्रावगाही जीव और अजीव के बीच ज्ञानरूपी करवत को, आरे को प्रबल वेग से निरन्तर चलाना चाहिए, भेदज्ञान की भावना अनवरत भाना चाहिए। भेदज्ञान की भावना आरंभ से अंततक भाने योग्य है। इसीलिए तो कहा है - ( अनुष्टभ् ) भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद्यावत्पराच्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ (दोहा) भेदज्ञान भावो भविक नित ही अविरल धार। ज्ञान ज्ञान में ही जमें परभावों से पार ।। भेदज्ञान की भावना अखण्ड-प्रवाह से तबतक निरन्तर भानी चाहिए कि जबतक ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान (आत्मा) में ही प्रतिष्ठित न हो जावे। बनारसीदास ने इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार किया है - "भेदग्यान तबलौं भलौ जब लौं मुकति न होइ। __परमज्योति परगट जहां तहां न विकलप कोइ॥२ भेदविज्ञान तबतक ठीक है कि जबतक मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो जाती। जब परमज्योति पूर्णतः प्रगट हो गई, तब तो फिर किसी भी प्रकार के विकल्प शेष नहीं रहते। १. समयसार कलश - १३० २. समयसार नाटक, संवर द्वार, छन्दः- ७ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन उक्त छन्द में भेदज्ञान की उपयोगिता जबतक मुक्ति प्राप्त न हो, तबतक बताई गई है । तात्पर्य यह है कि ज्ञानी - अज्ञानी सभी को भेदज्ञान की भावना भानी चाहिए । मिथ्यात्व की भूमिका में दर्शनमोह के अभाव के लिए और सम्यग्दर्शन होने के बाद चारित्रमोह के अभाव के लिए यह भावना भाई जानी चाहिए। परमज्योति प्रगट हो जाने पर, केवलज्ञान हो जाने पर तो कोई विकल्प शेष रहता ही नहीं है । अतः वहाँ इस भेदज्ञान की भावना की आवश्यकता भी नहीं रहती है; विकल्पात्मक भावना की आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि वहाँ तो भेदज्ञान का फल सम्पूर्णतः प्रगट हो गया है। इसप्रकार इस जीवाजीवाधिकार का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार जीव और अजीव अलग-अलग होकर रंगभूमि में से बाहर निकल गये । 482 आचार्य अमृतचन्द्र के समापन वाक्य का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं - 44 जीवाजीवाधिकार में पहले रंगभूमिस्थल कहकर, उसके बाद टीकाकार आचार्य ने ऐसा कहा कि नृत्य के अखाड़े में जीव- अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनों ने एकत्व का स्वांग रचा है । वहाँ भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष ने दोनों को पृथक् जाना; इसलिए स्वांग पूरा हुआ और दोनों अलग-अलग होकर अखाड़े से बाहर निकल गये । - इसप्रकार अलंकारपूर्वक वर्णन किया । " वेश बदलने की सफलता तभी तक है; जबतक की कोई वास्तविकता न जान ले । वेश बदलकर काम करनेवाले तभी तक अपना काम सफलतापूर्वक करते रहते हैं; जबतक कि वे पहिचाने नहीं जाते । पहिचाने जाने पर वे अपनी भलाई भाग जाने में ही समझते हैं। लोक की इस स्थिति को नाटक में भी स्वीकार किया जाता है । अभिनेता तो वही चतुर है, जिसके वास्तविक रूप को लोग जान ही Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 483 न पावें । परिचित लोग भी तभी जान सकें कि जब उन्हें बताया जाय कि अमुक व्यक्ति का अभिनय अमुक व्यक्ति कर रहा था । नाटकीय रूप में यहाँ घटाया इसी बात को अलंकारिक भाषा में I गया है । जीवाजीवाधिकार के आरंभ में जीव और अजीव ने एक होकर प्रवेश किया था, एकत्व का स्वांग रचा था, वेश बनाया था; किन्तु जब वे भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष द्वारा पहिचान लिए गये तो दोनों अलगअलग होकर भाग गये, रंगमंच पर से चले गये । इसप्रकार यह जीवाजीवाधिकार समाप्त होता है । इसके समापन पर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने एक छन्द लिखा है, जो इसप्रकार है ( सवैया तेईसा ) मिले जीव- अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ न आतम पावैं । सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं ॥ श्रीगुरू के उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं । ते जगमाहिं महन्त कहाय बसैं शिव जाय सुखी नित थावैं ॥ जीव और अजीव को अनादिकाल से ही एक क्षेत्रावगाहरूप से हुए देखकर अज्ञानी जीव अपने आत्मा को पहिचान नहीं पाते हैं । किन्तु वे ही अज्ञानी जीव जब श्रीगुरू का उपदेश श्रवण कर, अच्छे दिन आ जाने पर अर्थात् काललब्धि आ जाने पर अपने अज्ञान को मिटाकर भेदविज्ञान होने पर अपने आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं तो ज्ञानी हो जातें हैं । ऐसे ही जीव जगत में महान कहलाते हैं और यथासमय मोक्ष को प्राप्त कर सदा के लिए सुखी हो जाते हैं । - इसप्रकार हम देखते हैं कि इस जीवाजीवाधिकार में पर से एकत्व और ममत्व का निषेध कर अपने त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व स्थापित करने की प्रेरणा दी गई है; क्योंकि निज भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व का नाम ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार पद्यानुवाद रंगभूमि एवं जीव-अजीव अधिकार ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-परहित। यह समयप्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित॥१॥ सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय । जो कर्म पुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ।।२।। एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में। विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ॥३॥ सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा। पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना॥४॥ निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन । पर नहीं करना छलग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन॥५॥ न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है। इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है।।६।। दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से। ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥७॥ अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को। बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को॥८॥ श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा। श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ॥९॥ जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली। सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिए श्रुतकेवली ॥१०॥ शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे ।।११।। परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं। जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ।।१२।। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ गाथा पद्यानुवाद चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा। तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ।।१३।। अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को। संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें॥१४|| अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को। अपदेश एवं शान्त वह सम्पूर्ण जिनशासन लहे ।।१५।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा॥१६।। 'यह नृपति है' - यह जानकर अथार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें॥१७॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए॥१८॥ मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी। यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी॥१९॥ सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब पर द्रव्य ये। हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही॥२०॥ हम थे सभी के या हमारे थे सभी गत काल में। हम होंयगे उनके हमारे वे अनागत काल में ॥२१।। ऐसी असंभव कल्पनाएँ मूढजन नित ही करें। भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ।।२२।। अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय। अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहें ।।२३।। सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह । पुद्गलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ?॥२४।। जीवमय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब । ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं - यह कहा जा सकता है तब ।।२५।। यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन । सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा॥२६।। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ समयसार अनुशीलन 'देह-चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का। 'ये एक हो सकते नहीं' - यह कथन है परमार्थ का॥२७॥ इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन। कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ।।२८।। परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ।।२९।। वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह। केवली-वंदन नहीं है देह वंदन उसतरह ॥३०॥ जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा॥३१॥ मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा। जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।।३२।। सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा।।३३।। परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।। जिसतरह कोई पुरुष पर को जानकर पर परित्यजे। बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ॥३५॥ मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥३६।। धर्मादिक मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥३७।। मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं॥३८।। परात्मवादी मूढजन निज आतमा जाने नहीं। अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें।।३९।। अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है। पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही बस जीव है ।।४०।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ . गाथा पद्यानुवाद मन्द अथवा तीव्रतम जो कर्म का अनुभाग है। वह जीव है या कर्म का जो उदय है वह जीव है॥४१।। द्रव कर्म का अर जीव का सम्मिलन ही बस जीव है। अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस जीव है॥४२॥ बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को आतम कहें। परमार्थवादी वे नहीं परमार्थवादी यह कहें॥४३।। ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं। यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं' - कैसे कहें॥४४॥ अष्टविध सब कर्म पुद्गलमय कहे जिनदेव ने। सब कर्म का परिणाम दुःखमय यह कहा जिनदेव ने॥४५।। ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने। व्यवहारनय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ॥४६॥ सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें। यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है॥४७॥ बस उसतरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को। जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है।॥४८॥ चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है।।४९॥ शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना। यह देह ना जड़रूप ना संस्थान ना संहनन ना॥५०॥ ना राग है ना द्वेष है ना मोह है इस जीव के। प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के ॥५१।। ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं। अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी॥५२।। योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना। उदय के स्थान नहिं अर मार्गणा स्थान ना॥५३।। थिति बंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना। संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान ना॥५४।। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारअनुशीलन ४८८ जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना। क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।५५।। वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के । परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के ॥५६।। दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना। उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं॥५७|| पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें।५८॥ उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का।।५९।। इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के। व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को॥६०।। जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहें। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं॥६१।। वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह। तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह?॥६२॥ मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में। तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे॥६३॥ यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी। बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी॥६४॥ एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ॥६५।। इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं' – जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी॥६६।। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥६७।। मोहन-करम के उदय से गुणथान जो जिनवर कहे। वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहें।।६८॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश पद्यानुवाद रंगभूमि एवं जीव-अजीव अधिकार (दोहा) निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप। सकलज्ञेय ज्ञायक नमौं, समयसार सद्रूप ॥१॥ (सोरठा) देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा। अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ।।२। (रोला) यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ। फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से। परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी। समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ॥३॥ उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक । स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय। स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ।।४।। ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों। उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में। पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को। जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में॥५।। (हरिगीत) नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से। वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से। नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये। इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए।।६।। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० समयसार अनुशीलन (दोहा) शुद्धनयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप। नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।। (रोला) शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में। नवतत्त्वों में छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह। अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानों॥८॥ निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते। अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ।।९।। (हरिगीत) परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है। संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है।। जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को। करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।। पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो॥११॥ (रोला) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत्। वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ।। तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित। विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥१२॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ कलश पद्यानुवाद शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो। वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर। आतम में आतम को निश्चल थापित करके। सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो।।१३।। खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है। ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल। जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो॥१४॥ (हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ॥१५।। मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से। यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से। परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा।।१६।। आतमा है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में॥१७॥ आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से । किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से।। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से ।।१८।। मेचक अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अनुशीलन ४९२ हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से। पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचे संसरण से॥१९।। त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को। अनुभव करें हम सतत हीचैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना॥२०॥ (रोला) जैसे भी हो स्वत: अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञानमूलक अविचल अनुभूति हुई हो। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी। अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी॥२१॥ (हरिगीत) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। अर रसिकजन को जोरुचे उस ज्ञान के रस कोचखो। तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।। निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का। हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का। जबभिन्नपर से सुशोभित लख स्वयंको तब शीघ्र ही। तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को।।२३।। लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से। जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें। उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें॥२४॥ प्राकार से कवलित किया जिस नगरने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ कलश पद्यानुवाद सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से। अद्भुत् अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से॥२५।। गंभीर सागर के समान महान मानस मंग हैं। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं। सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग है॥२६॥ इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से॥ परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन। परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ॥२७॥ इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से। निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने। यदिभावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो। भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्बोध हो॥२८॥ परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती।। व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमाअतिशीघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ॥२९॥ सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ॥ यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ॥३०॥ बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता। तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया। प्रकटित हुआ परमार्थअर दृगज्ञानवृत परिणत हुआ। तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा॥३१॥ सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ समयसार अनुशीलन हे भव्यजन ! इस लोक के सब एकसाथ नहाइये। अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ।।३२।। (सवैया इकतीसा) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता। अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और, दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता।। जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे, विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता। ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में, स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।।३३।। (हरिगीत) हे भव्यजन! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से। अब तोरुको निज को लखोअध्यात्मके अभ्यास से। यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना। तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना॥३४॥ चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर॥ है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धात्मा। अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा॥३५॥ (दोहा) चित् शक्ति सर्वस्व जिन केवल वे हैं जीव। उन्हें छोड़कर और सब पुद्गलमयी अजीव ॥३६।। वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न । अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य ॥३७।। जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य। स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य ।।३८।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ कलश पद्यानुवाद वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गल जन्य। एक शुद्ध विज्ञानघन आतम इनसे भिन्न ।।३९।। कहने से घी का घड़ा, घड़ा न घीमय होय। कहने से वर्णादिमय जीव न तन्मय होय ॥४०॥ स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त । स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ॥४१॥ (सवैया इकतीसा) मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार, इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके । सोचकर विचारकर भलीभांति ज्ञानियों ने, कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके। अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित, चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का। अतः अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही, क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का॥४२॥ (हरिगीत ) निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन्न-भिन्न ही हैं जानते॥ जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह। अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ।।४३।। अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में। बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है।।४४।। जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला। तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटनहोचला। अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही। यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा॥४५॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 0 0 0 15.00 0 0 0 0 0 0 0 0 लेखक के महत्त्वपूर्ण प्रकाशन 01. पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तत्त्व 20.00 02. समयसार अनुशीलन भाग - 1 (गाथा 1 से 68 तक) 20.00 03. समयसार अनुशीलन भाग - 2 (गाथा 69 से 163 तक) 20.00 04. समयसार अनुशीलन भाग - 3 (गाथा 164 से 256 तक) 20.00 05. समयसार अनुशीलन भाग - 4 (गाथा 257 से 371 तक) 20.00 06. समयसार अनुशीलन भाग - 5 (गाथा 372 से 415 तक) 25.00 07. परमभावप्रकाशक नयचक्र 20.00 08. बिखरे मोती 16.0 09. सत्य की खोज 10. आत्मा ही है शरण 11. चिन्तन की गहराईयाँ 20.00 12. सूक्ति सुधा 18.00 13. तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ 15.00 14. बारह भावना : एक अनुशीलन 12.00 15. धर्म के दशलक्षण 16.00 16. दृष्टि का विषय 10.00 17. क्रमबद्धपर्याय 8.00 18. वीतराग-विज्ञान प्रशिक्षण निर्देशिका 8.00 19. गागर में सागर 7.00 20. आप कुछ भी कहो 6.00 6.00 22. आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम 23. युगपुरुष कानजीस्वामी 24. णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन 5.00 25. मैं कौन हैं ? 4.00 26. निमित्तोपादान 3.50 27. अहिंसा : महावीर की दृष्टि में 3.00 28. मैं स्वयं भगवान हूँ 29. रीति-नीति 3.00 30. शाकाहार 2.50 31. तीर्थकर भगवान महावीर 2.50 32. चैतन्य चमत्कार, 33. गोम्मेटश्वर बाहुबली, 34. वीतसगी व्यक्तित्व : भगवान महावीर, 35. बारह भावना, 36. कुन्दकुन्द शतक, 37. शुद्धात्म शतक, 38. समयसार पद्यानुवाद, 39. योगसार पद्यानुवाद 40. अनेकान्त और स्याद्वाद, 41. शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर, 42. सार समयसार, 43. बालबोध पाठमाला भाग -2, 44. बालबोध पाठमाला भाग - 3, 45. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग - 1,46. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग 2,47. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग - 3,48. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग 1-, 49. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - 2,50. गोली का जबाब गाली से भी नहीं, 51. समयसार कलश पद्यानुवाद, 52. अष्टपाहुड़ पद्यानुवाद 53. बिन्दु में सिन्धु। 0 0 0 0 0 0 0 0