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________________ 434 समयसार अनुशीलन उक्त सम्पूर्ण कथन में सबसे अधिक खटकनेवाली बात यह लगती है कि यहाँ वर्णादि के समान रागादि का भी, यहाँ तक कि गुणस्थानों का भी आत्मा के साथ दूध और जल के समान संयोग संबंध बताया गया है और उन्हें व्यवहार कहकर, वर्णादि के समान ही परद्रव्य में डाल दिया है। __ परद्रव्य के साथ संबंध बतानेवाले नय को नयचक्रादि ग्रन्थों में तो असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है। तो क्या आचार्यदेव रागादिभावों एवं गुणस्थान आदि को भी असद्भूत व्यवहारनय का विषय बताना चाहते हैं। समझ में नहीं आता यहाँ ऐसा क्यों किया गया है, जबकि अन्य ग्रन्थों में, और इसी ग्रन्थ में भी अन्यत्र रागादिभावों को निश्चय से आत्मा का कहा गया है। आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयों के इस असमंजस को आचार्य जयसेन ने गहराई से अनुभव किया था। यही कारण है कि वे इन गाथाओं की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में स्वयं इसप्रकार की शंका उपस्थित कर उसका समाधान करते हैं; जो इसप्रकार है - "ननु वर्णादयो बहिरंङ्गास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् संश्लेषसंबंधों भवतु न चाभ्यंतराणां रागादीनां तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति। नैवं, द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थ रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः / शंका - वर्णादि तो बहिरंग हैं; अत: उनके साथ आत्मा का दूध और पानी की तरह संश्लेष संबंध भले ही हो; किन्तु जो अन्तरंग है, ऐसे रागादि के साथ तो आत्मा का संश्लेष संबंध नहीं है, क्षणिक तादात्म्य है; अत: यहाँ तो अशुद्धनिश्चयनय कहना चाहिए; व्यवहार क्यों कहा जा रहा है?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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