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________________ समयसार अनुशीलन 212 साधुपुरुषों की विद्या ज्ञान के लिए होती है, धन दान के लिए होता है और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।" उक्त छन्द के 'साधु' शब्द का प्रयोग मुनिराज के अर्थ में नहीं, अपितु सज्जनपुरुष के अर्थ में ही हुआ है; क्योंकि मुनिराजों के पास धन कहाँ होता है ? 'साधु का धन दान के लिए होता है'- इस वाक्य से ही स्पष्ट है कि यहाँ साधु शब्द का प्रयोग धनवान सज्जन गृहस्थ के लिए किया गया है। इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि यह ग्रन्थ अज्ञानियों के लिए ही है, मुनिराजों के लिए है ही नहीं; मुनिराजों के लिए भी इस ग्रन्थराज का स्वाध्याय अत्यन्त उपयोगी है। हम तो मात्र यह कहना चाहते हैं कि यह ग्रन्थराज अपनी-अपनी योग्यतानुसार ज्ञानी-अज्ञानी, श्रावकसाधु सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी है; सभी इसका गहराई से मंथन करें, किसी के लिए भी इसके पढ़ने का निषेध न हो। यद्यपि मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के धारी मुनिराज ही होते हैं ; तथापि गृहस्थ भी अपनी-अपनी भूमिकानुसार रत्नत्रय के धारी हो सकते हैं, होते भी हैं। रत्नत्रय का आरंभ चौथे गुणस्थान में होता है और पूर्णता सिद्धों में होती है । यद्यपि यह बात सत्य है, तथापि प्रेरणा तो छठवें गुणस्थान तक ही दी जा सकती है। अतः साधुपुरुषों को दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करना चाहिए - यह प्रेरणा पहले से छठवें गुणस्थान तक ही दी जाना संभव है। जो व्यक्ति अज्ञानदशा में है, उसे सर्वाधिक प्रेरणा की आवश्यकता है और उसके बाद क्रमश: चौथे, पाँचवें एवं छठवें गुणस्थानवालों को उत्तरोत्तर कम प्रेरणा की आवश्यकता है। जो मुनिराज घर-बाहर छोड़कर आत्मकल्याण में ही पूर्णत: संलग्न हैं; उनसे विशेष क्या कहें? कहना तो उनसे है जो गृहस्थी के जंजाल में उलझे हैं। अतः रत्नत्रय धारण करने का उपदेश तो मुख्यतः गृहस्थों के लिए ही होता है । हाँ,
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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