SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 211 गाथा १६ थी और सहजानन्दजी वर्णी ने तो इसकी सप्तदशांगी टीका लिखी है। ये भी तो मुनिराज नहीं थे, क्षुल्लक तो श्रावकों में ही आते हैं; क्योंकि ग्यारह प्रतिमाएं श्रावकों की ही होती हैं। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा कहनेवाले गृहस्थ विद्वान स्वयं भी इसका अध्ययन करते देखे जाते हैं । जो विद्वान श्रावकों के लिए समयसार के अध्ययन का निषेध करते हैं, उन्होंने स्वयं इसका अध्ययन किया है या नहीं? यदि किया है तो दूसरों को मना क्यों करते हैं और यदि नहीं किया है तो फिर बिना देखे ही मना करने को कैसे उचित माना जा सकता है? इस ग्रन्थ में भी अनेक स्थानों पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जिससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थराज अज्ञानियों को समझाने के लिए ही लिखा गया है । आठवीं गाथा में तो एकदम अज्ञानी शिष्य लिया है। इसीप्रकार २६-२७वीं गाथा में एवं ३८वीं गाथा में भी अत्यन्त अप्रतिबुद्ध की चर्चा की है, नयविभाग से अपरिचित शिष्य लिया है। २३ से २५ तक की गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं - __ "अथाप्रतिबुद्धवोधनाय व्यवसायः क्रियते -अब अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) को समझाने के लिए व्यवसाय करते हैं।" 'साधु शब्द का अर्थ सज्जनपुरुष होता है।' - इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं । नीतिसंबंधी निम्नांकित छन्द तो प्रसिद्ध ही है - "विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधो विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥ दुर्जनों की विद्या विवाद के लिए होती है, धन मद के लिए होता है और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है; जबकि
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy