SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 समयसार अनुशीलन उसीप्रकार कर्म जिसका निमित्त है – ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से आत्मा का अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है ; तथापि जो स्वयं एकान्त बोधरूप है, ज्ञानरूप है – ऐसे जीवस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।" प्रश्न - उक्त कथन में लगभग सर्वत्र ही 'पर्याय से अनुभव करने पर' और 'द्रव्यस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर' शब्द आये हैं तो क्या पर्याय का भी अनुभव करना है? उत्तर - अरे भाई, यह अनुभव करने की बात नहीं है। यहाँ तो जानने की ही बात चल रही है। यहाँ अनुभव करने का अर्थ जानना है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का निम्नांकित मार्गदर्शन अत्यन्त उपयोगी है__ "जहाँ पर्याय से अनुभव करने पर' ऐसा आवे, वहाँ अनुभव करने का अर्थ 'जानना' होगा तथा जहाँ 'द्रव्य का अनुभव करने पर' ऐसा आवे, वहाँ अनुभव करने का अर्थ 'द्रव्य का आश्रय करना' जानना चाहिए।" उक्त पाँचों बोलों में दो दृष्टियों का उल्लेख है - (१) संयोग की, पर्याय की, भेद की ओर से देखने की दृष्टि । (२) स्वभाव के समीप जाकर देखने की दृष्टि । संयोग की ओर से, पर्याय की ओर से, भेद की ओर से देखने की दृष्टि अशुद्धनय की दृष्टि है, अभूतार्थनय की दृष्टि है, व्यवहारनय की दृष्टि है; और स्वभाव के समीप जाकर देखने की दृष्टि शुद्धनय की दृष्टि है, भूतार्थनय की दृष्टि है, परमशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि है। अशुद्धनय की दृष्टि से बद्धस्पृष्टादिभाव आत्मा में विद्यमान हैं; अतः १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ २३२
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy