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________________ 244 समयसार अनुशीलन हो गई हैं; वे लोग अनन्त पदार्थों को जानते हुए भी दर्पण के समान निर्विकार रहते हैं और सदासुख देनेवाली स्थिरदशा को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार इस कलश में यही प्रेरणा दी गई है कि जैसे भी हो स्वतः या पर से, परन्तु भेदविज्ञानमूलक आत्मानुभूति को अवश्य प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि यह भेदविज्ञानमूलक आत्मानुभूति की ही महिमा है कि जिसके कारण अनन्त ज्ञेयों को जानने पर भी ज्ञान अविकारी ही रहता है। इसके बाद दो गाथाएँ आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में प्राप्त होती हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति में नहीं हैं । वे दोनों गाथाएँ इसप्रकार हैं - जीवे व अजीवे वा संपदि समयह्यि जत्थ उवजुत्तो। तत्थेव बंध मोक्खो होदि समासेण णिहिट्ठो। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ॥ जब जीव में उपयोग लगता है तो मोक्ष होता है और अजीव में उपयोग लगता है तो बंध होता है। बंध और मोक्ष की संक्षेप में यही प्रक्रिया है। निश्चयनय से आत्मा जिस भाव को करता है, उसी भाव का कर्ता होता है और व्यवहारनय से पुद्गलकर्म का कर्ता होता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र की टीका में तो ये गाथाएँ हैं ही नहीं, आचार्य जयसेन ने भी इनका सामान्य अर्थ ही लिखा है, विशेष कुछ नहीं कहा है। उन्होंने इनके बारे में जो कुछ कहा है उसका सार इसप्रकार है - "शुद्धजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि से परिणत हुआ तो मोक्ष होता है और देहादिक अजीव में उपयोग तन्मय हुआ, उपादेयबुद्धि से परिणत हुआ तो बंध होता है - ऐसा संक्षेप में सर्वज्ञ
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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