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________________ 245 कलश २१ भगवान ने कहा है। इसलिए सहजानन्दस्वभावी निजात्मा में रति करना चाहिए और परद्रव्य में रति नहीं करना चाहिए। यह आत्मा अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्धभावों का और शुद्धनिश्चयनय से शुद्धभावों कर्ता है तथा अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है । अत: संसार से भयभीत मुमुक्षुओं के द्वारा रागादि से रहित निज शुद्धात्मा की भावना करना चाहिए।" सबकुछ मिलाकर सार यह है कि देहादि परपदार्थों से एकत्व, ममत्व छोड़कर, उनके कर्तृत्व से भी मुख मोड़कर निज शुद्धात्मा की आराधना करना ही श्रेयस्कर है। दूसरी गाथा की प्रथम पंक्ति कर्ता-कर्म अधिकार में दो स्थानों पर हूबहू प्राप्त होती है। आत्मख्याति के अनुसार उनकी क्रम संख्या ९१ एवं १२६ है और तात्पर्यवृत्ति के अनुसार उनकी संख्या क्रमशः ९८ एवं १३४ है। उक्त गाथा में जो विषयवस्तु है, वह भी कर्ता-कर्म भाव से संबंधित है; अतः इसपर विस्तृत मीमांसा कर्ता-कर्म अधिकार में करना ही उचित प्रतीत होता है। आगामी गाथाओं की संधि भी १९वीं गाथा से ही मिलती है। . भगवान ने यदि 'भव्य' कहा तो इससे महान अभिनन्दन और क्या होगा? भगवान की वाणी में 'भव्य' आया तो मोक्ष प्राप्त होने की गारंटी हो गई। पर इस मूर्ख जगत ने यदि भगवान भी कह दिया तो उसकी क्या कीमत? स्वभाव से तो सभी भगवान हैं, पर जो पर्याय से भी वर्तमान में हमें भगवान कहता है, उसने हमें भगवान नहीं बनाया वरन् अपनी मूर्खता व्यक्त की है। विनय बहुत ऊँची चीज है, उसे इतने नीचे स्तर पर नहीं लाना चाहिए। भाई साहब! विनय तो वह तप है जिससे निर्जरा और मोक्ष होता है, वह क्या चापलूसी से हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं। ___- धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ १०८
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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