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________________ समयसार अनुशीलन - देखो तो सही, कैसी अचूक रामबाण वाणी है। नहीं पा सकोगे या थोड़ी सी ही प्राप्त कर सकोगे • ऐसी निराशाजनक बात नहीं की । आचार्यदेव ने स्वयं आनन्दरस प्राप्त कर लिया है; अतः वे चाहते हैं कि सभी जीव इस अतीन्द्रिय आनन्दरस को प्राप्त करें ।" पण्डित राजमलजी कलश टीका में इस कलश का अर्थ करते हुए 'सिन्धु' शब्द का अर्थ पात्र (अभिनेता) करते हैं । इस कलश का अर्थ नाटक के रूपक के रूप में करते हुए वे कहते हैं कि जिसप्रकार अखाड़े (नाटक-नाट्यशाला - रंगमंच) में पात्र (अभिनेता) नाचता है; उसीप्रकार यहाँ भी आत्मा का शुद्धस्वरूप प्रगट होता है। भावार्थ इसप्रकार है कि अखाड़े में प्रथम ही अन्तर्जवनिका कपड़े की होती है । उसे दूर कर शुद्धांग नाचता है । यहाँ भी अनादिकाल से मिथ्यात्व परिणति है; उसके छूटने पर शुद्धस्वरूप परिणमता है। जिसप्रकार अखाड़े में जो शुद्धांग दिखता है; वहाँ जितने भी देखनेवाले हैं; वे सब एक ही साथ मग्न होकर देखते हैं; उसीप्रकार जीव का शुद्धस्वरूप सभी जीवों द्वारा अनुभव करने योग्य है । पण्डित राजमलजी के उक्त अर्थ को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने काव्य के रूप में इसप्रकार प्रस्तुत किया है ( सवैया इकतीसा ) जैसैं कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आभरन, आवति अखारे निसि आड़ौ पट करिकैं । दुहूँ ओर दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरिकै ॥ तैसैं ग्यान सागर मिथ्याति ग्रन्थि भेदि करि, उमग्यो प्रगट रह्यौ तिहूँ लोक भरिकैं । ऐसौ उपदेस सुनि चाहिए जगतजीव, 350 सुद्धता संभारै जगजालसौं निसरिकै ॥ ३५ ॥ १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४८- १४९ —
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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