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________________ 391 गाथा ४६ प्रश्न –अध्यवसानों में तो राग-द्वेष-मोहादि ही आते हैं। आप यहाँ यह कैसे कह रहे हैं कि नोकर्मरूप शरीर को यदि जीवं नहीं माना तो बन्ध का अभाव ठहरेगा। उत्तर – यहाँ अकेले अध्यवसानों की बात नहीं है, अपितु अध्यवसानादि भावों की बात है। 'आदि' शब्द में ३९ से ४३वीं गाथाओं में कहे गये आठ प्रकार के सभी भाव आ जाते हैं। उनमें नोकर्मरूप शरीर की भी बात आई है। अत: यहाँ शरीर को जीव नहीं मानने की बात करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है। इसप्रकार इस गाथा में अध्यवसानादि भावों को व्यवहार से जीव कहने की उपयोगिता सिद्ध कर दी गई है। "णविएहिं जं णविजई झाइजइ झाइएहिं अणवरयं। .थुत्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ।। - अष्ट पाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १०३ हे भव्यजीवो! जिनको सारी दुनिया नमस्कार करती है, वे भी जिनको नमस्कार करें; जिनकी सारी दुनिया स्तुति करती है, वे भी जिनकी स्तुति करें एवं जिनका सारी दुनिया ध्यान करती है, वे भी जिनका ध्यान करें;- ऐसे इस देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा को जानो।" वंदनीय पुरुषों द्वारा भी वंदनीय, स्तुति योग्य पुरुषों द्वारा भी स्तुत्य एवं जगत के योग्यपुरुषों द्वारा भी ध्येय पुरुषों का भी ध्येय यह भगवान आत्मा ही शरण में जाने योग्य है - यह जानकर ही आत्मा की शरण में जाने की बात कही गई है। पंचपरमेष्ठी भगवन्तों ने भी जिसकी शरण को ग्रहण कर रखा है और रत्नत्रय धर्म भी जिसकी शरण का ही परिणाम है ; उस भगवान आत्मा को ही जानने की प्रेरणा दी गई है इस गाथा में । उसे ही जानने-पहिचानने का आदेश दिया है आचार्य भगवन्त ने और उसी में जम जाने, रम जाने का उपदेश आता है तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १९९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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