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________________ 390 - समयसार अनुशीलन (१) यदि नोकर्मरूप शरीर को व्यवहार से भी जीव नहीं माना गया तो त्रस व स्थावर जीवों के घात में हिंसा सिद्ध नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि द्रव्यहिंसा हिंसा ही नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में जिसप्रकार निर्जीव भस्म के मसल देने में कोई दोष नहीं है, बन्ध नहीं होता; उसीप्रकार त्रस और स्थावर जीवों के मसल देने में, घात कर देने में भी कोई दोष नहीं होगा; बन्ध नहीं होगा। इसप्रकार देह को जीव कहनेवाले असद्भूतव्यवहारनय की सर्वथा अस्वीकृति में बंध का सद्भाव सिद्ध नहीं होगा। (२) यदि राग-द्वेष-मोहरूप भावकर्म या अध्यवसान को व्यवहार से भी जीव नहीं माना गया तो इनसे मुक्त होने का नाम ही मोक्ष होने से मोक्ष का भी अभाव सिद्ध होगा। इसप्रकार रागादि को जीव कहने वाले सद्भूतव्यवहारनय की अस्वीकृति में मोक्ष का सद्भाव सिद्ध नहीं होगा। अत: बन्ध और मोक्ष की सिद्धि के लिए सद्भूत और असद्भूत - दोनों व्यवहारनयों का उपदेश न्यायप्राप्त है। इसी गाथा की आत्मख्याति टीका में व्यवहारनय म्लेच्छभाषा के समान परमार्थ का प्रतिपादक है - यह आया है, परन्तु इसके विषय में विशेष स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस प्रकरण पर आठवीं से बारहवीं गाथा तक के अनुशीलन में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है। चारों प्रकार के व्यवहारनयों की क्या उपयोगिता है और उनकी अस्वीकृति में क्या-क्या आपत्तियाँ आती हैं - यदि इस बात की विशेष जिज्ञासा हो तो लेखक की अन्य कृति 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' के व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर' नामक प्रकरण में दूसरे प्रश्न से छठवें प्रश्न तक के प्रकरण का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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