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________________ 389 गाथा ४६ व्यवहारनय के नहीं बताये जाने पर और परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताये जाने पर, जिसप्रकार भस्म को मसल देने पर भी हिंसा नहीं होती; उसीप्रकार त्रस - स्थावर जीवों को निशंकतया मसल देने पर भी, कुचल देने पर भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इसीकारण बंध का भी अभाव सिद्ध होगा । दूसरी बात यह है कि परमार्थ से जीव को राग-द्वेष- मोह से भिन्न बताये जाने पर 'रागी-द्वेषी-मोही जीव कर्म से बंधता है, अतः उसे छुड़ाना' इसप्रकार के मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जाने से मोक्ष का भी अभाव हो जावेगा । ― इसप्रकार यदि व्यवहारनय नहीं बताया जाय तो बंध और मोक्ष दोनों का अभाव ठहरता है । " - आत्मख्याति में प्रतिपादित उक्त विषयवस्तु को सरस- सुबोध भाषा में स्पष्ट करते हए भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं " परमार्थनय तो जीव को शरीर तथा राग-द्वेष- मोह से भिन्न कहता है । यदि इसी का एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा राग-द्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे तो फिर पुद्गल का घात करने से हिंसा नहीं होगी तथा राग-द्वेष- मोह से बन्ध नहीं होगा। इसप्रकार परमार्थ से जो संसार - मोक्ष दोनों का अभाव कहा है, एकान्त से यह ही ठहरेगा; किन्तु ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है । अवस्तु का श्रद्धान- ज्ञानआचरण अवस्तुरूप ही है, इसलिए व्यवहारनय का उपदेश न्यायप्राप्त है। इसप्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध मिटाकर श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है । " गाथा, आत्मख्याति और जयचन्दजी के भावार्थ सभी में अध्यवसानादिभावों को व्यवहार से जीव कहने की आवश्यकता और उपयोगिता पर जो भी प्रकाश डाला गया है; उसमें दो बातें स्पष्ट होती हैं —
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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