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________________ समयमार अनुशीलन समयसार की दूसरी गाथा में दर्शन. ज्ञान और चारित्र में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है और प्रवचनसार में आत्मस्वभाव में स्थित जीव को स्वसमय कहा गया है। इसीप्रकार समयसार में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित जीव को परसमय कहा गया है और प्रवचनसार में पर्यायों में निरत आत्मा को परसमय कहा गया है । 34 1 उक्त दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं हैं, मात्र अपेक्षा भेद है आत्मस्वभाव में स्थित होने का नाम ही दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होना है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण की पर्यायें जब आत्मस्वभाव के सन्मुख होकर परिणमित होती हैं, तब सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र प्रगट होते हैं; उसी को आत्मस्वभाव में स्थित होना कहते हैं और उसी को दर्शन - ज्ञान - चारित्र में स्थित होना कहते हैं । समयसार की आत्मख्याति टीका में पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित होने का अर्थ मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकत्व स्थापित कर परिणमन करना किया है और प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में पर्यायों में निरत का अर्थ करते हुए मनुष्यादि असमानजाति द्रव्यपर्यायों में एकत्वरूप से परिणमन करने पर विशेष बल दिया है । तात्पर्य यह है कि परसमय की व्याख्या में आत्मख्याति में मोहराग-द्वेषरूप आत्मा के विकारी परिणामों के साथ एकत्वबुद्धि पर बल दिया है, तो तत्त्वप्रदीपिका टीका में मनुष्यादि असमानजाति द्रव्यपर्यायों के साथ एकत्वबुद्धि पर बल दिया है । आत्मख्याति में उपचरित - सद्भूतव्यवहारनय के विषय को लिया है, तो तत्त्वप्रदीपिका में अनुपचरित- असद्भूतव्यवहारनय के विषय को लिया है । रागादि के साथ एकता की बात उपचरितसद्भूतव्यवहारनय कहता है और मनुष्य देहादि के साथ एकता की बात अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय कहता है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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