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________________ समयसार अनुशीलन (५) असंयुक्त विशेषण के माध्यम से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को रागादि विकारी पर्यायों से असंयुक्त बताया गया है, भिन्न बताया गया है। इस बात को गर्म जल के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है । 180 यद्यपि जल स्वभाव से तो ठंडा ही है, तथापि यदि वह अग्नि के संयोग में रहे तो गर्म हो जाता है। जब वह गर्म होता है, तब भी स्वभाव से तो ठंडा ही रहता है। तात्पर्य यह है कि वह अपने शीतलस्वभाव को कभी छोड़ता नहीं है । यद्यपि यह बात भी सत्य है कि कोई व्यक्ति जल के शीतलस्वभाव से अभिभूत होकर खोलते हुए गर्म पानी में हाथ डाल दे तो जले बिना नहीं रहेगा: तथापि यह भी सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति जल को गर्म जानकर उसका पीना ही बन्द कर दे तो भी प्यासा ही रहेगा। जिसप्रकार शीतलता जल का स्वभाव है और गर्म होना संयोगीभाव है, विभावभाव है; उसीप्रकार रागादि से असंयुक्त रहना आत्मा का स्वभाव है और रागादि से संयुक्त होना आत्मा का विभावभाव है । शुद्धनय का विषय स्वभाव ही होता है; अतः शुद्धनय का विषयभूत आत्मा रागादि से असंयुक्त ही है । इसप्रकार शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को उक्त पाँच विशेषणों में से एक विशेषण के माध्यम से अर्थात् अबद्धस्पृष्ट विशेषण के माध्यम से पर से भिन्न, एक विशेषण के माध्यम से अर्थात् अविशेष विशेषण के माध्यम से गुणभेद से भिन्न एवं शेष तीन विशेषणों के माध्यम से पर्यायों से भिन्न बताया गया है। पर्यायों में अनन्य विशेषण के माध्यम से नर-नारकादि असमानजातीय व्यंजनपर्यायों से भिन्न, नियत विशेषण के माध्यम से षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप स्वभाव अर्थपर्यायों से भिन्न एवं औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक भावों से भिन्न एवं असंयुक्त विशेषण से औदयिक भावों से, रागादि विकारी भावों से भिन्न बताया गया है 1
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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