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________________ समयसार अनुशीलन 400 (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रस नहीं चखता; अतः अरस है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक रसवेदना परिणाम को पाकर रस नहीं चखता; अत: अरस है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरस है। - इसप्रकार छह प्रकार के रस के निषेध से आत्मा अरस है। (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में रूपगुण नहीं है; अत: जीव अरूप है। (२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी रूपगुण नहीं है; अत: जीव अरूप है। (३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रूप नहीं देखता; अतः अरूप है। (४) स्वभावदृष्टि से जीव क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है, इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रूप नहीं देखता, अत: अरूप है। (५) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल रूपवेदना परिणाम को पाकर रूप नहीं देखता; अत: अरूप है। (६) समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होने पर भी सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रूप के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रूपरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरूप है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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